स्मृति और काल / अज्ञेय

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[साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली में 'स्मृति के परिदृश्य’ शीर्षक के अधीन दिये गये दो व्याख्यानों में से पहला व्याख्यान।]

आज हम जिस परिमंडल में जीते हैं उसमें-कभी एक व्यापक हल्ले के रूप में और कभी एक दबी हुई गूँज के रूप में-बार-बार यह बात सुनाई पड़ती है कि ‘हम 21वीं शती की देहरी पर खड़े हैं।’ नहीं जानता कि हममें से कितने स्वयं अपने भाव-जगत में ऐसा अनुभव करते हैं; किन्तु ऐसा कहते हुए कुछ लोगों को जरूर सुना जा सकता है कि सारा देश एक छलाँग लगाने के लिए शरीर तोल रहा है और वह छलाँग हमें सीधे 20वीं शती के अन्तिम वर्षों के धुँधलके में से उबारकर 21वीं शती के निरभ्र आकाश के निश्च्छाय आलोक के प्रदेश में स्थापित कर देगी। वह छलाँग कैसी होगी, इसका बखान करने के लिए कुछ लोगों ने विज्ञान का मुहावरा भी उधार ले लिया है। हम विकास की सम गति से आगे बढ़ते हुए 20वीं से 21वीं शती में प्रवेश करेंगे, ऐसा नहीं होगा। जिस प्रकार परमाणु जगत में हम पाते हैं कि पदार्थ का सूक्ष्मतम कण अभी एक स्थिति में और उसके तुरन्त बाद एक दूसरी स्थिति में दीखता है और बीच की यात्रा हमें नहीं दीखती, न यात्रा-पथ ही दीखता है, उसी प्रकार हम भी एक स्थिति से दूसरी स्थिति में छलाँग लगाकर पहुँच जाएँगे। न वह छलाँग किसी को दीखेगी, न उसके गति-पथ का मानचित्र बनाया जा सकेगा। विज्ञान की परिभाषा से ‘क्वांटम जम्प’ की यह अवधारणा उधार ले लेने से ऐसा प्रचार करनेवालों को दोहरी सुविधा मिलती है। जिस जगत में ‘क्वांटम जम्प’ की बात सार्थक होती है उसमें हम दिक् और काल का अलग-अलग विचार नहीं करते-कर ही नहीं सकते क्योंकि वहाँ दिक्काल के एक सातत्य में ही बात करना सार्थक होता है। वहाँ हमारी छलाँग-यानी सूक्ष्मतम अणु की छलाँग-निरन्तर पदार्थ से ऊर्जा और ऊर्जा से पदार्थ तक भी लगती रहती है। दूसरे शब्दों में यही बात हम यों भी कह सकते हैं कि पदार्थ लगातार दिक् के आयाम से काल के आयाम में और काल के आयाम से दिक् के आयाम से छलाँग लगाता रहता है-दिक्काल परस्पर एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। स्पष्ट है कि वैज्ञानिक अवधारणा का यह पहलू उस छलाँग पर लागू नहीं होता जिसके सहारे हमारा देश 20वीं से 21वीं शती में पहुँचनेवाला है; लेकिन जिन लोगों के द्वारा यह मुहावरा इस्तेमाल किया जाता है वे बड़े लोग हैं और बड़े लोगों की बातों पर न-नु-नच् करना अविनय है : उनकी बात केवल दोहरायी जा सकती है।

इस देश में यह सवाल पहले भी उठा कि जिस प्रकार हम छलाँग लगाकर एक स्थल से दूसरे स्थल पर पहुँच जाते हैं, क्या काल भी उसी प्रकार छलाँग लगाकर चल सकता है। चलता है, अथवा उसकी गति अनिवार्यतया सम, एकरूप, अजस्र धारा की गति होती है? क्या काल के भी अणु होते हैं और क्या जीव एक-के-बाद-एक ऐसी आणविक स्थितियों में से गुजरता रहता है कि जिनके बीच किसी प्रकार की निरन्तरता अथवा सातत्य का सम्बन्ध नहीं होता? पश्चिम में तो यह प्रश्न एक वास्तविक वैज्ञानिक पहेली के रूप में 19वीं शती में ही उठा-’क्वांटम सिद्धान्त’ के ही एक पहलू के रूप में-और इसका एक अनिवार्य आनुषंगिक परिणाम यह जिज्ञासा थी कि तब काल-गति का अनुभव करनेवाले का ‘स्व’ क्या है और हमारी स्मृति क्या है? लेकिन मैंने अभी तो कहा कि हमारे देश में यह सवाल एक बार पहले भी उठा, तब मैं पश्चिम के वैज्ञानिक चिन्तन के विकास, अथवा उसके कारण यहाँ पूर्व में उठनेवाली वैचारिक लहर की बात नहीं कर रहा था। इस देश में मौलिक रूप में यह समस्या उससे कुछ पहले उठायी गयी थी-’कुछ पहले’ अर्थात यही कोई दो-अढ़ाई हजार साल पहले, बौद्ध तार्किकों द्वारा, लेकिन अभी मैं उस प्राचीन विवाद को नहीं जगा रहा हूँ-उसकी सार्थक चर्चा करने के लिए कुछ तैयारी अपेक्षित होती है। जब हम ‘क्वांटम जम्प’ की बात करने लगते हैं तो सहज ही यह सम्भावना भी सामने आती है कि वह छलाँग अगर आगे की ओर हो सकती है तो पीछे की ओर भी हो सकती होगी या हो सकनी चाहिए-जब हम दिक् का काल-निरपेक्ष विचार असम्भव पाते या मान लेते हैं तब ‘आगे’ या ‘पीछे’ की अवधारणा कैसे टिकी रह सकती है? इस आगे और पीछे की समस्या की ओर लौटना (लौटना अर्थात् आगे बढऩा!)तो होगा। लेकिन उसकी भूमिका के रूप में कुछ दूसरे सन्दर्भों को उठाना उचित होगा।

