स्मृति और देश / अज्ञेय

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[साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली में 'स्मृति के परिदृश्य’ शीर्षक के अधीन दिये गये दो व्याख्यानों में से पहला व्याख्यान।]

‘हम काल में जीते हैं’ यह ऐसी स्वयंसिद्ध बात है कि इसे कहना अनावश्यक होता है। इसलिए जब यह कही जाती है तब श्रोता को यह शंका होती है कि क्या यह बात कहने में वक्ता का आशय कुछ दूसरा है-क्या यह वास्तव में वही नहीं कह रहा है जो कि वह कह रहा है बल्कि किसी दूसरे ही आशय से हमें अवगत कराना चाहता है? इसी बात को उलटकर कहें कि ‘काल हममें जीता है’-और बात यों भी कई बार कही गयी है-तो श्रोता कुछ चौंकता है : यह काल के साथ एक-दूसरे के सम्बन्ध की प्रतिज्ञा है अथवा दूसरे प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न है। लेकिन काल, जिसमें हम जीते हैं अथवा जो हममें जीता है, वह है क्या? यह हम नहीं बता सकते। बल्कि जब प्रश्न पूछा जाता है तो अनुभव करते हैं कि हम उत्तर नहीं जानते। सन्त ऑगुस्तीन ने मर्म की बात कही थी जब उन्होंने कहा था कि ‘जब तक यह प्रश्न नहीं पूछा जाता तब तक उत्तर मैं जानता हूँ, पर जब कोई पूछ बैठता है तब नहीं जानता।’ काल वर्तमानता के रूप में, एक नैरन्तर्य अथवा सातत्य के बोध के रूप में, हमारी अनुभूति की चीज़ है; लेकिन अनुभूति सम्प्रेष्य नहीं है, हम उसका वर्णन ही कर सकते हैं। काल की हम परिभाषा करते हैं और हमारी हर परिभाषा काल की अवधारणा के लिए देश अथवा दिक् के आयाम का उपयोग करती है। काल की हमारी हर परिभाषा दिक्-सापेक्ष होती है; जैसे कि हमारी दिक् की परिभाषाएँ भी प्राय: काल-सापेक्ष होती हैं। यह कठिनाई हमारे गोचर अनुभवों की सीमा की कठिनाई है जो उन अनुभवों के वर्णन अथवा वृत्तान्त में प्रतिबिम्बित होती है। हमारे गोचर अनुभवों के संसार में दिक्काल के आयाम अलग नहीं किये जा सकते-सत्ता अथवा रिएलिटी का हमारा बोध एक दिक्काल-सातत्य में-स्पेस-टाइम कंटिन्युअम में-बनता है; दिक्काल के ताने-बाने से ही उसकी बनावट रची गयी है। लेकिन जहाँ तक बोध का सवाल है-अपने अनुभव की संप्रेषण की चिन्ता से मुक्त निपट अनुभूति का सवाल-काल का हमें एक सहज बोध होता है। जिस काल में हम जीते हैं, जो काल हममें जीता है, दोनों ही उस सहज बोध का अंग होते हैं : हम अपने शरीर के प्रत्येक अवयव में भी इस दोहरी गति को सहज ही पहचानते हैं। सत्ता के एक नैरन्तर्य का-भले ही अनुक्षण बदलते नैरन्तर्य का, ‘हम थे-हम हैं’ के एक सघन संश्लिष्ट सातत्य का सहज बोध हमें होता है। स्पष्ट है कि हमारी स्मृति यहाँ काम कर रही है। कोई इस बात को यों कहना चाहे कि सातत्य के इस बोध का ही नाम तो स्मृति है, तो फिलहाल काल-बोध और स्मृति के सम्बन्ध में हेतु और हेतुमत् का विवाद उठाना अनावश्यक होगा।

लेकिन काल के सहज-बोध की भाँति दिक् का भी कोई सहज बोध होता है? काल-सातत्य अथवा नैरन्तर्य की भाँति क्या दिक्-सातत्य अथवा विस्तार भी हमारे सहज बोध का एक अंग है?

जब हम यह कहते हैं कि दिक् और काल एक-दूसरे से ऐसे जुड़े हैं कि उनकी अलग परिभाषा भी नहीं की जा सकती, अथवा जब वह आग्रह करते हैं कि चार आयामों वाले दिक्काल-सातत्य की बात करना ही संगत है, तब हमने निहित रूप से यह मान लिया होता है कि दिक् का भी एक सहज-बोध अथवा प्रातिभ ज्ञान हमें होता है। ‘हम हैं’, यह कहने में ही हम न केवल अपने काल-गत अस्तित्व के बारे में एक दावा कर रहे होते हैं वरंच अपनी भौतिक सत्ता का भी एक दावा कर रहे होते हैं-दिक् के आयाम में भी अपने को प्रतिष्ठापित कर रहे होते हैं।

