स्वच्छकार समाज की परिवर्तन यात्रा / बेजवाड़ा विल्सन

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यह जानना कितना दुखदायी है कि आप कौन हैं? क्या होता है जब एक बच्चे को पता चलता है कि वह अछूत है और मनुष्य की समानता में उसका कुदरती विश्वास बिखर जाता है?

जब मैं कर्नाटक के कोलार स्वर्ण क्षेत्र में बड़ा हो रहा था, उस समय मेरे मां-बाप ने यह बात मुझसे छुपाए रखी कि परिवार का भरण-पोषण उनके मैला ढोने के काम से होता था। १९८६ में जब मैं बीस साल का हुआ तो मैंने तय किया कि मैं सफाई कर्मचारी की अपनी कालोनी के बच्चों को पढ़ाई में मदद करूंगा। उन बच्चों के पढ़ाई छोड़ने से चिंतित होकर जब मैंने इसका कारण पता किया तो पता चला कि उनके पिता अपनी कमाई शराब में उड़ा देते थे। मुझे लगा कि यह तो अपराध जैसा है, लेकिन बच्चों के पिताओं का जवाब था कि वे इसलिए पीते हैं कि उस काम की स्थितियों में अपने को जिंदा रख सकें। मैं स्वयं अपनी आंखों से यह देखना चाहता था कि आखिर वह कैसी खराब स्थिति है जो उन्हें शराब पीने पर मजबूर करती है, लेकिन उन्होंने मुझे कभी यह नहीं देखने दिया। एक दिन बड़ी चतुराई से मैंने उन लोगों का पीछा किया तो पाया कि वे लोग कोलार स्वर्ण क्षेत्र के सूखे सांडास से दूसरों का मैला उठा रहे हैं।

जब मैं घर आया और अपने मां-बाप को बताया तो उन्होंने मुझे भयाक्रांत करने वाला खुलासा किया कि स्वयं वे दोनों भी अपनी पूरी जिंदगी यही काम करते रहे हैं। १९८६ के उस दिन के बाद से मैंने सिर्फ़ एक काम किया है— वह है भारत से मैला ढोने की प्रथा के अंत के लिए प्रयास। मैला ढोने वाले वाल्मीकि, डोम और अरूंधतियार जैसी कुछ विशेष दलित जातियों से आते हैं इस काम से जुड़ी चुप्पी और शर्म के चलते इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ बोलने और इसे खत्म करने में और भी मुश्किलें आती हैं।

मैं इस मुद्दे पर काम करने वाला कोई अकेला नहीं था, मेरे साथ अनेक दूसरे भी थे और यह आंदोलन का ही नतीजा है कि १९९३ में सरकार मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ कानून बनाने के लिए मजबूर हुई। बहरहाल, कानून पर अमल कराना कानून बनाने से ज्यादा मुश्किल रहा और आज भी है। राज्य सरकारें, जिला कलेक्टर और नगरपालिकाएं अपने क्षेत्र में मैला ढोने की प्रथा के वजूद के बारे में झूठ बोलते हैं। इसके लिए वे कानून में तकनीकी छिद्र का सहारा लेते हैं और कहते हैं कि चूंकि सफाई कर्मचारी मैला अपने सर पर नहीं उठाते हैं, इसलिए उसे मानव द्वारा मैला ढोना नहीं कहा जा सकता।

इस प्रथा को समाप्त करने के लिए दलित एक्टिविस्ट पॉल दिवाकर और सेवानिवृत्त आईएएस अफसर एस. आर. शंकरन जो ७ अक्टूबर, २०१० को इस संसार को अचानक अलविदा कहने के पहले तक हम लोगों के साथ अथक रूप से काम करते रहे थे, के साथ मिलकर हम लोगों ने १९९५ में सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) का गठन किया।

सबसे पहले हम उन लोगों के पास गए जो मैला ढोने का काम करते हैं। हमने कहा कि यह एक अपमानित करने वाली प्रथा है इसलिए इसे अवश्य छोड़ दीजिए। उनका जवाब था कि उनको पुनर्वास की जरूरत है। इस काम से उन्हें बहुत कम पैसा मिलता है। आज भी एक मैला ढोने वाला सफाई कर्मचारी ज्यादा से ज्यादा ४०० रूपए मासिक कमा सकता है, लेकिन अगर वे यह काम छोड़ देंगे तो उन्हें इतना कम पैसा भी नसीब नहीं होगा क्योंकि दूसरा काम उन्हें मिलेगा नहीं। मैला ढोने के चलते उन पर अछूत का एक ऐसा लांछन या दाग लगा होता है कि उन्हें खेतिहर मजदूर के रूप में भी काम नहीं मिल सकता। उनकी मांग में आम सहमति थी। सरकार को हमें नौकरी, जमीन, ऋण और राहत देना ही होगा।