21वीं शती की देहरी पर खड़े होने की बात करनेवाली ईसवी संवत् को गणना का आधार मानकर चलते हैं। लेकिन इस देश में केवल वही एक संवत् नहीं चलता। प्रचार के इस युग में बड़ी तेजी से ईसवी कैलेंडर का चलन बढ़ा है और आज उन क्षेत्र में भी तारीखें इस कैलेंडर से गिनी जाती हैं जिनमें कुछ वर्षों पहले तक वैसा करते समय यह कहना ज़रूरी होता था कि यह ‘अँग्रेज़ी तारीख’ है। लेकिन जिस देश का दो-तिहाई आज भी निरक्षर है, उसमें चाहे व्यंग्यपूर्वक ही सही, चाहे देशी काल-गणना को निरक्षरता के साथ जोड़ते हुए ही सही, आज भी यह बात सच है कि करोड़ों जन-साधारण व्यावहारिक जीवन में ईसवी कैलेंडर और अँग्रेज़ी तारीखें मानते हुए भी एक-दूसरे स्तर पर किसी दूसरे संवत् में और दूसरी ही तिथियों के अनुसार जीते हैं। उनको आप कहेंगे कि वे यथार्थ के दो आयामों में जी रहे हैं, जो उन्हें यह सन्देह भी नहीं होगा कि आप उन पर व्यंग्य कस रहे हैं-वे सहज ही इस बात को स्वीकार कर लेंगे कि यथार्थ के दो स्तर होते हैं। इन करोड़ों जनों में संवत् की जो दूसरी गणनाएँ चलती हैं, अपनी बात आगे बढ़ाने के लिए उनमें से एक गणना को मैं चुन लेता हूँ-विक्रम संवत् को, जो उत्तर भारत में प्रमुख रूप से प्रचलित है। विक्रम और ईसवी संवत् में 57 वर्ष का अन्तर है। विक्रम संवत् के अनुसार ‘21वीं शती की देहरी पर’ खड़े होने की बात अब तक पुरानी पड़ गयी होती। विक्रम संवत् से हमने जब इक्कीसवीं शती में प्रवेश किया तब देश में ‘भारत छोड़ो’ का नारा गूँज रहा था। ठीक इक्कीसवीं में प्रवेश का बिन्दु न चुनकर हम उसकी देहरी से वैसी ही दूरी रखें जैसी आज ईसवी इक्कीसवीं सदी से है, तो संवत् 1986 में देश स्वाधीतना संग्राम के दूसरे सत्याग्रह आन्दोलन से आन्दोलित था। क्रान्तिकारियों की हरकतें उसे और भी तीव्रता दे रही थीं। अथवा देहरी के कुछ निकटतर जाकर संवत् 1996 को देखें तो सारा विश्व ही महायुद्ध के कगार पर खड़ा था। संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि यदि नई शती की देहरी पर खड़े होने की बात बड़े और अकल्पनीय परिवर्तनों की बात है, तो उस समय वैसी भावना अधिक प्रचलित थी और अधिक संगत भी थी-अर्थात विक्रम संवत् से। आज तो हमें उस इक्कीसवीं शती में प्रवेश किये दो पीढिय़ाँ बीत चुकी हैं : आज हमें स्वाधीनता प्राप्त किये भी चालीस वर्ष हो चले हैं। जिस छलाँग की, ‘क्वांटम जम्प’ की बात आज होती है, वह उस समय कुछ अधिक अर्थवान् भी जान पड़ती। गुलामी से आज़ादी तक की छलाँग का यात्रापथ नहीं दीखता, उस मानस-यात्रा का मानचित्र बनाना भी कठिन होता है। यह यात्रा वास्तव में ‘क्वांटम जम्प’ होती है। और जो आज इस स्थिति में है कि आज़ादी के अनुभव के उन क्षणों के मनोभाव की याद ताजा कर सकें, वे शायद आज भी इस बात की सच्चाई का एक तीखा अनुभव कर सकेंगे। कुछ लोग स्वतन्त्रता की घोषणा की उस आधी रात के समय सडक़ों पर नाचे भी थे; लेकिन इस अतिशय प्रतिक्रिया को छोड़ भी दें तो करोड़ों जनों ने यह अनुभव किया था कि वे एक नए युग में प्रवेश कर गये हैं; कि ऐसे युगान्तर को एक क्रमिक यात्रा के रूप में देखना कठिन है, उसे एक रूपान्तर-सा ही अनुभव किया जा सकता है-एक युगान्तर-एक ‘क्वांटम जम्प’-एक पुनर्जन्म...

‘21वीं शती में प्रवेश’ को अगर हमने स्वाधीनता के युगारम्भ के साथ जोड़ लिया होता और उस सम्बन्ध में एक सार्थकता देखी होती-आशा, उत्साह और भविष्य के प्रति आस्था के मनोभाव की सार्थकता-तो आज शायद ‘21वीं शती के मध्य-बिन्दु’ की चर्चा करना अधिक संगत होता। प्रश्न कदाचित् वे ही पूछे जाते तो 21वीं शती की देहरी पर खड़े होने के सन्दर्भ में उठाये जाते हैं; लेकिन उनके साथ जोड़ा जानेवाला मनोभाव अधिक संयम और प्रश्नाकुल होता। तब प्रश्नों का सन्दर्भ यह होता कि हम नई शती भी आधी पार कर गये-क्या अब अपनी अब तक की यात्रा का कुछ लेखा-जोखा करके आगे का कार्यक्रम निर्धारित करने का-और उसे पूरा करने के संकल्प का-समय नहीं आ गया है? कदाचित् वही मनोभाव अधिक संगत भी होता-उसका शोर और उस गूँज के बावजूद जिसका उल्लेख मैं कर चुका हूँ। वह शोर अधिकतर राजनीतिकों द्वारा मचाया गया शोर है क्योंकि उनके प्रयोजन दूसरे हैं और उनकी कार्य-पद्धति भी दूसरी है; शोर भी उस कार्य-पद्धति का एक अंग है। लेकिन मैं राजनीति का व्यक्ति नहीं हूँ। राजनीतिक प्रयोजनों के किसी अनिवार्य अस्वीकार के बिना भी मैं कह सकता हूँ कि मेरे प्रयोजन दूसरे हैं या होने चाहिए; कि साहित्यकार के नाते मेरे लक्ष्य दूसरे-या दूसरे भी-हैं और होने चाहिए; कि मेरी कार्य-पद्धति भी स्वभावत: अलग होगी। और यह भी कि शोर उसका अंग नहीं होगा बल्कि बहुधा एक सारगर्भ चुप उसके लिए अधिक उपयोगी हो सकती है।