लेकिन नैरन्तर्य अथवा विस्तार का बोध करनेवाले हम ‘मैं’ को लेकर बहुत-सी कठिनाइयाँ खड़ी हो जाती हैं। ‘यह शरीर जो मैं हूँ’, ‘यह शरीर जो मेरा है’-इन दोनों पदों में प्रकट होनेवाला ‘मैं’ क्या एक ही है? ‘मैं’, ‘मेरा’ हूँ, यह कहने का क्या मतलब होता है? इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं देने जा रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि वह करने का प्रयत्न बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। फिर भी ऐसा प्रश्न उठा देना इसलिए भी उपयोगी मानता हूँ कि उससे कुछ दूसरे क्षेत्रों के कुछ दूसरे प्रश्नों का उत्तर तो हमें मिल ही जाता है अथवा कम-से-कम जिज्ञासा का क्षेत्र स्पष्ट प्रकाशित हो जाता है। भौतिक शरीर को इन दो सम्बन्धों में रखकर देखने के प्रयत्न का एक लाभ यह होता है कि विस्तार के सहज-बोध का एक आधार हमें मिल ही जाता है। इस शरीर की, जो ‘मैं’ हूँ या जो ‘मेरा’ है, पहुँच कितनी है, इसका हमें एक सहज अनुभव होता है और वह हमारे दिग्बोध का एक आधार है। जैसे ‘मैं’ वह हूँ जिसकी मुझे स्मृति है, ‘मैं उतना हूँ जितना मुझे स्मरण है’, यह हम काल के आयाम में कहते हैं, उसी प्रकार मैं ‘वह विस्तार या देश हूँ जहाँ मैं हूँ, मैं उतना हूँ जितनी जगह मैं घेरता हूँ’-यह हम दिक् के आयाम में कह सकते हैं। काल-सातत्य में हमारा टिकाव है, दिक्सातत्य हमारी पहुँच है। अगर इस पहुँच के कुछ स्थूल भौतिक रूप हैं और कुछ क्रमश: सूक्ष्मतर होते जाते हैं, तो पहुँच के इन विविध प्रकारों को एक क्रम में रखना भी हमारे लिए सम्भव हो जाता है, भले ही उस क्रम के विभिन्न पदों के सम्बन्धों को हम पूरी तरह न समझ पाते हों। मैं हाथ बढ़ाकर कलम उठा सकता हूँ, अथवा बिजली का बटन दबाकर कमरे में प्रकाश कर दे सकता हूँ; यह विस्तार का एक प्रकार का बोध है। लडक़े ढेला मारकर फल गिरा सकते हैं, या शैतानी पर उतारू होने पर किसी के घर के शीशे तोड़ सकते हैं, यह विस्तार का दूसरे प्रकार का बोध है। एक अन्तरिक्षयान यहाँ से छोड़ा जाकर इतने अर्से के बाद किसी ग्रह तक पहुँचेगा जो इस समय हमारे सामने की दिशा में नहीं है और जो स्वयं निरन्तर चक्कर काट रहा है, यह विस्तार का एक तीसरी कोटि का बोध है। यह कहना काफ़ी नहीं है कि इनका अन्तर केवल मात्रा का-छोटी और बड़ी का-अन्तर है : एक गुणात्मक अन्तर भी है। लेकिन प्रत्येक कोटि के बोध में हमारी स्मृति का कितना और कैसा योग है, इस प्रश्न को लेकर कठिनाई हो सकती है। उस कठिनाई का केवल संकेत करके छोड़ दें और एक दूसरे प्रकार के दिग्बोध की बात करें। शिशु माँ की गोद में अपने को सुरक्षित अनुभव करता है। गोद से उतरकर थोड़ी दूर पर खेलता है तो भी सुरक्षा का भाव वैसा ही बना रहता है। कुछ और दूर हटकर, ऐसी जगह पहुँचकर भी जहाँ से माँ उसे नहीं दीखती, वह अपने को उतना ही सुरक्षित अनुभव करता है। माँ भी बच्चे के अदृश्य होने पर भी उसके बारे में चिन्तित नहीं होती। लेकिन एक दूरी ऐसी आती है जिस पर बच्चा एकाएक असुरक्षा का अनुभव करता है। ऐसा भी सम्भव है कि वहाँ से उसे माँ दीख भी सकती हो, फिर भी मानो माँ से मिलनेवाली सुरक्षा की परिधि के वह अपने को बाहर पाता है-सुरक्षा का वह सूत्र मानो टूट गया होता है। माँ की ओर से भी ऐसी बात हो सकती है-एक दूरी के बाद वह बच्चे के बारे में एकाएक चिन्ताकुल हो उठे। विस्तार का यह बोध कैसा है? सहज दिग्बोध का यह कौन-सा आयाम है जिसके साथ सुरक्षा-असुरक्षा का भाव जुड़ा हुआ है? इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं जानता। अनेक प्रकार के वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक अथवा वैज्ञानिकता का आभास देनेवाले अनुमानों की बात जानता हूँ। और यह मानता हूँ कि जिस अनुभव की बात मैं कर रहा हूँ उसे हम सभी ने लक्षित किया होगा।

क्योंकि वह अनुभव हम सभी का परिचित है, इसलिए मेरा विश्वास है कि यह बात भी हम सब स्वीकार कर लेंगे कि यह सहज-बोध कहीं-न-कहीं हमारी-अर्थात् हमारे उदाहरण की माँ और बच्चे की-स्मृति से जुड़ा है। विस्तार की एक सहज स्मृति है। हमारी स्मृति में विस्तार का- दिक् के आयाम का एक सहज बोध है जिसके साथ हम आत्यन्तिक रूप से जुड़े हैं। वह बोध तभी नष्ट होता है जब स्मृति नष्ट होती है-अर्थात् जब व्यक्तित्व नष्ट हो गया होता है।

दिक् का यह आयाम हमारी सत्ता के साथ जुड़ा है।

जिस तरह काल की प्रतीति को हम जिस ढाँचे में रखते हैं-अथवा इसे उलटकर यों भी कह सकते हैं कि काल के जिस ढाँचे में हम काल की निजी प्रतीति को और अपने वर्तमान को रखते हैं-वह हमारे सारे इतिहास को और अपनी ऐतिहासिक स्थिति की समझ को प्रभावित करता है, उसी प्रकार दिक् की जिस संरचना में हम अपने को रखते हैं उसी से हमारा सारा भूगोल निर्धारित होता है और फलत: दिक्काल-सातत्य में हमारी अवस्थिति भी निर्धारित और निरूपित होती है। कहने को तो हम कह सकते हैं कि दिक् का विस्तार एक वैज्ञानिक वास्तविकता है, भले ही उसका एक पौराणिक प्रतिरूप भी हो-कि यह पौराणिक प्रतिरूप केवल काल्पनिक या मिथकीय अस्तित्व रखता है। वस्तुत: दिक् के इस आयाम को ‘पौराणिक’ या ‘मिथकीय’ कह देने से उसकी यथार्थता और उसकी प्रभावशीलता नष्ट नहीं हो जाती; हम केवल यथार्थ के एक-दूसरे आयाम की अवधारणा कर रहे हैं जो हमें उतनी ही व्यापकता से प्रभावित करता है।

