स्मारक / भैरवप्रसाद गुप्त

Gadya Kosh से
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तभी से बूढ़ा पागल हो गया। घर में विधवा बहू की सूखी आँखों को अपनी लाल-लाल, भयावनी आँखों से, जब तक वह घर में रहता है, घूरता रहता है। घूरते-घूरते अचानक ज़ोर-ज़ोर से बिलख-बिलखकर रो पड़ता है। बूढ़ी आँखों से आँसुओं की धारें बहती देख विधवा के दिल के ज़ख्मों के टाँके टूट जाते हैं। उसकी सूखी आँखों में बड़ी कठिनाई से सूखे मानस के बचे-खुचे आँसू के कण निचुडक़र, अँधेरी रात में बालू के कण की तरह चमक उठते हैं। वह हृदय की असह्य पीड़ा को लिये बूढ़े के सामने से हट जाती है। तब बूढ़ा अचानक ही भागकर, घर के बाहर गली में खड़ा हो, दोनों हाथों की मुटि्ठयाँ हवा में उठा, गले का सारा ज़ोर लगाकर चीख पड़ता है-इंक़लाब जि़न्दाबाद! इंक़लाब जि़न्दाबाद!...

बूढ़े की परिचित आवाज़ सुन, पास-पड़ोस के लडक़े अपने-अपने घर से भराभर निकल पड़ते हैं और बूढ़े को चारों ओर से घेर, उसी की तरह हवा में मुठ्ठियाँ उठा-उठाकर, गला फाड़-फाडक़र चिल्ला उठते हैं-इंक़लाब जि़न्दाबाद! इंक़लाब जि़न्दाबाद! ...

बूढ़ा छाती का पूरा ज़ोर लगा-लगा, हुमक-हुमककर, हवा में मुठ्ठियाँ लहराता, इंक़लाब के नारे लगाता, आगे बढ़ता है और लडक़ों के नारे लगाता झुण्ड उसके पीछे-पीछे! गाँव की गली-गली, घर-घर, कण-कण को वह उन नारों से गुँजा देता है। गाँव के सारे लडक़े उसके झुण्ड में मिल जाते हैं और लोग अपने-अपने घरों के द्वार पर आ-आ, उस दृश्य को आँखों में आँसू और हृदय में आहों का धुआँ भरे हुए देखते हैं। बीच-बीच में कभी-कभी बूढ़ा लडक़ों के झुण्ड की ओर अचानक मुडक़र, अपने दोनो हाथों को बन्दूक की तरह तानकर बोल पड़ता है-ठाँय! ठायँ! -लडक़े ठिठककर, पैर जमा, सीना तान-तानकर खड़े हो जाते हैं। और सीनों पर मुटि्ठयाँ मार-मार, आँखों से घूरते हुए चिल्ला पड़ते हैं-मारो! मारो!

पागल बूढ़ा! पागलपन का उसका नाटक! पर दरवाजों पर खड़े लोगों के रोंगटे क्यों खड़े हो जाते हैं? क्यों उनकी आँखों में एक आशंका उभरकर थर्रा उठती है?

पहले-पहल बूढ़े ने जब इस तरह किया था, तो लडक़े भय के मारे भाग खड़े हुए थे। तब बूढ़े की धँसी आँखें मारे क्रोध के बाहर निकल आयी थीं। उसने चीखकर कहा था-बुजदिलों! तुम मेरे क़दम पर चलने के क़ाबिल नहीं हो! तुम्हें यह इंक़लाब का नारा लगाने का हक़ नहीं है! तुम कायर हो, तुम बुज़दिल हो! कायरों और बुज़दिलों के लिए इंक़लाब नहीं है! इंक़लाब मेरे बेटे-जैसे बहादुरों और जाँबाजों के लिए है, जो खुश-खुश मुल्क पर कुरबान हो जाते हैं!-और मारे घृणा के उसका चेहरा विकृत हो, वीभत्स हो उठा था।

लडक़ों ने उसकी बातें सुनी थीं। समझी भी थीं, यह कैसे कहा जा सकता है? नादान बच्चे! गुड़ियों और घरौंदों से खेलने वाले बच्चे! गोलियों और सीनों का खेल वे क्या जानें? मुल्क और कुरबानी का खेल वे क्या जानें? वे सहमी आँखों से उसकी ओर देखते-भर रह गये थे। तभी उनमें से एक बड़े, कुछ समझदार लडक़े न आगे बढ़, लडक़ों को सम्बोधित करके कहा था-नया खेल! बन्दूकों और सीनों का खेल! मुल्क और कुरबानी का खेल! आओ, आओ! हम यह नया खेल खेलें!-कहकर, वह सीना ताने अकडक़र चलता हुआ आगे बढ़ा था, और लडक़ों का झुण्ड उसके पीछे-पीछे।

बूढ़े ने आँखें फाडक़र, सामने आते हुए लडक़ों को सीतान ताने हुए देखा था तो वह जोश से भडक़ कर चीखा था-शाबाश! शाबाश! मेरे मुल्क के बहादुर बच्चों, शाबाश!-और उसकी आँखें एक आश्चर्यजनक खुशी से चमक उठी थीं। उसने दुगुने जोश से नारा लगाया था-इंक़लाब!

और लडक़ों ने भी उससे दुगुने जोश से कहा था-जि़न्दाबाद!

उस समय जमीन काँप गयी थी। आसमान गरज उठा था। दरवाज़े से देखती अनगिनत आशंका-भरी आँखों में एक प्रश्न काँपकर पूछ गया था-यह कैसा खेल? यह कैसा नाटक?

तभी से पागल बूढ़े के पागलपन का यह खेल चल रहा है, यह नाटक चल रहा है। और लोगों की आशंका-भरी आँखों में वह प्रश्न काँप-काँप पूछ जाता है-यह कैसा खेल? यह कैसा नाटक?-और उत्तर में उस बूढ़े की कही हुई बात ही उनके कानों में गूँज उठती है-इंक़लाब मेरे बेटे-जैसे बहादुरों और जाँबाजों के लिए है, जो हँसते-हँसते दुश्मन की गोलियों को सीनों पर ले लेते हैं, जो खुश-खुश मुल्क पर कुरबान हो जाते हैं!-तो क्या यह पागल बूढ़ा चाहता है, कि उसके बेटे की ही तरह ये नन्हें-मुन्ने लाडले भी ... और उनकी आँखों के सामने बूढ़े के बेटे, रनवीर, की खून में लथपथ लाश नाच उठती है, उसके साहसपूर्ण बलिदान ...

अगस्त, सन् १९४२! क्रान्ति के दिन! बलिदान के दिन?

