स्मृतियों के साथ काल का पुनःसृजन / स्मृति शुक्ला
रमेशचन्द्र शाह अज्ञेय के बाद ऐसे पहले रचनाकार हैं, जिन्होंने कविता के साथ हिन्दी गद्य की प्रायः सभी विधाओं में उत्कृष्ट और विपुल लेखन किया है। रमेशचन्द्र शाह कविता के साथ उपन्यास, कहानी, वैचारिक निबन्ध, ललित निबन्ध, यात्रा वृत्तान्त,डायरी आदि विधाओं में सार्थक ओर श्रेष्ठ लेखनकर साहित्य- जगत् में शीर्ष पर हैं। आज हिन्दी के वे अकेले लेखक हैं जो हिन्दी की विभिन्न विधाओं के मोर्चों पर लगातार सक्रिय हैं। आवाह्यामि उनकी 2019 में प्रकाशित पुस्तक है।
संस्मरण स्मृतियों की अनमोल मंजूषा हैं। किसी श्रेष्ठ रचनाकार की ये स्मृतियाँ जब अपने ही समानधर्मी साहित्यकारों से जुड़ी हों तब ये न केवल साहित्यिक महत्त्व की हो जाती हैं वरन ये उस काल के रचनाकर्म को आलोकित करते हुए स्मृत व्यक्तित्व को पाठक के सामने जीवन्त कर देती हैं। आवाह्यामि प्रख्यात कवि उपन्यासकार, निबन्धकार, कहानीकार, आलोचक रमेशचन्द्र शाह के अट्ठाइस संस्मरणों का संग्रह है। रमेशचन्द्र शाह के ये संस्मरण अज्ञेय, जैनेन्द्र कुमार मुक्तिबोध, वीरेन्द्र कुमार जैन, बालकृष्ण राव, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, जगदीश गुप्त, डॉ. रघुवंश, निर्मल वर्मा, विजयदेव नारायण साही, श्रीलाल शुक्ल, श्रीपतराय, मलयज, श्रीराम वर्मा,गोविन्दचन्द्र पांडेय, श्रीकांत वर्मा, विद्यानिवास मिश्र, त्रिलोचन जेसे हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ साहित्यकारों पर केन्द्रित हैं। दो संस्मरण अपने परिजनों पर भी है। पहला संस्मरण अपने बुआ के बेटे शम्भु दाज्यू पर और दूसरा अपनी प्रिय और साहित्यकार पत्नी ज्योत्स्ना मिलन पर। पाठकों के मन में प्रश्न उठ सकता है कि हिन्दी साहित्य के दिग्गज साहित्यकारों के साथ शम्भु दाज्यू क्यों? शम्भु दाज्यू पर लिखा जाना इसलिए जरूरी है ; क्योंकि वे शम्भुदाज्यू ही तो थे जिन्होंने रमेशचन्द्र शाह के अन्तस् में जमे साहित्य के बीज को साहित्यिक पुस्तकें देकर, आर्थिक सहायता के साथ स्नेह और प्रेरणा का खाद-पानी और सूरज की रोशनी देकर अंकुरित होने, सुदीर्घ ओर विशाल वट वृक्ष बनने का अवसर प्रदान किया। शम्भुदाज्यु की स्मृतियाँ जब लेखक को टेरती हैं तो वह सातवीं क्लास में पढ़ने वाला बच्चा बनकर अल्मोड़ा पहुँच जाता है जहाँ शम्भुदाज्यु से पहली बार मिला था और फिर उनके व्यक्तित्व के सम्मोहन में ऐसा बँधता है कि शर्मीला, दब्बू बच्चा जो अपने अन्तर्मुखी स्वभाव की वजह से किसी से मिलता नहीं है, दैनिक पत्र 'शक्ति' के सम्पादक से अकेले मिलता है। ताबड़-तोड़ कविताएँ सुना देता है। शम्भुदाज्यु ने ही लेखक का व्यक्तित्वान्तरण किया। स्वयं के उपर भरोसा करना शम्भुदाज्यु ने ही सिखाया। प्रसिद्ध चित्रकार योगी ओर डी.