स्वतन्त्रता-सेनानी व साहित्यकार यशपाल: व्यक्तित्व एवं कृतित्व / कुँवर दिनेश

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क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता-सेनानी एवं साहित्यकार यशपाल के उदात्त व्यक्तित्व तथा समग्र साहित्यिक अवदान को एक शोधपत्र में समाविष्ट कर लेना सम्भव नहीं है, इसलिए मैंने अपनी समीक्षात्मक चर्चा में उनके सृजन का प्रतिनिधित्व करते एक उपन्यास "देशद्रोही" तथा पाँच चयनित कहानियों को लिया है। इस पत्र को मैंने तीन भागों में बाँटा है ― पहले भाग में फणीश्वरनाथ रेणु जी के यशपाल जी से सम्बन्धित संस्मरण के कुछ अंशों के माध्यम से यशपाल जी के व्यक्तित्व, विचार एवं जीवन-दर्शन को उकेरने का प्रयास है; दूसरे भाग में उनकी संक्षिप्त जीवनी, विशेषत: उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियों का लेखा-जोखा है; तथा तीसरे भाग में उनके साहित्य-सृजन पर चर्चा करते हुए उनके उपन्यास "देशद्रोही" और पाँच कहानियों की समीक्षा की है।

भारत के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय प्रतिभागी, क्रान्तिकारी कथाकार, उपन्यासकार व निबन्धकार यशपाल से सम्बन्धित अपने एक संस्मरण में फणीश्वरनाथ रेणु नाटकीय अंदाज़ में लिखते हैं:

“भगत सिंह आदि की फ़ाँसी के बाद हमारे इलाक़े में बहुत-से गीत मशहूर हुए। एक गीत की कड़ी याद नहीं, भावार्थ यह था कि ओ भारत माता! तू कितना बलिदान चाहती है? भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि की मुण्डमाल पहनकर भी तुम्हारा कलेजा ठण्डा नहीं हुआ? लेखनी? कितना बलिदान तू चाहती है? अभी भी यशपाल… आदि बाक़ी हैं!

यह गीत मुझे बड़ा प्रिय लगता, क्योंकि इसकी एक कड़ी में भारत माँ के लाल…काल…रक्त के थाल और मुण्डमाल के साथ यशपाल का अच्छा तालमेल बैठाया गया था।… राष्ट्रीय कीर्तन में यह गीत ख़ूब जमता था। लाल-काल-थाल-पाल आदि शब्दों पर ढोल बजाने वाला तमंचा-मार ताल बजाता था, यानि ढोलक पर पिस्तौल की आवाज़ निकालने की सफल चेष्टा करता था…। … हिन्दी के कथाकार यशपाल वही यशपाल हैं। यही मेरे लिए बहुत है… ।” (वन तुलसी की गन्ध, 1957)

इन शब्दों में स्पष्ट है कि स्वाधीनता संग्राम में यशपाल का रोल बहुत अहम रहा है, क्रान्तिपूर्ण रहा है और क्रान्ति का स्वर उनके लेखन में भी बना रहा। इसी संस्मरण में एक अन्य प्रसंग में रेणु, एक किसान सम्मेलन के दौरान, यशपाल की कहानी “ज्ञानदान” का संदर्भ लेकर, उनके साहित्य में यथार्थवादी दृष्टिकोण व मनोविश्लेषणात्मक अन्तर्दृष्टि को उजागर करते हैं:

“हम चार मित्र मिल-जुलकर एक कहानी सुन रहे थे। पाँचवाँ साथी कहानी पढ़कर सुना रहा था, “ज्ञानदान”।

कहानी समाप्त हुई। हम पाँचों के चेहरों पर तरह-तरह की मुस्कुराहटें खेलने लगीं। मेरे मुँह से निकला, "बहुत सुंदर।"

दूसरे ने कहा, "कौन कहता है कि यशपाल यथार्थवादी है... दिस मॉर्बिड क्यूरियौसिटी एबाउट सेक्स!... यशपाल न्यूरॉटिक लेखक है!"

तीसरा साथी जो कहानी के शेषांश में सो गया था, पूछ बैठा, "अन्त में क्या हुआ?"

चौथे ने जवाब दिया, "आटे की तरह देह को गूँथने लगा!"

पाँचवें ने कहा, "मुझे अचरज हो रहा है कि इस कहानी का प्लॉट यशपाल को कहाँ से मिला? यह तो… यह तो… अपने यहाँ घटी एक वास्तविक कहानी से मिलती-जुलती है।" (वही)

इस लघु संवाद में ही रेणु स्पष्ट कर देते हैं कि यशपाल जो लिखते थे, उसका सीधा सम्बन्ध तात्कालिक समाज की वास्तविकता से था। वे कोई विचारधारा विशेष के प्रपत्र तैयार नहीं कर रहे थे, प्रत्युत् यथार्थ का ही प्रलेखन कर रहे थे। उक्त किसान सम्मेलन में बुद्धिजीवियों द्वारा छेड़ी गई साहित्य-चर्चा में, रेणु बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं:


“हम पाँचों एक राजनीतिक पार्टी के सदस्य थे और किसान सम्मेलन में कलरवपूर्ण प्रतिनिधि कैम्प में, न जाने क्यों, साहित्य-चर्चा छेड़ बैठे थे। आस-पास में सोए-लेटे, जगे-अधजगे प्रतिनिधियों को हम यह बतला देना चाहते थे कि इस किसान-सम्मेलन के हम बुद्धिजीवी प्रतिनिधि हैं।

हठात् एक छठे (अबुद्धिजीवी!) साथी ने बेरहमी से बहस का मुँह मोड़ दिया। बोला, "यशपाल तो, … क्या कहते हैं...सुर्ख़ा है! आप लोग रिएक्शनरियों की तारीफ़ में पार्टी का क़ीमती समय बर्बाद करते हैं?"

वह कुछ अरणा-भैंसे की तरह सींग तानकर खड़ा हो गया।... उसकी समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि कुछ लोग कम्युनिस्टों द्वारा रचित साहित्य ही क्यों पढ़ते हैं? पढ़ते हैं, तो पढ़ें, खुलकर चर्चा और तारीफ़ क्यों करते हैं? उसके इस आचरण से पार्टी का बहुत बड़ा अहित हो रहा है। … वह इस बार यह "सवाल" पेश करेगा।

… उसके "अहम सवाल" पर आस-पास सोए, जगे-अधजगे साथियों के कान खड़े हुए।

"अयँ! कम्युनिस्टों की किताब पढ़ता है? अयँ! कौन है? तारीफ़ भी करता है?"

काशी विद्यापीठ के एक टटके शास्त्री साथी ने तुतलाकर कहा, "न: - न:, यशपाल कम्युनिस्ट नहीं। मैं जानता हूँ अच्छी तरह। ... कम्युनिस्ट लोग उससे नाराज़ रहते हैं।"

… आस-पास के तम्बुओं में तुरन्त यह अफ़वाह फैल गई कि सम्मेलन में गड़बड़ी मचाने के लिए बनारस से कुछ कम्युनिस्ट आए हैं … हम समझ गए, अभी यशपाल-साहित्य पर बहस जारी रखना बुद्धिमानी का काम नहीं।...

