स्वप्नभंग / चन्द्रशेखर रथ / दिनेश कुमार माली
चंद्रशेखर रथ (1928)
जन्म-स्थान:- बलांगीर
प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“अश्वारोहीर गल्प’,1979,”सम्राट ओ अन्यमाने “*1980,क्रितदासर स्वप्न’,1981,”सबुठारू दीर्घ रात्रि “,1984, “सबुजाक स्वप्न“,1984, “अश्रुत स्वर ‘,1989, “एते पखरे समुद्र “,1989, ‘बाघ सवार “,1996 इत्यादि-समुदाय 15 किताबें।
छोटे पुत्र की नई उगती हुई दाढ़ी पर जोर से थप्पड़ मारते हुए बलभद्र रायगुरु गरजने लगा- “चुप बे ! नालायक इडियट कहीं के ! तुझे आखिरकर मेडिकल लेना होगा। डाक्टर नहीं तो क्या जूलोजी पढ़कर मास्टर बनेगा? मारूंगा जोर से कि सारे दांत निकल जाएँगे। जाओ, आज अपना आवेदन पत्र जमा करवाकर आओ।”
धोती, कुर्ता और पुराने जमाने के काले चमड़े की चप्पलें पहनकर वह तेजी से अपने सोने के कमरे में चले गए। बूबू को कई दिनों से शेर का सपना आ रहा है। धब्बेदार चादर ओढ़कर बाघ मुंह फाड़कर उसे खाने आता था। कभी-कभी उसे पान चबाने वाले मुंह की तरह दिखता था। उसका मुंह मानो एक हिंगुल गुफा हो। उसके भीतर कड़कड़ाहट के साथ बिजली गिरने की आवाज सुनाई पड़ती थी। पसीने से तरबतर होकर बूबू अंधेरे की ओर भागता और उसके पीछे-पीछे दौड़ता वह बाघ।
अनेक बार उसने देखी थी उस बाघ के पांवों में पहनी हुई इस तरह की काली- काली चप्पलें...।
उसके भागने के रास्ते में पड़ता था एक जिम्नेजियम। वह वहां से लाया लुहार की एक गेती। उसकी एक हुंकार में उसने देखा बाघ पांव फैलाकर सो गया है। उसके आगे के दोनो पांव शरण लेने की दृष्टि में लंबे हो गए हैं। आंखे बंद करके कूं-कूं कर रही है पड़ोसी घर की कुत्तिया ‘लिलि’। बूबू गेती के आगे का हिस्से उठा रहा था। वह पलटने लगती है जैसे प्लेट में वड़ा या मांस का एक लोथड़ा। छुरी से उसका धड़ अलग कर बूबू ने उसको कांटे की सहायता से उसके मुंह में डाल दिया।
नींद टूट गई। .........
मेडिकल में नाम लिखवाना पड़ेगा। कम से कम बी.एस.सी के बाद डॉक्टर तो होगा, और पांच साल। उसके बाद लगाएगा – बात-बात में इंजेक्शन, छुरी और खाएगा- आरसेनिक, -।
झरोखे के पास से देख रहे थे बलभद्र रायगुरु। गेट बंद करके बूबू रास्ते की ओर बाहर निकल गया। पीछे हाथ बांधकर वह नीचे देखते रहे कुछ समय। संकुचित हुई उनकी सहस्र नाड़ियों के भीतर से एक दीर्घश्वास निकली। वह उसी तरह नीचे देखते हुए धीरे-धीरे चला गया। दो चार कदम बढ़ाने के बाद मन ही मन कहने लगा, “उल्लू ! .... सोच रहा है हर समय बाप ऐसे बैठा रहेगा... दाल भात पकाकर खिलाता रहेगा। बे ! तुम क्या और इंसान नहीं बनोगे? उल्लू कहीं का- क्या डॉक्टर नहीं बनेगा ! नहीं होगा तो और क्या तेरी मां अस्पताल के बरामदे में इधर-उधर झांकती हर समय मरती रहेगी? उसका भोला बाप उनके पांव पड़ता रहेगा। वे क्या सही जबाव देंगे? उनके ऊपर अधिकारी बनकर उसके मुंह में लगाम लगाकर चाबुक मारते हुए कहूंगा- ‘याद करो साले वह दिन, जिस दिन उस औरत को देखने का तुम्हारे पास वक्त नहीं था - चाय नाश्ता कर रहे थे - सिगरेट पीते-पीते हंस रहे थे -बिल्कुल भी नहीं देखा उसको। श्मशान में उसका शरीर उठाने में मुझे भारी लग रहा था। मैं आ गया हूं जूते पहनकर तुम्हारे दांत तोड़ने के लिए। तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त कराऊंगा मैं। मेरा नाम है डॉक्टर विवेकानंद रायगुरू।”
बलभद्र बाबू ने सुनसान घर में चारों ओर निगाहें डाली। और दो साल नौकरी। पुरानी इस जगह पर बहुत कष्टों के बाद उसने यह घर बनाया है। ‘बगुली’ इंजिनियर होकर भी कुछ नहीं कर पाया। उसने सोचा था कि बड़े बेटे के इंजिनियर होने पर कहां- कहां से सारा पैसा आएगा - जैसे यामिनी बाबू, रमणी बाबू, गांगुली बाबू, महाराणा बाबू के यहां आता है। हर दिन मिठाई चंदनपुरी और केलों का नाश्ता होगा। सूजी का हलवा, पूरी, कचोडी, अंडा, मांस, खीर, फल - घर में बच्चों को पढ़ाते समय उसकी पुस्तकों के खाद्यपदार्थों के सारे नाम मुखस्थ रहेंगे।
इंजीनीयर होना कोई छोटी बात नहीं है ! उसे वह दिन याद आ गया ... “अरे बगुलिया, खाने के बाद परीक्षा देने जा। भूखे क्यों जा रहे हो? ताजा ताजा तालमाटा लेकर आया हूं- चैनापोड़ खराब नहीं होगा।”
बगुली आखिरकर इंजिनियर बन गया। बनने पर भी क्या हुआ? बलभद्र घड़ी की तरफ देखने लगा। दस बजने में और दस मिनट बाकी है,चावल उतारने के बाद साइकिल से वह ठीक समय पर पहुंच जाएगा। आज क्या इलेक्शन होगा। आधे तो ऑफिस आएंगे नहीं - इस पर यह विभाग, यहां कौन किसको पूछता है?
