स्मार्ट / कमलेश पाण्डेय
मैं ट्रेन के डिब्बे में खिड़की की तरफ़ की एक अकेली सीट पर एक क़िताब के साथ मौन-यात्रा कर रहा था। आसपास बैठे यात्रियों के मोबाइल फ़ोनों से केंचुए से पतले-पतले काले तार निकल कर उनके कानों में घुसे हुये थे। एक बच्चा बार-बार अपने बाप से उसका फ़ोन झटक लेता था। वह जैसे ही उसपर किसी खेल में मशगूल होने लगता, फ़ोन की घंटी बज जाती और फ़ोन उसके हाथ से छिन जाता। बच्चे की ख़ीझ और गुस्से पर एक उचटती सी नज़र डाल कर मैं पन्ने पलट लेता। ये लोग भी कभी-कभी मुझे इस भाव से देखते मानों रेल में एक मोटी किताब पढ़ता आदमी इस युग में किसी दुर्लभ प्रजाति का जीव हो।
तभी गाड़ी स्टेशन पर रुकी और दरवाज़े से दो भारी सूटकेस, कंधे पर एयर बैग, कुछ और ताम-झाम और माथे पर ढेर सारी शिकन लादे एक यात्री घुसा। उसके पीछे ख़ुद को बड़ी नज़ाकत से संभाले, उंगलियों में पूरी नफ़ासत से एक नाज़ुक सा पर्स थामे एक महिला भी अंदर आई। स्थिति के इस चित्रण से दोनों के आपसी रिश्ते की बाबत आपके मन में भी कोई संशय नहीं उठेगा कि दोनों पति-पत्नी ही थे।
अपने बर्थ की खोज, पति ने सारा सामान लादे-लादे ही की। मिल जाने पर सामान को इधर-उधर जमा कर पति के बोझ-मुक्त होने तक पत्नी अनुगामिनी ही बनी रही। पर सीट पर जमते ही उसने मोर्चा संभाल लिया।
“तुम ढंग से सामान भी नहीं रख पाते कभी। इस बैग को ज़रा कोने तक खींचो…हां…अब जंजीर को हैंडल से होकर जाने दो। …अरे! ताला ठीक से बंद नहीं हुआ, क्या करते हो! मेरे भैया तो हमारे बैठने से पहले ही ये सब काम समेट देते थे। ये लो ! एयर बैग का स्ट्रैप खुल गया…अब लाद कर चलना इसे सर पर। मैं हमेशा कहती रहती हूं…।”
मैंने किताब रख दी और उस आत्मविश्वास से तमतमाते चेहरे के मुख नामक छिद्र से बहते लावे को देखने लगा। ये किसी ज्वालामुखी का विस्फ़ोट नहीं था बल्कि अंदर ही अंदर सुलगते रहने से लगातार रिसते लावे जैसा मामला था। विस्फ़ोट की स्थिति में क्या होता होगा इसकी कल्पना करने की ज़रूरत मुझे नहीं थी, न ही उसके पति को, जिसे इसका अनुभव तो अक्सर साक्षात ही होता रहता होगा।
घंटे भर में उसने पूरे डिब्बे को अपने पति के मार्फ़त ये सूचना दे दी कि वो कान्वेंट में पढ़ी, एक मॉडर्न सोसायटी में पली-बढ़ी फ़लां इंस्टिट्यूट की एक ‘स्मार्ट’ ग्रैजुएट है। वो कोई ‘डिपेंडेंट’ नहीं, बल्कि समाज में सभी पुरुष नारियों से कंधे से कंधा मिला कर चलने में यक़ीन रखने वाली एक प्रोग्रैसिव स्त्री है। बगैर किसी संदर्भ के उसने पति को लगभग धमकाते हुये ये भी सूचित किया कि घर तो वो संभालती ही है, बाहर भी सबकुछ संभाल सकती है। मैंने उसके प्रवचन से खुद को प्रभावित होता महसूस किया। डिब्बे में इस प्रवचन का लाभ उठा पाने वाली अन्य नारियों की आंखों में एक साथ प्रशंसा, आतंक, जलन और हताशा के भाव झलके। गाड़ी ने पटरी बदली तो मानों पटरियों से तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी कि लो! ये है आज की स्वतंत्र, आत्मविश्वास से भरी, शिक्षित और सक्षम स्त्री।