सुबह, नेता-निवास पर बात फिर खुली रात की ही। … ज्ञानदान, यशपाल … क्रान्तिकारी … कथाकार … सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट … आर्टिस्ट … फ़ेलोट्रेवलर … प्रगतिशील … क्रान्तिकारी कथाकार … वात्स्यायन … रायवादी … मानवतावादी … मानवेन्द्र राय बीमार हैं … यशपाल … दादा कॉमरेड … कम्युनिस्ट! …

हम सीधे बड़े नेता के कैंप में गए। … नेता जी "शेविंग-सेट" लेकर बैठ गए हमारी बात सुनने को। झोले से यशपाल की किताब निकालकर, सामने रखते हुए मैंने विनम्रता से कहा, "इस किताब का "गेट-अप" ही सिर्फ़ लाल है। हँसिया-हथौड़ा की छाप कहीं नहीं, जबकि अपनी पार्टी की हर छोटी-मोटी पुस्तक और पर्चे पर हँसिया-हथौड़ा अनिवार्य रूप में अंकित रहता है। … दाढ़ी में साबुन लगाते हुए उन्होंने कुछ ऐसी मुद्रा बनाई, जिसका अर्थ हमने समझ लिया ¬ मूर्खों की बात पर इतना आँख-कान नहीं देना चाहिए।… नेता ने ज़ोर देकर कहा, "मैं जानता हूँ, यशपाल कम्युनिस्ट नहीं।... मुश्किल तो यह है कि वह अपने आप को एक संस्था मानता है। आचार्य जी या अलगू राय क्या करे?… भाई लोगों ने, उसकी दुलत्ती खाकर भी, उसको अपने अस्तबल में रखने का फ़ैसला कर लिया है।" … उन्होंने चुपके-से मद्धम आवाज़ में कहा, "वह "ज्ञान-दान" कहानी जो है न, वही है रात की सारी गड़बड़ी की जड़ में। कहानी सुनकर उसने (अहम सवाल पेश करने वाले ने) समझा कि … बात यह है कि अभी तक वह एट्टी पर्सेंट आर्यसमाजी ही है। "ज्ञानदान" कहानी के कथासार में उसके एक पूज्य के सम्बन्ध में फैली हुई बातें मिलती-जुलती हैं, एट्टी पर्सेंट।" (वही)

इस प्रसंग में स्पष्ट है कि यशपाल अपने आसपास के लोगों में ही कहानी के पात्र ढूँढ़ लेते थे; आसपास की घटनाओं में कथानक ढूँढ़ लेते थे। उनका लेखन यथार्थ से दूर नहीं था। उन्होंने जीवन, समाज और सियासत के ताने-बाने को पैनी दृष्टि से देखा और इसकी वास्तविकता को बेबाकी से कहा। जिस प्रकार उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में क्रान्ति के मार्ग को चुना था, साहित्य-सृजन में भी उन्होंने वैसी ही क्रान्तिकारी विचार दिए। उनके कृतित्व में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उनके व्यक्तित्व की छाप देखी जा सकती है। उनकी सुधारवादी, राष्ट्रवादी और मानवतावादी सोच उनके लेखन में स्पष्ट रूप से झलकती है। राजनीति में जितना क्रान्तिकारी और उग्र उनका रवैया रहा, व्यक्तिगत स्वभाव से वे उतने ही नरमदिल, शान्त, अनुद्वेलित, गम्भीर और सरल थे।

अपने संस्मरण के अन्त में रेणु ने एक एशियाई लेखक-सम्मेलन के दौरान हुई यशपाल से अपनी भेंट का ज़िक्र किया है, जिसमें उन्होंने ज़ाहिर किया है कि वे स्वभावत: कितने ‘अनुत्तेजित और निर्विकार’ थे:

"भारतीय लेखकों की सभा प्रमुख हॉल में शुरू हो गई।… हॉल में, शुरू से ही, न जाने क्यों, एक असंतोषपूर्ण वातावरण घना होता जा रहा है।...

हिन्दी के लेखक सबसे अधिक उत्तेजित थे।… उलटकर देखा पीछे। … यशपाल जी अपने कैमरे के "व्यूफ़ाईंडर" में सामने बैठी हुई प्रकाशवती जी की मुद्रा देख रहे थे।… कहा जा सकता है कि जब भारतीय लेखक गण अहम सवालों पर वाद-विवाद कर रहे थे, तो यशपाल निर्विकार भाव से अपनी पत्नी की तस्वीर उतार रहा था।" (वही)

इस प्रकार उपरोक्त प्रसंगों में रेणु जी ने बड़े ही सहज ढंग से यशपाल के बहुआयामी व्यक्तित्व की कुछ परतें खोली हैं: क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता सेनानी; यथार्थवादी साहित्यकार; निर्भीक पत्रकार; समतामूलक विचारक; तथा विचारधारागत वादों के विवादों में घिरे रहकर भी सर्वग्राह्य, पूर्वानुग्रह-मुक्त, सर्वमान्य; तथा स्वभाव से स्थिर, अक्षुब्ध, निष्कपट, स्पष्टवादी एवं सर्वथा प्रासंगिक, सोद्देश्य, विचारशील व गम्भीर।


यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब में, फ़ीरोज़पुर छावनी में, एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता हीरालाल एक छोटे कारोबारी थे तथा उनकी माता प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय में एक स्कूल में अध्यापिका थीं। उनके पूर्वज हिमाचल प्रदेश से सम्बन्ध रखते थे। उनका पैतृक गाँव रंघाड़ था, जहाँ उनके पूर्वज भूम्पल, हमीरपुर (हिमाचल प्रदेश) से आकर बस गए थे। अपने बचपन में यशपाल ने अंग्रेज़ों के आतंक और विचित्र व्यवहार की अनेक कहानियाँ सुनी थीं। अपने बचपन में यशपाल ने जो भी कुछ देखा, वह अंग्रेज़ों के प्रति घृणा भर देने को काफ़ी था। वे लिखते हैं, "मैंने अंग्रेज़ों को सड़क पर सर्व साधारण जनता से सलामी लेते देखा है। हिन्दुस्तानियों को उनके सामने गिड़गिड़ाते देखा है, इससे अपना अपमान अनुमान किया है और उसके प्रति विरोध अनुभव किया। …" (सिंहावलोकन, 1956)

यशपाल की माँ उन्हें स्वामी दयानंद के आदर्शों का एक तेजस्वी आर्यसमाजी प्रचारक बनाना चाहती थीं। इसी उद्देश्य से सन् 1911 में उन्होंने गुरुकुल काँगड़ी, हरिद्वार में शिक्षा के लिए प्रवेश लिया। पाँचवीं कक्षा में पढ़ते हुए पहली कहानी "अँगूठी" गुरुकुल की हस्तलिखित पत्रिका "हँस" में छपी। सन् 1921 में लाहौर के मनोहर हाई स्कूल से प्रथम श्रेणी में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। इस दौरान सन् 1920 में ही उन्होंने कांग्रेस आन्दोलन में भी भाग लेना शुरू कर दिया और इस प्रकार अनेक दूसरे लोगों की तरह उनकी राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत भी कांग्रेस के माध्यम से ही हुई । 1921 में, असहयोग आंदोलन के समय यशपाल अठारह वर्ष के नवयुवक थे—देश-सेवा और राष्ट्रभक्ति के उत्साह से भरपूर, विदेशी कपड़ों की होली के साथ वे कांग्रेस के प्रचार-अभियान में भी भाग लेते थे। वे गाँधीवाद से प्रभावित हुए। घर के ही लुग्गड़ से बने खद्दर के कुर्त्ता-पायजामा और गांधी टोपी पहनते थे। इसी खद्दर का एक कोट भी उन्होंने बनवाया था। महात्मा गाँधी और गाँधीवाद से यशपाल के तात्कालिक मोहभंग का कारण भले ही 12 फ़रवरी सन् 1922 को, चौरा-चौरी काण्ड के बाद महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन के स्थगन की घोषणा रहा हो, लेकिन इसकी शुरुआत और पहले हो चुकी थी। यशपाल और उनके क्रांतिकारी साथियों का सशस्त्र क्रांति का जो एजेंडा था, गाँधी का अहिंसा का सिद्धांत उसके विरोध में जाता था। महात्मा गाँधी द्वारा धर्म और राजनीति का घाल-मेल उन्हें कहीं बुनियादी रूप से ग़लत लगता था।