लेकिन ईसवी सन् हो अथवा विक्रम संवत् काल-गणना का एक दूसरा भी सन्दर्भ है और मेरा प्रयोजन उसी से है। मैंने पहले चरण में इन दो कैलेंडरों का उल्लेख किया क्योंकि इन दोनों के बीच का अन्तर इतना ही है कि उसका हमारी साधारण आयु से अनुपात बैठाया जा सके और दो प्रकार के सम्भाव्य मनोभावों की तुलना की जा सके। लेकिन जिस विचार-सरणी के किनारे तक मैं आपको ले जाना चाहता हूँ, वह इससे कुछ और आगे है। यों मैंने जिन दो मनोभावों, मनोदशाओं अथवा मानसिक प्रवृत्तियों का उल्लेख किया, उनके बीच केवल 57 वर्ष का अन्तर रहने पर भी उनकी सार्थक चर्चा के लिए स्मृति का उपयोग तो आवश्यक हो ही जाता है-और स्मृति के परिदृश्य ही मेरा विषय है। 57 वर्ष पहले की स्मृतियाँ जगाना उतना कठिन नहीं जान पड़ता-यद्यपि यह कहना भी उतना ही सत्य होगा कि एक दिन पहले की स्मृतियाँ जगाना भी कम कठिन काम नहीं होता-बल्कि घंटा-भर पहले, एक मिनट पहले की मनोदशा में प्रवेश करना भी कभी-कभी अत्यन्त कठिन हो आता है। 40 वर्ष पहले, या 57 वर्ष पहले, या 400 या 4,000 वर्ष पहले की भूली और अनभूली आह्वेय और अनाह्वेय स्मृतियों का ताना-बाना ही हमारी उस सांस्कृतिक अस्मिता की भूमि है जो हमारे निजी, सामाजिक, नागरिक और राष्ट्रीय अनुभवों और आकांक्षाओं को निरूपित करती है। साहित्यकार के नाते मेरा उस भूमि से जो सरोकार है उसको प्राथमिकता देते हुए ही मैं स्मृति के परिदृश्य की बात करना चाहता हूँ।

अगर मैं बिना व्याख्या के सीधे-सीधे यह बात कहूँ कि ‘ईसवी सन् को ही ऐतिहासिक काल-गणना का एकमात्र आधार मान लेने से हमारा यथार्थता का बोध परिसीमित हुआ है’, तो यह साम्प्रदायिक दुराग्रह की बात लगेगी। लेकिन वस्तुत: ईसवी सन् की बात का इसाई धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं उसी प्रकार बिना व्याख्या के यह भी कह दे सकता हूँ कि विक्रम संवत् भी उसी प्रकार हमारे ऐतिहासिकता के बोध को परिसीमित करता है। दोनों बातें साथ-साथ रख देने से साम्प्रदायिक आग्रह के आरोप का निराकरण हो जाएगा। व्याख्या की आवश्यकता अवश्य फिर भी बनी रहेगी, लेकिन उसका एक सूत्र भी सामने आ जाएगा।

काल को हम अनादि और अनन्त मानते हैं। लेकिन उसकी गणना हमेशा एक बिन्दु से आरम्भ करते हैं, और यह आदि-बिन्दु भी बहुत दूर पीछे नहीं जाता। सृष्टि के क्रम में तो उसकी दूरी नगण्य है ही, मानवता के इतिहास में भी वह लम्बी नहीं है। बल्कि सभ्यता के विकास-क्रम में भी वह उतनी लम्बी नहीं रह जाती। बड़े को छोटे से नापना ज़रूरी है, उसके बिना नाप हो ही नहीं सकती; लेकिन जो अनादि है उसकी नाप में एक आदि-बिन्दु स्थिर कर लेने के क्या परिणाम होते हैं? कभी बाल-मनोविज्ञान की पुस्तक में एक बालक की बात पढ़ी थी जिसकी कल्पना इतनी प्रबल थी कि वह रोज कोई-न-कोई झूठा किस्सा गढक़र माता-पिता को सुना दिया करता था कि उसने क्या-क्या देखा अथवा उसके साथ क्या-क्या घटित हुआ। माता-पिता उसकी इस झूठ बोलने की आदत से परेशान हो गये थे, लकिन यह भी अनुभव करते थे कि यह उस प्रकार का झूठ बोलना नहीं है जिसे नैतिक अथवा सामाजिक अपराध की कोटि में रखा जाए-जिसके लिए बालक को दंडित किया जाए अथवा उसमें अपराधी-भाव जगा दिया जाए। अन्तत: उन्होंने भी कल्पना का सहारा लिया; एक नदी और उसके किनारों की अवधारणा की। बालक के किस्से सुनकर वे उससे यही पूछते कि उसके द्वारा वर्णित घटना नदी के इस पार घटित हुई या उस पार? क्रमश: नदी के ये कल्पित किनारे ही बालक के मन में भी यथार्थ और कल्पना के बीच की विभाजन-रेखा बन गये : कोई गढ़ा हुआ किस्सा सुनाकर वह स्वयं कह देता कि ‘यह सब नदी के उस पार घटित हुआ।’ इस प्रकार माता-पिता उस बालक में अपराध-बोध जगाये बिना उसे यथार्थ की कठोर भूमि पर लाने में सफल हुए। शायद काल में प्रवाह का एक अधिक सच्चा बोध भी उसे प्राप्त हुआ हो, क्योंकि काल-नदी का वास्तविक चित्र उस दूसरे किनारे के बिना पूरा नहीं होता जिसके पार हमारी कल्पना की घटनाएँ घटित होती हैं। फंक्शन ऑफ रिएलिटी की भाँति एक फंक्शन ऑफ अनरिएलिटी भी है और वह भी धर्म अर्थात् फंक्शन ही है। बाल-मनोविज्ञान की उस पुस्तक ने यह तो नहीं बताया कि यह कल्पनाशील बालक आगे चलकर बड़ा उपन्यासकार बना कि नहीं : हम वैसी सम्भावना तो कर ही सकते हैं। लेकिन यहाँ, वर्तमान सन्दर्भ में, यह प्रश्न तो उठाया जा सकता है कि क्या संवत् की गणना का एक आरम्भ-बिन्दु स्थापित करना ही वैसा ही नदी का एक किनारा गढ़ लेना नहीं है जिसके इस पार ‘इतिहास’ है और उस पार-’पुराण’?