ग्यारह अगस्त! सूर्योदय का समय! थाने के सामने मंडल के गाँवों के हज़ारों नौजवान समुद्र की तरह मर्यादा में बँधे, पर प्रति क्षण सीमा-उल्लंघन कर सारे संसार को जल-प्लावित कर देने को उद्यत! आँखों से लपटें निकल रही हैं। पुतलियों की चमक में बिजलियाँ कौंध रही हैं! भौंहों के बल में खंजर लचक रहे हैं। जोश से चेहरे तमतमा रहे हैं। सीनों की धडक़नों में विद्रोह छटपटा रहा है। उबलते खून की तेज़ रवानी से फूल आयी रंगों की फडक़नों में विस्फोट मचल रहा है। काले जुल्मों से छलनी हुए हृदयों में बदले की भावना भडक़ रही है। अपमान और अत्याचार की भठ्ठी में भुनते हुए शरीर सब्र खो रहे हैं। नारों के गर्जन से दिशाएँ फट रही हैं। हवा में तनी हुई फौलादी मुटि्ठयाँ आज़ादी के हत्यारों की गर्दनें तोड़ देने को उतावली हो रही हैं। खून-भरे नेत्र की तरह आकाश से गुज़रते हुए नये सूर्य की लाल किरणों के लाहित प्रकाश में अनगिनत तिरंगे एकरंगे हो क्रान्ति की असंख्य लपटों की तरह ग़ुलामी के गढ़ों केा निगल जाने को लपलपा रही हैं। पर क़दम रुके हुए हैं। बापू की अहिंसा और सत्याग्रह की मर्यादा ज़ंजीर बन उनके पैरों को बाँध हुए है। रनवीर, मंडल के सभापति, की आज्ञा पहाड़ की तरह उनके सामने खड़ी है। आज़ादी के वीर सत्याग्रही का उल्लंघन ही कैसे कर सकते हैं?

थाने की छत पर दारोग़ा औैर नायब खड़े हैं। उनके अग़ल-बग़ल एक दर्जन किरचें चमक रहीं हैं। सशस्त्र पुलिस वालों की अंगुलियाँ राइफ़लों के घोड़ों पर काँप रही हैं। उनकी आँखों में खौफ थर्रा रहा है। जि़न्दगी और मौत का सवाल है। इनी-गिनी राइफ़ले और सामने हज़ारों का मजमा, क्षुब्ध सागर की तरह अपनी विकराल लहरों की चपेट में सब-कुछ आत्मसात कर लेने को उद्यत!

रनवीर ने आगे बढ़, सिर उठाकर दारोग़ा की ओर देखते हुए कहा-आप नीचे उतरकर जनता से माफ़ी माँग लें। आपने हमारे झण्डे, राष्ट्र्र के तिरंगे का अपमान किया है। जनता क्षुब्ध है। वह अपने प्राणों से भी प्यारे झण्डे का अपमान किसी भी हालत में बरदाश्त नहीं कर सकती! वह उसके अपमान का बदला अपने खून की आखिरी बूँद तक दे, चुकाने को तैयार है! आप झूठे और मक्कार हैं! जिस झण्डे को आपने कल इन-सबके सामने सलामी दी, उसी को अपने बूटों से, सशस्त्र पुलिस की कुमक पहुँच जाने पर, रौंदकर आपने हमारे राष्ट्रीय झण्डे, हमारी जनता, हमारे राष्ट्र्र हमारी कांग्रेस के प्रति अपनी गद्दारी का परिचय दिया है। ग़द्दारों की सजा मौत है। लेकिन हमारे नेताओं ने जनता को ग़द्दारों के लिए यह सजा देने का अधिकार नहीं दिया है! फिर भी क्रुद्ध जनता किस सीमा तक बढ़ सकती है, इसकी कल्पना आप इस मजमें को देखकर कर सकते हैं। आपको अपने सिपाहियों और राइफ़लों की ताक़त का बहुत ग़लत अन्दाज़ा है! आप भला चाहते हैं, तो नीचे उतरकर जनता से माफी माँग लें। आप हिन्दुतानी होने के नाते भाई हैं। आपको क्षमा कर देने के लिए मैं जनता से सिफारिश करूँगा!

-नहीं, नहीं, हम गद्दार के खून से अपने झण्डे पर पड़े अपमान के धब्बों को धोएँगे!- हज़ारों कडक़ती आवाज़ें मजमे से एक साथ गरज उठीं।

थाने की दीवारों की ईंट-ईंट लरज उठी। दारोग़ा, नायब और सिपाहियों की भयभीत आँखों के सामने फैली हुई मजमे की लाल-लाल तरेरती आँखें मौत की आँखों की तरह शरीर की बोटी-बोटी को सर्द करती हुई चमक गयीं।

-रनवीर जी!-दारोग़ा के सूखे गले से जगह-जगह अटकती, काँपती आवाज़ आयी-आप देख रहे हैं न मजमे को। मुझे डर लग रहा है। मैं उनके सामने नहीं जा सकता! आप इन्हें जाने को कह दें। फिर आप जो कहेंगे, मैं करने को तैयार हूँ।

-नहीं-नहीं! हम ग़द्दार का सिर तोड़े बिना नहीं जा सकते!-मजमा चीख उठा! मुठ्ठियाँ हवा में लहरा उठीं। नथुने फडक़ उठे। पीछे से ज़ोर हुआ। मर्यादा के बाँध टूटते-से लगे।

रनवीर ने मजमे की ओर मुडक़र कहा-आप शान्त रहें!-फिर दारोग़ा की ओर घूमकर कहा-मैं जनता को समझता हूँ। भोली-भाली देहाती जनता जितनी जल्द चकमें में आ जाती है, विश्वासघात करने पर उतनी ही जल्द क्षुब्ध भी हो उठती है। आपने उनके साथ विश्वासघात किया है। वे क्षुब्ध हैं। उनकी क्षुब्धता का क्या परिणाम होगा, मैं जानता हूँ। फिर भी मेरी बात मानकर वे इस नर्म शर्त पर आपको माफ़ कर देने को मुझे वचन दे चुकेहैं। अब वे आपके चकमे में नहीं आ सकते। एक बार के किये हुए अनुभव को वे दुहराना नहीं चाहते। आप मुझपर विश्वास कर, नीचे आ, इनसे माफ़ी माँग लें। वरना हमें जो करना होगा, हम करेंगे। आज इस झण्डे को हम थाने की छत पर, जहाँ आप अपनी पूरी ताक़त लिये खड़े हैं, फहराएँगे। और देखेंगे कि किसकी शक्ति है, जो हमें रोकती है; किसकी हस्ती है, जो हमारे झण्डे पर हाथ लगाती है! इंकलाब!