इसलिए २००३ में हम लोग सुप्रीम कोर्ट गए और एक जनहित याचिका दायर की। राज्य सरकारों और रेल विभाग जैसी सरकारी इकाइयों ने दावा किया कि अब मनुष्य द्वारा मैला ढोने की प्रथा नहीं है इसलिए सबूत जुटाने का बोझ हमारे कंधे पर था,यानी शिकार को सबूत ढूंढना था। हम लोग वर्षों से फोटो और वीडियो सबूत अदालत को देते रहे हैं ताकि वह मानव द्वारा मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए सरकारी संस्थाओं पर दबाव डाल सके। लेकिन प्रक्रिया बड़ी धीमी और असंतोषपूर्ण रही है।

इसलिए २००९ में हमने लोगों के पास वापस जाना तय किया। सरकारी हस्तक्षेप के अपने अनुभव से हमने महसूस किया कि पुनर्वास पैकेज बहुधा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है और यदि पहुंचता भी है तो लोगों को यह प्रथा छुड़वाने में सफल नहीं होता। हम लोग इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि इसके लिए सामाजिक आंदोलन की जरूरत है। हम लोगों के पास जाते हैं और उनसे वैकल्पिक काम ढूंढने के लिए कहते हैं। हमने उनसे कहा कि यदि वे कोशिश करें तो यह उतना कठिन नहीं है, देखिए आपके पड़ोसी ने ऐसा किया है। इस तरह हम लोग हजारों हजार लोगों को मैला ढोने का काम छुड़वाने में कामयाब हुए हैं। अनेक जगहों पर उनके साथ जाकर हमने संडास ध्वस्त किए हैं, जिनकी वे सफाई करते रहे थे। कई बार उन लोगों ने सार्वजनिक स्थान पर इकट्ठा होकर उन टोकरियों की होली

जलाई, जिनका उपयोग वे मैला ढोने के लिए करते थे। जिन लोगों ने (अधिकतर महिलाएं) इस प्रथा से तौबा कर ली है उनके लिए यह मुक्ति है, आजादी है। जब वे अपनी कहानी कहती हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं। मैला ढोने के काम में दस साल या उससे भी कम उम्र में उन्हें किस तरह लगाया गया या शादी के बाद उन्हें मैला ढोने के लिए मजबूर किया गया। कइयों ने तो पचास साल तक यह काम करते रहने के बाद इसे छोड़ दिया। छोड़ने वालों में नारायणम्मा प्रथम थीं जो आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में अकेले छह सौ सीटेड पाखानों की सफाई करती थीं।

हम लोग पिछले तीन वर्षो से इसे एक मिशन के रूप में करते आ रहे हैं। भारत सरकार और उसकी कई संस्थाएं समय सीमा तो तय करती हैं लेकिन भूल जाती हैं। इसलिए हम लोगों ने मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने की प्रक्रिया तेज करने के लिए एक्शन २०१० का आगाज किया। अक्टूबर २०१० में हम लोगों ने राष्ट्रव्यापी सामाजिक परिवर्तन बस यात्रा का आयोजन किया। इसमें कुल पांच बसें शामिल थीं। एक श्रीनगर से, एक कन्याकुमारी से, एक असम के डिब्रूगढ़ से, एक ओडिशा के खुर्दा से और एक उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से। एक महीने में हम लोंगों की यह यात्रा बीस राज्यों के १७० जिलों से होकर गुजरी और इस दौरान हमने दलित बस्तियों में जाकर लोगों से मैला ढोना बंद करने के लिए गुजारिश की। जिन महिलाओं ने मैला ढोना बंद कर दिया था उन्होंने अपनी कहानी उन लोगों से साझा की, जो अभी मैला ढोते थे। हम लोगों ने दो सौ जिला कलेक्टरों को ज्ञापन भेजा लेकिन सिर्फ़ सत्रह कलेक्टरों ने जवाब दिया वह भी यात्रा समाप्त होने के बहुत बाद।

