स्मृत रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
स्मृत रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
जिस प्रकार हमारी ऑंखों के सामने आए हुए कुछ रूप व्यापार हमें रसात्मक भावों में मग्न करते हैं उसी प्रकार भूतकाल में प्रत्यक्ष की हुई कुछ परोक्षवस्तुओं का वास्तविक स्मरण भी कभी-कभी रसात्मक होता है। जब हम जन्मभूमि या स्वदेश का, बालसखाओं का, कुमार अवस्था के अतीत दृश्यों और परिचित स्थानों आदि का स्मरण करते हैं, तब हमारी मनोवृत्ति स्वार्थ या शरीरयात्रा के रूखे विधानों से हटकर शुद्ध भावक्षेत्र में स्थित हो जाती है। नीतिकुशल लोग लाख कहा करें कि 'बीती ताहि बिसारि दे', 'गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या लाभ?' पर मन नहीं मानता, अतीत के मधुस्रोत में कभी-कभी अवगाहन किया ही करता है। ऐसा स्मरण वास्तविक होने पर भी रसात्मक होता है। हम सचमुच 'स्मरण' करते हैं और रसमग्न होते हैं।
स्मृति दो प्रकार की होती है-(क) विशुद्ध स्मृति और (ख) प्रत्यक्षाश्रित (मिश्रित) स्मृति या प्रत्यभिज्ञान।
विशुद्ध स्मृति
यों तो न जाने कितनी बातों का हम स्मरण किया करते हैं, पर इनमें से कुछ बातों का स्मरण ऐसा होता है जो हमारी मनोवृत्ति को शरीरयात्रा के विधानों की उलझन से अलग करके शुद्ध मुक्त भावभूमि में ले जाता है। प्रिय का स्मरण; बाल्यकाल या यौवनकाल के अतीत जीवन का स्मरण, प्रवास में स्वदेश के स्थलों का स्मरण ऐसा ही होता है। 'स्मरण' संचारी भावों में माना गया है जिसका तात्पर्य यह है कि स्मरण रसकोटि में तभी आ सकता है जबकि उसका लगाव किसी स्थायी भाव से हो। किसी को कोई बात भूल गई हो और फिर याद हो जाय; या कोई वस्तु कहाँ रक्खी है, यह ध्याोन में आ जाय तो ऐसा स्मरण रसक्षेत्र के भीतर न होगा। अब रहा यह कि वास्तविक स्मरण-किसी काव्य में वर्णित स्मरण नहीं-कैसे स्थायी भावों के साथ संबद्ध होने पर रसात्मक होता है। प्रत्यक्षरूपविधान के अंतर्गत हम दिखा आए हैं कि कैसे प्रत्यक्ष रूपव्यापार हमें रसमग्न करते हैं और कैसे भावों की वास्तविक अनुभूति रसकोटि में आती है। अत: उन्हीं वस्तुओं या व्यापारों का वास्तविक स्मरण रसात्मक होगा जिनकी प्रत्यक्ष अनुभूति रसकोटि में आ सकती है। ऐसी कुछ वस्तुएँ उदाहरण रूप में निर्दिष्ट की जा चुकी हैं, (वस्तुत:) रति, हास और करुणा से संबद्ध स्मरण ही अधिकतर रसात्मक कोटि में आता है।
'लोभ और प्रीति' नामक निबंध में हम रूप, गुण आदि से स्वतंत्र साहचर्य को भी प्रेम का एक सबल कारण बता चुके हैं। इस साहचर्य का प्रभाव सबसे प्रबल रूप में स्मरण काल के भीतर देखा जाता है। जिन व्यक्तियों की ओर हम कभी विशेष रूप से आकर्षित नहीं हुए थे, यहाँ तक कि जिनसे हम चिढ़ते या लड़ते-झगड़ते थे, देश काल का लंबा व्यवधान पड़ जाने पर हम उनका स्मरण प्रेम के साथ करते हैं। इसी प्रकार जिन वस्तुओं पर आते-जाते केवल हमारी नजर पड़ा करती थी, जिनको सामने पाकर हम किसी विशेष भाव का अनुभव नहीं करते थे। वे भी हमारी स्मृति में मधु में लिपटी हुई आती है। इस माधुर्य का रहस्य क्या है? जो हो, हमें तो ऐसा दिखाई पड़ता है कि हमारी यह कालयात्रा जिसे जीवन कहते हैं, जिन-जिन रूपों के बीच से होती चली आती है, हमारा हृदय उन सबको पास समेटकर अपनी रागात्मक सत्ता के अंतर्भूत करने का प्रयत्न करता है। यहाँ से वहाँ तक वह एक भावसत्ता की प्रतिष्ठा चाहता है। ज्ञानप्रसार के साथ-साथ रागात्मिका वृत्ति का यह प्रसार एकीकरण या समन्विति की एक प्रक्रिया है। ज्ञान हमारी आत्मा के तटस्थ रूप का संकेत है? रागात्मक हृदय उसके व्यापक स्वरूप का। ज्ञान ब्रह्म है तो हृदय ईश्वर है। किसी व्यक्ति या वस्तु को जानना ही वह शक्ति नहीं है जो उस व्यक्ति या वस्तु को हमारी अंतस्सत्ता में सम्मिलित कर दे। वह शक्ति है राग या प्रेम।