-जिन्दाबाद!-मजमे के चिग्घाड़ से वायुमण्डल के तनाव में जैसे चीरे पड़ गये। दिशाएँ काँप उठीं! ज़मीन दहल गयी। पीछे के नौजवानों ने ज़ोर मारा। विकराल लहरों की तरह जनता आगे फटती-सी लगी। अब क्या होगा, क्या होगा?

रनवीर जानता था कि ऐसे में क्या होता है। एक हाथ की ओर उठाये, मुडक़र वह आँखें उठा, दारोग़ा की ओर देखकर, कुछ कहना चाहता था, कि देखा, उधर राइफ़लें तन गयी थीं। दारोग़ा और उसके सिपाहियों की कमबख्ती उनके सिरों पर मँडरा रही थी। वे भूखे, घायल शेरों को छेडऩे पर उतारू थे। दारोग़ा जानता था कि ये नौजवान नहीं, शोलों के पुतले हैं, क़हर के टुकड़े हैं, और उन्हें छेडऩे का क्या मतलब होता है। पर अब बात बढ़ गयी थी। उसके चारों ओर मौत-ही-मौत दिखायी देती थी। इस हालत में वह एक बार बचने की कोशिश कर देखने से क्यों चूके? शायद ... उसके पिछले अनुभवों ने उसके कानों में चुपके से कहा कि हर बार की तरह ये अबकी भी गोली की आवाज़ सुन भाग खड़े होंगे। उसे क्या मालूम था, कि अबकी नौजवानों का मजमा गोली क्या एक बार वज्र से भी टक्कर लेने को उधार खाये बैठा था। उसने जैसे सामने मुँह खोले आते हुए क्रुद्ध शेर को देख, आँखें मूँदकर, गोली चलाने का हुक्म दे दिया। गोलियँ तड़ातड़ चलने लगीं।

रनवीर के लिए अब कुछ सोचने-समझने का मौक़ा ही कहाँ रहा? गोलियों की बौछार में अहिंसा की मर्यादाएँ जलकर भस्म हो गयीं। क्षुब्ध जनता खूँखार हो उठी।

रनवीर ने नारा लगाया-इंक़लाब!

और ‘जि़न्दाबाद’ का नारा दे जनता ने पागल होकर थाने पर थावा बोल दिया। थाने को चारों ओर से घेर, ईंट-पत्थर जो भी उनके हाथ लगा, उसी से वे थाने की खुली छत पर खड़े दारोग़ा और सिपाहियों को निशाना बनाने लगे। एक दर्जन सिपाही और अनगिनत जनता चारों ओर से प्रहार करती हुई। फिर भी गोलियाँ चलती रहीं, ईंट-पत्थर बरसते रहे। सब जैसे उस समय अन्धे हो गये थे। अपनी बगल में देखने तक की फुरसत किसी को न थी। कौन गिर रहा है, किसे चोट आयी है, कहाँ खून की धारें बह रही हैं, किसी को कुछ पता न था।

करीब पैंतालिस मिनट तक ऐसे ही चलता रहा। आखिर थाने की पूरी छत ईंटों और पत्थरों से पट गयी। अब कोई सिर उस पर दिखायी न दे रहा था। राइफ़लें शान्त हो गयी थीं। रनवीर ने विजय का नारा लगाया। जनता ने विजयोल्लास में पागल हो, गज-गजभर उछलकर, विजय के नारों की गूँज से आसमान का कोना-कोना भर दिया। वायुमण्डल खुशियों के हलकोरों से झूम उठा। ऊपर आकाश में सूर्य मुस्करा रहा था।

रनवीर को तब अपने लोगों की चिन्ता हुई। उसने घायलों को ढूँढऩे का आदेश दिया। लोगों को जैसे अब खयाल आया कि थोड़ी देर पहले उन पर गोली भी चली थी।

ढूँढऩ पर मालूम हुआ, कि जहाँ वे पहले खड़े थे, वहीं करीब अस्सी नौजवान घायल हुए थे। उनमें भी किसी को संगीन चोट नहीं लगी थी। शहीद कोई नहीं हुआ था। ऊपर खुली छत से, ईंटों और पत्थरों के निशानों से बचकर, नीचे जनता पर गोली चलाना असम्भव था। यह बात दारोग़ा के ख़ याल में नहीं आयी थी। और जनता को ही यह बात कहाँ मालूम थी?

सब साथी सुरक्षित हैं, यह जानकर विजय का उल्लास और बढ़ गया।

अब थाने की छत पर झण्डा फहराया जाए। सभापति की बात पूरी हो!-जनता चिल्ला उठी।

अन्दर से बन्द थाने का फाटक टूटते ही देर न लगी। आगे-आगे रनवीर तिरंगा हाथ में लिये और उसके पीछे-पीछे जानता। छोटी छत पर जितने समा सकते थे, चढ़ गये। बाकी लोग नीचे थान के सामने खड़े हो, झण्डा-अभिवादन के लिए खड़े हो गये।

छत पर सारे सिपाही और दारोग़ा ईंट-पत्थरों की कब्र में दबे पड़े थे। न एक भी आह, न एक भी कराह। सब शान्त।

-इनकी खबर हम झण्डा-अभिवादन के बाद लेंगे-रनवीर ने कहा, और झण्डा लिये छत के सामने बढ़ गया।

लोग झण्डा-अभिवादन के लिए एकाग्र चित्त हो, अदब से खड़े हो गये।

रनवीर छत की मुँडेर से झण्डे का डंडा बाँध रहा था। और लोग देश-प्रेम के नशे में झूमते हुए , तिरंगे पर दृष्टि टिकाये, गा रहे थे-

विजयी-विश्व तिरंगा प्यारा

झण्डा ऊँचा रहे हमारा ...

झण्डा लहरा रहा था। वातावरण झूम रहा था। सूर्य की चमकीली किरणें झण्डे पर पड़ मुस्करा रही थीं। लोगों की अधमुँदी, ध्यानावस्थित आँखों में राष्ट्रीयता का अमृत पलकों तक उमडक़र छलकने को उद्यत हो रहा था। होंठों से आत्मा के अनुराग से फूटा स्वर निकल रहा था-

इसकी शान न जाने पाये ...

रनवीर ने झण्डे को बाँधकर, सिर उठा, दुहराया-इसकी शान न जाने पाये!

लोगों ने जोश से लहराते झण्डे की ओर हाथ उठाकर गाया-इसकी शान न जाने पाये!

रनवीर ने छाती ठोंककर आगे गाया-चाहे जान ...