मैला ढोना सिर्फ़ इस काम में लगी जातियों का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रीय शर्म है और इस तरह एक राष्ट्रीय मुद्दा है। यह आपकी और मेरी समस्या है। इस देश में जहां दुनिया को दिखाने के लिए कॉमनवेल्थ गेम्स पर ७०,००० करोड़ रूपए पूंâक दिए जाते हैं, वहां इस शर्म के लिए क्या किसी के पास समय और पैसा है? हमने केंद्र सरकार से एक नए पुनर्वास पैकेज की मांग की है जिससे सत्रह वर्ष पहले गैर-कानूनी करार दी गई इस अपमानजनक प्रथा की क्षतिपूर्ति हो सके। हमने सिर्फ़ पैकेज की मांग ही नहीं की है, बल्कि क्षमायाचना की मांग भी की है। हमने साफ कहा कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो देशभर से हजारों मैला ढोने वाले जनवरी २०११ में दिल्ली आएंगे और तब तक यही रहेंगे, जब तक उनकी मांगे मान नहीं ली जाती।

सफाई कर्मचारी समुदाय की सामाजिक परिवर्तन यात्रा २९ सितंबर, २०१० को प्रारंभ हुई, जिसकी परिणति १ नवंबर, २०१० को दिल्ली के कांस्टीटयूशन क्लब के मावलंकर हॉल में हुई, जिसमें देशभर के हजारों सफाई कर्मचारी मैला ढोने की प्रथा का अंत करने और पूर्व में इस काम में लगे कर्मचारियों के पुनर्वास, क्षतिपूर्ति पैकेज और सरकार की आधिकारिक क्षमायाचना की मांग लेकर दिल्ली में इकट्ठा हुए।

एक दबे कुचले समुदाय को अपनी मांगें रखने में आखिर इतना वक्त क्यों लगा और पार नहीं पाने वाली कौन सी बाधाएं हैं जो इस समुदाय को झेलनी पड़ीं? पचास साल पहले समुदाय के लिए यह मांग करना संभव नहीं था क्योंकि नागरिक समाज ऐसा बहाना बनाता था, जैसे यह कुप्रथा अस्तित्व में ही न हो। इस प्रथा के शिकार होने वालों की गरिमा और अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव था। दुर्भाग्य से अब भीr इस प्रथा के अस्तित्व से इन्कार किया जाता है। अब भी लोग सोचते हैं कि मैला ढोने की प्रथा वजूद में नहीं है। इसलिए समुदाय के पास अपनी गरिमा बचाने और संघर्ष करने के लिए कोई जगह ही नहीं थी। परिणामस्वरूप समुदाय के सदस्यों ने मान लिया था कि यही उनकी किस्मत है। इस अमानवीय और घृणित प्रथा से मुक्ति की मांग के लिए आंदोलन खड़ा होने में बहुत साल लग गए। निश्चित रूप से इंप्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्केवेंजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैटरिन्स (प्रॉहिबिशन) एक्ट के जरिए इस प्रथा पर रोक लगाई गई थी, लेकिन आश्चर्य होता है कि हमारे जैसे सभ्य समाज को इसमें इतना वक्त क्यों लगा और स्वतंत्रता के बाद इस प्रथा को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बनाने में छियालीस वर्ष क्यों लग गए।

कानून बनने के बावजूद राज्यों की तरफ से सत्यापन में देर की जाती रही। इससे भी बुरी बात यह रही कि कानून बनने के दस वर्षों बाद भी कई राज्यों को इसके बारे में पता ही नहीं था। इन्हीं परिस्थितियों में सफाई कर्मचारी आंदोलन इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट तक ले गया था। सरकारें मैला ढोने की प्रथा के अस्तित्व में होने से लगातार इनकार करती रहीं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने प्रथा के वजूद में होने का हमसे सबूत मांगा। इसका मतलब था कि अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को साबित करने का बोझ शिकार हुए लोगों का बोझ बन गया, क्योंकि सरकार ने सच्चाई और जवाबदेही मानने से इनकार कर दिया। ११०५७ मामलों के दस्तावेजी सबूत जुटाने और उन्हें सुप्रीम कोर्ट में सबूत के रूप में पेश करने में हमें लगभग सोलह महीने लगे।