सन् 1922 में इन्होंने नेशनल कॉलेज, लाहौर में प्रवेश लिया, जहाँ इनका सम्पर्क क्रान्तिकारी भगतसिंह, सुखदेव व भगवतीचरण वोहरा से हुआ। यशपाल ने खुलकर उनकी क्रान्तिकारी गतिविधियों में सहयोग किया। गाँधीवाद से पृथक् होकर ‘नौजवान भारत सभा’ के माध्यम से उन्होंने क्रान्ति के पथ पर चलने का अहद लिया। ‘नौजवान भारत सभा’ के मुख्य सूत्रधार भगवतीचरण और भगत सिंह थे। उसके लक्ष्यों पर टप्पणी करते हुए यशपाल लिखते हैं, “नौजवान भारत सभा का कार्यक्रम गाँधीवादी कांग्रेस की समझौतावादी नीति की आलोचना करके जनता को उस राजनैतिक कार्यक्रम की प्रेरणा देना और जनता में क्रांतिकारियों और महात्मा गाँधी तथा गाँधीवादियों के बीच एक बुनियादी अंतर की ओर संकेत करना उपयोगी होगा। लाला लाजपतराय की हिन्दूवादी नीतियों से घोर विरोध के बावजूद उन पर हुए लाठी चार्ज के कारण, जिससे ही अंततः उनकी मृत्यु हुई, भगतसिंह और उनके साथियों ने सांडर्स की हत्या की। इस घटना को उन्होंने एक राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखा जिसके प्रतिरोध के लिए आपसी मतभेदों को भुला देना ज़रूरी था। भगतसिंह द्वारा असेम्बली में बम-कांड इसी सोच की एक तार्किक परिणति थी, लेकिन भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी के विरोध में महात्मा गाँधी ने जनता की ओर से व्यापक दबाव के बावजूद, कोई औपचारिक अपील तक जारी नहीं की।” गाँधी के इस रवैये से भी यशपाल खिन्न थे। उन्होंने अपने क्रान्तिकारी जीवन के कई संस्मरण "सिंहावलोकन" (प्रथम भाग, 1956) में दिए हैं, जिनमें क्रान्तिपथ पर अपने साथियों का तार्किक मूल्यांकन किया है। इन संस्मरणों की सत्यता के विषय में कुछ आक्षेप भी मिलते हैं, परन्तु यशपाल ने इन्हें वास्तविकता की कसौटी पर सही ठहराया और आलोचना की किंचित् भी परवाह नहीं की।

‘क्रांति’ को भी यशपाल बम-पिस्तौलवाली राजनीतिक क्रांति के रूप में देखते थे। सशस्त्र-क्रान्ति में भाग लेते हुए उन्होंने स्वयं बम बनाने का कार्य किया। क्रान्तिकारियों का गाँधी के असहयोग आन्दोलन से से विश्वास उठ जाने पर "हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना" के अन्तर्गत क्रान्तिकारी प्रयासों को और उग्रतर किया जाने लगा था; इस नए संगठन का घोषणा-पत्र – “फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ द बॉम्ब” (Philosophy of the Bomb) - यशपाल और भगवतीचरण ने मिलकर तैयार किया था। सन् 1928 में लाहौर बम फ़ैक्टरी के पकड़े जाने के बाद वे फ़रार हो गए। क्रान्तिकारी फ़रारों की गिरफ़्तारी के लिए सरकारी इश्तहार में, जिसे तत्कालीन गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया, दिल्ली के प्रबन्धक ने प्रकाशित कराया था, यशपाल का नाम सबसे ऊपर था और उन्हें पकड़वाने वाले को सबसे अधिक 3000 रुपए का इनाम देने की घोषणा की गई थी। दिसम्बर 1929 में, उन्होंने वॉइसरॉय लॉर्ड इर्विन की रेलगाड़ी के नीचे बम विस्फोट किया। सन् 1930 में, कानपुर दल के साथियों को छुड़ाने के लिए पुलिस से सशस्त्र मुठभेड़ को अंजाम दिया। सन् 1931 में, चन्द्रशेखर आज़ाद की शहादत के बाद "हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातन्त्र सेना" के कमाण्डर बनाए गए। सन् 1932 में, इलाहाबाद में, पुलिस से मुठभेड़ में गोलियाँ समाप्त हो जाने पर गिरफ़्तार हो गए, जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा हुई। क्रान्तिकारी फ़रारों के इश्तिहार में प्रकाशो देवी के नाम से अंकित, सशस्त्र क्रान्ति और बम बनाने में उनकी सहयोगी, प्रकाशवती से यशपाल का प्रेम प्रसंग चला, जिनसे अगस्त 1936 में बरेली जेल में ही विवाह हो गया। उनके प्रेम प्रसंग के चलते, चन्द्रशेखर आज़ाद को उनकी गम्भीरता एवं प्रतिबद्धता पर सन्देह रहता था, मगर वे अक्सर दल की गतिविधियों के विषय में उनसे परामर्श भी लेते थे।

2 मार्च 1938 को जेल से रिहाई के बाद, जब उसी वर्ष नवंबर में यशपाल ने “विप्लव” का प्रकाशन-संपादन शुरू किया, तो अपने इस काम को उन्होंने ‘बुलेट बुलेटिन’ के रूप में परिभाषित किया। जिस अहिंसक और समतामूलक समाज का निर्माण वे राजनीतिक क्रांति के माध्यम से करना चाहते थे, उसी अधूरे काम को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने लेखन को अपना आधार बनाया। सन् 1939 में, उनका प्रथम कहानी-संग्रह "पिंजड़े की उड़ान" प्रकाशित हुआ। सन् 1940 में, प्रथम निबन्ध-संग्रह "न्याय का संघर्ष" प्रकाशित हुआ, जिसमें सरकार विरोधी लेखन के कारण उन्हें फिर कुछ समय जेल में रहना पड़ा। इसी वर्ष "विप्लव" के उर्दू संस्करण "बाग़ी" का प्रकाशन आरम्भ किया। "विप्लव" में छपे एक लेख के कारण भारत सुरक्षा क़ानून के अन्तर्गत इन्हें फिर से गिरफ़्तार किया गया। रिहा होने पर अंग्रेज़ सरकार के विरोध के कारण पत्रिका का नाम बदलकर "विप्लवी ट्रैक्ट" रखा। सन् 1941 में, यशपाल का प्रथम उपन्यास "दादा कॉमरेड" प्रकाशित हुआ। सन् 1942 में पुन: गिरफ़्तार हुए। सरकार द्वारा भारी ज़मानत माँगने के कारण मासिक पत्र का प्रकाशन उन्होंने बंद कर दिया। सन् 1947 में "विप्लव" का प्रकाशन उन्होंने पुन: आरम्भ किया, परन्तु प्रीसेंसरशिप लागू किए जाने पर तथा यशपाल की गिरफ़्तारी और लखनऊ से निष्कासन के बाद सदा के लिए बंद करना पड़ा। सन् 1950 में उन्होंने "लखनऊ लेखक संघ" की और 1951 में "लखनऊ नाट्य संघ" की स्थापना की। सन् 1952 में सोवियत संघ तथा कुछ अन्य देशों का भ्रमण किया। सन् 1953 में अम्बिका प्रसाद वाजपेयी के साथ लखनऊ में "राष्ट्रभाषा प्रचार समिति" का गठन किया। उत्कृष्ट साहित्य सृजन करते हुए यशपाल ने 26 दिसम्बर 1976 को लखनऊ में अन्तिम साँस ली । भारत सरकार द्वारा उन्हें 21 अप्रैल 1970 को "पद्म भूषण" अलंकरण प्रदान किया गया था तथा सन् 1976 में, उनके उपन्यास "मेरी-तेरी-उसकी बात" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था।

हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद के बाद भी सामाजिक यथार्थ को लक्ष्य बनाकर लिखने वाले सामाजिक तथा समाजवादी उपन्यासकारों में भगवतीचरण वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क़, यशपाल, अमृतलाल नागर और भीष्म साहनी प्रमुख हैं। इनमें यशपाल ने अपने क्रान्तिकारी विचारों के साथ हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। इनके उपन्यासों में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ द्रष्टव्य हैं: प्रथम — रोमानी; द्वितीय — सामाजिक एवं यथार्थवादी; तथा तृतीय — प्रकृतिवादी। प्रारम्भिक काल में वे गाँधी से प्रभावित रहे, लेकिन गाँधीवाद से शीघ्र ही मोहभंग होने पर उन्होंने मार्क्स के पूंजीवाद व साम्राज्यवाद के विरोध सम्बन्धी कुछ विचारों / सिद्धान्तों का अनुमोदन अवश्य किया, किन्तु खुले रूप से साम्यवाद का समर्थन नहीं किया, और कभी उनके राजनीतिक दल में सम्मिलित नहीं हुए। प्रमुखत: उनकी निष्ठा समाज की सच्चाइयों से थी और एक दर्पण की भाँति हमेशा उन सच्चाइयों को तद्वत् निरंकुशता के साथ दर्शाते रहे। जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा है: “अपनी अभिव्यक्ति अथवा रचना प्रवृत्ति को मैं समाज की परिस्थितियों, अनुभूतियों और कामनाओं की सचेत प्रतिक्रिया ही समझता हूँ और उन्हें अपनी चेतना और सामर्थ्य के अनुसार अपने सामाजिक हित के प्रयोजन से अभिव्यक्त करता हूँ।” (सिंहावलोकन, 1956) यशपाल के कथा-साहित्य में मार्क्सवादी मान्यताओं की झलक मिलती है, जिस कारण कुछ आलोचकों ने उन्हें मार्क्सवादी कथाकार मान लिया। हालाँकि अपने एक साक्षात्कार में यशपाल ने स्वयं स्पष्ट किया है: "हो सकता है मेरी कहानियों में मार्क्सवादी प्रभाव हो, परन्तु कम्युनिस्ट पार्टी का मैं कभी सदस्य नहीं रहा। उससे मेरी सहानुभूति रही है … मैंने निश्चित विचारधारा में कभी बराबर विश्वास नहीं किया … सप्रयोजनीयता मेरी कहानियों का मुख्य आधार रहा है।" उन्होंने अपनी विचारधारा व जीवन-दर्शन के विषय में लिखा है: "समाज की विचारधारा उसकी भौतिक परिस्थितियों के परिणाम में पैदा हुई नैतिक धारणा होती है जिसका काम समाज की व्यवस्था को मान्यता देना होता है।" (वही)

प्रेमचंदोत्तर हिन्दी उपन्यास व कथा-साहित्य में यशपाल महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उपन्यास व कहानियों के अतिरिक्त यशपाल ने निबन्ध, व्यंग्य, संस्मरण व डायरी जैसी विधाओं में भी सृजन किया है। यशपाल के साहित्य की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि सामाजिक यथार्थ की यथायथ अभिव्यक्ति है। मध्य, निम्न मध्य एवं निम्न वर्गों की समस्याओं को उजागर करने के लिए उन्होंने राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक कथावस्तु का चयन किया और मनोवैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि तथा मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ उन्हें परिलक्षित किया। उनकी पचास से भी अधिक प्रकाशित कृतियों में 12 उपन्यास और 17 कहानी-संग्रह शामिल हैं। यशपाल अपने उपन्यासों में सामाजिक यथार्थ को अंकित करने के आग्रह के साथ आए थे। कथानक के ह्रास और प्रयोगशीलता को आधार बनाकर समाज की व्यापक और जटिल वास्तविकता का अंकन नहीं किया जा सकता और न ही सामाजिक संरचना के मूल अंतर्विरोधों की व्याख्या और आलोचना की जा सकती है। कथनाक के ह्रास के उस दौर में उन्होंने उपन्यास में कथानक की वापसी का रचनात्मक उद्यम किया। कथानक के विन्यास और विकास में उन्होंने घटनाओं की विश्वसनीयता और ब्यौरों की लुप्त होती कला को पुनर्जीवित किया। उनके यहाँ पात्रों और उनके विचारों का विकास कथानक के विकास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

सन् 1941 में प्रकाशित पहले उपन्यास "दादा कॉमरेड" में गाँधीवाद से मोहभंग होने के कारण यशपाल की बदलती राजनीतिक चेतना के साथ-साथ प्रणय, मनोविश्लेषण और यौन-विषयक संवेदनाएँ मिलती हैं। बारह लघु अध्यायों में विभक्त इस उपन्यास में जहाँ एक ओर राजनीतिक परिदृश्य में अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध क्रान्तिकारियों का आन्दोलन, गाँधीवाद का प्रभाव, कांग्रेस का संघर्ष तथा साम्यवादी विचारों का प्रतिपादन चर्चा में आया है; वहीं दूसरी ओर प्रेम, विवाह, काम, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, विशेषत: स्त्री की सामाजिक स्थिति का चिन्तन है। विषय-वैविध्य को कलात्मक ढंग से सँजोया गया है। सन् 1943 में छपे दूसरे उपन्यास "देशद्रोही" में सन् 1930 से 1942 तक के राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाया गया है, किन्तु इसमें रुमानी प्रसंग भी बहुत हैं। सन् 1945 में प्रकाशित "दिव्या" की चिन्ता में युगों से त्रस्त, प्रताड़ित भारतीय नारी है, जो पूर्व काल में भी शोषण का शिकार थी, आज भी है। सन् 1947 में प्रकाशित "मेरी-तेरी-उसकी बात" का कथानक परतन्त्र भारत के राष्ट्रीय आंदोलनों की पृष्ठभूमि पर आधारित है। सन् 1949 के उपन्यास "मनुष्य के रूप" में भी प्रेम-प्रसंगों का चित्रण अधिक मिलता है। सन् 1958 और 1960 में दो भागों में छपा उपन्यास "झूठा सच" उनकी उत्कृष्ट कृति है, जो भारत-विभाजन की त्रासदी और पुनर्वास के संघर्ष को महाकाव्यात्मक विस्तार में अंकित करता है। पहला भाग — भारत और पाकिस्तान के विभाजन के पहले हुए साम्प्रदायिक दंगों का सशक्त दस्तावेज़ है। दूसरा भाग — स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के भारत में राजनीतिक-सामाजिक स्थिति के यथार्थ को व्यंग्यात्मक शैली में चित्रित करता है। उपन्यास का शीर्षक "झूठा सच" स्वयं में विरोधाभास एवं विपरीत लक्षणा लिए हुए है, जो समकालीन वास्तविकता को प्रतिबिम्बित करता है।