सहसा एक जोर का धड़ाका हुआ। एक बिजली-सी रनवीर की छाती के पास कौंध उठी। रनवीर का छाती ठोंकता हाथ छाती पर ही दबा रह गया। उसके मुँह से खून निकला और उसके झण्डे के डण्डे पर गिरकर दोनों हाथों से उसे थाम लिया। लोग एकाएक बेसुध-से-हो-हो उसकी ओर लपके, कि कमजोर डण्डा चरमरा कर टूटा और रनवीर झण्डे को लिये-दिये नीचे आ रहा। नीचे के लोग उसकी ओर आशंका-भरी आँखों से देख रहे थे। उन्होंने रनवीर को जमीन पर गिरने के पहले ही बीच में ही फूल की तरह लोक लिया। रनवीर की छाती से खून की धार बहती देख, लोगों के मुँह से आहों में लिपटी हुई चीखें निकल गयीं।

ऊपर के लोगों ने गुस्से में भर, धुएँ के बादल के नीचे ईंट-पत्थरों में दबी लाशों की ओर देखा। उधर के कोने में ईंटों के बीच से दो खून की धारों में डूबी हुई आँखें झाँक रही थीं और उसके ज़ख्मी हाथ की पिस्तौल की नली ऊपर उठी हुई साफ दिखायी दे रही थी। लोगों को पहचानते देर न लगी कि वह दारोग़ा था। वे उसकी ओर लपके। उनको अपनी ओर आते हुए देख, उसने एक जोर का अट्टहास किया और दूसरे ही क्षण अकडक़र लम्बा हो गया। उसके ऊपर पड़े ईंट-पत्थरों में एक हल्की खडख़ड़ाहट हुई और उसने दम तोड़ दिया।

ईंटे हटा उसे देखकर, एक ने कहा-मर गया गद्दार! मगर इन गद्दारों की लाशें भी ... आग लगा दो थाने में! भून दो इन गद्दारों की लाशों को! इनकी लाशें भी भारत माता की छाती पर गद्दारी के पाप का बोझ बनी रहेंगी!

देखते-देखते लपटें लपलपा उठीं।

दस-पन्द्रह आदमी घायल और बेहोश रनवीर को फूल की तरह उठाये हुए वहाँ से दो कोस पर परगने के अस्पताल की ओर जा रहे थे। उस अवस्था में उसे उसके घर ले जाना उचित न था। उन्होंने एक बार पीछे की ओर मुडक़र देखा, थाने के उुपर रंग-रंग के धुओं और शोलों की लपटें हू-हू करके उठ रही थीं, जैसे राष्ट्र्र का तिरंगा ही उन धुओं और विकराल लपटों का रूप धारण कर, उस जुल्म के अड्डे को जलाता हुआ आकाश में लहरा रहा हो। उनके मुँह से आप-ही-आप निकल गया-क्षुब्ध जनता आज गुलामी के चिन्हों को एक-एक कर मिटा देगी, आज तक किये गये अत्याचारों केा बदला लेकर ही दम लेग, आजादी के हत्यारों को लपटों में भूल डालेगी, देश पर जमी विदेशी सत्ता की जड़ हिलाकर छोड़ेगी और जब तक इस ज़ालिम हुकूमत के शव को खड़े-खड़े शोलों में न जला देगी, चैन लेगी!

एकलौटे बेटे का समाचार सुन बूढ़े पिता का मस्तिष्क सुन्न हो गया। वह उसी क्षण अस्पताल की ओर पागल की तरह दौड़ पड़ा। उसकी सहायता के लिए तीन-चार युवक भी उसके पीछे-पीछे हो लिये। रनवीर की बहू को जब यह खबर मिली, तो उसने एक बार सफेद पड़ी आँखों से अपने सामने खड़े लोगों को देखा और दूसरे ही क्षण कटे धड़ की तरह ज़मीन पर गिर पड़ी।

अस्पताल पहुँचने पर डाक्टर से मालूम हुआ कि उसके छोटे अस्पताल में सांघातिक रूप से घायल हुए रनवीर की चिकित्सा होना असम्भव था। इसलिए उसने उन्हें घायल को सदर के अस्पताल में ले जाने की राय दी थी। लोग रनवीर को लेकर घाट गये हैं।

शोकाग्रस्त बूढ़े बाप के साथ-साथ सब घाट की ओर चल पड़े। वहीं मालूम हुआ कि आधा घण्टे पहले ही रनवीर को लोग ले गये हैं। उन्होंने भी नाव ले, चलने को तय किया, कि एक मल्लाह ने दूर नदी की धार में देखते हुए कहा-वही भोलवा की नाव लेकर तो वे लोग आ गये थे। अब तो इधर ही लौटती दीख रही है। थोड़ी देर तक आप लोग यहीं बैठें वह नाव आपस आ रही है।

नाव आपस आ रही है! क्यों? क्या रनवीर ... सबका हृदय आशंकाओं से भर गया। बूढ़ा खड़ा-खड़ा एक टक आती हुई नाव को देख रहा था। उस समय उसके चेहरे की झुर्रियों में कैसे-कैसे भाव करवटें ले रहे थे, उसके कभी-कभी फडक़ जाते होंठों पर हृदय की किस व्यथा का आवेग तड़प उठता था, उसकी सूखी, धँसी आँखों में आशा और निराशा के कैसे-कैसे रंग उभर मिट रहे थे, इसका वर्णन यदि क्षण-क्षण उसका चित्र खींचने वाला कोई कैमरा होता, तो शायद उन चित्रों की ज़बानी हो सकता।

रनवीर की छाती में कई गोलियाँ लगी थीं। जब से वह गिरा था, एक क्षण को भी वह होश में न आया था। एक बार भी उसकी पलकें न हिली थीं। उसके सारी परगने के डाक्टर की बाँधी पट्टी पर पाँच-पाँच मिनट में अपने अँगौछे और धोती के टुकड़े बदल-बदलकर बाँधते जा रहे थे। पर खून इतने ज़ोर से निकल रहा था कि पट्टी के ऊपर बाँधे हुए कपड़े भीग-भीग जाते थे।