इस प्रश्न ने बात को कदाचित् कुछ-कुछ अतिरंजित कर दिया, क्योंकि ईसवी अथवा विक्रम संवत् मान लेने के बाद भी हम उनके आरम्भ-बिन्दु से कम-से-कम कुछ शतियों पहले तक की घटनाओं को अपने इतिहास की परिधि में रखे ही हैं-उदाहरण के लिए बुद्ध अथवा अशोक अथवा सिकन्दर को अपनी काल-गणना के आरम्भ-बिन्दु का निर्वाह करते हुए ‘ईसा पूर्व अमुक शती अथवा अमुक वर्ष’ में प्रतिष्ठित कर देते हैं। लेकिन रामायण अथवा महाभारत को जब ‘ई.पू. 1500-250’ में रखा जाता है तब क्या इन महद्‍ग्रन्थों के रचना-काल को हम ऐतिहासिक यथार्थता की उसी कोटि में रख रहे होते हैं जिसमें-उदाहरण के लिए-महमूद गजनवी के आक्रमण को अथवा बाबर के अभियान को रखते हैं? इस प्रश्न का, ज़रूरी नहीं है कि एक ही उत्तर हो; लेकिन प्रश्न पूछने से इस बात की ओर हमारा ध्यान जाएगा कि काल के हमारे समग्र अनुभव की संरचना कितनी दूर तक इस बात से प्रभावित होती है कि हम गणना का आरम्भ-बिन्दु-‘सन्-संवत्’-सन् 0 ई. अथवा संवत् 0 वि.-कहाँ रखते हैं।

इतनी बात तो ईसा अथवा विक्रम अथवा अन्य किसी संवत् पर समान रूप से लागू होती। लेकिन काल-जिज्ञासा जब आरम्भ होती है तो क्रम में और भी प्रश्न जुड़ते चले जाते हैं और हमारे अनुभव की संरचना की, हमारी स्मृति के परिदृश्य की और भी बारीकियाँ हमारे सामने आती हैं। विक्रमादित्य, जिनसे विक्रम संवत् आरम्भ हुआ, राजा थे, जबकि ईसा मसीहा हैं। विक्रमादित्य तो कई हुए, ईसा मसीह केवल एक हुए और वह भी ईश्वर के एकमात्र चुने हुए बेटे जो कि ईश्वर से अधिक महत्त्व रखते हैं-अधिक बड़ी रागात्मक सत्ता है। काल-गणना का धर्म-भाव से सम्बन्ध न हो, पर इस रागबन्ध का हम क्या करें? इतिहासकार असम्पृक्त हो भी सकता है; पर अतीत के सामान्य ज्ञान को अपने से जोडऩेवाला जन यह जानता भी नहीं कि वैसा निर्वेद भाव उससे अपेक्षित है।

फिर ऐतिहासिकता के उसी आग्रह ने जिसने भारतीय चिन्ताधारा और गवेषणा में भी ईसवी सन् की प्रतिष्ठा कर दी, उसी ऐतिहासिक आग्रह ने हमें न केवल यह बताया है कि विक्रमादित्य कई हुए बल्कि प्रत्येक विक्रम का काल-सन्दिग्ध बता दिया है। इस प्रकार विक्रम संवत् पर आधारित काल-गणना, जो पहले ही एक तदर्थ गणना थी, और भी सन्दिग्ध हो गयी क्योंकि उसके प्रवर्तक का ही कोई पता-ठिकाना, कोई निश्चित काल नहीं रहा। सुना है कि कुछ रूसी लोक-कथाएँ यों आरम्भ होती हैं कि ‘पता नहीं था कि नहीं था, लेकिन एक राजा था।’ क्या एक अनिश्चितकालीन विक्रम के साथ संवत् और काल-गणना के जुड़ जाने का एक असर यह नहीं होता कि ‘पता नहीं कब था या कौन था, लेकिन एक राजा था जो विक्रम कहलाया और जिससे काल-गणना आरम्भ करें तो कह सकते हैं कि-’ इत्यादि।

यों तो यह प्रश्न भी उठा है-और हल नहीं हुआ है, केवल दबा दिया गया है-कि ईसा मसीह भी एक और एक-मात्र ऐतिहासिक व्यक्ति थे अथवा धर्म-गुरुओं की एक प्राचीन परम्परा के तीन-चार गुरुओं को जोडक़र रचा गया एक संयुक्त व्यक्तित्व हैं? और यह प्रश्न भी एक जीवित प्रश्न है-जिन्दा दफना दिया गया प्रश्न!- कि जिस एक-मात्र ईसा से ईसवी सन् आरम्भ किया जाता है उसका जन्म भी ‘सन् 0 ईसवी’ में हुआ था, अथवा उससे 12, 15 या 18 वर्ष पहले? अगर इस तरह के प्रश्न उसी रूप में सामने बने रह सकते या बनाए रखे जा सकते जिस रूप में विक्रमादित्य से सम्बद्ध प्रश्न हैं, तो स्थिति अंशत: भिन्न होती। लेकिन, जैसा मैंने कहा, ये जिन्दा दफना दिये गये प्रश्न हैं क्योंकि विक्रम केवल एक राजा हैं, ईसा एक धर्म के प्रवर्तक और एक ‘ऐतिहासिक’ ईश्वर (!) के वर-पुत्र, ऐतिहासिक क्राइस्ट हैं। विक्रम संवत् के विक्रम के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगाने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। लेकिन ईसा मसीह के बारे में वैसा कोई प्रश्न उठाते ही एक पूरा धर्म-संस्थान लड़खड़ाने लगता है।

किसी धर्म-संस्थान के लिए संकट खड़ा करना हमें अभीष्ट नहीं है। लेकिन किसी संवत् के आदि-पुरुष से जुड़े हुए प्रश्नों के विस्तार में जाने से किसी प्रकार समूची सभ्यताओं, संस्कृतियों के ढाँचे लड़खड़ाने लगते हैं (क्योंकि अधिकतर सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ धर्म-विश्वास से जुड़ी रही हैं), यह स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार सन्-संवत् के प्रश्न हमारी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न बन जाते हैं क्योंकि हमारी जातीय स्मृति का परिदृश्य उससे जुड़ा हुआ होता है।