सन् 1963 के उपन्यास "बारह घंटे" में प्रेम और विवाह के विषय में पुराने / रूढ़िवादी नैतिक मूल्यों को ऐतिहासिक व समकालीन समाज के सन्दर्भों में रखकर चुनौती दी गई है। सन् 1965 के उपन्यास "अप्सरा का शाप" में यशपाल ने दुष्यन्त-शकुन्तला से जुड़ी पौराणिक कथा को नया आयाम प्रदान किया है और आज के पितृसत्तात्मक समाज में नारी शोषण की समस्या पर प्रकाश डाला है। सन् 1968 की कृति "क्यों फँसे?" स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तथा यौनाचार का मनोविश्लेषण है। यशपाल के उपन्यासों में राजनीतिक एवं सामाजिक सरोकारों के साथ ही संयोग-वियोगात्मक प्रेम की अनुभूतियाँ, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएँ भी मुखरित हैं। यशपाल के उपन्यास "दिव्या" में नारी की दयनीय स्थिति पर भदन्त आनन्द कौसल्यायन लिखते हैं: "यशपाल की पुरानी लालसा है, एक बौद्ध उपन्यास लिखने की। "दिव्या" लिखकर भी "दिव्या" के आरम्भिक हिस्से में ही यशपाल ने पिस्तौल का ऐसा निशाना लगाया है कि छाती के आर-पार हो जाता है। "पिता-परित्यक्ता, पति-परित्यक्ता नारी जब अपने दुध-मुँहे बच्चे को लेकर, एक बौद्ध-विहार का दरवाज़ा खटखटाती है, तो उसे वहाँ भी शरण नहीं मिलती। आर्त्तनाद करती हुई वह जब विहार के महास्थविर से निवेदन करती है कि विहार में तो अम्बपाली वेश्या को शरण मिली थी, आख़िर मुझे क्यों शरण नहीं मिल सकती? तो महास्थविर के पास एक ही निर्मम उत्तर था - वेश्या स्वतन्त्र नारी है। उसे शरण मिल सकती है, तुम्हें नहीं मिल सकती।" मैंने जब ये पंक्तियाँ पढ़ीं, तो मेरे बौद्ध-हृदय पर ऐसी चोट लगी कि मैं तिलमिला उठा। उस दिन से मैं सोच रहा हूँ कि इन पंक्तियों में, यशपाल ने हमारी समाज-व्यवस्था में नारी की दयनीय स्थिति पर जो निर्मम प्रश्नचिह्न लगा दिया है, उसका हमारे पास क्या जवाब है?" (यशपाल अभिनन्दन ग्रन्थ, 1956)

यशपाल के उपन्यास "देशद्रोही" में जहाँ एक ओर 1930 से 1942 तक के ग़ुलाम भारत का राजनीतिक परिदृश्य देखा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर, पुरुष-स्त्री सम्बन्धों तथा नारी की स्थिति के भी कई दृष्टान्त मिलते हैं। यशपाल के अन्य उपन्यासों की तरह "देशद्रोही" में भी कांग्रेस के नरम दल और गरम दल के बीच संघर्ष देखा जा सकता है। प्रमुखत: उन्होंने दो विचारधाराओं में समानान्तर प्रस्तुत किया है: एक, कांग्रेस की दक्षिणपंथी (मुख्य)धारा, जिसके प्रतिनिधि हैं बद्री बाबू; और दूसरी, कांग्रेस की ही वामपंथी धारा, जिसके पक्षधर हैं शिवनाथ। इन दोनों के मध्य सामंजस्य बैठाने का प्रयास करती हैं उपन्यास की नायिका, राज दुलारी खन्ना। हालाँकि दोनों धाराओं का लक्ष्य तो एक ही है — देश को स्वाधीन बनाना, किन्तु दृष्टिकोण, सोच व कार्य-प्रणाली भिन्न-भिन्न हैं। दक्षिणपंथी शान्तिपूर्ण एवं अहिंसात्मक ढंग से तो वामपंथी उग्रता एवं हिंसा के साथ अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहते हैं। समस्या तब और बढ़ जाती है जब शिवनाथ मिल मज़दूरों का पक्ष लेकर मिल में हड़ताल करवा देता है, और परिणामस्वरूप मिल के मालिक भी नाराज़ हो जाते हैं, और बात यहाँ तक बिगड़ जाती है कि मालिक और मज़दूरों के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, और मज़दूरों के हालात इतने बिगड़ जाते हैं कि उन्हें दो वक़्त की रोटी के लाले पड़ जाते हैं। दूसरी ओर बद्री बाबू मज़दूरों की शोचनीय स्थिति को देखकर हड़ताल को समाप्त करवाने के लिए स्वयं आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं। उनकी आमरण अनशन की प्रतिज्ञा से चिन्तित होकर राज शिवनाथ और उसके दल से हड़ताल को ख़त्म करने और बद्री बाबू से बातचीत करने के लिए कहती है, किन्तु उसका प्रयास सफल नहीं हो पाता है। दो विचारधाराओं के टकराव में पिसते हैं राजनीति की चालों से अनभिज्ञ ग़रीब मज़दूर। इस गतिरोध पर यशपाल लिखते हैं:

"हड़ताल कराकर मज़दूरों को संकट में डालने वाले मज़दूर-लीडरों की निन्दा होने लगी। शिवनाथ, शेरखाँ और मराठे के विरुद्ध आक्षेप भरे पर्चे निकलने लगे। इन पर्चों में उनसे पूछा जाता कि वे अपने निर्वाह का जायज़ तरीक़ा बताएँ? उन्हें बेरोज़गार मज़दूरों के टुकड़ों पर जीने वाला बताया जाता, अपनी नेतागिरी क़ायम करने के लिए मज़दूरों को संकट में डालने का लाँछन और ग़रीब मज़दूरों से इकट्ठे लिए धन को होटलों और वेश्याओं के घरों में बर्बाद करने का दोष उन पर लगाया जाता। ... अपने संकट और सैंकड़ों तरह के व्याख्यानों से घबराए हुए मज़दूरों के लिए तर्क और युक्ति की बारीकियाँ समझना सम्भव न था। वे सिद्धान्तों के रूप में नहीं बल्कि व्यक्तियों के रूप में बात समझना चाहते थे। वे सोचते थे, बद्री बाबू की बात मानें या मज़दूर सभा की? संकट में सहायता कौन कर सकता है?" (पृ. 50)

