स्मृतिशेष कमलेश्वर / गंगा प्रसाद विमल
- स्मृतिशेष कमलेश्वर
अपने विद्यार्थी काल में कमलेश्वर को पढ़ना शुरू किया, तो जैसे आँखों के आगे एक नई दुनिया खुलने लग गई थी। एक उन कथाकारों द्वारा रचित दुनिया, जिसमें भावुकता, काल्पनिकता, सब कुछ था, किंतु वह भीतर तक बाँध नहीं पाती थीं। 'राजा निरबंसिया' या 'जॉर्ज पंचम की नाक' जिस तरह भीतर तक हलचल मचाती थी, उस ढंग से किसी ने लोक शैली या प्रतीकों को आधार बनाकर प्रयोग नहीं किए थे। वर्ष 1960 के आरंभ में जब नई कहानी आंदोलन अपने शीर्ष पर था, मुझे कहानियों पर कुछ समालोचनात्मक लिखने की सूझी। हालाँकि तब तक मैं अपने प्रयोगधर्मी लेखन के लिए कुख्यात हो चुका था। उन्हीं दिनों कमलेश्वर जी से मेरी मुलाक़ात हुई थी और मैं उनसे बहस के मूड़ में था कि कमलेश्वर जी ने मुझे उत्साहित किया कि जो मैं सोच रहा हूँ, उसे लिखना आरंभ कर दूँ। 'कहानी' पत्रिका में नियमित लिखने का कार्यक्रम बन गया और जब वह समीक्षात्मक लेखन छपना आरंभ हुआ, तो सबसे पहले मुझे कमलेश्वर जी और श्रीकांत वर्मा जी के पत्र मिले। कमलेश्वर जी नए से नए लेखन के प्रति विशेष प्रकार की आसक्ति रखते थे। उनका कहना था कि जो चीज़ पुरानी आँखें नहीं टोह सकती, उसे नई आँखें देखती हैं। इसलिए साहित्य को वह कठघरों या परंपराओं में न देखकर उसे समग्र रूप में देखने के हिमायती थे। और बहुत सजग होकर वह नए लेखकों के सृजन से उस महत्वपूर्ण को रेखांकित करते चलते थे, जिसके बारे में शेष लोग आँखें मूँदे रखते हैं।
कमलेश्वर हिंदी कहानी के, ख़ास तौर से बीसवीं शताब्दी के, शीर्ष कथाकारों में अग्रणी हैं। उनमें हम एक साथ प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु के गुणधर्मों का विकास देख सकते हैं। उनकी 'नीली झील', 'बयान', 'मुरदों की दुनिया' जैसी बेजोड़ कहानियों को हम उनके किस्सागो होने और एक मिशनरी की मानिंद शब्दों से प्रतिरोध कायम करने के सक्षम उदाहरणों की कड़ी का एहसास कराने वाली प्रक्रिया से लैस देख सकते हैं।
कमलेश्वर सही मायने में एक सामाजिक प्रवक्ता थे। वह बैख़ौफ़ अपनी बात कहने के लिए सृजनशील पद्धति के भी प्रणेता थे। आपातकाल के दिनों में वही पहले संपादक थे, जिन्होंने 'सारिका' में सरकारी पक्ष के बहिष्कार की एक नई पद्धति सृजी थी। उन्होंने 'सारिका' के पन्नों के उन अंशों को सरकारी बाबुओं के सामने रखने की अपेक्षा काली स्याही से उन अंशों को ढँककर अपना प्रतिरोध ज़ाहिर किया था। कमलेश्वर बाद के वर्षों में जब उच्चाधिकारी के रूप में दूरदर्शन से जुड़े, तो उन्होंने दूरदर्शन में व्याप्त कलाहीनता पर लगाम कसनी शुरू की थी। ज़ाहिर है, ऐसे में विग्रह की पूरी गुँजाइश थी। अफ़सरशाही को ज़्यादातर रचनात्मक लोगों से परेशानी होती है। कमलेश्वर के साथ भी वही हुआ। किंतु अफ़सरी छोड़ने के बाद कमलेश्वर ज़्यादा सक्रिय होकर फ़िल्म और टेलीविजन की दुनिया से जुड़ गए।