जिस प्रकार काल की संरचना वर्तमान के उस बिन्दु से आरम्भ होती है जिस पर हम खड़े होते हैं-हमारा कालिक परिदृश्य वहीं से आरम्भ होता है-उसी प्रकार हमारी दिक् की संरचना भी उसी बिन्दु से आरम्भ होती है जिस पर खड़े होकर हम आसपास देखते हैं। दिग्विस्तार में हम खड़े हुए हैं, यह वैज्ञानिक सत्य भी है और पौराणिक भी; किन्तु ये दो अलग-अलग प्रकार के दिग्विस्तार हैं जिनके केन्द्र में हम अपने को रख रहे होते हैं। कहा जा सकता है कि वह ‘हम’ भी दो अलग-अलग प्रकार के आत्मबोध से सम्बन्ध रखता है।

विज्ञान के दिग्विस्तार को हम कई तरह से देख सकते हैं और वैज्ञानिक आवश्यकतानुसार ऐसा करते भी हैं। वैश्विक दिग्विस्तार को सूर्य-केन्द्रित परिदृश्य में भी देखा जा सकता है और दूसरी ओर (यह बात ध्यान में रखते हुए कि हमारे सौर-मंडल जैसे और भी अनेक सौर-मंडल आकाश में बिखरे हुए हैं) इस वृहत्तर विस्तार के किसी दूसरे केन्द्र की अवधारणा की जा सकती है। अथवा ऐसा भी हो सकता है कि एक बहुकेन्द्रिक विस्तार की बात की जाए। ठीक उसी प्रकार पौराणिक अथवा मिथकीय दिग्विस्तार के बारे में भी कहा जा सकता है। यहाँ भी देखनेवाली एक चेतना केन्द्र में है। लेकिन ‘किसके केन्द्र में? इसके एक से अधिक उत्तर हैं-इसके बावजूद कि एक सामान्य उत्तर हर हालत में बना रहता है कि ‘मैं दिग्विस्तार के केन्द्र में हूँ’ अथवा ‘दिग्विस्तार वह है जिसके केन्द्र मंा मैं हूँ।’’

‘मैं यह शरीर हूँ जो कि मैं हूँ।'

‘मैं इस शरीर में हूँ जो मेरा शरीर है।’

‘मैं दिग्विस्तार में एक जगह भरता हूँ, वह मैं हूँ अथवा वह मेरी है।’

‘जम्बू द्वीपे भरतखंडे’- विभिन्न अनुष्ठानिक अवसरों पर संकल्प पढ़ते समय हम अपने को काल के एक बिन्दु पर प्रतिष्ठापित करते हैं-’मासानाम् मासोत्तमे अमुक मासे अमुक वासरे’ इत्यादि और उसके साथ-साथ दिक् में भी विशेष बिन्दु पर स्थापित कर रहे होते हैं। अनुष्ठानिक रूप में मिथकीय दिग्विस्तार में खड़े होने के कारण ही सारा विश्व ब्रह्मांड हमारे संकल्प का साक्षी हो जाता है। दिक् संरचना के ये अनेक रूप हैं जिनका विस्तार अलग-अलग ढंग से अथवा अलग-अलग आयामों में होता है लेकिन प्रत्येक संरचना के केन्द्र में वही एक चेतना होती है जिसे हम ‘मैं’ की संज्ञा देते हैं। इन अवधारणाओं की अर्थवत्ता और शक्तिमत्ता को ध्यान में रखते हुए यह कहना उचित नहीं है कि दिक् संरचना के ये आयाम मिथकीय हैं, इसलिए काल्पनिक हैं, इसलिए मिथ्या हैं। ये सब उतने ही मिथ्या हैं अथवा सत्य हैं जितना हमारा अनुभव, हमारे अनुभवों की हमारी स्मृति, और संचित स्मृतियों के आधार पर बना हुआ हमारा आत्मबिम्ब। अनुभव और अनुभव की स्मृति के साथ दिग्बोध को जोडऩे का स्पष्ट आशय यह तो है ही कि दिक्संरचना का एक मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक आयाम है। दूसरे शब्दों में हम भीतरी, मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक देश की भी अवधारणा कर सकते हैं। ‘मैं’ वह (या उतना) दिग्विस्तार हूँ जिसे मैं भरता हूँ-यह वाक्य भी जैसे भौतिक अथवा भौगोलिक स्तर पर अर्थ रख सकता है वैसे ही इसका एक मानसिक मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक आयाम भी है। पक्षी घोंसला बनाते हैं तो स्थूल सीमाओं के घेरे के भीतर चक्कर काट-काटकर एक सूक्ष्म दिग्विस्तार की रचना कर लेते हैं और शायद यह सूक्ष्म संरचना ही पक्षी का असली घोंसला होती है। (या पक्षी का असली घोंसला वह होता हो या न हो, मनुष्य जब घोंसले की अवधारणा करता है तब इस सूक्ष्म संरचना को ही अधिक महत्त्व दे रहा होता है और वह सूक्ष्म संरचना ही रूपक का आधार बनती है, नया मुहावरा देती है, भाषा को समृद्ध करती है।) अनेक चौपाये भी विश्राम के लिए बैठने से पहले चक्कर काटकर एक सूक्ष्म घेरे की रचना करते हैं जो उनके विश्राम स्थल का घेरा होगा, और तभी उसके भीतर बैठते हैं। जिस प्रकार पशु-पक्षी दिग्विस्तार में एक ‘अपने’ देश की रचना करके उसमें बसते हैं उसी प्रकार मानव प्राणी भी करता है। एक सूक्ष्म देश रचना की इस प्रवृत्ति का एक पक्ष ऐसा है जो समूची मानव जाति को व्यापता है, दूसरा पक्ष विभिन्न संस्कृतियों से अलग-अलग ढंग से प्रभावित होता है और जो रचना है उसे हम सांस्कृतिक देश अथवा दिक् कह सकते हैं। मानव शरीर को ही एक भौतिक इकाई अथवा सूक्ष्म जीव के आवास के रूप में देखने के जो परिणाम होते हैं उनकी ओर संकेत हो ही चुका है। दिक् संरचना का क्रम शरीर के बाहर भी वृत्त रचता चलता है। गरीब-से-गरीब भारतीय व्यक्ति भी अपने शरीर को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करता है, भले ही नहा लेने के बाद वह फिर कपड़े मैले ही पहन ले। भारतीय गृहिणी घर-आँगन की सफाई करती है और कूड़ा बाहर गली में फेंक देती है। आधुनिक प्रभाव को छोड़ दें तो बाहर से आनेवाला व्यक्ति जूते बाहर उतारकर घर में प्रवेश करता है जिससे घर की स्वच्छता दूषित न हो। दूसरी ओर, पश्चिम का व्यक्ति कपड़े साफ पहनना चाहता है लकिन शरीर की सफाई के प्रति बहुधा बड़ी उपेक्षा बरतता है जो सदैव निर्धनता के कारण नहीं होती। गली और सडक़ और घर के समूचे बाहरी परिदृश्य की स्वच्छता की इसे बहुत चिन्ता रहती है। पर घर के भीतर बर्तन कई-कई दिन तक जूठे पड़े रह सकते हैं। ऐसे ही और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस सूक्ष्म दिक् संरचना की बात मैंने कही है वह कहाँ तक संस्कृति से प्रभावित होती है। यह दोहराने की तो आवश्यकता न होनी चाहिए कि सूक्ष्म अथवा आभ्यन्तर देश की रचना के साथ हमारा जो सम्बन्ध है वह हमारे स्थूल परिदृश्य को भी अनिवार्यतया प्रभावित करता है क्योंकि देश की जिस संरचना के केन्द्र में हमारी चेतना होती है उसके सूक्ष्म और स्थूल रूपों में निरन्तर संवाद और सम्प्रवाह बना रहता है। सांस्कृतिक अथवा पौराणिक देश के लिए युद्ध लड़े जाते हैं-बल्कि युद्ध अधिकतर उसी के लिए लड़े जाते हैं और उसी से युयुत्सा भी प्रेरणा पाती है : स्थूल भू-विस्तार तो एक निमित्त बना जाता है। दूसरी ओर, देश छोडऩे को बाध्य हो गयी जातियाँ नए देश में अपनी पुरानी सांस्कृतिक दिक्-संरचना की पुन: प्रतिष्ठा कर लेती हैं-एक ओर अयोध्या अथवा काशी बन जाती है, एक नया कैलाश पर्वत अथवा वृन्दावन बन जाता है-और इस प्रकार अपने विस्थापन में अपने को फिर से स्थापित कर लेती है, अपनी ‘जमीन’ से अपने को ‘उखडऩे’ नहीं देती...