भारतीय संस्कृति भी एक धार्मिक संस्कृति है! बल्कि भारतीय सन्दर्भ में तो ‘संस्कृति’ शब्द अँग्रेज़ी शिक्षा के प्रभाव का ही परिणाम माना जा सकता है और यही कहना अधिक सही होगा कि भारत में धर्म न केवल संस्कृति का आधार रहा है बल्कि जिसे आधुनिक अर्थ में ‘संस्कृति’ कहा जाता है वह धर्म के अनुष्ठान पक्ष का एक विस्तार ही रही। लेकिन ईसाईयत जिस प्रकार एक प्रवर्तक और एक आदि-बिन्दु से जुड़ी है, भारत में धर्म का वैसा रूप नहीं है। सम्प्रदायों की बात अलग है; और सम्प्रदायों को धर्म मानने की नई प्रवृत्तियों के (जिनके कारणों में जाना यहाँ प्रासंगिक नहीं है) परिणाम में इतिहास की जो दुर्गति होती है और हो रही है, वह हमारे तर्क को पुष्ट ही करेगी। ईसाईयत जिस प्रकार की ‘ऐतिहासिकता’ का दावा करती है वैसा दावा भारतीय सन्दर्भ में कोई अर्थ नहीं रखता रहा। यहाँ धर्म की परिधि के भीतर अनेक सम्प्रदायों के अनेक प्रवर्तक हुए और इसलिए एक विशेष अर्थ में यह कहा जा सकता है कि यहाँ एकाधिक ऐतिहासिक परम्पराएँ भी बनीं जिनके अपने-अपने आरम्भ-बिन्दु भी हैं। लेकिन ऐसे प्रवर्तन-बिन्दुओं को काल-गणना का आरम्भ-बिन्दु नहीं बनाया गया-इन प्रवर्तकों के नाम से संवत् नहीं चले, भले ही कुछ सम्प्रदायों में वैसा भी एक संवत् साथ-साथ लिख देने की परम्परा चली। यह भी लक्ष्य किया जा सकता है कि इस स्थिति के कारण भारतीय सभ्यता में एक बहुकेन्द्रिकता रही जिसे उसकी शक्ति भी माना जा सकता है। इस बहुकेन्द्रिकता के कारण ही यह संस्कृति ऐतिहासिकतावाद से आक्रान्त होकर भी अपनी अस्मिता को टूटने से बचाए रख सकी।

इस अनेक-केन्द्रिकता की तुलना चीन की स्थिति से भी की जा सकती है और उससे कुछ रोचक परिणाम भी निकाले जा सकते हैं। चीन में न तो संस्कृति का भारत जैसा धार्मिक आधार रहा, न उसकी काल-गणना में ईसाईयत जैसा किसी धर्म-प्रवर्तक का स्थान अथवा ऐसे व्यक्ति से जुड़े आदि-बिन्दु का महत्त्व रहा। चीन ने अपनी काल-गणना राजवंशों के क्रम और उनके शासनों की अवधि के आधार पर की। इस प्रकार चीनी सभ्यता में निरन्तर ऐतिहासिकता का एक स्पष्ट बोध भी मिलता है और एक धर्म-निरपेक्ष बहुकेन्द्रिकता भी बनी रह सकती है। कह सकते हैं कि इसके कारण चीन की जातीय स्मृति की संरचना भी एक ओर भारत से और दूसरी ओर ईसाई जगत से सर्वथा भिन्न है।

इस सन्दर्भ में यहूदी संस्कृति और यहूदी जातीय स्मृति का प्रश्न भी उठाया जा सकता है और वर्तमान शती के सन्दर्भ में उस स्मृति की अमिट छाप और प्रेरणा-शक्ति पर भी विचार किया जा सकता है! लेकिन उस विचार को सार्थकता देने के लिए जितने विस्तार की अपेक्षा होगी उसके लिए यहाँ अवकाश नहीं है। उस स्मृति की सत्ता का उल्लेख कर देना ही पर्याप्त है। इतना संकेत अवश्य किया जा सकता है कि उस धर्म-परम्परा में सृष्टि को हुए ही जितने वर्ष हुए हैं उससे कहीं अधिक अवधि के तो हमारे ऐतिहासिक युग हो चुके हैं-यानि हिब्रू सृष्ट्यब्द भी हमारे संवत् के अनुपात में छोटा पड़ जाता है। इसलिए इसकी सम्भावना नहीं रहती कि उस संस्कृति में इस पारम्परिक काल-गणना का कोई आग्रह बचा रह जाए। वहाँ जातीय अस्मिता से आधारभूत सम्बन्ध जोडऩे के लिए कुछ दूसरे ही बिन्दु चुने जाते हैं-ऐसे घटना-बिन्दु जो किसी संवत्सर के आरम्भ-बिन्दु तो नहीं हैं लेकिन-जो उस आत्म-बिम्ब को पुष्ट करने में मदद देते हैं जिसके अन्तर्गत यहूदी जाति एक साथ ही ईश्वर की विशेष चुनी हुई जाति भी हो जाती है और दूसरों के द्वारा शताब्दियों से उत्पीड़ित जाति भी। एक ओर विधाता द्वारा मनोनयन और दूसरी ओर आत्म-रक्षा का यह भाव-इन दोनों की स्मृति अस्मिता को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण योग देती है।

स्मृतियों का दमन भी होता है। स्मृतियाँ भी जिन्दा दफनाई जा सकती हैं और दफनायी जाती है। ऐसी स्मृतियाँ मिटती नहीं; कालान्तर में वे किस रूप में ज्वालामुखी होकर फट पड़ेंगी इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। लेकिन दमित स्मृतियों की सत्ता, शक्ति और कर्म-प्रेरकता के कई उदाहरण आधुनिक इतिहास में मिल जाएँगे। बल्कि आज जिस संसार में हम रहते हैं उसके अनेक क्षेत्रों में फैली हुर्ह अशान्ति के कारण भी ऐसे ही दमित स्मृतियों में मिलेंगे। दमित न हुई होतीं तो वे सहज क्रम में मिट गयी होतीं-अनावश्यक बहुत कुछ भूलते या भुलाते जाना मस्तिष्क की एक अनिवार्य आवश्यकता है। जैविक इकाई भी बहुत कुछ भुलाती है; जातीय समूह भी बहुत कुछ भुलाते हैं-उस सामूहिक रूप में ही वे एक ‘जैविक इकाई’ होते हैं जिसका एक जातिगत मस्तिष्क होता है। लेकिन दमित हो जाने से ये स्मृतियाँ प्राकृतिक क्रम में विलय नहीं हो पातीं; उनमें ऊर्जा का ऐसा संचय होने लगता है जिसके परिणाम अपूर्वानुमेय हो जाते हैं।