जैसा कह आए हैं, रति, हास और करुणा से संबद्ध स्मरण ही अधिकतर रसक्षेत्र में प्रवेश करता है। प्रिय का स्मरण, बालसखाओं का स्मरण, अतीत जीवन के दृश्यों का स्मरण प्राय: रतिभाव से संबद्ध स्मरण होता है। किसी दीन-दुखी या पीड़ित व्यक्ति व उसकी विवर्ण आकृति, चेष्टा आदि के स्मरण का लगाव करुणा से होता है। दूसरे भावों के आलम्बनों का स्मरण भी कभी-कभी रससिक्त होता है-पर वहीं जहाँ हम सहृदय द्रष्टा के रूप में रहते हैं अर्थात् जहाँ आलम्बन केवल हमारी ही व्यक्तिगत भावसत्ता से संबद्ध नहीं, संपूर्ण नर-जीवन की भावसत्ता से संबद्ध होते हैं।
प्रत्यभिज्ञान
अब हम उस प्रत्यक्षमिश्रित स्मरण को लेते हैं जिसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यभिज्ञान का थोड़ा-सा अंश प्रत्यक्ष होता है और बहुत-सा अंश उसी के संबंध से स्मरण द्वारा उपस्थित होता है। किसी व्यक्ति को हमने कहीं देखा और देखने के साथ ही स्मरण किया कि यह वही है जो अमुक स्थान पर उस दिन बहुत से लोगों के साथ झगड़ा कर रहा था। वह व्यक्ति हमारे सामने प्रत्यक्ष है। उसके सहारे से हमारे मन में झगड़े का वह सारा दृश्य उपस्थित हो गया जिसका वह एक अंग था। 'यह वही है' इन्हीं शब्दों में प्रत्यभिज्ञान की व्यंजना होती है।
स्मृति के समान प्रत्यभिज्ञान में भी रससंचार की बड़ी गहरी शक्ति होती है। बाल्य या कौमार जीवन के किसी साथी के बहुत दिनों पीछे सामने आने पर कितने पुराने दृश्य हमारे मन के भीतर उमड़ पड़ते हैं और हमारी वृत्ति उनके माधुर्य में किस प्रकार मग्न हो जाती है! किसी पुराने पेड़ को देखकर हम कहने लगते हैं कि यह वही पेड़ है जिसके नीचे हम अपने अमुक-अमुक साथियों के साथ बैठा करते थे। किसी घर या चबूतरे को देखकर भी अतीत दृश्य इसी प्रकार हमारे मन में छा जाते हैं और हमारा मन कुछ और हो जाता है। कृष्ण के गोकुल से चले जाने पर वियोगिनी गोपियाँ जब-जब यमुना तट पर जाती हैं तब-तब उनके भीतर यही भावना उठती है कि 'यह वही यमुना तट है' और उनका मन काल का परदा फाड़ अतीत के उस दृश्य क्षेत्र में जा पहुँचता है जहाँ श्रीकृष्ण गोपियों के साथ उस तट पर विचरते थे-
मनु ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर।
-बिहारी रत्नाकर, 681।
प्राचीन कवियों ने भी प्रत्यभिज्ञान के रसात्मक स्वरूप का बराबर विधान किया है। हृदय की गूढ़ वृत्तियों के सच्चे पारखी भावमूर्ति भवभूति ने शंबूक का वध करके दंडकारण्य के बीच फिरते हुए राम के मुख से प्रत्यभिज्ञान की मार्मिक व्यंजना कराई है-
एते त एव गिरयो विरुवन्मयूरा
स्तान्येव मत्तहरिणानि वनस्थलानि।
आमंजुवंजुललतानि च तान्यमूनि
नीरन्ध्र नीलनिचुलानि सरित्तटानि।1
-उत्तररामचरित 2-23।
एक दूसरे प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का रसात्मक प्रभाव प्रदर्शित करने के लिए ही उक्त कवि ने उत्तररामचरित में चित्रशाला का समावेश किया है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्यभिज्ञान की रसात्मक दशा में मनुष्य मन में आई हुई वस्तुओं में ही रमा रहता है, अपने व्यक्तित्व को पीछे डाले रहता है।
दशा की विपरीतता की भावना लिए हुए जिस प्रत्यभिज्ञान का उदय होता है उसमें करुणा वृत्ति के संचालन की बड़ी गहरी शक्ति होती है कवि और वक्ता बराबर उसका उपयोग करते हैं। जब हम किसी बस्ती, ग्राम या घर के खंडहर को देखते हैं जिसमें किसी समय हमने बहुत चहल पहल या सुख-समृद्धि देखी थी तब
1. मयूरकूजित ये पर्वत वे ही हैं, मत्त हरिणोंवाली ये वनस्थलियाँ वे ही हैं और सुंदर वंजुल (बेंत) लताओं तथा नीले निचुलों (नीले बेंतों) से युक्त ये नदी तट वे ही हैं।
'यह वही है' की भावना हमारे हृदय को एक अनिर्वचनीय करुणा स्रोत में मग्न करती है। अँगरेजी के परम भावुक कवि गोल्डस्मिथ ने प्रत्यभिज्ञान का एक अत्यंत मार्मिक स्वरूप दिखाने के लिए 'ऊजड़ गाम' की रचना की थी।