अस्मिता की यह पुन: प्रतिष्ठा सत्ता-बोध के साथ जुड़ी है, और स्मृति ही उसका आधार है।

सत्ता और स्मृति। स्मृति और कल्पना। कल्पना और बिम्ब। स्मरण, कवन और कल्पन। यह असम्भव नहीं है कि शास्त्र-ज्ञान का किसी तरह का कोई प्रकट या निहित दावा किये बिना इन शीर्षकों के या ऐसे किसी शीर्षक के निमित्त से केवल कविता अथवा रचना की भूमि पर खड़े होकर बात की जाए। लेकिन वैसा करने पर भी एक व्यावहारिक प्रश्न सामने आता है। वैसे विचार के लिए कदाचित् अधिक उपयोगी यही हो कि काव्य से-रचनात्मक साहित्य से-कुछ उदाहरण पहले लिये जाएँ और उन्हीं को आधार बनाकर सामान्य स्थापनाओं की ओर बढ़ा जाए। किन्तु इस पद्धति को व्यावहारिक मानकर भी आज ऐसे अवसर पर और ऐसे समाज में, उसकी उपादेयता का भरोसा नहीं कर पाता। क्योंकि इस समाज के वैदुष्य और उसकी सहृदयता को स्वीकार करते हुए भी निश्चयपूर्वक यह नहीं सोच सकता कि उदाहरण के लिए सामग्री किस साहित्य से या कौन-कौन-से साहित्यों से ली जा सकती है। बहुभाषी समाज के भाषा-संस्कार तो अलग-अलग होंगे ही, उनके स्मृति भंडार भी अलग-अलग होंगे। निश्चय ही बहुत-सी समान सामग्री भी उनमें होगी, लेकिन उसकी उपस्थिति का भी मैं अनुमान ही कर सकूँगा। इसलिए उस सम्भाव्य व्यावहारिकता को मानकर भी मुझे दूसरा ही रास्ता पकडऩा अधिक उपयोगी जान पड़ता है-सामान्य विचार और स्थापनाओं का रास्ता, जिस पर कहीं-कहीं ऐसे उदाहरण भी दिये जा सकते हैं जिनके बारे में विश्वास किया जा सकता हो कि वे विभिन्न भाषा-समाजों से परिचत होंगे।