एच. लेंस के मित्र बूस्टर से मिलवाया उन्होंने ही बचपन में लेखक को यह आश्वस्ति दी कि “यार रमेश ! तुम तो सचमुच इन्टेलिजेंट हो।” शम्भुदाज्यु ने ही रमेशचन्द्र शाह से कहा था-“यार रमेश ! तुम तो नेचुरल पोएट हो। ये दोनों वाक्य लेखक के हृदय पटल पर शिलालेख की तरह स्थाई रूप से खुद गए। बाद में वे कभी किसी की उपेक्षा या तिरस्कार से आहत नहीं हुए क्योंकि शम्भुदाज्यु का ये वाक्य उन्हें प्रेरणा देते रहे। प्रकृति के प्रति प्रेम ओर दुनियादारी तथा मजबूत बनने की शक्ति सभी कुछ शम्भुदाज्यु की ही देन है। शम्भुदाज्यु स्वयं अच्छे कहानीकार थे वे हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त अंग्रेजी साहित्य के भी अध्येता थे। बालक रमेशचन्द्र शाह के जीवन में उनका आगमन ताजी हवा के झोंके के साथ एक नये आवेग और एक नये चैतन्य का आना था।
'आवाद्मामि' का दूसरा संस्मरण प्रयोगवाद के पुरोधा अज्ञेय पर है। अज्ञेय से रमेशचन्द्र शाह का पहला परिचय 1954 में 'इत्यलम्' संग्रह की कविताओं को पढ़कर पाठक के रूप हुआ। रमेशचन्द्र शाह की अज्ञेय से पहली मुलाकात अल्मोड़ा में हुई थी और रमेशचन्द्र शाह से उन्मुक्त रूप से बातचीत हुई थी। जिन अज्ञेय के विषय में किंवदन्ती है कि वे आगंतुकों से बहुत ही कम बात करते थे। वे रमेशचन्द्र शाह से अज्ञेय पहले ही मुलाकात में मुखर हो जाते हैं। रमेशचन्द्र शाह ने इस संस्मरण में अज्ञेय के सर्जक व्यक्तित्व की अनवरत दीप्ति को आँका है। अज्ञेय के मैं हूँ तो वह भी है' शीर्षक वाले इस संस्मरण में साहित्यिक युग का एक-एक क्षण पूरी तरह से स्पन्दित है। साहित्यिक जगत में अज्ञेय के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जितनी बातें प्रचारित हैं लगभग उन सभी का उत्तर इस संस्मरण में है। रमेशचन्द्र शाह ने लिखा है - “नहीं ! वात्स्यायन जी जीवन और समाज से मिली सारी कड़वाहटों के बावजूद कटु नहीं हो सके, बल्कि उत्तरोत्तर सौम्य और प्रशंसात्म होते गए क्योंकि सौन्दर्यबोध और शिवत्वबोध की उनकी जीवनव्यापी दुहरी साधना प्रारम्भ से ही एकाग्र और एकोन्मुखी रही।” इस संस्मरण की सबसे बड़ी खूबी यही है कि संस्मरण लेखक अज्ञेय साहित्य के मर्मज्ञ है, इसलिए अज्ञेय को याद करते हुए उनकी काव्य पंक्तियाँ भी इन्हें बरबस याद आती है। अज्ञेय के पत्रों का उल्लेख भी इस संस्मरण में है। अज्ञेय पत्रों के माध्यम से रमेशचन्द्र शाह से सम्पर्क बनाये रखना चाहते थे एक पत्र में उन्होंने लिखा है कि आप उन थोड़े से लोगों में से हैं जिनके साथ में लगातार संवाद की स्थिति में रहना चाहता हूँ।
