स्वतंत्रता के दीपक / रामगोपाल भावुक
मुझे खूब याद है, मैं अपने पिताजी घनसुन्दर तिवारी के साथ दीपावली के दिन उस समाधि पर दीपक रखने गया था। दीपक रखते समय पिताजी ने उनसे प्रार्थना की थी-'आपकी कृपा से हमारी स्वतंत्रता अमर रहे।'
उनकी यह बात सुनकर मैंने पिताजी से प्रश्न कर दिया-"मैं कुछ समझ नहीं! हमारी स्वतंत्रता का सम्बन्ध इस समाधि से कैसे?"
उस दिन इस प्रश्न के उत्तर के लिये मुझे घर में दीपावली के पूजन के बाद सारे कामों से निवृत होकर जब मैं सोने पहुँचा पिताजी ने कहानी कहना शुरु कर दी-"मैं कोई इतिहास का जानकार तो नहीं हूँ किन्तु जन श्रुतियों एवं अपने घर के पूर्वजों से सुनी बातों के आधार पर यह कहानी कह रहा हूँ, यह बात पन्द्रहवी-सोलहवी शताब्दी की रही होगी। उस समय यहाँ जाट राजा बदन सिंह का राज्य था। ग्वालियार के महाराजा इसे अपने राज्य में मिलाना चाहते थे। उन्होंने इस पर चढ़ाई कर दी और किले का घेरा डाल दिया। युद्ध होते-होते छह माह बारह दिन निकल गये। उसी रात की बात है। उनके महामन्त्री महेन्द्र सिंह ने महाराज को समझाया-' युद्ध-युद्ध-युद्ध, इसका कोई हल नहीं। सालवई नरेश चिन्तन कर देखें, आज तक के इतिहास में युद्ध से न कोई हल निकला है न निकलेगा।"
"महामंत्री आपकी बात निराशा का संचार कर रही हैं। जरा सोचकर बोलें।"
"महाराज, युद्ध होते-होते छह माह बारह दिवस व्यतीत हो गये हैं। हमारे उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं दिखी है, किन्तु महादजी सिन्धिया का घेरा दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।"
उनकी बातें मनोयोग से सुन रहीं उनकी महारानी तारावती ने कहा-"महामंत्री, हमारे किले की चारों कोंनों पर रखीं तोपें जब गोले उगलतीं हैं तो शत्रु के सैनिकों की काई-सी फट जाती है। उनकी सेना कोस भर से अधिक पीछे हट जाती है। उनके सैकड़ो सैनिक मारे जा चुके हैं। उन्हें हार मानकर अपने ग्वालियर की ओर लौट जाना चाहिए था किन्तु...!"
महामन्त्री महेन्द्रसिंह ने अपनी चिन्ता से उन्हें अवगत कराया-"महाराज सोच का विषय यह है कि लम्बे समय से युद्ध चलते रहने के बाद किले में एक दिवस के लिये ही राशन एवं बारुद शेष रह गये हैं। घुआँ गाँव से आने वाली तोपों की बारुद, शत्रु के घेरे के कारण हम तक नहीं पहुँच पा रही है वल्कि वह आसानी से शत्रु के हाथ में पहुँच रही है।"
यह सुनकर महाराज बदन सिंह अपनी मूछों पर हाथ फेरते हुये बोले-"जब तक इस शरीर में प्राण हैं तब तक मैं किसी भी दशा में आधीनता स्वीकार करने वाला नहीं हूँ फिर इस क्षेत्र चिटौली के प्रसिद्ध दूधाधारी संत के शिष्य मेरे परमपूज्य गुरुदेव इन्द्रजीत पुरी का आशीर्वाद मिथ्या नहीं जा सकता।"
यह सुनकर महामन्त्री महेन्द्र सिंह ने अपनी बात रखी-"गुरुदेव के आशीर्वाद से ही हम सिन्धिया के सामने झुके नहीं हैं। युद्ध प्रारम्भ होने पहले गुरुदेव ने एक तोप के गोले का पूजन करवा कर उसके साथ महाराज से किले की परिक्रमा दिलवाई। उस गोले को किले के पूर्व की ओर बनी वावड़ी में ठन्डा करवा दिया था।"
बात को पूर्ण करना महारानी ने अपना कर्तव्य समझा, बोलीं-"इसी का यह परिणाम निकला कि शत्रू की तोप के गोले हमारे किले की दीवार तक आते-आते ठन्डे पड़ जाते हैं। उनका दीवारों से टकराते समय ऐसा लगता है कोई सामान्य-सा पत्थर दीवार से टकराया है। किले की दीवारें इतनी मजबूत है कि उन्हें कोई छति नहीं पहुँची है।"
यह सुन कर महाराज बदन सिंह ने अपनी दाहिनी मूछ की नोंक को और अधिक नोंकदार बनाते हुये कहा-" महारानी, हमारे गुरुदेव की योगशक्ति का हमें परिचय मिल गया है। किन्तु रसद की कमी पड़ रही है। यह भी हमारे गुप्तचरों की व्यवस्था की कमी हैं।
"महाराज मुझे तो लगता है कि।" महेन्द सिंह ने अपनी बात अधूरी छोड़ी।
"कहें-कहें महामंत्री क्या लगता है?"