उपनिषदों में एक अनोखे पेड़ का उल्लेख किया गया है जिसकी जड़ें ऊपर को फैली हैं और जिसकी शाखाएँ नीचे की ओर बढ़ती हैं। यह ऊध्र्वमूलमध:शाखा वृक्ष क्या केवल एक रूपक है, अथवा हमारे अनुभव से इसका कोई गम्भीरतर सम्बन्ध भी है? अनुभव से सम्बन्ध है तो स्मृति से भी सम्बन्ध है। लेकिन स्मृति का एक स्तर यह है कि वृक्ष होता है जिसकी जड़ें और शाखाएँ होती हैं-जड़ें नीचे रसवती वसुन्धरा धरती की ओर फैलती हैं और शाखाएँ ऊपर प्रकाश से भरे अन्तरिक्ष की ओर। इससे आगे कल्पना इस स्मृति-बिम्ब को उलटकर यह अनोखा पेड़ रच रही है। लेकिन क्या वह अनोखा पेड़ केवल एक अवधारणा है, केवल एक रूपक है? क्या वास्तव में यह अनोखा उलटा पेड़ ही हमारे अधिक गहरे अनुभव का अंग नहीं है? क्या उलटे वृक्ष का यह बिम्ब भी कल्पना-प्रसूत न होकर हमारी स्मृति का ही अंग नहीं है? अर्थ-विस्तार के लिए हम इस उलटे वृक्ष के रूपक को लेकर कल्पना को चाहे जितनी छूट दें, क्या कहीं पर यह बिम्ब मानवीय अस्तित्व के आरम्भ का एक स्मरण-बिम्ब नहीं है? क्या भ्रूण की स्थिति ऐसे ही ‘ऊर्ध्वमूलमध:शाखा’ वृक्ष की नहीं है जिसे पोषण देनेवाली ‘भूमि’ ऊपर है और जिसे विस्तार का अवकाश देनेवाला ‘आकाश’ नीचे है? एक अवस्थिति की प्राक्तन समृति इस उलटे पेड़ के बिम्ब में संचित है; एक दूसरे प्रकार की अवस्थिति के अनेक बिम्ब भी हम संचित करते हैं जिनमें पेड़ सीधे उगे होते हैं, उनकी जड़ें और उन्हें पोषण देनेवाली भूमि नीचे होती है और उन्हें विस्तार का अवकाश देनेवाला आकाश ऊपर होता है। और इन दो विपरीत बिम्बों को जोडऩेवाले-उनमें एक बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव स्थापित कर देनेवाले-एक पेड़ को भी हम देख पाते हैं, प्रत्यक्ष भी और प्रस्तर-मूर्तियों में अंकित भी, और यह न्यग्रोध वृक्ष भी हमारी स्मृति में बस जाता है। कवि के लिए वह फिर प्रतीकन और कल्पना के नए मार्ग खोल देता है। लेकिन स्मृति की महत्ता इसी में नही है। उसका वास्तविक महत्त्व इस बात में है कि वह ‘ऊपर’, ‘नीचे’ और ‘मध्यवर्ती’ का एक अमिट बोध हमें देती है-ऊध्र्वाधरता अथवा अनुलम्बता का, दिक् की संरचना के हमारे ज्ञान का आधार बनाती है। जापानी भाषा में मानव की संज्ञा का अर्थ ही होता है मानवी मध्यवर्ती-अर्थात वहाँ ऊध्र्वाधर के, वर्टिकैलिटी के, इस बोध को ही मानवीयता की परिभाषा का आधार बना दिया गया है। ऊध्र्व और अधर के सीधे और उल्टे का यह बोध एक तरफ हमारे गोचर अनुभवों की आधार-भित्ति है और दूसरी तरफ हमारी सर्जनात्मक कल्पना की।

दिक् की संरचना के इस आधारभूत बोध के साथ उस संरचना की समझ के और भी पक्ष जुड़ते जाते हैं। स्थिरता का बोध जगानेवाला चौकोर प्रकोष्ठ जो धरती अथवा पृथ्वी का प्रतीकन करता है-लेकिन प्रकोष्ठ का प्रतीक-रूप पाने से पहले वह घर के एक आदिम बिम्ब के रूप में हमारी चेतना का अंग बनाती है। इस आदि बिम्ब का ही फिर विस्तार होता है : हमारी स्मृति, हमारी कल्पना हमारी बुद्धि सभी उसी आधार-बिम्ब के ऊपर अपने-अपने ढंग की इमारत खड़ी करते हैं, प्रतीक रचते हैं और संकेतों का आविष्कार करते हैं। घर का अथवा कुटीर का बिम्ब स्थिरता और सुरक्षा का ही बिम्ब नहीं है; वह ऊपर और नीचे, ऊध्र्व और समतल के हमारे बोध का भी आधार है। घर है तो ‘भीतर’ और ‘बाहर’ भी है। और घर है तो छत भी है और तलघर भी। और अनन्तर छत से ऊपर के प्रासाद भी हैं और भू-तल से नीचे के पाताल-लोक भी। प्रश्न उठ सकता है कि इनकी चर्चा करते हुए क्या हम स्मृति-शक्ति की बात कर रहे हैं अथवा कल्पना-शक्ति की? लेकिन मैं पहले भी यह कह चुका कि स्मृति के बिना कल्पना नहीं है। और यह भी है कि कल्पना से भी हम जो लोक रचते हैं-और कल्पना अनवरत क्रियाशील रहती है-वे हमारे रचे हुए लोक भी हमारी स्मृति का अंग बनते चलते हैं। इसी प्रकार हमारे स्वप्न और हमारे दिवास्वप्न हमारी स्मृति का कोश विकसित करते चलते हैं और नई कल्पनाओं की सम्भावनाओं की रचना करते चलते हैं। स्मृति के भंडार को भी समृद्धतर करते चलते हैं और उससे किसी बिम्ब का आह्वान करने के अपने साधन-अपनी शब्दावली को भी बढ़ाते चलते हैं। साथ-ही-साथ हमारे स्वप्न और दिवास्वप्न वास्तविकता को अथवा यथार्थ को नापने-कूतने और समझने के हमारे साधनों को और हमारे सामथ्र्य को बढ़ाते चलते हैं।

ऊपर, नीचे और मध्य। स्थिर और सुरक्षित। घर के ये अन्तर-ग्रथित और परस्परभेदी स्मृति-बिम्ब हमारे विश्व की संरचना के आधारभूत बिम्ब हैं। छत और तलघर की बात मैंने अभी कही; लेकिन दुर्ग, गढ़, नगर, ग्राम, दुर्ग-द्वारका और पूरयोध्या अथवा अयोध्या की रचना का आरम्भ भी यहीं से होता है। कुटीर की आधारभूत स्मृति की शक्ति की इन सबकी कल्पना का भी आधार बनती है और उनकी संरचना, उनके निर्माण का आधार भी। और क्योंकि ऊपर और नीचे, भीतर और बाहर की अवधारणा हमारी स्मृति के इस कुटीर के साथ आधारभूत रूप से जुड़ी हुई है, इसलिए हम अपनी देह को भी अपने दुर्ग के रूप में देख सकते हैं-अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या अथवा हाउस ऑफ गॉड-और सारे विश्व-ब्रह्मांड को अपने एक आवास अर्थात घर के रूप में भी पहचान सकते हैं-यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्। और हम भरे-पूरे आवासित दिक् को भी जान लेते हैं जो हमारा संसार है, और उस महारिक्त को भी जान लेते हैं जो कि आज विज्ञान का दिक् अथवा आकाश है-एम्प्टी स्पेस-लेकिन जिसे हम ‘शून्य’ कहते हैं, अर्थात रिक्त नहीं बल्कि वह जो रिक्त को भरता है, जैसे छत्ते को मधु भरता है; जो स्वयं निरालोक है लेकिन जिसमें ही पडक़र जो कुछ चमकता है, वह चमकता है।

