स्वतंत्रता / राजकिशोर
प्रकृति में स्वतंत्रता नहीं है। इसीलिए न्यूटन गति के नियम खोज सके। आजकल माना जाता है कि न्यूटन का दिमाग यांत्रिक था। क्वांटम थियरी ने बताया कि कणों के स्थान और रफ्तार को ठीक-ठीक नहीं जाना जा सकता। इसलिए उनके बारे में भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती। कह सकते हैं कि इस बिंदु पर प्रकृति में स्वतंत्रता है। यहाँ स्वतंत्रता से अभिप्राय मनमानीपन से है। आइंस्टीन इस स्थापना से खुश नहीं थे। अपने एक मित्र को पत्र लिखते हुए उन्होंने कहा कि ईश्वर पाँसे नहीं खेलता। इस पर हाकिंस की टिप्पणी है कि ईश्वर पाँसे खेलता हो या नहीं, पर उसे भी अपने बनाए नियमों को बदलने की आजादी नहीं है। सृष्टि उसी ने बनाई है, पर बन जाने के बाद सृष्टि का अपना व्याकरण हो गया है, जिसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
स्वतंत्रता चेतना का गुण है। जो जड़ है, वह अपना ही गुलाम है। स्वतंत्र वह है जिसमें चेतना है। किंतु चेतना के निम्न स्तरों पर प्राणी न्यूटन के नियमों के अनुसार ही काम करता है। किसी बर्रे को छेड़ कर या किसी कुत्ते की दुम मरोड़ कर देखिए। चेतना के उच्च स्तर पर इच्छा शक्ति का उदय होता है। बर्रे या कुत्ता माफ करना नहीं जानते, पर आदमी माफ कर सकता है। इसीलिए प्रकृति का विकास और मनुष्यता का विकास दो अलग-अलग चीजें हैं। वन में कभी जनतंत्र नहीं आ सकता। पर मानव समाज में जनतंत्र की चाह हमेशा बनी रहती है। सार्त्र के अनुसार, मनुष्य की यह स्वतंत्रता ही सारे फसाद की जड़ है। यह मनुष्य पर छोड़ दिया गया है कि वह अपनी स्वतंत्रता का क्या करे। लेकिन यही तो मुश्किल है। चुनने की स्वतंत्रता हमें ही अपना जज बना देती है। आदमी बाहर हँसता है, पर अकेले में रोता है। यह भी है ही कि जो अपनी स्वतंत्रता का उपयोग दुनिया को बेहतर बनाने के लिए करता है उसे भला और जो इसका प्रयोग अपने आप को नीच बनाने के लिए करता है, उसे बुरा आदमी कहा जाता है। यह थियरी समर्थन करने योग्य नहीं है कि हम न पाप करते हैं न पुण्य, हम वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है। तब तो कोई अपने कृत्यों के लिए जिम्मेदार नहीं रह जाएगा।
क्या इस अस्तित्ववादी स्थिति का कुछ संबंध उस स्वतंत्रता से हैं, जिसके पहले हम सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक जैसे विशेषण लगाते हैं? जरूर है, क्योंकि सभी स्वतंत्रताएँ एक ही परिवार की मेंबर हैं। स्वतंत्र क भी है और ख भी। इसका मतलब यह नहीं कि दोनों हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहें। यह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। दुरुपयोग है इसलिए कि स्वतंत्रता का मतलब अराजकता नहीं है। क की स्वतंत्रता तभी तक कायम है जब तक ख उसका सम्मान करता है। इसी तरह, ख की स्वतंत्रता भी तभी तक अक्षत है जब तक क उसमें घुसपैठ नहीं करता। अर्थात स्वतंत्रता के भी कुछ अलिखित नियम होते हैं जिनकी पालना न हुई तो नैतिकता की भगदड़ मच जाएगी। इसी से मानव अधिकारों की कल्पना पैदा हुई है। सब से ज्यादा स्वतंत्र वह व्यक्ति है जिसके खिलने का पूरा सरंजाम समाज या दुनिया में मौजूद है। इस तर्क से, सब से अच्छा समाज वह है जिसने यह सरंजाम अधिक से अधिक जुटाया हुआ है। कोई भी आदमी इतना अपदार्थ नहीं है कि उसके मानव अधिकारों में खरोंच लगाई जा सके। इसी का विस्तार पशुओं के अधिकारों की संकल्पना में है। हो सकता है, आनेवाले वक्तों में मिट्टी, पेड़-पौधों, नदियों और पहाड़ों के अधिकारों की चर्चा शुरू हो जाए। इसलिए कि हम इन्हीं सब की संतान हैं और इन्हीं में हमें फना होना है।
भारत का अपना संविधान लागू होने के मौके पर डॉ. अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि अभी हमें सिर्फ राजनैतिक स्वतंत्रता मिली है, जो तभी सार्थक होगी जब सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी आए। जाहिरन, तीनों स्वतंत्रताएँ एक ही कोख की बहनें हैं। राजनीतिक पराधीनता बुरी थी, क्योंकि हमारी किस्मत विदेशियों की मुट्ठी में थी। लोहे की इस मुट्ठी से निकल कर ही हम अपने भविष्य की सामूहिक इच्छा के अनुसार ढाल सकते थे। गजब यह है कि स्वतंत्रता में बुरा होने की स्वतंत्रता भी शामिल है, नहीं तो आदमी अच्छाई का गुलाम हो कर रह जाएगा। यह कौन तय करेगा कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है। परंतु स्वतंत्रता का दुरुपयोग इक्का-दुक्का लोग करें, तो समाज झेल सकता है। स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने के लिए एक पूरी जमात तैयार हो जाए, तो यह पूरे समाज को धता बनाने की तरह है। यही याद दिलाने के लिए पंद्रह अगस्त हर साल आता है कि पुरुषो और स्त्रियो, आप की स्वतंत्रता एक बार फिर उनकी मुट्ठी में चली गई है जिनके लिए यह पूरा मुल्क उपनिवेश है। तब का नारा था : अंग्रेजो, भारत छोड़ो। आज का नारा क्या होगा?