नाव पर उन्होंने चार मल्लाह रखे थे, ताकि जल्दी-से-जल्दी सदर अस्पताल पहुँच जाएँ। बड़ी तेजी से नाव बरसात की उमड़ी नदी की धार में जा रही थी कि सहसा रनवीर के शरीर में एक कँपकँपाहट हुई। उस पर टिकी सबकी आँखों की पलकें एक क्षण को झपक-सी गयीं। अब होश आयेगा शायद। उत्सुक हो वे उसके हाथ, पैर, सिर को हाथों से सहलाने लगे। रनवीर की स्याह पड़ी पलें हिलीं और काँपी, फिर धीरे-धीरे खुलने लगीं। उसकी पथरायी आँखों की स्थिर पुतलियों को देख, सबका कलेजा थक-से कर गया। पुतलियों के निस्पन्द हो जाने के कारण ही शायद रनवीर ने सीधे से सिर घुमाकर, एक बार पश्चिमी आकाश में डूबते हुए सूर्य की ओर देखा। फिर सिर ही घुमाकर उसने अपने तीनों ओर देखा। साथी अपने हृदय की धडक़न रोके, आँखों में आशंका लिये, उसे अपलक आँखों से देख रहे थे। उस वक़्त तूफ़ानी, जोर-शोर से बहती हुई नदी भी जैसे शान्त हो गयी थी, सरसर बहती हवा भी जैसे ठिठक गयी थी, धारा के शोर से गूँजता हुआ वायुमण्डल भी जैसे शान्त हो गया था। प्रकृति भी रनवीर की ओर सकते में आ, एकटक निहार रही हो।

रनवीर के सूखे होंठों में हरकत हुई। एक ने नदी से पानी ले, टप-टपकर उसके होंठों पर चुआ दिया। रनवीर ने सूखी ज़बान को जैसे ज़ोर लगाकर, निकालकर होंठों पर फेरो। सहसा उसकी आँखों की पुतलियाँ एक बार ज़ोर से चंचल हो चमक उठीं। होंठ ज़ोर से काँपने लगे, जैसे वह कुछ बोलने का प्रयत्न कर रहा हो, पर सूखे गले से आवाज़ न निकल रही थी। फिर लगा, जैसे ज़ोर लगाकर, वह खाँसकर गला साफ करना चाहता हो। गले में सरसराहट हुई। फिर जैसे गले के तारों मे खरखराहट हुई। वह धीरे-धीरे साँस की ही आवाज़ में, आँखों में ऐसा भाव लिये, बोलने लगा, जैसे वह जो-कुछ कह रहा है; वह उवके जीवन की आखिरी बात हो, जिसको कहे बिना वह चैन से मर भी नहीं सकता, जैसे उसे ही कहने के लिए अब तक उसके प्राण, उसकी आत्मा छटपटाती रही हो।

साथियों ने साँस रोक, कान उसके मुँह पर टिका दिये।

रनवीर कह रहा था-ह...मा...रा...तिरंगा...

एक साथी ने उसका मतलब समझ रहा है-हाँ, हमारा तिरंगा थाने पर फहरा रहा है। आज जिस आग, शोलों और लपटों का रूप धारण करके फहरा रहा है उससे वह थाना ही नहीं, देश के सारे थाने और जेल जल रहे हें! हमें अब आज़ाद होने से कोई नहीं रोक सकता! अब हम आज़ाद हो जाएँगे, आज़ाद!

-आज़ाद!-रनवीर जैसे उखड़ते प्राणों का ज़ोर समेटकर बोल पड़ा। उसकी पथरायी आँखें मुस्करा उठीं। चेहरे पर असीम उत्फुल्लता की आभा चमक गयी। पेशानी दमक उठी। उसने एक बार फिर जैसे निकलते प्राणों को शक्ति लगाकर रोका और चिल्ला उठा-इंक़लाब जि़न्दाबाद! बन्दे! ...

-मातरम्!-साथियों ने पूरा कि या।

और रनवीर के प्राणों में जैसे पंख लग गये। वे नीड़ छोड़ मुक्त पंछियों की तरह खुश-खुश जैसे उड़ चले क्षितिज की ओर। साथियों के सामने पड़ा शान्त शहीद मुस्करा रहा था। उसके चेहरे से शहादत की हँसती किरणें फूट रही थीं, जो साथियों की आँसू-भरी आँखों में चमककर जैसे कह रही थीं-साथियों! यह रोने का अवसर नहीं, खुश होने का वक़्त है! शहादत बड़ी कीमती चीज है! देश के दीवाने हर कीमत पर इसका सौदा करने को तड़पते रहते हैं! पर यह कितने को मिली है?

सूरज का प्रकाशहीन गोला नदी में गोता लगा गया। आकाश में उड़ते रंग-बिरंगे बादलों के मिस जैसे आकाश के देवताओं ने शहीद का शव ढँकने के लिए तिरंगी चादर भेजी हो। उफनती नदी की लहरें उछल-उछलकर जैसे अपनी बौछारों से शहीद का मुँह धोने को उतावली हो रही हों। हवा के नरम झोंके जैसे शहीद के शरीर में चन्दन का लेप लगा रहे हों।

नाव लौटा पड़ी। साथी वन्देमातरम् का गान धीमे-धीमे गा रहे थे।

घाट पर खड़े बूढ़े और दूसरे लोग नाव पर सिर झुकाये बैठे हुए रनवीर के साथियों को देखकर ही जैसे सब-कुछ समझ गये। नाव अभी पानी में ही थी, कि बूढ़ा पागल-सा उसकी ओर दौड़ पड़ा। युवकों ने नाव से उतरकर, उसे सँभाला। आँखों में असीम व्याकुलता लिये, आकुल कण्ठ से बूढ़ा चीख पड़ा-मेरा बेटा!

-बाबा, आपको बेटा मातृभूमि पर शहीद ...

-बेटा! बेटा! व्याकुलता और व्यथा के आवेग में चीखता बूढ़ा युवकों की पकड़ को छुड़ा, नाव पर चढ़ गया और बेटे की लाश पर सिर पटक, बिलख-बिलखकर रो पड़ा।

काफ़ी देर बाद लोगों ने उसे उठाया। बूढ़े के आँसू बरसाती हुई आँखों का आश्चर्यजनक भाव देखकर लोगों का माथा ठनका। वे उसे समझाने लगे। बाबा, आपको रनवीर की शहादत पर गर्व होना चाहिए! ऐसा वीर पुत्र क्या सभी को मिलता है? मरना तो एक दिन सभी को होता है, पर इस तरह की अमर मृत्यु किसी को कहाँ प्राप्त होती है? वह हँसते-हँसते, खुश-खुश गया है, बाबा! भारत माता के चरणों में अपना बलिदान दे, वह अपने साथ ही आपको, आपके कुल को अमर कर गया! देश की आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में उसका नाम स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा! हमें उसकी शहादत पर गर्व है, देश को उसकी शहादत पर गर्व होगा, बाबा! काश आपने मरते समय का उसका मुस्कराता चेहरा, उसका असीम हर्ष देखा होता! काश, उसकी उत्फुल्लता की वह अमर वाणी आपने सुनी होती, तो आप इस तरह न रोते, इस तरह न तड़पते।

बूढ़े को आँसुओं में तैरती पुतलियों में कम्पन हुआ। उसने भरे गले से पागल की तरह उनकी ओर देखते हुए पूछा-क्या कहा था मेरे बेटे ने?