बहरहाल कुछ चीज़ें ख़रीद कर लाने के इरादे से एक स्टेशन पर उसका पति नीचे उतरा तो उसी दौरान एक काले कोट ने उससे टिकट दिखाने को कहा। वह पूरे इत्मीनान से अपने हसबैंड के पास टिकट होने का आश्वासन देकर खिड़की से बाहर देखने लगी। इस बीच गाड़ी चल दी और उसके गति पकड़ने तक भी पतिदेव नमूदार नहीं हुये तो टीटी ने फिर टिकट दरियाफ़्त की। मुझे लगा कि उसके चेहरे से आत्मविश्वास काफ़ूर हो गया है और उसकी जगह घबराहट आ बैठी है। अब तो रुआंसापन उतर आया है। टीटी दुबारा चक्कर लगाने और तब तक टिकट ज़रूर दिखा पाने की हालत में होने को कहकर चला गया। अब वो अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही अपने पति की तलाश में जुट गई यानी उसका नंबर मोबाइल से बार-बार डायल करने लगीं। बदहवासी आंखों की कोर से टपकने को ही थी कि पतिदेव कई खाद्य-पेय के थैले लटकाये हाज़िर हो गये। चेहरे ने एक रंग और बदला और कुछ-कुछ लावे के विस्फ़ोट की उस स्थिति तक जा पंहुचा जिसकी कल्पना से मैं ऊपर कन्नी काट गया था। अभ्यस्त कानों से सब झेल कर आखिर पति ने भविष्य में ऐसी नादानी न दुहराने का वादा किया, हालांकि मैं सोचने लगा कि प्लेटफ़ार्म पर उतरे बगैर वह भजिया-चिप्स-कोल्ड ड्रिंक कैसे ला पायेगा और न लाने की हालत में कौन से वादे करने पर मज़बूर होगा।
शाम ढली। बाहर अंधेरा उतरते-उतरते आस-पास में मौज़ूद तीन-चार महिलाओं की वह सहज आदर्श बन गई। बात-चीत के इस दौर में समाज में स्त्री के आगे बढ़ते कदमों पर चर्चा हुई। पता चला कि शहरों में शिक्षा के आलोक ने स्त्रियों का मार्ग प्रशस्त कर उन्हें अपने कदमों पर खड़ा कर दिया है। अब वे किसी की मोहताज नहीं रहीं और कैसे भी हालात से जूझ सकती हैं। इस बात पर सख़्त अफ़सोस ज़ाहिर किया गया कि गांव-कस्बों में स्त्रियां अब भी हीनता की शिकार हैं और उन्हें यानि डिब्बे में बैठी चार-पांच नारी-रत्नों को अपने आत्म-विश्वास और हिम्मत का कुछ हिस्सा उन बेचारी स्त्रियों में भी बांटना चाहिये।
बत्तियां बुझा दी गईं। सब सो गये। रात गई, बात गई।
सुबह ज़ोरदार झांय-झांय की आवाज़ से आंख खुली तो मैंने अपनी बर्थ के इर्द-गिर्द भिंडी, लौकी और तुरई बिखरा पाया। पैंतीस के करीब वय की एक औरत दो ख़ाक़ीधारियों से उलझी हुई थी। कसा हुआ सांवला ज़िस्म, जिसपर पसीने की बूंदों के कसीदे और कमर से कस कर लिपटी मटमैली साड़ी। निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ सरीखी। तीखे नाक-नक़्श, पान से रंगे होंठ-दांत और भूरे उलझे बाल। उसने एक सिपाही का हाथ उमेठ कर उसे बेबस कर रखा था और दूसरे हाथ से दूसरे सिपाही को परे धकेल रही थी। लगे हाथों अपनी रोज़ी-रोटी को ट्रेन के फ़र्श पर यों गिरा कर रौंदने वालों को वो अपनी ज़ुबान से नंगा कर रही थी।
बात इतनी सी थी कि वह पिछले बीस सालों से सुबह की इस गाड़ी से राजधानी की सब्ज़ी-मंडी तक रोज़ जा रही है और इन दिनों इसके दो रुपये ‘फ़िक्स’ हैं तो आज ये चार क्यों मांग रहा है। पुलिसवालों को ज़िस्म-फ़रोशों की जमात में शामिल करते और उनकी मां-बहनों को भी इस बहस में घसीटते हुये उसने ऐलान किया कि अपनी रोज़ी पर इस तरह लात मारने वाले इन ‘भिखमंगों’ की सात-पुश्तों में तो वो अकेली ही भुस भर देगी। दोनों सिपाहियों को भागने का रास्ता तक नहीं दे रही थी वो। आख़िर एक औरत के हाथों इस सार्वजनिक धुलाई के बाद किसी तरह हाथ छुड़ा कर दोनों रेंगती गाड़ी से कूद भागे।
मैंने बिखरी सब्ज़ियों को बटोरने में उस ‘स्मार्ट’ स्त्री की मदद करते हुये रात की उन स्त्री- विमर्शकारों के चेहरों को कनखियों से परखा जो पूरी घटना के दौरान महज़ तमाशबीन बने रहने के बाद अब सन्नाटे में दिख रही थीं और न जाने क्या बुदबुदा रही थीं।