"महाराज मुझे तो लगता है हमारे गुप्तचरों को महादजी के सैन्य अधिकारियों ने मिला लिया है। यदि कल की रसद की पूर्ति न हुई तो इस किले में हमारे लोग भूख से मर जायेंगे।"
यह सुन कर महाराज दहाड़े-"महामंत्री ऐसा नहीं होगा। कल हम अपने किले के दरवाजे खेाल देते हैं। शत्रु से आमने-सामने का युद्ध करने निकल पड़ते हैं। वैसे ऐसे युद्ध के लिये मैं अकेला ही बहुत हूँ।"
यह कह कर पिताजी ने मुझे झकझोरा-"कहानी ठीक से सुन रहे होना!"
मैंने उत्तर दिया-"एक-एक शब्द पूछकर देख लें।"
"ठीक है मैं आगे की कथा कहता हूँ" यह कह कर उन्होंने पुनः कहानी कहना शुरु कर दी-उसके बाद तो महराजा बदन सिंह ने अपने पुत्र को रात के अंधेरे में साधू संतो के साथ घेालपुर के लिये रवाना कर दिया। ... और दूसरे दिन सुवह होते ही महाराज और सैनिक के भेष में महारानी भी अन्तिम युद्ध के लिये निकल पड़े।
नोंन नदी के किनारे बसे चिटौली गाँव की पहाड़ी पर प्रतिदिन की तरह बैठक जीम थी। आज सभी शशंकित से लग रहे थे। मुरलीधर प्रजापति कह रहे थे-"संवत सत्रह सौ इक्यावन की साल ही इस युद्ध के कारण खराव ही निकली है। महादजी सिन्धिया जैसे महाराजा को इस किले को फतह करने में छह माह तेरह दिन लग गये।"
दूधाधरी संत के शिष्य इन्द्रजीत पुरी महान योगी हैं। प्रसंग को आगे बढ़ाने के लिये इन्द्रजीत पुरी के शिष्य कल्याण पुरी ने आगे बढ़कर कहा-"हमारे गुरुदेव के कारण ही यह युद्ध इतना खिच गया। रसद कम पड़ गई। इसीलिये हार मानकर किले का फाटक खोलना पड़ा और हमारे महाराज को अन्तिम युद्ध के लिये निकलना पड़ा।"
गजाधर सिंह ने अपने राजा की बीरता की बात रखी-"सुना है महाराज बदन सिंह का सिर जब धड़ से अलग हो गया तो उनका रुन्ड दोनों हाथों से तलवार चलाते हुये आगे बढ़ता रहा। वह रुन्ड लड़ते-लड़ते उसी बाबड़ी के पास जाकर गिरा जिसमें पूजन करके वह तोप का गोला डाला गया था।"
यह बात सुनकर तो सभी मौन साधे अपने प्रजा वत्सल महाराज को श्रद्धान्जलि अर्पित करते रहे।
प्रजापति मुरलीधर ने प्रश्न किया-"पंचो इस स्थिति में हम सब का क्या दायित्व है?"
गजरधर सिंह ने समझाया-" इस समय दायित्व तो यह है कि हम सब उपहार लेकर नये महाराज की वन्दना करने चलें। आज सिन्धिया सरकार का दरवार सालवई की गढ़ी में सजा है। '
कल्याण पुरी ने अपनी बात से अवगत कराया-" लोग हैं कि इस युद्ध के हारने का थीगरा हमारे गुरुदेव के सिर पर फोड़ रहे हैं। '
किसी ने प्रश्न कर दिया-"उनके सिर पर कैसे?"