जातियों के इतिहास अथवा समाज-मनोविज्ञान में जाना मेरा प्रयोजन नहीं है। वह मेरा विषय भी नहीं है और उसकी योग्यता भी मुझमें नहीं है। लेकिन काल की चेतना, युग और समय का बोध, और काल की गति का अनुभव-इन सबका एक साहित्यिक पक्ष भी है। हमारी स्मृति ही उस बोध का आधार है और रचना का स्रोत है। स्मृति नहीं है तो व्यक्तित्व नहीं है; बल्कि काल भी नहीं है और रचना भी नहीं है। ‘मैं जानता हूँ कि मैं कौन हूँ, क्योंकि मैं वहीं हूँ जो मुझे स्मरण है।’-वही और उतना ही। यों विज्ञान ऐसे काल की भी बात करता है जो जीवन के अनुभव से निरपेक्ष है : भू-भौतिकी में भी काल का विचार होता है और ज्योतिष तथा तारक-भौतिकी में भी। वह काल वास्तविक नहीं है। यह हम नहीं कह सकते। लेकिन इसी बात को उलटकर यों कहना चाहें कि ‘हमारी वास्तविकता उस काल पर आधारित नहीं है, ऐसा हम नहीं कह सकते, तो वास्तविकता की व्याख्या अनिवार्य हो जाएगी। वैज्ञानिक अलग-अलग सन्दर्भों में कहता है कि ‘पिछले पचास वर्षों में जितना कुछ घटित हुआ है उतना उससे पहले के पाँच हजार वर्षों में नहीं हुआ था’ (और पचास वर्षों की अवधि हमारी साधारण आयु के सन्दर्भ में बड़ी नहीं है, हमारी निजी स्मृति के परिदृश्य से बाहर नहीं जाती); अथवा यह कि ‘सृष्टि के पहले तीन मिनट में जितना कुछ घटित हुआ उतना अगले तीन करोड़ वर्षों में नहीं हुआ-पर ये उक्तियाँ भी, ऐसा नहीं है कि घटित की विशेष परिभाषा नहीं माँगती- बल्कि दूसरी उक्ति तो हमें वहाँ ले जाती है और जहाँ काल की और दिक् की भी नई परिभाषाएँ अपेक्षित होती हैं। और वैज्ञानिक स्वयं स्वीकार करता है कि वहाँ परिभाषा भी अनिश्चित हो जाती है क्योंकि हम भाषा के साधारण व्यवहार से बड़ी दूर जा चुके होते हैं और ध्रुव रूप में नहीं जानते हैं कि हम जो कर रहे हैं उसका अर्थ क्या है। साहित्य के अथवा रचना के सन्दर्भ में वास्तविकता की चर्चा को हमारे बोध के साथ जोडऩा अनिवार्य होगा और उसे स्मृति के साथ जोड़ना।

रचना के सन्दर्भ में साहित्य का यथार्थ आनुभविक यथार्थ ही है। अनुभव से परे जो यथार्थ है, या हो सकता है, उसको साहित्य नकारता नहीं; लेकिन साथ ही उसके अनुभव-निरपेक्ष यथार्थ को कभी हमारे अनुभव को नकारने भी नहीं देता। साहित्य की एक मूल्यवत्ता इसी में है कि वह निरन्तर आनुभविक यथार्थ के उन आयामों का विस्तार करता चलता है जो दूसरे सभी आयामों के परीक्षण की कसौटियाँ हमें देते चलते हैं और इस प्रकार हमारे लिए यह सम्भव बनाते हैं कि हम उन दूसरे आयामों को आत्मसात कर सकें-अपने अनुभव और अपनी चेतना के क्षेत्र का विस्तार कर सकें। यह विस्तार हमारी स्मृति के विस्तार में प्रतिबिम्बित होता है। रचना के सन्दर्भ में यथार्थ के सारे परिदृश्य स्मृति के ही परिदृश्य होते हैं।

और यहाँ हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी भाषा हमारी स्मृति है। भाषा के साथ गहरे रागात्मक सम्बन्ध की बात तो हमारे युग की एक सामान्य बात है। उस रागात्मक सम्बन्ध के कारण उत्पन्न होनेवाले तनाव, आन्दोलन और विस्फोट समकालीन जीवन की सामान्य घटना रहे हैं। बहुत-से लोग अपने को प्रबुद्धचेता मानते हुए भाषानुराग की इस तीव्रता और ज्वलनशीलता पर आश्चर्य प्रकट करते हैं, बहुधा व्यंग्य भी करते हैं। लेकिन भाषा का यह आग्रह जाने-अनजाने जातीय स्मृति की रक्षा का ही आग्रह होता है-अस्मिता की रक्षा का आग्रह होता है। हम पहले भी कह चुके हैं कि स्मृति नहीं है तो व्यक्तित्व नहीं है; अगर हमारी भाषा ही हमारी स्मृति है तो भाषा और अस्मिता का सम्बन्ध और भी स्पष्ट हो जाता है। तथाकथित प्रबुद्धचेता कहेगा कि यह तर्क एक भयानक हठधर्मिता और दुराग्रह को जन्म देता है; कि देश की वर्तमान स्थिति में वह शोविनिज्म है और देश की रागात्मक एकता में बड़ी बाधा है। ये खतरे हैं; पर कोई शक्ति खतरनाक होने से ही झूठी नहीं हो जाती और वैसा कह देने से निरस्त भी नहीं होती। खतरे का उपाय यही है कि हम एक वृहत्तर अस्मिता की दीक्षा दें और उन स्मृतियों को जगाएँ, उनकी शक्ति से काम लें, जो उस वृहत्तर सत्ता के साथ जुड़ी हैं। यह काम उस प्रबुद्धचेता ने नहीं किया।