जैसा कि यशपाल के बारे में कुछ वामपंथी आलोचकों ने यह अवधारणा बनाई है कि वे मार्क्सवाद अथवा वामपंथ का समर्थन व प्रचार करते रहे, इस उपन्यास के घटनाक्रम को निष्पक्षत: जाँच कर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने अपने राजनीति-विषयक कथानकों में समकालीन विचारधाराओं को यथावत् दर्शाया है, उनके बीच के टकराव को रेखांकित किया है, न कि किसी विचारधारा विशेष का समर्थन किया है। उनके लेखन को कलात्मक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है, न कि विचारधाराओं के परस्पर वाद-विवाद की विकलात्मक दृष्टि से। वस्तुत: उनका समस्त राजनीतिक दर्शन एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हो जाता है, और वह है -देशप्रेम।

मिल-मालिक और मज़दूरों के बीच के संघर्ष के घटनाक्रम में यशपाल ने सुस्पष्ट रूप से दर्शाया है कि किस प्रकार कांग्रेस के अन्दर का ही एक वामपंथी दल मज़दूरों के हक़ूक़ की लड़ाई कहकर समस्या तो खड़ी कर देता है, लेकिन उसका सार्थक समाधान कर पाने में सक्षम सिद्ध नहीं हो पाता है। समाधान सम्भव हो पाता है शान्ति, सौहार्द और प्रेमभाव के पक्षधर बद्री बाबू के माध्यम से: "मज़दूरों और मिल-मालिकों में हिंसा के भाव और वैमनस्य के कारण हो जाने वाली कपड़ा-मिलों की हड़ताल को बद्री बाबू ने अपने बलिदान से, दोनों दलों के हृदय-परिवर्तन कर समाप्त किया था। तेईस दिन के इस अनशन व्रत और आत्म-शुद्धि से उन्होंने अनुभव किया कि भूखे और पराधीन देश का वास्तविक रूप देश की कंगाल जनता है। उन्होंने इस कंगाल जनता, दरिद्रनारायण की सेवा करना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपना लिया। बद्री बाबू ने जनता की सेवा कर सकने के लिए, उनका विश्वास प्राप्त करने के लिए, उनकी भाँति रहना और जीवन बिताना उचित समझकर सम्पन्न कुल में जन्म लेकर भी कष्ट और दरिद्रता को अपना लिया। उन्होंने अपने व्यवहार से धनाढ्य व्यक्तियों के सम्मुख त्याग का आदर्श उपस्थित करने का निश्चय किया। एक मज़दूर की आमदनी से अधिक ख़र्च वे अपने लिए न करते।" (पृ. 94)

इस उपन्यास में यशपाल ने तात्कालिक समाज में व्याप्त परस्पर अन्तर्विरोधी विचारधाराओं / मान्यताओं को एक साथ दिखाया है — एक ओर वामपंथ है, जो समस्यायुक्त है; तो दूसरी ओर दक्षिणपंथ है, जो समाधानयुक्त है। त्याग, प्रेम और परस्पर सम्मान की भावना से ही समस्याओं का समाधान सम्भव दिखाया है। जहाँ भी उग्र समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद का उल्लेख हुआ है, वहीं द्वन्द्व, विरोधाभास और संघर्ष उत्पन्न हो गया है। वास्तव में क्रान्तिकारियों और वामपंथ पर अग्रसर युवाओं के पास कोई सुनिश्चित कार्यक्रम और नेतृत्व नहीं था, जिस वजह से वे सफल नहीं हो पाए। दूसरी ओर गाँधी का दर्शन व्यावहारिक था जिसके कारण आम लोग बहुत संख्या में उनसे जुड़े और वे आन्दोलन को नेतृत्व देने में सफल हुए। यशपाल ने "देशद्रोही" सहित अपने विभिन्न उपन्यासों में यह तथ्य दिखाया है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य को भी यशपाल ने कथानक में बड़ी दक्षता के साथ पिरोया है। इंग्लैण्ड एक साम्राज्यवादी / उपनिवेशी शक्ति है, जिसका विरोध किया जा रहा है। भारत है, जो परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा है और औद्योगीकरण के चलते वर्ग-संघर्ष की समस्या से जूझ रहा है, जिसकी वजह से स्वाधीनता आन्दोलन में लगे राजनीतिक दल भी परस्पर बँटने लगे हैं। अफ़ग़ानिस्तान है, जो तथाकथित रूप से आज़ाद है, मगर रूढ़िवादी सोच और धर्मान्धता का ग़ुलाम है। फिर रूस है, जिसे राजनीतिक-सामाजिक क्रान्ति और सजगता का केन्द्र दिखाया गया है, लेकिन उसकी भी अपनी समस्याएँ हैं। स्त्री की समस्या को उठाया है ¬ वह चाहे किसी भी देश, काल, स्थिति में हो, किसी भी समाज, सम्प्रदाय व संस्कृति में हो, सब जगह किसी न किसी रूप में ग़ुलाम बनी हुई है।

भारत के सन्दर्भ में मज़दूर शोषित वर्ग के प्रतीक हैं, जो अनपढ़ता और अभाव के कारण पीड़ित हैं और राजनीतिक स्वार्थ में पिसते हैं। राजाराम पूंजीवाद का प्रतीक है, जो निवेशकर्ता है और अपने लाभ के लिए चिन्तित है। शिवनाथ कुछ-कुछ साम्यवाद का प्रतीक है, जो मज़दूरों की समस्या को उठाता है। बद्री बाबू कांग्रेस के दक्षिणपंथी दल का प्रतीक है, जो प्रेम और सौहार्द से समस्याओं का समाधान करता है। राज बीबी आम जनता की प्रतीक है, जो दलगत राजनीति के मध्य फँसी हुई है। डॉ. भगवानदास खन्ना हालात का मारा समस्त विचारधाराओं की निरर्थकता का प्रतीक है, जो यह अनुभव करता है कि जब तक इनमें आधारभूत मानवीय मूल्य न हों तब तक सब बेमानी हैं। दरअसल वह मानवता का प्रतीक है, जो अज्ञानता, अशिक्षा, भ्रान्ति, भीति, अहं और पाशविक प्रवृत्तियों के कारण हर देश में प्रताड़ित और पीड़ित है। एक दार्शनिक तथ्य भी है कि दैव, प्रकृति, काल अथवा समय सर्वोपरि, सर्वव्यापी और सर्वहारी शक्ति है, जिसके समक्ष मानव बहुत बौना है। उपन्यास के सभी पात्र वशातीत परिस्थितियों में उलझे दीख पड़ते हैं।