कमलेश्वर ने फ़िल्मों की दुनिया में एक लेखक की सही हैसियत कायम की थी। 'आँधी', 'द बर्निंग ट्रेन' जैसी फ़िल्में लिखकर उन्होंने फ़िल्म माध्यम को भी नएपन से चित्रित करने में सफलता अर्जित की थी। कमलेश्वर जिस माध्यम में रहे, उन्होंने उसे अपने 'कमलेश्वरीय रंग' से पोषित किया। यह कमलेश्वरीय रंग जहाँ फाकेमस्ती, निडरता से भरा हुआ था, वहीं इसमें समाज और मनुष्य के प्रति एक सजग दायित्व भावना भी थी। उनके उपन्यासों को लें, तो वे कमलेश्वर के समग्र चिंतन को पूरी तरह अभिव्यक्त करने के आदर्श उदाहरण हैं। वर्षों पहले जब उनका एक छोटा-सा उपन्यास 'समुद्र में खोया हुआ आदमी' प्रकाशित हुआ था, तो कुछेक लेखकों ने उसे एक भावुक प्रयास कहकर किनारे करने की कोशिश की थी। किंतु वह भावुक प्रयास नहीं था, बल्कि हमारे असुरक्षित समाज में धन से अर्जित सुरक्षा के प्रतीक से ख़बरदार करने का एक रचनात्मक प्रयास था। उस उपन्यास में कमलेश्वर ने मातम या स्यापे का जो वर्णन किया था, वह अविस्मरणीय था।
कुल मिलाकर कमलेश्वर अपनी कथाओं में 'स्व' से अलग होकर निरपेक्ष ढंग से स्थितियों का कथात्मक या तथ्यात्मक विवेचन करते हैं। 'कितने पाकिस्तान' उपन्यास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने एक छात्र को मैंने कमलेश्वर के इस उपन्यास पर काम करने के लिए प्रेरित किया था। यह अपने कथात्मक विन्यास में एक ऐसा उपन्यास है, जो एक साथ विश्व की सबसे ख़तरनाक समस्या सांप्रदायिकता से आतंकवाद गठन की ओर इशारा करते हुए समूची मनुष्य जाति के सामने अलगाववाद के ख़तरे रख देता है। कौम, धर्म, जाति और विश्वासगत हठ किस तरह से मनुष्य और समुदायों को ठग रहे हैं। चिंतन की विशेष शैली के इस विष-वृक्ष से मनुष्य जाति के कितने सवाल दंशित हैं, इसकी कल्पना भी भयावह है। कमलेश्वर जैसा दृष्टिसंपन्न लेखक राष्ट्र और राज्य की परिसीमाओं से बाहर वैश्विक फलक पर उभरते मनुष्यता विरोधी आधार को पहचानकर बहुत आसान-से विवरणों में वह सब कहते हैं, जिसे मानवाधिकारवादी बड़े-बड़े ग्रंथों और विधि संबंधी नियमनों में भी नहीं कह पाते।
हिंदी के इस विलक्षण कल्पनाशील सृजेता से नए लेखकों का घना संबंध रहा है। मैं तो उन भाग्यशाली लेखकों में हूँ, जो कमलेश्वर जी के बहुत निकट रहे। मैं जब दिल्ली आया और करोलबाग में निवास करने लगा, तब रवींद्र कालिया और दूसरे दोस्तों के साथ हम कमलेश्वर और मोहन राकेश से बराबर मिलते और बहसें करते थे। डॉ. इंद्रनाथ मदान के निकट होने के कारण भी कमलेश्वर से मुलाक़ातें कुछ ज़्यादा बढ़ गई थीं। साठ के शुरू में, जब तक कमलेश्वर दिल्ली में रहे, एक ख़ास किस्म की साहित्यबाज़ी की आदत हमें बार-बार एक-दूसरे के क़रीब खींच लाती थी। मुझे कमलेश्वर के साथ देश-विदेश की अनेक यात्राएँ याद आती हैं। और याद आता है कमलेश्वर का सदाबहार मुस्कुराता या बहसों में फँसा तमतमाया चेहरा। संगोष्ठियों के उपरांत रस-रंजन के दौरान लतीफ़ेबाज़, हंसोड़ और यारबाश कमलेश्वर की उपस्थिति हमेशा किसी नई घटना का कारण बनती थी।
असल में कमलेश्वर नई सृजनशीलता के प्रणेता ही नहीं थे, वह हर उसे नएपन के समर्थक थे, जिसकी सामाजिक सार्थकता पर उन्हें यकीन था। उन्हें नए पर भरपूर यकीन था - आज उनके जाने के बाद यह बात सबसे ऊपर उभरकर आती है। कमलेश्वर एक कथाकार के रूप में हिंदी पाठकों को हमेशा याद रहेंगे, क्योंकि कमलेश्वर जैसा कथा-शिल्पी सृजन के इतिहास में कभी-कभी ही अवतरित होता है।