किसी दूसरे ने उत्तर दिया-"यही, वे इतने महान तपस्वी हैं कि ग्रीष्म में अग्नि तपते हैं। शीतऋतु में जल में खड़े रहकर तप करते हैं तथा वर्षा ऋतु में अधोमुख होकर तप में लीन रहते हैं। उनकी इतनी कठोर तपस्या से भी हमारी स्वतंत्रता नहीं बच पाई।"
यह सुनकर कल्याण पुरी ने सोचा-एक ओर सृष्टि का बहिष्कार करने वाले योगियों को राज्य बचाने का मोह, दूसरी ओर उस मोह के कारण ही उनपर लोग यह अभियोग लगा रहे हैं कि वे तपस्या से राजा का राज्य नहीं बचा पाये। यों तपस्या पर सन्देह! निश्चय ही कहीं न कहीं भटकाव है। मेरा मन संसार की ओर भाग रहा है तो कहाँ गलत है? अरे! मैं उनका कैसा शिष्य हूँ जो इस तरह सोचता हूँ!
किसी ने कहा-"जब किले में रसद ही नहीं रही तो इसमें गुरुदेव का क्या दोष?"
प्रजापति मुरलीधर ने उसकी बात को थपथपाया-"भैया तुमने राम लेखे की बात कही है। हमारे गुरुदेव इस घटना के कारण अत्यधिक चिन्तित हैं। उन्हें लगने लगा है कि उनकी तपस्या की न्यूनता ही उनके राजा का पतन का कारण बनी है।"
गजाधर सिंह ने कहा-"हमें गुरुदेव से मिलकर सही तथ्यों की जानकारी कर लेना चाहिये। इस संकट की घड़ी में हमें उनसे मिलना ही चहिये।"
प्रजापति मुरलीधर ने अपनी राय व्यक्त की-"ठाकुर साहव आप सही सोच रहे हैं। हमारे गुरुदेव भावुक हैं। ऐसे लोग परोपकार में अपना जीवन अर्पित कर देते हैं।"
कल्याण पुरी ने जब ये विचार सुने तो वह हर बार की तरह ही सोचने लगा-प्रकृति ने मानव को इसके सर्जन का दाइत्व भी सोंपा है। हम हैं कि ब्रह्मचर्य की साधना में लग गये। कहीं ये आपको नियति के बिरुद्ध नहीं लगता! जो हो मुझे तो लगता है, मैं गुरुदेव की तरह योगी के रूप में नहीं रहना चाहता। मैं तो सांसारिक व्यक्ति की तरह जीना चाहता हूँ।
कल्याण पुरी को सोचते देख मुरलीधर प्रजापति बोले-"क्या सोचने लगे महाराज, उठो चलो चिटौली के बनखण्डेश्वर आश्रम पर ही चलें।"
जनमानस में यह अफवाह फैल गई कि महादजी सिन्धिया के लोगों ने गुरुदेव इन्द्रजीत पुरी को अपनी ओर मिला लिया है। इसी कारण फौज किले में प्रवेश कर सकी। महाराज इन्द्रजीत पुरी इन दिनों गुमसुम अधिक रहने लगे थे। किसी बात के उत्तर में कम ही बोलते थे।
उधर महादजी सिन्धिया राजकाज में व्यस्त रहने लगे। सालवई के किले को उन्होंने फौजी छावनी बना दिया। क्षेत्र की जनता को इससे कुछ लेना देना न रहा।
महाराज इन्द्रजीत पुरी के शिष्य कल्याण पुरी गाँव की राजनीति में प्रवेश कर गया। उसकी घर-घर में पहुँच हो गई। गाँव की प्रत्येक घटना उसके इर्द-गिर्द मड़राने लगी। गाँव के हम उम्र साथी उसके मित्र मंड़ली में सम्मिलित हो गये।