मैंने चौखूँटे प्रकोष्ठ को आदिम घर अथवा कुटीर कहा है और फिर दुर्ग और नगर के विस्तार की बात की है। जब तक यह घर एक कुटी है तब तक उसकी छत और उसका फर्श दिक् की हमारी संरचना में कुछ और स्थान रखते हैं। और उनकी स्मृति के स्रोत उस घर-कुटीर से भी जुड़ते हैं जिसमें जन्म हुआ, उससे पहले की गर्भस्थ अवस्था में भी। दिवास्वप्न उस स्मृति के द्वार खोलता है और वहाँ के रचनाकार की कल्पना नई सृष्टि पाती है। दुर्ग और नगर और अनेक मंजिलोंवाली इमारतें हमारी दिक्-संरचना को नया विस्तार देती हैं पर साथ ही उसे विकृत भी करती हैं। शहर के घर में छत के ऊपर आकाश नहीं होता, दूसरे घर का फर्श होता है। नीचे भी बहुधा जमीन नहीं होती बल्कि दूसरे घर की छत होती है। मनुष्य ऊध्र्वाधरता के आयाम में तो रहता है, पर दूसरे मनुष्यों के सिर पर सवार होकर या उनके पैरों के नीचे दबा हुआ। विकृति का और भी महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि जहाँ कुटीर के साथ एक द्वार अथवा झरोखा और उसमें टिमटिमाता दीये का प्रकाश होता है-एक समग्र बिम्ब जिसमें सुरक्षा भी है और आशा भी-वहाँ शहरी स्थिति में उसका स्थान अनेक प्रकार के विकृत और विखंडित बिम्ब ले लेते हैं। अकेलेपन के बोध के लिए गुंजाइश कुटीरवाली आदिम स्थिति में भी रहती है : दूर प्रकाशित झरोखेवाले कुटीर को देखती हुई चेतना उस सूने विस्तार का भी अनुभव करती है जिसमें वह अकेली है :

मेरे छोटे घर-कुटीर का दिया

तुम्हारे मन्दिर के

विस्तृत आँगन में

सहमा-सा रख दिया गया,

लेकिन फिर भी उस अकेलेपन में उस कुटीर के साथ उस चेतना का सम्बन्ध आश्वस्ति का सम्बन्ध रहता है। शहर का कमरा वैसे आश्वस्ति भाव के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। शहर के कमरे की ओर ताकती हुई चेतना अपने को अकेला पाती है तो वह अकेलापन सूने खुले विस्तार का अकेलापन नहीं होता बल्कि एक सुरंग का अथवा बोगदे का अकेलापन होता है।

गाँव-घर और शहर-घर की बात हो रही है तो वह भी संकेत कर दिया जाए कि शहर का घर जब बोगदे का रूप ले लेता है तो दिक् के साथ कोई घनात्मक रिश्ता बनने की सम्भावना नहीं रहती। दूरी वहाँ है, चलना भी वहाँ है, लेकिन सफर के अन्त में साथ जुड़ा हुआ आश्वासन अथवा उपलब्धि का भाव नहीं है। अकेलापन है, वीरानगी है, वंचित किए गये होने का भाव है, प्रति हिंसा है- एक लक्ष्यहीन अन्धी जिज्ञासा है। दूसरी ओर कुटीर का झरोखा मानो कुटीर की आँख है, अपलक बाट जोहती हुई आँख। कह सकते हैं कि इस प्रकार बोगदा भी और कुटीर भी जितने दिक् के बिम्ब हैं उतने ही काल के भी; लेकिन एक में काल सूखा और विजडि़त है, दूसरे में रससिक्तऔर स्पन्दनशील।

देश की संरचना और उसका विकृतियों-विसंगतियों की जिनकी बातें मैं कह रहा हूँ, सभी के उदाहरण प्रभूत मात्रा में समकालीन साहित्य में मिल जाएँगे, जैसे कि आधारभूत बिम्बों के उदाहरण संस्कृत और अपभ्रंशों के साहित्य में। ग्राम-चेतना और नगर-बोध और महानगर-चेतना की समकालीन बहसें भी उनके साथ जुड़ जाएँगी।

इस बात की ओर भी संकेत किया जा सकता है कि जिस ऊध्र्वाधर अथवा अनुलम्ब संरचना का उल्लेख मैंने पहले किया उसकी अवधारणा भी दिक्तक सीमित नहीं रहती बल्कि काल की भी एक संरचना हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। ‘ऊपर’, ‘बीच’ और ‘नीचे’ (या उपनिषद के अनोखे वृक्ष को सामने रखते हुए प्रतीप क्रम से नीचे, मध्य में और ऊपर, भू: भुव: स्व:) दिक्-संरचना से विचलित होकर काल-संरचना में भविष्य, वर्तमान और अतीत, ‘आगे’, ‘यहाँ’ और ‘पीछे’ में परिवर्तित हो जाते हैं। वास्तव में तो यह एक समान्तर संरचना नहीं है बल्कि उस दिक्काल सातत्य के बारे में ही दो तरह के बयान हैं जिसकी बात मैंने पहले भी की थी : अन्ततोगत्वा तो दिक् और काल एक अविभाज्य संरचना के ही अंग हैं।

मुझे कदाचित् आतंकित होना चाहिए कि अब तक की चर्चा में मैंने कितनी विधाओं, कितने शास्त्रों के क्षेत्र में हाथ डाला है जिनमें किसी की भी विधिवत् दीक्षा मुझे नहीं मिली है, किसी का कोई ज्ञान मुझे नहीं है। ‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि’और ‘फूल्स रश इन ह्वेयर एंजेल्स फियर टु ट्रेड’ की व्यंजनाओं में बहुत दूरी नहीं होती! लेकिन कवि जब किसी सहज अथवा प्रातिभ ज्ञान के प्रति खुले रहने का दावा करता है, अथवा दावा नहीं भी करता तो ऐसा विश्वास रखता है कि ऐसे खुलेपन में ही वह समय-समय पर उस दिव्य आलोक का संस्पर्श पा सकेगा जिसमें ही सर्जना-कर्म होता है, तब वह यह भी मान लेता है कि समय-समय पर उसके द्वारा ऐसे अनधिकृत काम भी होते रहेंगे!