जैनेन्द्र कुमार से रमेशचन्द्र शाह की पहली मुलाकात उनके दरियागंज वालेआवास पर हुई थी। इस मुलाकात में चर्चा का विषय रमेशचन्द्र शाह की पुस्तक 'छायावाद की प्रासंगिकता' थी। रमेशचन्द्र शाह के उपन्यास 'गोबर गणेश' और 'किस्सा गुलाम' को पढ़कर जेनेन्द्र ने पत्र लिखे ओर इन्हीं पत्रों के माध्यम से जैनेन्द्र ने लिखा- प्रिय रमेश, तुम्हारा नया उपन्यास रुचिपूर्वक आद्यन्त पढ़ गया। कई प्रसंगों पर आँसू रोकना मुश्किल हो गया। संवाद इतने मार्मिक थे। पीड़ा बटोरी नहीं जाती थी कहकर। विषय तुमने गम्भीर लिया है। दो संस्कृतियों का अनमेल। “जैनेन्द्र कुमार, में नहीं, वह” इस संस्मरण को पढ़कर पाठक बहुत कुछ पा जाता है ऐसे-ऐसे प्रसंग, ऐसी घटनाएँ इस संस्मरण में दर्ज हैं जो उसे किसी साहित्यिक कृति में नहीं मिलेगी। जैनेन्द्र के उपन्यास त्याग पत्र' के अनुवाद का प्रसंग मैंने पहले कभी नहीं पढ़ा था यह प्रसंग मेरे लिए नया था। इस संस्मरण में रमेशचन्द्र शाह की तर्कसंगत विवेकदृष्टि, संवेदनाओं का प्रवाह और स्मृति के साथ काल की निरन्तरता भी चलती है।
'मुक्तिबोध : अन्तःकरण का आयतन' शीर्षक से मुक्तिबोध पर लिखा संस्मरण सचमुच विस्मित कर देने वाला है। यह संस्मरण अद्भुत कथा रस के साथ सन् 1962 से प्रारम्भ होता है। 'लहर' पत्रिका में प्रकाशित मुक्तिबोध की कविता “चौराहे' पर रमेशचन्द्र शाह ने अपनी प्रतिक्रिया एक पत्र में लिपिबद्ध कर भेज दी और फिर हफ्तों, महीनों और बरसों उत्तर की प्रतीक्षा की लेकिन प्रतीक्षा निष्फल रही। वर्षों बाद जब रमेशचन्द्र शाह को पता चला कि मुक्तिबोध भोपाल के हमीदिया अस्पताल में भर्ती हैं। शाह साहब अपने मित्र केशु के साथ उन्हें देखने गए। हरिशंकर परसाई ने जब उनका परिचय मुक्तिबोध से कराया, तो एकदम चौंक गए और कहा भाई कितना सुन्दर पत्र आपने लिखा था, वह पत्र पढ़ने के लिए मैंने अपने बेटे को दिया था उसने पता नहीं कहाँ रख दिया, इसलिए में पत्र का उत्तर नहीं दे सका। हाँ आपकी कविता 'भारती' में पढ़ने को मिली और मुक्तिबोध ने उस कविता की आरम्भिक चार पंक्तियाँ सुना दी। रमेशचन्द्र शाह आश्चर्य मिश्रित हर्ष से अभिभूत थे कि उनके श्रद्धेय कवि-मुक्तिबोध को उनकी कविता याद है। इसके बाद मुक्तिबोध अपनी रुग्णावस्था में भी लगभग आधा घंटे तक बात करते रहे। जैनेन्द्र के प्रसंग पर मुक्तिबोध ने कहा “जैनेन्द्रजी को सर्जक के रूप में में वात्स्यायन से भी ऊँचा मानता हूँ , पर उनका चिन्तक-विचारक रूप इतना नहीं छूता। उनमें मुझे एक तरह की 'सोफिस्ट्री' नजर आती है। रमेशचन्द्र शाह के इस संस्मरण में उस रोचक घटना का भी उल्लेख है ,जिससे पता चलता है कि वह पत्र पचपन साल बाद केसे मिला? महाराष्ट्र मंडल,रायपुर ने मुक्तिबोध के नाम पर स्थापित राष्ट्रीय पुरस्कार 2015, रमेशचन्द्र शाह जी को दिया था इस समारोह में 9 फरवरी 2015 को अपने वक्तव्य के बीच में रमेशचन्द्र शाह जी मुक्तिबोध से अपनी पहली और आखिरी मुलाकात का जिक्र किया था और अपने उस पत्र का भी