आश्रम में महादेव जी का छोटा-सा मन्दिर था। उसके सामने था विशाल चबूतरा था। उसी के सामने थी महन्त जी की कुटिया। कुटिया के सामने उनकी धूनी रमी रहती थी। धूनी के साहारे ग्रामीण लोग बैठ जाया करते। धूनी से सटा एक ऊँचा चवूतरा था। जिस पर महाराज जी अपने गुरुदेव दूधाधार संत की तरह बैठ धूनी तपा करते। कुछ दिनों से कल्याण पुरी को संन्यास की दीक्षा देकर पश्च्चाताप कर रहे थे। उन्हें उसके आचरण परम्परा के बिरुद्ध लगने लगे थे। वह ध्यान-धारण में समय न देकर मौज-मस्ती में अपना समय वर्वाद कर रहा था।
आश्रम की सेवा टहल करने के लिये एक बाल विधवा महिला मिथला आया करती थी। पौ फटने से पूर्व आश्रम में आ जाती और झाडू लगाने के काम में लग जाती। झाडू लगाने के काम से निवृत होती उसके बाद नोन नदी के जल में स्नान करती। पात्र में जल लेकर शिवलिंग पर चढ़ाती। उसके बाद आश्रम के लिये जल भरती। आश्रम के लिये भेाजन प्रसादी बनबाने में मदद करती। जब सभी आश्रम के लोग भोजन कर चुकते वह बचे-खुचे से अपनी भूख मिटाती।
उसकी सेवा-सुश्रषा से महन्त जी प्रसन्न हो गये तो उन्होंने उसे भी अपनी शिष्या बना लिया।
कल्याण पुरी, जब गाँव से आश्रम में लौटते तो पहले मिथिला के पास अपनी उपस्थिति दर्ज कराते-"कहो मिथिला, आज आश्रम में बाबा बैरागी अधिक आ गये थे। भेाजन प्रसादी मिली कि नहीं!"
मिथिला ने उसकी इस बात की मुश्कराकर कृत्यज्ञता व्यक्त करते हुये कहा-"आश्रम में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है। आपके रहते सारी सुविधायें हैं। भला प्रसादी ग्रहण क्यों न करती।"
वह बोला-"आज गाँव से लौटने में देर हो गई। कहीं गुरुदेव मेरे बारे में तो कुछ नहीं पूछ रहे थे?"
यह सुनकर उसे सैतानी सूझी-"पूछ रहे थे, हमारे परम प्रिय शिष्य की योग साधना कैसी चल रही है?"
उसने भी भाव समझते हुये पूछा-"तुमने क्या कह दिया?"
वह बोली-"मैंने तो कह दिया, वे योग साधना में ऐसे लीन हो गये है कि इस आश्रम का कल्याण करके ही मानेंगे।"
उसने उसी तुकतान में कहा'-मेरी यहाँ-कहाँ आवश्यकता है। यहाँ के लिये तो परम योगिनी मिथिला ही पर्याप्त है। तुमने तो अपनी योगमाया से मेरे मन पर कव्जा कर लिया है। "
' हाय राम! आप ये क्या कहते हैं? कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? "
"मिथिला, हमें शीध्र विवाह कर लेना चाहिये। मैंने अपनी बात गाँव के पंचों के सामने रख दी है। वे गुरुदेव से एक दो दिन में कह ही देंगे।"
"यह आपका आश्रम के प्रति न्याय नहीं है। आप आश्रम पद्धति का विरोध कर रहे हैं।"
"मिथिला, मुझे गुरुदेव का सिद्धान्त मानवता के विरुद्ध लगता है।"
उसने झट से प्रश्न किया-' कैसे? "
वह बोला'-"योग साधना करके, हम इस शरीर के साथ अत्याचार कर रहे हैं। सृष्टि का बहिष्कार करके, क्या आप यह पितृऋण का अपमान नहीं कर रहे हैं।"
"आपकी इन्हीं बातों ने मुझे भ्रमित कर दिया है और मैं तुम्हारे चंगुल में फस गई। अब आप अपने स्वार्थ के लिये सनातन से चली आ रही आश्रम प्रणाली को ही भ्रष्ट किये दे रहे हैं। आपको संन्यास ग्रहण नहीं करना चाहिए था और कर ही लिया है तो उसका आपको अपमान करने का कोई अधिकार नहीं र्है।"