यशपाल की औपन्यासिक संरचना सुगठित है, कथानक सशक्त है। इसमें कई तन्तु हैं, जो कथाधारा को प्रभावी बनाते हैं। इनकी उपन्यास-सृष्टि को समझने के लिए एक सूत्राष्टक है: (1) प्रेम का भाव, व्यक्तिगत एवं देश के लिए, जो सभी पात्रों को बाँधे रखता है; (2) नारी के लिए सम्मान तथा समान अधिकार की वकालत करना, जो इनकी लगभग समग्र साहित्य में द्रष्टव्य है; (3) मानवता एवं मानवीय मूल्यों का आग्रह; (4) सामाजिक ऐक्य एवं परस्पर सम्मान को महत्त्व देना; (5) स्वतन्त्रता एवं स्वराज की लक्ष्यप्राप्ति की ओर अथक संघर्ष; (6) राष्ट्र के लिए समर्पण की भावना; (7) गाँधीवाद, समाजवाद और मार्क्सवाद का समन्व्यात्मक दृष्टिकोण; तथा (8) रूढ़िवादी परम्परा को बदलकर समय के साथ चलना। निष्कर्षत: यशपाल सर्वप्रथम मानवतावादी और कुछ-कुछ अस्तित्ववादी विचारक हैं, शेष अन्य बाद में। उनका दृष्टिकोण सर्वथा यथार्थवादी और सुधारवादी है। वास्तव में उन्होंने किसी "वाद" का समर्थन नहीं किया, बल्कि आर्यसमाजी, गाँधीवादी, समाजवादी एवं साम्यवादी विचारधाराओं का मिश्रण प्रस्तुत किया है। हालांकि "गाँधीवाद की शवपरीक्षा" में यशपाल ने गाँधीवादी विचारधारा से अपने मतभेद पर विस्तृत चर्चा की है, पुनरपि गाँधीवाद का उनके हिन्दी साहित्य में योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। जैसा कि डॉ. प्रभाकर माचवे ने यशपाल की मृत्यु के दूसरे दिन आकाशवाणी बम्बई से प्रसारित अपनी वार्ता में कहा था, “वे गाँधीवाद-मार्क्सवाद के सह-अस्तित्व और पंचशील को मानते थे ।” (माचवे, 1976) "गाँधीवाद की शव-परीक्षा" की भूमिका में यशपाल स्पष्टत: लिखते हैं: "गाँधीवाद का मार्ग त्याग का है। वह शक्तिहीनता से शान्ति, असामर्थ्य से संतोष और अभाव से समता लाना चाहता है। संसार से विमुख हो कर वह संसार में जीवन बिताना चाहता है। गाँधीवाद के इस कोकून (cocoon) में बंद होकर भारत की राजनीति विकास करना चाहती है। परिवर्तन को पंगु बना देने वाली गाँधीवादी नीति, समाज को संकट और अव्यवस्था से मुक्ति नहीं दिला सकती।" (पृ. 14)

उपन्यासों की भान्ति अपनी कहानियों में भी यशपाल ने मानव-जीवन की सच्चाइयों तथा रूढ़ियों और आधुनिकता के टकराव को उकेरा है। समकालीन समाज की विषमताओं और विद्रूपताओं को उन्होंने बड़े मार्मिक ढंग से अभिलक्षित किया है। इन कहानियों में नारी का चित्रण बड़ी बारीकी से और बहुत ही संवेदनशील ढंग से किया गया है। कहानी को पढ़ते हुए स्त्री-पात्रों से पाठक की सहानुभूति सहसा जुड़ जाती है। स्त्री-मन की दबी हुई भावनाओं, ईप्साओं और अपेक्षाओं को यशपाल ने कलात्मकता के साथ प्रकट किया है। लघुकथा "मक्रील" में एक लोकप्रिय कवि की प्रशंसक एक युवती के मूक प्रेम की अभिव्यक्ति हृदयस्पर्शी है। वृद्धावस्था में अकेलेपन से निराश कवि जैसे ही किसी साथी की चाह व्यक्त करता है, उसे चाहने वाली वह युवती तुरन्त उसका साथ निभाने के लिए उद्यत हो जाती है। अविश्वास और बड़बोलेपन में कवि हँसते हुए जैसे ही उस युवती से आग्रह करता है कि, "यहीं साथ दो मक्रील के गर्भ में?" "हाँ यहीं सही।" युवती ने निर्भीक भाव से नेत्र उठा कर कहा। हँसी रोककर कवि ने कहा — "अच्छा, तो तैयार हो जाओ - एक, दो , तीन।" हँस कर कवि अपना हाथ युवती के कंधे पर रखना चाहता था। उसने देखा, पुल के रेलिंग के ऊपर से युवती का शरीर नीचे मक्रील के उद्दाम प्रवाह की ओर चला गया।" युवती के नि:स्वार्थ प्रेम की इस प्रकार पुष्टि के आगे कवि का आदर्शपूर्ण आख्यान मात्र शब्दाडम्बर बन कर रह जाता है, उसके समर्पण के आगे कवि की कविताई शून्य हो जाती है। जिस आईने में अपना झुर्रियों वाला चेहरा देखकर कवि परेशान था, आत्मग्लानि में वह उसे तोड़ डालता है। स्पष्ट है कि प्रेम आयु के अधीन नहीं, मात्र शारीरिकता का मोह नहीं, बल्कि हृदय, मन, आत्मा और अन्तस् का जटिल भाव है।

इसी प्रकार कहानी "चित्र का शीर्षक" एक चित्रकार, जयराज, की सौन्दर्य-विषयक सोच को उजागर करती है। अपने मित्र की बीमार पत्नी के उसके मकान पर कुछ दिनों के प्रवास के लिए आने से पूर्व वह उसके लावण्य, उसकी महक और अपने साथ उसकी उपस्थिति की कल्पना में रुमानी हुआ जा रहा था; परन्तु जब वह उसके समक्ष आती है, वह उसे देखकर निराश हो जाता है। चेहरे पर पीलापन लिए, पसीने में तर-ब-तर, बड़ा-सा पेट लिए, हाँफती हुई, एक गर्भवती स्त्री को देखकर व स्तब्ध रह गया था। उसकी इस अवस्था में उसे कुरूपता दिखाई दी। उसे नौकर की देखरेख में छोड़कर वह बहाने से वहाँ से चला जाता है। कुछ दिनों के बाद वह उसके रूप को कैनवस पर उकेरता है। उस समय, एक बच्चे को जन्म देने के बाद, वही स्त्री जब उसके समक्ष आ खड़ी होती है, तब वह उसमें सुन्दरता देखता है। वह उससे नज़र बचाकर कैनवस को नष्ट कर देना चाहता है, किन्तु तभी वह स्त्री उससे प्रश्न पूछती है कि उस चित्र का शीर्षक उसने क्या रखा है? उसे निरुत्तर देख वही स्त्री उसे शीर्षक सुझा देती है: "सृजन की पीड़ा"। यह कहानी सौन्दर्य को परिभाषित करती है: जिसका सृजन प्रसव-वेदना से कम नहीं, जो शारीरिक एवं मानसिक, दोनों स्तरों पर होती है। इस वृत्तान्त से एक सीख मिलती है कि व्यक्ति जीवन को तब तक नहीं समझ सकता, जब तक कि वह उसके स्वयं के भीतर नहीं पलता; और शरीर से प्रेम इसलिए नहीं किया जा सकता कि वह कैसा दिखता है, बल्कि इसलिए कि उसकी उपयोगिता / उपादेयता क्या है, वह क्या कुछ रचना कर सकता है।

एक अन्य लघुकथा "फूलो का कुर्ता" बाल-विवाह की कुरीति के साथ-साथ स्त्रियों को अनावश्यक रूढ़ियों का ग़ुलाम बनाए रखने पर प्रहार करती है। एक नन्ही-सी अबोध बालिका, फूलो, अन्य बच्चों के साथ खेलते हुए जैसे ही अपने मंगेतर लड़के को अपनी ओर आते हुए देखती है, उसे परिवार की बड़ी स्त्रियों की हिदायत याद आती है कि पाहुने के आगे चुन्नी से सिर को ढँकना है, सो लज्जा-वश वह अपने सिर को ढँकने की सोचती है, और चुन्नी के अभाव में अपनी फ़्रॉक को ही ऊपर उठाकर उसमें अपना मुँह छिपा लेती है। उसकी इस नादान हरकत को देखकर सब हँस देते हैं। यहाँ विषय बच्ची की नादानी नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक समाज में, परम्पराओं के बोझ तले दबी स्त्रियों की सच्चाई का पर्दाफ़ाश करना है। रूढ़िवादी लोग अपनी बेटियों को हालात का साहस के साथ सामना करने को तैयार करने की बजाय उन्हें पर्दे में छिपने की सीख देते हैं।