उल्लेख किया जिसे मुक्तिबोध ने अपने पुत्र को पढ़ने दिया था। इतने में श्रोताओं के बीच से आवाज आयी कि पत्र गुम नहीं हुआ ओर सुरक्षित रहा और बाकायदा छपा हुआ है संकलन में, तब रमेशचन्द्र शाह विस्मय -विमूढ़ ताकते रह गए। ये रमेश मुक्तिबोध थे। इस संस्मरण में रमेशचन्द्र शाह का आलोचक रूप भी संस्मरण लेखक के साथ मुखरित हुआ है। उन्होंने लिखा है कि जाने क्यों मुझे मुक्तिबोध की जीवनव्यापी वेदना और जीवनबोध दास्ताएवस्की के पड़ोस का प्रतीत होता रहा तभी मन में आया कि यदि मुक्तिबोध ने उपन्यास को अपने कथ्य में ढाला होता तो संभवतः उन्है ं लम्बी कविताओं की तुलना में भरपूर उनन्मोचन हासिल हुआ होता।”
वीरेन्द्र कुमार जैन जिन्हें रमेशचन्द्र शाह वीरेन्द्र भाई कहा करते हैं उनके चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र में सबसे पहले आए और उनकी पत्रिका 'भारती' से जुड़े। उसी पत्रिका में उन्होंने अपनी कविता 'अनाग्रह मौन' और “कार्ल युंग के मनोविज्ञान! पर लिखा पहला वैचारिक निबन्ध भेजा जिसकी प्रकाशन हेतु स्वीकृति की सूचना एक प्रशंसात्मक पत्र के साथ उन्हें मिली। वीरेन्द्र कुमार जैन जिनसे एक साहित्यकार के रूप में पहले परिचय हुआ और बाद में उनकी ज्येष्ठ पुत्री ज्योत्स्ना मिलन की कविताओं पर रमेशचन्द्र शाह इस तरह आसक्त हुए कि ज्योत्स्ना जी उनकी धर्मपत्नी बन गई। यह संस्मरण कोरा स्मृति आख्यान नहीं है वरन इसमें एक युग धड़क रहा है। वीरेन्द्र जैन की कविताओं का और उनके व्यक्तित्व का तटस्थ मूल्यांकन भी इस संस्मरण में मिलता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ “'माध्यम' पत्रिका के प्रधान सम्पादक बालकृष्ण राव पर लिखा संस्मरण भी काफी दिलचस्प है। पाठकों के लिए इन संस्मरणों में अनेक रोचक और नवीन जानकारियाँ उपलब्ध हैं। “माध्यम” पत्रिका का अनेक वर्षों तक कुशल सम्पादन करने वाले बालकृष्ण राव अचानक 'माध्यम' के बन्द कर दिये जाने पर दुखी हो गए थे ओर रमेशचन्द्र शाह को लिखे एक पत्र में उन्होंने अपनी इस पीड़ा को अभिव्यक्त किया था।
'अनूठे दीक्षागुरु' शीर्षक से जगदीश गुप्त एवं डॉ. रघुवंश पर लिखे गए संस्मरण में इन दोनों व्यक्तित्व के उदार और प्रेरक स्वभाव का चित्रण है। रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने डॉ. रघुवंश के घर में रमेशचन्द्र शाह से अज्ञेय के नये कविता संग्रह 'ऑगन के पार द्वार' की समीक्षा के लिए आग्रह किया। वे उन दिनों वे 'क ख ग'पत्रिका निकालते थे। रमेशचन्द्र शाह ने इस कविता संग्रह पर जो आलोचनात्मक लेख लिखा उससे वे रातो-रात प्रसिद्ध हो गए। स्वयं अज्ञेय ने उनके लिखे हुए को पसंद किया और बाद में अज्ञेय से परिचय के मूल में भी यही लेख माध्यम बना। रघुवंश जी ने इस स्तरीय आलोचनात्मक लेख के लिए रमेशचन्द्र शाह को बधाई दी, प्रशंसा की लेकिन एक सच्चे हितेषी की तरह आगाह भी किया कि अपनी प्रशंसा से आत्ममुग्ध मत हो जाना, अपने सामने हमेशा चोटी के लेखकों को मानदंड की तरह रखना। रमेशचन्द्र शाह अपना अहोभाग्य मानते है कि उन्हें ऐसे प्रेरणा पुरुष उपलब्ध हुए और उनकी बातों को संस्मरणकर्ता ने सदैव संस्मरण रखा। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, निर्मल वर्मा और विजय देव नारायण साही पर लिखे संस्मरण हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ संस्करणों में शुमार हैं। इन संस्मरणों में स्मृत रचनाकारों का व्यक्तित्व तो बहुत पारदर्शिता से झाँकता ही है, संस्मरणकर्ता का सृजनशील व्यक्तित्व, एक जीनियस, एंटलएक्चुयल का रचनात्मक विवेक और क्रियाशील मन भी पूरी तटस्थता एवं ईमानदारी के साथ झलकता है।
श्रीलाल शुक्ल, श्रीपतराय, मलयज, श्रीराम वर्मा, विद्या निवास मिश्र और श्रीकांत वर्मा पर लिखे संस्मरण अलग-अलग आस्वाद देते हैं। नवीन सागर की मृत्यु के बाद लिखे गए संस्मरण में भावनाओं का आवेग है, एक हाहाकार-सा है संस्मरण लेखक के अन्तस् में कि दूसरे के लिए स्वयं को समर्पित करने वाला नवीन सागर केसे इतनी जल्दी दुनिया से चला गया।
शैलेश मटियानी, गोविन्दचन्द्र पांडेय, त्रिलोचन और अशोक सेक्सरिया पर लिखे संस्करणों से इन व्यक्तित्वों को समझने में सहायता मिलती है दरअसल ये संस्मरण बोलते शब्दों की जीती जागती तस्वीरें हैं पाठक के सामने ऐसे साफ और जीवन्त चित्र उभरते हैं कि पाठक स्वयं को भूलकर इन संस्मरणों में खो जाता है। मुझे लगता है 'आवाह्मामि' के इन संस्करणों में रमेशचन्द्र शाह को सबसे अधिक पीड़ा और कठिनाई ज्योत्स्ना जी पर लिखने में हुई होगी। अपनी प्रिय पत्नी के मृत्यु के बाद लिखा गया संस्मरण “ज्योत्स्ना मिलन स्मृति नहीं, कृति' संस्मरण हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। ज्योत्स्ना जी रमेशचन्द्र शाह की कृति हैं उनके हृदय में रची-बसीं, उन्हें वे स्मृति” मान ही नहीं सकते। ज्योत्स्ना जी से रमेशचन्द्र शाह का प्रथम परिचय उनकी कविताओं के माध्यम से हुआ। 'ज्ञानोदय' के 'नवोदित लेखिका विशेषांक' में छपी ज्योत्स्नाजी की कविताओं ने रमेशचन्द्र शाह के मन को ऐसा बाँधा कि फिर वे कभी उस इन्द्रजाल से विलग नहीं हो पाये। छटपटा उठे कवयित्री को पुकार लगाने को। रमेशचन्द्र शाह अपने साहित्यिक जीवन के प्रारम्भिक दिनों में हिन्दी के जिस साहित्यकार के साहित्य के निकट थे उन वीरेन्द्र जैन की सुपुत्री ज्योत्स्ना को उन्होंने अपनी जीवन-संगिनी बनाया। इस संस्मरण से पता चलता है कि ज्योत्स्ना जी सदगुणों की खान थी। वे जितनी अच्छी रचनाकार थी, उतनी ही पाक कला में निष्णात। प्रेम विवाह के बाद अपनी ससुराल अल्मोड़ा में अपनी पाक