"देवी, मैं उस समय इन बातों की ओर मेरा ध्यान नहीं गया था। यदि इन बातों की ओर ध्यान जाता तो मैं संन्यास ग्रहण ही नहीं करता। आज मुझे संन्यास ग्रहण करना सृष्टि का अपमान करना लग रहा है। इस आश्रम प्रणाली की एक उम्र होती है। उसी समय यह बात शोभा देती है। असमय का मोह हानि कारक ही है।"
उसकी बात सुनकर वह बोली-"जो हो मैं तो अब कहीं की नहीं रही। तुम्हारा जो बच्चा मेरे पेट में पल रहा है अब तो उसकी सोचो।"
उसने घोषणा की-"वह मेरी धरोहर है। उसकी चिन्ता करने की तुम्हें जरुरत नहीं है।"
"देखना, कहीं मुझे नोन नदी मैं डूव कर मरना न पड़े। मैं तो तुम्हारे नाम से डूब मरुँगी।" "तुझे इतनी चिन्ता हो रही है तो मैं एक दो दिन में ही फैसला किये देता हूँ।" यह कह कर वह तेज कदमों से चला गया था।
इस प्रेम प्रसंग की हवा सारे गाँव में फैल गई। उधर क्षेत्र भर के लोग सालवई के पतन के लिये गुरुदेव इन्द्रजीत पुरी को ही दोषी मान रहे थे। ये सभी बाते गुरुदेव ने सुन ली थीं।
एक दिन गाँव के प्रमुख लोग गुरुदेव से मिले। मुरलीधर प्रजापति ने अपने मन की बात कही-"सन्यासी जब पथ भ्रष्ट हो जाये और संसार की ओर उसका रुझान हो जाये तो विवाह कर लेना चाहिए कि नहीं?"
गुरुदेव इन्द्रजीत पुरी ने उत्तर दिया-"मुरली धर साफ-साफ कहें, सन्यासी पर आरोप?"
दूसरे किसी ने बात आगे बढ़ाई-"महाराज आपकी गद्दी के अधिकारी कल्याण पुरी संन्यास की दीक्षा लेकर भी बाल विधवा मिथिला से प्रेम करने लगा है। वह उसके वच्चे की माँ बनने वाली है।"
यह सुनकर गुरुदेव इन्द्रजीत पुरी ने हुंकार भरते हुये कल्याण पुरी को आवाज दी-"कल्याणपुरी।"
"जी गुरुदेव।"
"ये हम क्या सुन रहे हैं?"
"गुरुदेव क्षमा करैं, मैं मनुष्य ही रहना चाहता हूँ। इसके लिये मैं गद्दी का मोह त्यागने को तैयार हूँ। मैं मिथिला से विवाह करना चाहता हूँ।"
उसकी बात सुनकर वे सोचने लगे, ये तो मनुष्य ही रहना चाहता हैं। मनुष्य-मनुष्य ही बना रहे। यह सोचकर बोले-"पंचो, शुभ मुहुर्त देखकर पहले इनका विवाह कर दें।"
किसी अन्य ने प्रश्न किया-"फिर इस आश्रम की व्यवस्था!"
गुरुदेव अपने को संतुलित करते हुये बोले-"यह व्यवस्था सनातन से चली आरही है कि जब सन्यासी ब्रह्मचर्य व्र्रत का पालन न कर पाये तो उसे विवाह कर लेना चाहिये। रही यहाँ की व्यवस्था की बात तो भगवान शंकर स्वमं यहाँ विराजमान हैं, अब वे ही अपनी व्यवस्था करेंगे।"
सभी के मुख से निकला-' जैसी गुरुदेव की आज्ञा। "
एक क्षण के मौन के बाद गुरुदेव बोले-" सिन्धिया ने मेरी लक्ष्मण रेखा लांघने की गलती की है इसलिये उसकी तीन पीढ़ियाँ निसंतान रहेंगीं। कल्याण पुरी।
"जी गुरुदेव।" '
"कल दीपावली है ना!"