मैंने कहा कि मुझे शायद आतंकित होना चाहिए, लेकिन आतंकित मैं हूँ नहीं। क्योंकि आलोक के क्षणों में जो परिदृश्य खुल जाते हैं उन्हें किसी शास्त्र-सम्मत व्यवस्था में जुडऩे का काम कवि का नहीं है। वह काम तो शास्त्रों का है। कवि को मिलनेवाले आलोक को भी मैंने दिव्य इसीलिए कहा है कि वह स्मृति का आलोक है और वह स्मृति तर्कातीत है। स्मृति के परिदृश्य इतिहास के परिदृश्य नहीं हैं बल्कि इतिहास से मुक्तिके परिदृश्य हैं। वह दिव्य प्रकाश तथ्यों को मूल्यों से वेष्टित करता है; यदि हम उन मूल्यों को नकारते अथवा मिटा देते हैं तो उन तथ्यों का भी कोई अस्तित्व नहीं रहता। कवि के लिए यह मुक्तकरनेवाला मूल्य ही केन्द्रीय तत्व है और उसी के आस-पास सारा संसार घूमता है। कवि के लिए दिक्काल की बाहरी संरचना दिक्काल के एक आभ्यान्तर बोध का आवेष्टन है अवश्य ही इन दोनों संरचनाओं में एक अभिन्न और परस्पर-भेदी सम्बन्ध है; बाहरी संरचना कबीर की ‘झीनी चदरिया’ नहीं है जो उतारकर ‘जस की तस धर दी’ जा सकती है : जैसे कि भीतर की संरचना भी केवल बाहर की संरचना की एक उपज नहीं है। कवि की इन उद्भावनाओं में कभी अन्तरविरोध भी होता है तो वह उससे हतप्रभ नहीं होता, भले ही वह वाल्ट ह्विटमैन की तरह ललकारकर यह न कह दे कि ‘मुझमें अन्तरविरोध है तो क्या हुआ, मैं विराट हूँ और समूहों को अपने में समोए हूँ।’

विराट का यह बोध ही सर्जनात्मक स्मृति का एक महत्त्वपूर्ण परिदृश्य है। कवियों के विराट्-दर्शन के वृत्तान्त उस प्रकार सुरक्षित नहीं रखे जाते जिस प्रकार पुराण-पुरुषों के अथवा धर्मगुरुओं के विराट्-रूप-दर्शन के वृत्तान्त रखे जाते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि कवि को जब ऐसी झाँकी मिलती है तो वह ऐसा नहीं मान लेता कि उसने सम्यक् सत्य का अन्तिम स्वरूप देख लिया है अथवा उसे शब्दों में बाँध लिया है; फिर वह प्रभाव उसमें सदैव बना भी नहीं रहता। दिव्य आलोक उस दीवाने को जब-तब छूता है, पर फिर उसकी धारा आगे निकल जाती है। महाप्रभु चैतन्य ने सागर में एक विराट् रूप का दर्शन किया था जो उनके प्रिय का रूप था और जिसमें उन्होंने लय हो जाना चाहा था। भगवान बुद्ध ने एक-दूसरे विराट् का दर्शन किया था जिससे उन्हें सम्बोधि प्राप्त हुई थी; यह विराट् रूप भी एक तरह से अन्तिम सत्य का ही रूप था यद्यपि तथागत का यह आदेश था कि उस सत्य को जो कोई देखे अपने ही प्रकाश में देखे, उनके उपदेश में श्रद्धा के सहारे नहीं : ‘अप्प दीपो भव।’ आत्म-दीप कवि भी होता है, और कदाचित् उसके दीप की लौ से असंख्य दूसरे दीयों की बत्तियाँ आग पकड़ती हैं। लेकिन कवि का विराट् दर्शन अन्तिम नहीं होता। शायद यह कहना भी अन्याय न हो कि कवि का विराट दर्शन होता भी नहीं : वह विराट के स्वरूप को नहीं देखता बल्कि केवल यह बोध प्राप्त करता है कि विराट है-और वह भी जब-तब, विरल क्षणों में। इसी बोध का प्रकाश उसके शब्द को दीप्त कर जाता है और उसकी भाषा को अपूर्वानुमेय बना जाता है। भाषा एक सामाजिक समय है; समाज में सम्प्रेषण का आधार वही हो सकता है जो न केवल पूर्वानुमेय है वरंच जिसे प्रत्येक पद का एक निर्धारित मूल हो। इस अर्थ में भाषा एक और अनेक को परस्पर एक-दूसरे से बाँधती है जैसे कि वह शब्द-व्यवहार को समय से बाँधती है। सर्जनात्मक भाषा समय से ऊपर उठती है, अपूर्वानुमेय होती है, सम्प्रेषण की नई प्रणालियाँ ही नहीं, सम्प्रेष्य नया संसार भी रचती है। इस प्रकार रचनात्मक भाषा बन्धनों से मुक्त करती है और मुक्ति के नए गलियारे उद्घाटित करती है।

यहाँ पर कदाचित् एक बात की ओर इशारा कर देना उपयोगी हो। रचनात्मक साहित्य पढऩेवाले सभी लोग जानते हैं कि भाषा की जिस अपूर्वानुमेय शक्ति की बात मैं कह रहा हूँ उसका वास शब्द में होता है। भाषा को मैंने एक व्यापक सामाजिक समय के साथ जोड़ा है क्योंकि संवाद का पहला आधार तो यही होता है लेकिन रचनात्मक भाषा इस समय सेऊपर उठती हुई हमें परे ले जाती है; इसी में तो उसकी सृजनात्मक शक्ति अथवा अपूर्वानुमेयता है, यही तो हमें समय से मुक्त करती है। यह शक्ति शब्दों के सामान्य अर्थों में नहीं होगी यह तो स्पष्ट ही है : सामान्य अर्थ तो सामाजिक समय से बँधा है। लेकिन यह शक्ति रचनात्मक शब्द की गूँज और अनुगूँज तक भी सीमित नहीं है। रचनात्मक शब्द की गूँज होती है उससे फिर अनुगूँजें अनेक दिशाओं में फैलती हैं। काव्य का जो शब्द इस प्रक्रिया को जितनी गहराई और व्याप्ति देता है उसके आधार पर हम काव्य को उतना महत्त्व देते हैं और उसका प्रभाव उतना टिकाऊ भी होता है। लेकिन मुक्त करनेवाली प्रक्रिया की यह अन्तिम सीमा नहीं है यह समझ लेना भी ज़रूरी है। आलोचकों में ऐसे लोग हैं जो मान लेते हैं कि यही एक अनुरण है जिसकी चर्चा पुराने काव्यशास्त्रियों ने की। वास्तव में अनुरणन इससे परे की चीज़ है-प्रभाव का एक दूसरा ही आयाम अथवा विस्तार है। गूँज और अनुगूँज को हम लागातार एक ही उत्स अथवा आरम्भ-बिन्दु से जोड़े रहते हैं। अनुरणन एक व्यापक प्रभाव है जो बहुकेन्द्रिक हो जाता है; जो सत्ता के दूसरे कई स्रोतों से भी ऊर्जा प्राप्त करता चलता है। श्रेष्ठ काव्य की एक गूँज ऐसी भी होती है जो कालान्तर में प्रकट होती है, जिसका असर दूसरी विधाओं में, ज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में क्रियाशील हो जाता है। ऐसे अपूर्वानुमेय प्रभाव भी अनुरणन हैं, केवल गूँज नहीं।