इसी प्रकार यशपाल ने समाज की कई कुरीतियों और रूढ़ियों पर से पर्दा उठाया है। ग़रीबी से शर्मसार मानवता की नग्नता उनकी कहानी "परदा" में परिलक्षित है। चौधरी पीरबख़्श को ग़ुर्बत के दौर में क़र्ज़ लेकर ज़लील होना पड़ता है, जिस कारण घर के ज़नानख़ाने को छिपाए रखने वाला ड्योढ़ी का पर्दा भी उठ जाता है, और बरसों से छिपाई उसकी वास्तविकता अनावृत्त हो जाती है। कहानी का अन्तिम दृश्य मर्मस्पर्शी है: "ख़ान ने ड्योढ़ी पर लटका परदा झटक लिया। ड्योढ़ी का परदा हटने के साथ ही, जैसे चौधरी के जीवन की डोर टूट गई। वह डगमगाकर ज़मीन पर गिर पड़े। … इस दृश्य को देख सकने की ताब चौधरी में न थी ... सहसा परदा हट जाने से औरतें ऐसे सिकुड़ गईं, जैसे उनके शरीर का वस्त्र खींच लिया गया हो। वह परदा ही तो घर-भर की औरतों के शरीर का वस्त्र था। उनके शरीर पर बचे चीथड़े उनके एक-तिहाई अंग ढंकने में भी असमर्थ थे। … जाहिल भीड़ ने घृणा और शरम से आँखें फेर लीं। ...भय से चीख़कर ओट में हो जाने के लिए भागती हुई औरतों पर दया कर भीड़ छँट गई। चौधरी बेसुध पड़े थे। जब उन्हें होश आया, ड्योढ़ी का परदा आँगन में सामने पड़ा था; परन्तु उसे उठाकर फिर से लटका देने का सामर्थ्य उनमें शेष न था। शायद अब इसकी आवश्यकता भी न रही थी। परदा जिस भावना का अवलम्ब था, वह मर चुकी थी।"

ग़रीबी का एक वीभत्स चित्र उनकी कहानी "दु:ख का अधिकार" में भी देखा जा सकता है। एक पुत्र-वियोगिनी बुढ़िया, कल ही जिसका 23 बरस का जवान बेटा चल बसा, वह अपनी भूखी बहू और पोता-पोती के लिए "रोते-रोते और आँखें पोंछते-पोंछते भगवाना के बटोरे हुए ख़रबूज़े डलिया में समेटकर बाज़ार की ओर चली — और चारा भी क्या था? … बुढ़िया ख़रबूज़े बेचने का साहस करके आई थी, परन्तु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए फफक-फफक कर रो रही थी।" और फुटपाथ पर उसे देखकर लोग उसे भला-बुरा कह रहे थे। "एक आदमी ने घृणा से एक तरफ़ थूकते हुए कहा, "क्या ज़माना है! जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगा के बैठी है।" मानवता के ह्रास का यह चित्र हृदय-विदारक है।

समग्रत: यशपाल के कथा-साहित्य में कथ्य, शैली व शिल्प सशक्त हैं, प्रभावी हैं। उनकी सुधारवादी दृष्टि समाज एवं राष्ट्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रकट करती है। उन्होंने जो लिखा, सप्रयोजन लिखा। जैसा कि प्रकाशवती पाल के शब्दों से स्पष्ट है: "यशपाल जी ने अपनी चेतना और विश्वास में सदा सप्रयोजन लिखा। जीने की कामना और जी सकने के प्रयत्न के लिए लिखा। यशपाल ख़ूब जानते थे कि संसार से पराङ्मुख होकर अलौकिक शक्ति के सहारे नहीं जिया जा सकता। वह जी सकने के प्रयत्न में समाज और संसार की ओर देखते थे। उनसे अपने हेतु भाव का अटूट सम्बन्ध अनुभव करते थे। उनका सुनिश्चित और दृढ़ विश्वास था कि वे समाज और समाज के व्यक्तियों के बिना क्षण भर भी नहीं जी सकते। इसलिए वे जीवन-प्रक्रिया और जीवन मार्ग में अनुभव होने वाली अड़चनों, उचित और विकासशील जीवन की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण अपनी रचनाओं द्वारा समाज के सम्मुख रखने का प्रयत्न करते रहे। यशपाल अपनी अभिव्यक्ति और रचना प्रवृत्ति को सदा अपने समाज की परिस्थितियों, अनुभूतियों और कामनाओं की सचेत प्रतिक्रिया ही समझते थे। उन्होंने जो कुछ लिखा, अपनी चेतना और सामर्थ्य के अनुसार अपने सामाजिक हित प्रयोजन से अभिव्यक्त किया।" (विपाशा, 2013) हालांकि अपने सप्रयोजन रचनाकर्म के विषय में यशपाल स्वयं अपना दृष्टिकोण प्रकट करते हैं: "पार्थिव अनुभूति या कहें, घटना तथ्य के आधार पर मैंने बहुत कम ही लिखा है … इसलिए, मेरी रचनाओं की मूल ध्वनि स्वीकृत मान्यताओं और वर्तमान परिस्थितियों के अन्तर्विरोध की ही रही है।" (बात बात में बात, 1982) परम्परा बनाम आधुनिकता को लेकर उनके उपन्यासों और कहानियों में ऐसी विस्फोटक सामग्री है, जो सुषुप्त समाज को जाग्रत करने के लिए अपेक्षित है। भदन्त आनन्द कौसल्यायन के शब्दों में: "यशपाल, लेखनी की नोक चुभाने में बेजोड़ हैं। अफ़ीमची-समाज की निद्रा-भंग करने का दूसरा उपाय भी तो नहीं है।" (यशपाल अभिनन्दन ग्रन्थ, 1956)

सन्दर्भ:

प्रकाशवती पाल, "साहित्य का प्रयोजन" (वक्तव्य), सं. यशपाल, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, (डॉ. ब्रह्मदत्त शर्मा, "यशपाल के साहित्य कला सम्बन्धी विचार," विपाशा, 29: 167, नवम्बर-दिसम्बर 2013, पृ. 32 से उद्धृत) प्रभाकर माचवे, "हिमाचल के विख्यात हिन्दी साहित्यकार - यशपाल," 1976 (यशपाल: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सं. के. आर. भारती, भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश, 2000, पृ. 12 से उद्धृत) भदन्त आनन्द कौसल्यायन, “‘अभिनन्दन’ का अभिनन्दन,” यशपाल अभिनन्दन ग्रन्थ, पेप्सू, 1956 फणीश्वरनाथ रेणु, "अनुत्तेजित और निर्विकार", वन तुलसी की गन्ध, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1957, द्वितीय संस्करण, 2007 यशपाल, सिंहावलोकन (प्रथम भाग), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण, 1997 यशपाल, देशद्रोही (उपन्यास; 1943), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2009, द्वितीय संस्करण 2014 यशपाल, बात बात में बात, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पाँचवाँ संस्करण, 1982 यशपाल, गाँधीवाद की शव-परीक्षा, विप्लवी ट्रैक्ट, लखनऊ, 1941 यशपाल, यशपाल की सम्पूर्ण कहानियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण, 2000