"जी गुरुदेव"
"हमारे जाने का समय आ गया है। हमारे लिये उस बावड़ी के पास समाधि लेने की व्यवस्था करैं। कल दिन ढ़ले हम समाधि में बैठ जायेंगे।"
इस निर्णय के बाद सभी ने उनसे अनुनय विनय की किन्तु उनने अपना निर्णय नहीं बदला।
कल्याण पुरी समाधि के निर्माण के काम में लग गया। यह बात त्वरित गति से चारो ओर फैल गई। दीपावली के दिन उस स्थल पर मेला जैसा दृश्य उपथित होगया। पूरे विधि विधान से मेहन्त इन्द्रजीत पुरी उस समाधि में जाकर बैठ गये। समाधि का मुखार विन्द बन्द कर दिया गया। उस दिन क्षेत्र भर के लोग उनकी समाधि पर दीप प्रज्वलित करने के लिये उपस्थित हुये थे।
कहते हैं उस समाधि में से छह माह तक उनके गहरी समाधि में रहने का आभास होता रहा।
लम्बा समय व्यतीत हा ेगया।
चिटौली गाँव के वनखण्डेश्वर महादेव का निर्माण कार्य चलते दो माह का समय व्यतीत हो गया। इन दिनों नोन नदी पर सुन्दर घाट का निर्माण होने लगा। दूर-दूर से लोग इस निर्माण कार्य को देखने आने लगे।
इन दिनों कल्याण पुरी का पुत्र आनन्द पुरी मेहन्त की गद्दी पर बिराजमान हो चुका था। उन्हीं की देखरेख में यह कार्य चल रहा था। एक दिन क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति मेहन्त जी से मिलने आये।
महाते हरिनन्दन ने प्रश्न किया-"सुना है इस मन्दिर का निर्माण जीयाजी राव सिन्धिया करा रहे हैं।"
मेहन्त जी ने उत्तर दिया-"महाते जिस स्थान से जिस का भला होगा, वह उस स्थान के लिये श्रद्धा सुमन अर्पित करेगा ही।"
तिवारी नन्दकिशोर ने बात को कुरेदा-"ऐसा सिन्धिया जी का क्या भला होगया जिससे।"
मेहन्त जी ने पुनः उत्तर दिया-"अभी भला हुआ कहाँ है? वे भी साँप के विले में हाथ डालते फिर रहे हैं।"
किसी ने फिर से पूछा-"महाराज बात साफ-साफ कहें।"
मेहन्त जी बोले-"सुना है पिछोर के परम संत कन्हरदासजी ने उनसे यहाँ की सेवा पूजा के लिये कहा है। इसी क्र्रम में वे मेरे पास आये थे। उस दिन दूधाधरी महाराज के शिष्य इन्द्रजीत पुरी जी की समाधि के बारे में पूछते रहे।"
तिवारी नन्दकिशोर ने बात को पुनः पूछ-"आपने क्या कहा?"
"वे बोले-' तिवारी जी आप उस समय का सारा वृतांत जानते हैं। गुरुदेव इन्द्रजीत पुरी ने समाधि लेने से पूर्व सिन्धिया को तीन पीढ़ियों तक निसन्तान रहने का शाप दिया था। शायद उसी शाप की निवुति हेतु संत कन्हर ने उन्हें यह उपाय सुझाया है। इसीलिये वे यह सेवा कर रहे हैं।"
तिवारी नन्दकिशोर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुये पूछा-"तो क्या महाराज जियाजा राव इसी निमित यहाँ आये थे!"
वे बोले-"आये तो इसीलिये थे। यदि इस तरह से ही उसका काम बन जाये। । इस बात को समझ लें, उन्हें हमारी परम्परा के संतों ने क्षमा कर दिया है।"
उस वक्त सभी को लगा-जो होना था हो गया। अब तो ये ही हमारे महाराजा हैं। इनके सुखी रहने में ही हम सब की भलाई है। गजाधर सिंह ने इतिहास का बखान किया-"महादजी सिन्धिया के कोई संतान न थी। उनकी मृत्यु के बाद श्रीमंत दौलतराव सिन्धिया गद्दी पर बैठे। उनके भी कोई संतान न थी। उनके बाद जीयाजी राव सिन्धिया ने गद्दी सँभाली है। अभी तक इनके भी कोई संतान नहीं है। संत कन्हर ने उन्हें जो उपाय बतलाया है। वह उचित ही है। इनकी तीन पीढ़ियाँ अपना भेाग, भोग चुकीं"
' तिवारी नन्दकिशोर ने जानकारी दी-"उड़ती-उड़ती बात सुनने में आ रही है कि इन दिनों महारानी ने गर्भ धारण कर लिया है।"
यह सुनकर सभी मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे-महादेवजी की कृपा से महारानी की गोद शीध्र भर जाये।