काव्य की इस दुरागत प्रभविष्णुता को स्मृति का ही एक रूप मानना होगा लेकिन उसको समझने में कठिनाई होने के कारण उसे पूर्व जन्म के संस्कारों से जोड़ा जाता है। लेकिन है वह स्मृति का ही एक सर्जनात्मक आयाम।

इस सर्जनशीलता का आधार क्या है, स्रोत कहाँ है? इसका सीधा और आसान उत्तर है-’कल्पना में’। लेकिन यह कल्पन, यह कल्प रचने की शक्ति अथवा प्रतिभा, इसका आधार क्या है? इसके निश्चय ही दूसरे भी उत्तर हो सकते हैं और उनमें से कुछ उत्तर सीधे और आसान भी जान पड़ेंगे। एक तरह से सीधे उत्तर उन्हें तोष देंगे जो ईश्वर में आस्था रखते हैं, एक दूसरी तरह के सीधे उत्तर उन्हें जो ईश्वर को नकारते और आधारभूत भौतिक सत्ता पर आग्रह करना चाहते हैं। कवि के लिए इन दोनों में से कोई एक प्रतिज्ञा आवश्यक नहीं है, क्योंकि इनमें से किसी एक को काटना भी उसके लिए ज़रूरी नहीं है। इस क्षेत्र में ज़रूरी कुछ है तो यही जानना कि अगर दोनों प्रतिज्ञाओं में से किसी एक से भी आरम्भ करके भी सर्जना-कर्म हो सकता है, विराट तत्त्व का बोध हो सकता है, भाषा की अपूर्वानुमेय शक्ति प्राप्त की जा सकती है और मुक्ति का आह्वान किया जा सकता है, तो वह क्या हो सकता है जो इन दोनों के बीच सेतु का काम करे? वह कौन-सा परिदृश्य हो सकता है जो इन दोनों के लिए रास्ते खुले रखते हुए हमारे लिए विराट का संस्पर्श पाने की सम्भावना बनाये रखे, हमारे चिदाकाश में भी वह दिव्य आलोक झरने दे जिसका मैंने पहले उल्लेख किया है? यह परिदृश्य स्मृति का ही परिदृश्य हो सकता है। यह ज़रूरी नहीं है कि हम इस स्मृति को ‘पूर्वजन्मों के सौहृदों की पर्युत्सुक करनेवाली स्मृति’ मानें जैसा कालिदास ने संकेत किया था, न यही ज़रूरी है कि हम उसे अवचेतन में छिपी मगर सुरक्षित जातीय स्मृति मानें, जैसे कि कार्ल युंग की अवधारणा है। यह भी ज़रूरी नहीं है कि वह रम्य और मधुर वस्तुओं को देखकर ही जागृत हो, अथवा उसके संस्पर्श के लिए जंगलों-देहातों में घूमना अथवा नदी-झरनों-पेड़ों का सान्निध्य आवश्यक हो। उसके लिए तो अपने प्रति खुला रहना ही एक मात्र ज़रूरी शर्त है : यह अपनापन ही वन्य भी है, देहाती भी, शहरी भी, प्राचीन भी और समकालीन भी; यही स्मृतियों का भंडारण भी करता है और उनका संयोजन-संपादन भी : यही उन्हें आह्वान होने पर उपलब्ध भी कराता है और उनकी ऊर्जा को सर्जक के द्वारा उपयोज्य बनाता है।

प्राग्बिम्बों की स्मृति दोनों अवधारणाओं में अक्षुण्ण बनी रहती है। ये प्राग्बिम्ब ही हममें एक पर्युत्सुकी भाव भी जगाते हैं और हमें मुक्ति की प्ररेणा भी देते हैं। और ये प्राग्बिम्ब स्मृति के ही बिम्ब हैं। स्मृति का परिदृश्य ही हमारी बेचैनी और उत्कंठा का भी परिदृश्य है, हमारी सर्जनातम्क कल्पना और हमारी सम्भाव्य मुक्ति का भी। आधुनिक प्रौद्योगिकी और संचार-व्यवस्था का सारा जोर इस पर है कि जानकारियों का निरन्तर वर्धमान भंडार हमारे बाहर हमारे भंडार-केन्द्रों में सचित होता जाए और परिणामत: हम कुछ भी स्मरण रखने की आदत और जरूरत से छुट्टी पा जाएँ। और कवि की कल्पना की, उसकी सर्जनात्मक स्मृति की प्रतिज्ञा है कि वह हमें भूलने नहीं देगी। लोग कभी-कभी पूछते हैं कि इक्कीसवीं सदी में-कम्प्यूटरों की सदी में-कविता की जरूरत क्या होगी? हमारी स्मृति का परिदृश्य ही हमारे उत्तर में विश्वास का बल भरता है-कि अगर हमें तब अपनी ही कोई जरूरत होगी तो कवन की-काव्य के रचना-कर्म की-भी जरूरत होगी। जब-और अगर-हमने अपने को ही गैर-ज़रूरी बना दिया होगा तब की बात दूसरी है। और वह बात दूसरों के करने की है, न कवि के, न सहृदय के।