-कहा था, इंक़लाब जि़न्दाबाद! वन्देमातरम्! और उसकी यह आखिरी अमर निशानी है।-कहकर, युवक ने अपने अँगोछे से खोलकर, खून के धब्बों से भरा तिरंगा उसकी ओर बढ़ा दिया।

बूढ़े ने झपटकर उस झण्डे को हाथ में लिया, जैसे वह संसार में उसकी सबसे अधिक प्रिय वस्तु हो! उसने उसे खोलकर अजीब आँखों से देखा। फिर उसे चपतता हुआ होंठों-ही-होंठों में बुदबुदाने लगा-इंक़लाब जि़न्दाबाद! इंक़लाब जि़न्दाबाद!

धीरे-धीरे उसकी आवाज़ ऊँची और ऊँची होती गयी। वह निर्भाव आँखों से सामने क्षितिज की ओर देखता हुआ कहता जा रहा था-इंक़लाब! ...

लोग आश्चर्य मिश्रित दु:ख से उसकी ओर अपलक देख रहे थे। देखते-देखते बूढ़े की आवाज़ चीख में बदल गयी। वह अब चीख-चीखकर, हुमक-हुमककर, कहता जा रहा था-इंक़लाब...

लोगों ने उसे शान्त करने का सब प्रयत्न किया, पर बूढ़ा चुप न हुआ। वह चीखता जाता था-इंक़लाब...

लोगों का कहना है कि तभी से बूढ़ा पागल हो गया। तभी से उसका यह खेल शुरू है, उसका नाटक चल रहा है। पिता मरते वक़्त बेटे को कुछ सन्देश दे जाता है। यहाँ जैसे बेटा ही मरते वक़्त पिता को एक सन्देश दे गया। वह सन्देश है, इंक़लाब जि़न्दाबाद! यह सन्देश, यह मन्त्र ही जैसे बूढ़े का जीवन हो गया है। वह सन्देश ही जैसे चौबीस घड़ी उसके कानों में गूँजा करता है। और शायद वह चाहता है कि उसके उस मन्त्र से गाँव का, देश का कोना-कोना गूँज उठे। तभी तो वह सदा चिल्लाता रहा है-इंक़लाब ...

दमन के दौरान सारा गाँव वीरान हो गया। सब अपने प्राण ले-ले, कहीं-न-कहीं छिप गये, भाग गये। उसकी बहू को भी लोगों ने उसके मैके पहुँचा दिया। पर लाख प्रयत्न करने पर भी वह बूढ़ा गाँव से न हटा। उसकी आँखों के सामने ही घर लूट लिये गये, जला दिये गये, सब-कुछ नष्ट कर दिया गया। पर वह अपना सारा श्मशान में कापालिक की तरह घूम-घूमकर लगाता रहा। वहाँ लोग नहीं रहे तो क्या? गिरी-पड़ी, जली-अधजली मिट्टी की दीवारें तो हैं, उसके गाँव की, भारत माता की मिट्टी तो है। उन्हीं के कण-कण में जैसे गँुजा देना चाहता हो वह उन नारों को।

लोगों को आश्चर्य है, कि बूढ़ा उस दमन-चक्र से कैसे बच गया। शायद उसे पागल समझकर ही सैनिकों ने उसे अपनी गोली का निशाना न बनाया हो, वरना कौन नारे लगाने वाला उनकी गोली से बच पाता, जबकि कोई गाँधी टोपी पहनने वाला, खद्दर पहनने वाला न बचा?

खून, गम, आँसू , आग और विनाश की कितनी ही हृदय दहला देने वाली कहानियाँ भारत माता की छाती पर संगीनों की नोकों से लिख, अमिअ दाग छोड़ दमन समाप्त हुआ। देश की राजनीतिक स्थिति में शीघ्रता से परिवर्तन-पर-परिवर्तन होने लगे। पर उसे बूढ़े और विधवा में कोई परिवर्तन न दीखा। जैसे अब उनके लिए एक ही राह निश्चित हो गई हो! जैसे संसार के परिवर्तन से उन्हें कोई मतलब ही न हो। विधया यन्त्र की तरह, निर्जीव चलती-फिरती करुणा की मूर्ति की तरह सब काम पहले ही जैसा किये जा रही है। बूढ़े का खेल पहिले ही जैसा चल रहा है। हाँ अब वह आस-पास के गाँवों में भी जाने लगा है। वहाँ भी वही खेल, वही नाटक! उसके पीछे लडक़ों का वही झुण्ड, वही आसमान को कँपा देने वाले नारे!

लोग उन्हें देखकर सोचते हैं, क्या ये इसी तरह अपना जीवन बिता देंगे? क्या इनका दिमाग अब कभी न ठीक न होगा? वीरान हुआ गाँव फिर बस गया। जले हुए घर फिर बन गये। लुटी हुई वस्तुएँ फिर आ गयीं! देश के प्रान्तों में फिर कांग्रेस की सरकारें कायम हो गयीं। सब-कुछ फिर पहले ही जैसा हो गया। पर यह बूढ़ा, यह विधवा? ओह!

दिन बीतते गये! आखिर एक दिन वह भी आया, जब देश की जंजीरें टूट गयीं। देश की आज़ादी की तिथि निश्चित हो गयी। जुल्मों और गुलामी के अपमानों की ज्वाला में जलते राष्ट्र में पुनर्जीवन आ गया। जनता का सिर उठ गया। पेशानी चमक उठी। आँखों से हर्ष की किरण फूटने लगीं। होंठों पर स्वतन्त्रता मुस्करा उठी। साँसों में मुक्ति की सुगन्धि भर गयी। छाती खुशी से फूल उठी। प्राण-प्राण पुलक उठे। भारत की सदियों से कुचली भूमि अपनी चोटों को भुला लहलहा उठी। आसमान सदियों से छाये उदासी के बादलों का काला परिधान हटा, सुनील आभा की वर्षा करने लगा। रुँधा वायुमण्डल मुक्त हो झूम-झूम उठा।

लोगों ने यह समाचार जब बूढ़े और विधवा को सुनाया, तो सहसा उनकी भावहीन आँखों में कोई भाव चमक उठा। बूढ़ा पहली बार इतने दिनों के बाद अपने मुँह से एक दूसरा शब्द बोल पड़ा-सच?