लेकिन ‘हमारी भाषा भी हमारी स्मृति है’ और ‘हमारा इतिहास भी हमारी स्मृति है’, एक साथ ही ऐसी दो बातें कहकर क्या हम अपने को ही भ्रम में डालने की व्यवस्था नहीं कर रहे हैं? नहीं। क्योंकि एक तो इससे आगे यह भी कहा जा सकता है कि ‘भाषा भी इतिहास है।’ दूसरे मैं तो अपने को इन दो बातों तक ही सीमित भी नहीं रख रहा हूँ। मैंने जो कुछ कहा है उसका आशय तो यह भी है कि काल भी हमारी स्मृति है। हमारी स्मृति ही लगातार वह रचनात्मक संगठन करती चलती है जिसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य एक व्यवस्थित क्रम में जुड़ते चलते हैं। स्मृति ही उस संरचना में अविराम संशोधन भी करती चलती है और संशोधित नए परिदृश्य प्रस्तुत करती चलती है। टी.एस. एलियट की प्रसिद्ध पंक्तियों का एक संक्षेपन हम यों कर सकते हैं कि Only in time is time remembered. और फिर इसी बात को पलटकर यों भी तो कहा जा सकता है कि Only in memory is time time. निरपेक्ष भौतिकता का आग्रही वैज्ञानिक, हो सकता है, दोनों ही स्थापनाओं पर मुस्कुरा भर दें। लेकिन दोनों ही कवि-जनोचित स्थापनाएँ और काव्य-जगत् में दोनों को ही सार्थक माना जाएगा-उनमें गर्भित अर्थों को महत्त्व दिया जाएगा।

मैंने अपनी बात संवत्सर की चर्चा से आरम्भ की थी : उसे निमित्त बनाकर यथार्थ-बोध की चर्चा की थी जिसके साथ मैंने फिर इतिहास, साहित्य और भाषा को भी जोडऩे का प्रयत्न किया है। स्मृति ही वह गतिशील सर्जनात्मक तत्त्व है, जो काल, इतिहास, साहित्य और हाँ, भाषा के नए परिदृश्य रचती चलती है।

आधुनिक जीवन की प्रवृत्तियाँ स्मृति के परिदृश्य को लगातार छोटा करती जाती हैं। जिस वर्तमान में हम जीते हैं-जिसमें हमें जीने दिया जाता है, जीने को बाध्य किया जाता है-उसकी व्यस्तता लगातार इतनी बढ़ती जाती है कि हमें न स्मरण के लिए अधिक समय मिले और न हमारी चेतना ही उधर प्रवृत्त हो पाए। नए आविष्कार नई माँगों को पैदा करने का काम करते हैं और नई जानकारियाँ स्मृति को जड़ित करने का। तेजी से विकसित होते हुए संचार माध्यम इसमें भरपूर योग देते हैं : वे उपभोग को एक मूल्यवत्ता से मढ़ते हैं और सनसनी को आनन्द का पर्याय बनाते हैं। यह तो लक्ष्य कर लिया जाता है कि ‘Public memory is very short,’ लेकिन सार्वजनिक स्मृति का व्यास और भी छोटा होता जाए इसकी व्यवस्था में सभी आधुनिक संस्थान पूरी तरह लगे रहते हैं। कोई नहीं चाहता कि हमें कुछ भी याद रह जाए-क्योंकि कुछ याद न रहने पर ही यह सम्भव होता है कि प्रतिदिन जो-जो हमें बताया जाता रहे उसे हम स्वीकार करते चलें। वही ‘वैज्ञानिक सत्य’ होगा, वही ‘ऐतिहासिक तथ्य’ होगा, वही ‘आधुनिक दृष्टि’ होगी! उस सबको हम स्वीकार न भी कर पाएँ तो कम-से-कम स्मृति के लिए इतना अवकाश न पा सकें कि अतीत से उसकी तुलना कर सकें। भुला देने की-या याद न कर पाने की-अवस्था में हमें ले आने और बनाये रखने में संचार-साधन भरपूर योग दे रहे हैं, यह हमारे सामान्य दैनन्दिन अनुभव की बात है। ये साधन ही भाषा को दिन-ब-दिन दरिद्रतर बनाते हैं-जो इसी प्रक्रिया का एक अंग है जिससे जानकारी बढ़ती है और विवेक की सम्भावना कम होती है। उसी तरह शब्दावली बढ़ती जाती है और शब्दों की सार्थकता की लगातार छिलाई होती जाती है। यन्त्रों के उपयोग की सांकेतिक भाषाओं का आविष्कार और विकास और यान्त्रिक अनुवाद की व्यवहारिक व्यवस्था इस प्रक्रिया को और गति देगी। और यह कैसे कहा जाए कि विकास हमें नहीं चाहिए?

भाषा के, अनुभव के, हमारी स्मृति के इस अनवरत दरिद्रीकरण के परिवेश में साहित्यकार का क्या कर्तव्य बनता है? अगर उस कर्तव्य को जानने-पहचानने का अवकाश वह अपने लिए निकाल भी लेता है तो वह क्या यह निर्णय भी कर सकेगा कि कितनी सम्भावनाएँ उसके सामने खुली हैं या वह खोल सकता है? 21वीं शती की देहरी पर खड़ा हुआ वह बीत गयी 20वीं शती के ऐतिहासिक अनुभव का क्या करेगा, यह प्रश्न तो बना ही है; वह उससे पहले की चालीस शतियों का भी क्या करेगा जिन्हें कम-से-कम इस देश का इतिहास अपनी परिधि से बाहर नहीं मान सका है? काल-गणना की सुविधा के लिए हमने भले ही ईसवी सन् अपना लिया है-अथवा सरकारी तौर पर शक संवत् अपना लिया है अथवा व्यापक सार्वजनिक रूप से विक्रम संवत् का व्यवहार करते हैं- प्रश्न असल में यह नहीं है कि हम इनमें से किस संवत्सर-गणना को प्रमुखता दें। प्रश्न यह है कि ‘21वीं शती की देहरी पर खड़े होने’ के नाम पर हम जो बीस शतियों के इतिहास से बँध जाने को लाचार हो रहे हैं, हम उससे पहले की उन चालीस शतियों के इतिहास का क्या करें जो हमारे लिए अब भी उतनी ही आलोकित हैं क्योंकि हमारा सूर्य ईसवी सन् के आरम्भ-बिन्दु पर न उगकर उससे कहीं पहले उग आता है-कहीं पहले के युगों को भी प्रकाशित कर जाता है?