कानून बनने के सत्रह वर्षों बाद भी इस मुद्दे पर कोई मुकम्मल बहस नहीं हुई है। हमने सिर्फ़ लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री और रैलियों व यात्राओं के दौरान सफाई कर्मचारियों द्वारा सड़कों पर ही इस बारे में कहते सुना है। इस बीच समस्या हल करने के लिए न तो कोई प्रक्रिया तय हुई न सहयोग की व्यवस्था बनी। आखिर क्यों? क्या यह जाति और पितृसत्तात्मकता के बीच जुड़ाव के चलते? लगभग सभी सफाई कर्मचारी दलित समुदाय से आते हैं और उनमें महिलाओं की संख्या ८२ प्रतिशत है। इस तरह जाति और पुरुष सत्तात्मकता के इस बड़े मुद्दे को स्वतंत्रता के बाद भी उस गंभीरता से नहीं लिया गया है, जिसकी जरूरत थी। निस्संदेह, अनुच्छेद १७ और १९८९ में बने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून व इंप्लॉयमेंट ऑफ मैनुअल स्केवेंजर्स एंड कन्सट्रक्शन ऑफ ड्राई लैटरिन (प्रॉहिबिशन) एक्ट १९९३ जैसी हमारे देश में कुछ संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं, लेकिन वे सिर्फ़ कागजों पर ही हैं।

एक अछूत की जिंदगी वास्तव में मुश्किल है और हम जैसे मैला ढोने वालों की जिंदगी तो और भी कठिन है। हम पूरी जिंदगी मैला ढोने की पीड़ा और शर्म सहते हैं और उसका क्षोभ भी। सफाई कर्मचारियों या उनके बच्चों के लिए दुनिया के सबसे घृणित काम के संबंध में ख्ुालेआम घोषण करना, कोई आसान काम नहीं है। लेकिन कतिपय वर्षो से वे यह कर रहे हैं। हम लोग गलियों और सड़कों पर मार्च कर रहे हैं, समुदाय को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित कर रहे हैं, सरकार से मैला ढोने वालों को मुक्त करने और उनका पुनर्वास करने की मांग कर रहे हैं, संडासों को ध्वस्त कर रहे हैं और कानूनी जंग लड़ रहे हैं। नागरिक समाज के प्रगतिशील और प्रो-एक्टिव लोगों के समर्थन तथा भारतीय संविधान और उसके लोकतांत्रिक ढांचे के समर्थन से हमने निश्चित रूप से बहुत कुछ हासिल किया है। लोगों की ताजा उपलब्धि सामाजिक परिवर्तन यात्रा का पूर्ण होना है, जिसने देश के पांच कोनों से सफाई कर्मचारियों को दिल्ली में इकट्ठा किया। पूरे बत्तीस दिनों तक हम बस से यात्रा करते रहे और इस दौरान हम १७४ जिलों ओर बीस राज्यों से गुजरे। इसके अलावा हमने मैला ढोने के बंधन से मुक्ति की कहानी को भी एक-दूसरे से बांटा और लोगों को मुक्ति की मशाल थामने के लिए प्रेरित किया। महिलाओं द्वारा साहस के साथ अपनी पूर्व कहानी बताना सचमुच प्रशंसनीय है। यात्रा के दौरान देश के कोनेकोने और नई दिल्ली के कांस्टीटयूशन क्लब के मावलंकर हॉल में अपनी आवाज बुलंद करने तथा मैला ढोने की प्रथा को जड़ से समाप्त करने के लिए उठी उनकी आवाज की अनुगूंज आज भी सुनाई देती है। जीविका के साधन समझी जाने वाली मैला ढोने की टोकरियों को फेंककर, जलाकर तथा सरकार से यह पूछ कर कि इस घृणित प्रथा को समाप्त करने के लिए क्या वह साहस दिखा सकती है, हमने जबर्दस्त साहस दिखाया।

इन महिलाओं ने सरकार से क्षमायाचना तथा मैला ढोने वालों को क्षतिपूर्ति पैकेज की मांग तो की ही, साथ ही सरकार से स्पष्टीकरण भी तलब किया कि १९९३ में बना कानून क्यों नहीं लागू किया जा रहा है। भारतीय समाज की तरफ से सरकार द्वारा सफाई कर्मचारियों से माफी मांगना महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उनके खिलाफ सामाजिक अपराध है जो बहुत पहले से किया जा रहा है उनकी इस वैध मांग के प्रति सकारात्मक ढंग से प्रतिक्रिया करने का समाज और सरकार के लिए यह एक अवसर है। देश की शान और सफलता के लिए आर्थिक विकास से ज्यादा बड़ा संकेत समाज के कमजोर वर्गों की गरिमा प्रतिस्थापित करना है और यह हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में भी शामिल किया गया है।