कला, व्यावहारिक बुद्धि एवं स्नेह से सबका हृदय जीतने वाली। अपनी कविता, कहानी और संस्मरणों से हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि करने वाली,जन्मजात, सहज कवयित्री अपने जीवन में बेहद समतावादी ज्योत्स्ना जी ने विवाह के उपरान्त प्रारम्भिक जीवन के आठ साल सीधी जैसे पिछड़े कस्बे में तीन कमरों के डिब्बानुमा घर में गुजारे। अब रमेशचन्द्र शाह को लगता है कि मुम्बई जैसे महानगर में जन्मी, वहीं पली-बढ़ी और शिक्षित हुई ज्योत्स्ना जी के लिए सीधी जैसी जगह में रहना और बुरादे की सिगड़ी में खाना बनाना निःसंदेह एक कुंठाकारी परिवेश रहा होगा; लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। किसी अन्याय को देखकर तत्काल अपनी प्रतिक्रिया दे देना ज्योत्स्ना जी का स्वभाव था। किसी तरह का मुखौटा लगाना या दिखावा करना उनके स्वभाव में न था। सेवा संस्था की संस्थापक इला बहन भट्ट की प्रेरणा से ज्योत्स्ना जी समाज सेवा से जुड़ी और 'अनसूया' के हिन्दी संस्करण को अट्टठाइस वर्षों तक निकालती रहीं। ज्योत्स्ना जी के सर्जक और मानवीय व्यक्तित्व के सर्वथा अनुकूल यह कार्य उन्हें मानसिक पूर्णता प्रदान करता रहा।
'आवाह्यामि' के सभी संस्मरणों में किसी न किसी रचनाकार की स्मृतियों का आह्वान है। अतीत के कालखंड में जाकर अपनी कल्पना से पुनः उस समय को जीकर, जीवन्त ओर सशक्त भाषा में इन संस्मरणों को लिखा गया है। एक चिन्तक, विचारक, कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार ओर आलोचक के रूप में रमेशचन्द्र शाह के लेखन का प्रारम्भ कैसे हुआ? इसमें उनके पूर्ववर्ती रचनाकारों की क्या भूमिका थी ? बचपन से आज तक रमेशचन्द्र शाह ने अपने साहित्यकार अग्रजों से ओर समवयस्कों से कया ग्रहण किया, यह सब आवाह्मामि के संस्मरणों में दर्ज है।रमेशचन्द्र शाह की स्मृति, कल्पना उनका विवेक, उनका मानवीय दृष्टिकोण इन संस्मरणों को विशिष्ट बनाता है। इन संस्मरणों को पढ़ना यानी हिन्दी साहित्य के लगभग साठ वर्षों के साहित्यिक प्रवाह को, बुद्धिजीवी साहित्यकारों के व्यक्तित्व,उनकी रचना प्रक्रिया और उनके सजन आयामों को समग्रता में जानना है। इन संस्मरणों में वे बातें हैं जो हिन्दी साहित्य की किन्ही पुस्तकों में दर्ज नहीं हैं, ये तो रमेशचन्द्र शाह की स्मृतियों में ज्यों की त्यों टंकी हैं जिन्हें समय की दीर्घ परतें धूमिल नहीं कर पाई हैं। इन संस्मरणों का शिल्प ऐसा है जिसमें अनेक विधाओं की आवाजाही ओर मेल-मिलाप है। पाठक एक साथ कहानी, पत्र, निबन्ध, आलोचना और संस्मरण तथा कहीं-कहीं रेखाचित्र से गुजरकर सभी का समन्वित आनन्द ले सकता है। यह पुस्तक पाठक को छोड़ती नहीं वरन अपनी ओर खींचती है। हिन्दीके संस्मरण साहित्य में यह पुस्तक एक बड़े अभाव की पूर्ति करती है। -0-