-हाँ-हाँ, बाबा! तुम्हारे बेटे और उसके-जैसे हज़ारों शहीदों की कुरबानी आज सफल हुई! उनके अरमान आज तक बार आये! उनकी साधें आज पूरी हुईं! स्वर्ग में उनके लिए आज सबसे अधिक खुशी का दिन होगा। तुम भी खुश होओ, बाबा! तुम भी खुश होओ, बहू! यह हमारी खुशी का अवसर है!

सूखा फूल हँस सकता, मुरझाई कली मुस्करा सकती, तो उन्हें देखकर कदाचित बूढ़े की हँसी और विधवा की मुस्कान का अन्दाज़ा कुछ लगाया जा सकता। यह परिवर्तन बूढ़े और विधवा में! लोगों को आशा बँधी। अब बूढ़े का दिमाग ज़रूर ठीक हो जाएगा।

पन्द्रह अगस्त! आज़ादी का दिन! खुशी का दिन!

आज की सुबह, आज के सूरज, आज की हवा में कुछ और ही बात है। ऐसी मुक्त मुस्कान लुटाता हुआ सूरज कब निकला था? ऊषा के मुखड़े पर इतना निखरा हुआ रंग कब दिखायी दिया था? आकाश का वह सुहावना रूप कब दृष्टिगोचर हुआ था? हवा इतनी खुश गवार कब मालूम हुई थी? और बूढ़े-बूढ़ियों, युवक-युवतियों, लडक़े-लड़कियों, बच्चे-बच्चियों के चेहरों पर खुशी की यह चमक, आँखों में खुशी की यह झलक, होंठों पर खुशी की यह स्निग्ध मुस्कान, सीनों में खुशी की यह धडक़न, रोम-रोम में खुशी की यह पुलकन! खुशी, आज चारों ओर खुशी-ही-खुशी दिखायी देती है! आकाश खुशियों की वर्षा कर रहा है! जमीन कण-कण से खुशियाँ बिखेर रही है। खुशी, खुशी! आज देश में खुशी, देश के नगर-नगर, गाँव-गाँव में खुशी, नगरों की सडक़-सडक़ पर खुशी, गाँवों की गली-गली में खुशी, सडक़ों के घर-घर में खुशी, गलियों की झोंपड़ी-झोंपड़ी में खुशी, घरों के जन-जन में खुशी, झोंपड़ियों के प्राण-प्राण में खुशी! खुशी-खुशी! आज खुशी का दिन है! आज़ादी का दिन है!

गाँव का हर घर, हर झोंपड़ी रंग-बिरंगे कागज़ों की झंडियों से सजी है। खपरैलों की ओरियानियों से पल्लवों के बन्दनवार और तोरण लटक रहे हैं। द्वारों पर केले के पेड़ और कलश रखे हुए हैं। मुँडेरों पर तिरंगे लहरा रहे हैं।

इस स्वर्ण अवसर पर आजाद के त्यौहार की खुशी में गाँव वालों ने ‘रनवीर-स्मारक’ की स्थापना करने का निश्चय किया है। देश के एक प्रिय नेता भोले-भाले गाँव-वासियों की प्रार्थना-स्वीकार कर, शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित करने तथा उसके स्मारक की स्थापना करने के लिए पधारे हैं। गाँव के लोग उत्साह, उमंग और खुशी में पागल हो उठे हैं। जुलूस गाँव की गली-गली में चक्कर लगा, मन्दिर के बगल वाले मैंदान में जाएगा। वहीं स्मारक की स्थापना होगी।

-बहू-बहू! जल्दी कपड़े बदल ले! सारा गाँव जा रहा है। हम भी चलेंगे! आज खुशी का दिन, आजादी का दिन है, बहू! इसी दिन के लिए तो रनवीर ने अपनी कुरबानी दी थी। आज वह स्वर्ग से खुशी का यह त्यौहार, आज़ादी का यह त्यौहार देखने आकाश-मार्ग से आएगा। नेता उसके लगे में हार पहनाएगा, गाँव का हर आदमी उसके गले में हार पहनाएगा! हारों से लदा हुआ उसका मुस्कराता हुआ चेहरा ... बहू , जल्दी करो, बहू! मैं भी दो हार लाया हूँ , एक तुम्हारे लिए , एक अपने लिए! हम भी उसे हार पहनाएँगे, और ... और -कहकर, आँखों में खुशी के आँसू लिये, बूढ़ा एक ओर हट गया।

आज बूढ़े की खुशी की सीमा नहीं थी। विधवा की खुशी की सीमा नहीं थी। जुलूस के आगे-आगे वे खुशी के नशे में झूमते हुए चल रहे हैं। हर्ष-विह्वल आँखों में अपार ज्योति तरंगित हो रही है। असीम आनन्द की अनुभूति में हृदय की गति जैसे आप ही रुक-रुक जाती है। खुशी की मदहोशी में पैर ठिकाने नहीं पड़ रहे हैं। देश-प्रेम-भरे गीत गाती हुई अपार जनता उनके पीछे-पीछे राष्ट्र्रीयता की उमंग में दीवानी हुई चल रही है। जुलूस ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, भीड़ बढ़ती जाती है। जो भी आता है बूढ़े और विधवा के गले में हार पहनाकर उनके चरण-रज ले, माथे से लगा लेता है। पूजनीय शहीद के पिता और उसकी पत्नी भी पूजनीय हैं, देवता और देवीतुल्य हैं। बूढ़े और विधवा की हर्ष-विह्वल आँखें रह-रहकर आकाश की ओर उठ जाती हैं। आकाश-मार्ग से ही तो आएगा उनका प्राणों का प्यारा रनवीर, वह आज़ादी का, खुशी का त्यौहार देखने।

मैदान में पहुँच, जुलूस सभा में बदल गया। मण्डल के सभापति ने बूढ़े और विधवा का परिचय नेता से कराया-यह अमर शहीद रनवीर के पिता हैं और यह उनकी सती पत्नी हैं!

मंच से उतरकर , नेता ने बूढ़े और विधवा के गले में हार पहनाकर उनके पाँव छुए। पूजनीय शहीद के पिता, उसकी पत्नी भी पूजनीय हैं, देवता और देवी-तुल्य हैं। यह मान, यह आदर, प्रतिष्ठा, यह पूजा और अकिंचन बूढ़ा और विधवा! इतनी खुशी, इतना हर्ष, इतना आनन्द और उनके पाँच वर्षों की पीड़ा, शोक और व्यथा से जर्जर शरीर, जर्जर हृदय! कैसे सँभाल सकेंगे वे इतना-सब? पर उन्हें होश ही कहाँ था इस-सबका उनके बावले प्राणों का उल्लास तो अब जैसे असीमता को भी लाँघ रहा था, आत्मा का अनन्त आनन्द अब आत्मा को ही डुबोये दे रहा था। उनके दर्शन-आकुल नेत्र तो टिके थे आकाश-मार्ग पर, जिससे होकर आएगा उनका प्राणों से प्यारा रनवीर, मुस्कराता हुआ, हँसता हुआ!