पश्चिमी पद्धति को-और हम यह भी क्यों भूलें कि अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से दी गयी?-शिक्षा के लिए यह स्वाभाविक होगा कि अमुक एक अवधि को ‘ऐतिहासिक’ माने, उसी आधार पर ‘प्रागैतिहासिक’ अथवा ‘इतिहास-पूर्व’ युगों की अवधारणा करे और प्राचीनतर सब कुछ को ‘पौराणिक’ अथवा ‘मिथकीय’ वृत्तान्त के धुँधलके में डाल दिया जाए। क्या हमें बाध्य होकर ‘ऐतिहासिक काल’ की यही संरचना स्वीकार कर लेनी होगी?

फिर हमें यह भी स्मरण रखना है कि आरम्भ-बिन्दु के कारण काल की जो संरचना बनती है उसका प्रभाव बहुत आगे तक पड़ता चलता है, केवल अतीत पर ही नहीं पड़ता। ‘ऐतिहासिक’ और ‘पौराणिक’ की विभाजन-रेखा को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह रखने के आनुषंगिक परिणाम और भी होते हैं। पश्चिम की दृष्टि से भारत के इतिहास को देखने का एक परिणाम यह भी हुआ कि यहाँ होनेवाले आन्दोलनों की जमीन भी हम यहाँ न खोजकर पश्चिम में खोजते हैं। रेल और तार की बात तो जाने दीजिए। यहाँ के राष्ट्रीय आन्दोलन भी इसलिए शुरू हुए कि पश्चिमी शिक्षा ने हमें स्वाधीनता का महत्त्व सिखाया, हममें लोकतन्त्रीय भावना जगायी! और भी आगे चलिए : हमारे राष्ट्रीयता आन्दोलन में भाग लेने, उसके कारण जेल की यन्त्रणाएँ भुगतनेवाले कवियों ने देश-प्रेम की कविताएँ इसलिए लिखीं कि उन्हें प्रेरणा वालटर स्कॉट से मिली, उस संघर्ष से नहीं जिसमें वे अनुक्षण जी रहे थे! यह उदाहरण मैं इसलिए दे रहा हूँ कि भारतीय साहित्यों के इतिहासों में ऐसा बताया गया मैंने पढ़ा है; नहीं तो ऐसी मूर्खता की बात उल्लेख योग्य भी न होती। एक और भी उदाहरण लीजिए-पढ़ी हुई पुस्तक से नहीं, प्रत्यक्ष अनुभव से, इसी महान नगरी नई दिल्ली के अनुभव से। गाँधी का नाम तो आपने सुना होगा? जब इसका आप क्या करेंगे कि इस नाम से आपको रिचर्ड एटनबरो की अँग्रेज़ी फिल्म याद आती है, उस महात्मा की नहीं जो हमारे ही बीच जिया, जिसने हमें सिखाया, हमें आदमी बनाया और जो हमारे बीच बलि हो गया?

निश्चय ही हमारे देश में (और उसी प्रत्यक्ष अनुभव में, यद्यपि इस महान नगरी में नहीं, अन्यत्र) वे भी हैं जो अपनी बेटियों को अवध में नहीं ब्याहना चाहते क्योंकि अयोध्यापति राम ने सीता मैया के साथ इतना अन्याय किया था। यहाँ भी स्मृति का एक परिदृश्य काम कर रहा है-यद्यपि बहुत लम्बा परिदृश्य। और ये दोनों परिदृश्य हमारे हैं, हमारे अनुभव से जुड़े हैं।

उस प्रबुद्धचेता को भी एक बार फिर स्मरण कर लूँ जिसका उल्लेख मैंने पहले किया। वह आपत्ति करेगा : यह स्मृति जिसकी मैं बात कर रहा हूँ- यह एक ऐतिहासिक व्यक्ति गाँधी और राम की है, या केवल रामायण नाम के ग्रन्थ की और दूसरी तरफ़ उस फिल्म की? मैं उस आपत्ति से हतप्रभ नहीं होता। बल्कि मैं कहूँगा, जब तक लोग ऐसी आपत्ति कर सकते हैं तब तक आशा की गुंजाइश है, क्योंकि पुस्तक में, साहित्य और काल में, रचनात्मक शब्द में आस्था ही तो इस आपत्ति में प्रकट होती है! वह आस्था हमारा सम्बल है।

हमारी स्मृति के परिदृश्य उस बिन्दु से बनते हैं जिस पर हम खड़े होते हैं। किसी भी देश का साहित्य उस देश के द्रष्टाओं द्वारा स्वीकृत और प्रतिष्ठापित परिदृश्यों को प्रस्तुत करता है-उनकी स्मृतियों का सर्जनात्मक सम्प्रेषण करता है। मैं तो स्वयं लेखक हूँ, लेखक होने के नाते दूसरे लेखकों से यह माँग नहीं करता कि वे सामने आकर घोषित करें कि वे कहाँ खड़े हैं, जैसे कि मैं किसी दूसरे का यह अधिकार नहीं मानता कि वह मुझसे ऐसी माँग करे। लेकिन हम जो कुछ लिखते हैं, वह जिस तक पहुँचाना चाहते हैं, उस पर इस बात का प्रभाव अनिवार्यतया पड़ेगा कि हम कहाँ खड़े होकर, किस प्रकाश में रचना कर रहे हैं, वहाँ से स्मृति का कैसा परिदृश्य बनता है। स्मृतियाँ उसकी भी होंगी। क्योंकि भाषा उसकी भी है। उसका एक परिदृश्य भी पहले से होगा, जिसे हम अपने द्वारा प्रस्तुत परिदृश्यों से प्रभावित करेंगे। हमारी प्रामाणिकता की कसौटी का क्षेत्र यहीं है जहाँ ये परिदृश्य टकराते हैं-प्रामाणिकता उसके लिए भी और स्वयं हमारे अपने लिए भी।