नेता ने आदर से उन्हें मंच पर अपनी बगल में बैठा लिया। सभा की कार्यवाही प्रारम्भ हुई। ‘वन्देमातरम्’ गान के बाद सभापति ने अपना प्रारम्भिक भाषण दिया। फिर नेता का भाषण शुरू हुआ।

थोड़े में उन्होंने कांग्रेस और देश के स्वतन्त्रता-संग्राम का सिंहावलोकन किया। फिर बताया, कि देश ने एक दिन आज़ादी का यह दिन, देखने के लिए कैसी-कैसी कुरबानियाँ दी हैं। बोलते-बोलते उन्होंने कहा-आज़ादी की रूठी हुई देवी को प्रसन्न करने के लिए देश के हज़ारों वीरों और वीरांगनाओं ने अपने सिर के फूल चढ़ा दिये, अपने शरीर के खून की धाराओं से उसकी अर्चना की, अपने प्राणों का भोग लगा दिया। तब जाकर उसके अधरों पर प्रसन्नता की मुस्कान दिखायी दी! आप लोगों को गर्व होना चाहिए , कि उस देवी के चरणों में चढ़ाये गये हज़ारों सिरों के फूलों में एक फूल इस गाँव का भी था! आप लोगों को गर्व होना चाहिए कि उस देवी की अर्चना में जो खून की नदियाँ बहा दी गयीं, उसमें कुछ बूँदें इस गाँव की भी थीं! आप लोगों को गर्व होना चाहिए कि उस देवी के भोग में जितने प्राण लगाये गये, उनमें एक प्राण इस गाँव का भी था! हमें यह बताने की आवश्यकता नहीं , कि गाँव को गर्व का यह वरदान देने वाला इस गाँव का, हमारे देश का लाडला सपूर रनवीर था। ...

-रनवीर जि़न्दाबाद! अमर शहीद जि़न्दाबाद!-गर्व में फूली जनता ने नारा लगाया। गर्व से उनकी उन्नत हुई पेशानियाँ चमक रही थीं और उठी हुई आँखों से खुशी चमक रही थी।

नेता ने मुडक़र, एक बार बूढ़े और विधवा की ओर देखा। आकाश की ओर उठी हुई उनकी खुशी में गोते लगाती आँखों को प्रतीक्षा-बद्ध देख, नेता ने फिर कहना शुरू किया-हमें बेहद खुशी है, कि आज आप लोगों ने यह आज़ादी का दिन, आज़ादी का यह त्योहार उस अमर शहीद का स्मारक स्थापित कर उसके पवित्र चरणों में श्रद्धांजलियाँ अर्पित कर मनाने का निश्चय किया है! हमारा और हमारे देश का यह सबसे बड़ा कत्र्तव्य है, कि हम अपने अमर शहीदों के प्रति श्रद्धांजलियाँ अर्पित करें। आज हमारे स्वर्गवासी अमर शहीदों के हर्ष की सीमा न होगी। आज अपने प्यारे देश की आज़ादी का यह त्यौहार, खुशी का यह त्यौहार स्वर्ग से उतरकर वे आकाश से देख रहे होंगे। उनके दर्शन, काश, हम कर सकते! उनकी खुशी से चमकती हुई आँखें, काश, हम देख सकते! उनके पवित्र चरण, काश हम इन हाथों से छू सकते! असम्भव नहीं कि आज इस शुभ अवसर पर इस गाँव का लाडला शहीद रनवीर भी अपने प्यारे गाँव के आकाश पर आ...-भरे गले से कहकर , नेता ने अपनी श्रद्धा के आँसुओं से भरी आँखों को आकाश की ओर उठा दिया।

रनवीर की पुतीन स्मृति में सबकी नम आँखें आकाश की ओर उठ गयीं। चारों ओर पवित्रता और गम्भीरता में लिपटी हुई विचित्र शन्ति छा गयी। बूढ़ा सहसा उठकर, आँखें आकाश पर टिकाये, हर्ष-विह्वल हो चीख उठा-बहू, बहू! देख, बहू! वह आ रहा है हमारा रनवीर ! हमारा...

खुशी की एक चीख चीखती हुई ही बहू ने उठकर, ससुर के कन्धे पर अनजाने ही हाथ रखकर, आकाश की ओर ही टिकटिकी बाँधे हुए बोली-हाँ, बाबूजी, हाँ! वह... वह...

नेता और जनता की तन्मयता उनकी चीख सुनकर हट गयी। उन्होंने बूढ़े और विधवा से खड़े काँपते हुए शरीर को देखा। उनकी सीमा से भी अधिक फैली हुई, खुशी से सूर्य की तरह चमकती हुई आँखे! अपार हर्ष की वे चीखें! ओह, क्या हो गया है इन्हें?

कुछ लोग उन्हें सँभालने के लिए उनकी ओर लपके कि बूढ़ा और विधवा चीख पड़े-आओ, आओ!-और जैसे किसी के गले में हार पहनाने के लिए वे अपने हार लटकाये हाथों को हवा में बढ़ा रहे हों। शरीर झुके, झुकते गये और दूसरे क्षण वे मंच से धड़ाम-धड़ाम गिर पड़े।

-ओह! ओह!-कितने ही लोग उनकी ओर दौड़ पड़े।

नेता ने सिर उठाकर भरे गले से कहा-इनके हृदय की गति बन्द हो गयी है।

मन्दिर के बगल वाले मैदान में एक पत्थर का स्मारक खड़ा है। उसके चबूतरे के बीच की पटिया पर खुदा है,-ग्यारह अगस्त, सन् १९४२ को थाने की छत पर राष्ट्रीय तिरंगा अवरोहण करते समय थानेदार की गोली से शहीद हुए रनवीर और पन्द्रह अगस्त, सन् १९४७ को देश की आज़ादी के त्यौहार के दिन, अपने प्यारे शहीद पुत्र और अपने प्यारे शहीद पति पर प्राणों की श्रद्धांजलि अर्पित करनेवाले उसके वृद्ध पिता और विधवा पत्नी की पुण्य स्मृति में यह स्मारक गाँव-वासियों ने खड़ा किया!

मन्दिर में पूजा करने जाने वाले इस स्मारक पर भी फूल चढ़ाना कभी नहीं भूलते।