उनके कई दिनों से अभ्यस्त हाथों से भूल नहीं होती है। चावल पक गए। साइकिल लेकर बलभद्र बाबू रास्ते में चले गए। मगर मन में तरह-तरह के चालीस या पचास वर्ष पुराने ख्याल याद आने लगे।
हर दिन की तरह चौक के पास श्रीकांत बेहरा मिला। उनके जितनी ही उम्र। चेहरे पर अतीत की परछाइयाँ। आंखों में गांभीर्य। हंसने पर पोपला मुंह दिखने लगता। मुंह के अंदर कई दांत पान खाने से एकदम काले हो गए थे।
“क्या हुआ बलि भाई, आज सुबह बाजार नहीं गए।”
“हाँ... हाँ... आज नहीं गया।”
“आज ताजी गोभी आई थी - आठ रूपए किलो।”
“सुना - आठ रुपए किलो।”
“सुन लिया।”
“मैने देखा - यामिनी बाबू का जो लड़का नौकर नहीं है सुदर्शन - उसने पूरी एक किलो थैली भर कर ली, मगर उस नई ताजी गोभी में कहीं-कहीं पानी लगा हुआ था।”
“काश्मीरी सेव आया है मियां के फल की दुकान में, शुरु में कह रहा था साला, बारह रुपए। जो भी कहो, उसकी खुशबू से आधा पेट भर जाता है।”
इस प्रकार प्राय: बाजार की सारी खाने की वस्तुओं की तालिका श्रीकांत बेहरा बताकर चला गया। अपहुंचने डाली के फल - सभी केवल बातचीत के सामान। उनके ऊपर समय-समय पर जोरशोर से बहस छिड़ती है। दोनो पक्ष अपने-अपने तर्क रखते हैं। मगर आज यह सब कुछ नहीं। श्रीकांत बाबू ने कई बार अनुभव किया कि वह बालू के ऊपर अकेले चल रहा है। पांवों के शब्द भी सुनाई नहीं दे रहे हैं।
वह साइकिल के पास आकर पूछने लगा- “क्यों क्या हुआ - आज इतने गंभीर क्यों हो? बलभद्र रायगुरु संकुचित होकर दूसरी तरफ हो गए। पास में से आवाज करता हुआ एक ट्रक निकल गया। धूल से आंखें और नाक भर गए। इधर पथरीला रास्ता- दोनों साइकिल ठेलते हुए एकांत में चले गए। आपस में समझ गए।
ऑफिस के पास साइकिल रखकर उतरते समय बलभद्र बाबू मुंह में एक पान का बीडा डालते हुए कहने लगे- “आज बाबू ने मेडिकल में नाम लिखवाया है।”
“सच में? वाह, आपका दुख खत्म।
बड़े को तो इंजिनियर बना दिया - और यह डॉक्टर हो जाएगा... आपको और क्या चिंता है? अरे हाँ, आपके बड़े बेटे के लिए लड़की वाले आ रहे हैं? मुझे तो किसी ने कहा था चीफ इंजिनियर प्रभात रंजन मिश्र की छोटी लड़की है- उसके लिए तुमसे बात करने के लिए।”
“ओह.. प्रभात रंजन? जिनकी शादी ब्रह्मपुर महापात्रा के घर हुई है? उनके ससुर के कोठे के चारों ओर आइवी लता लगी हुई है? मैं जानता हूं उनको। उनकी स्त्री का नाम सुलोचना है। बहुत ही सुंदर औरत। गुलाबी रंग की साड़ी, मुक्ता फूलों की माला पहनकर हाथी दांत के गजरे को जूडे में डाल देने से वह अद्भुत सुंदरी दिखती है।”
श्रीकांत बाबू रसिक होकर हंसने लगा।
“भाई, बात क्या है? ”
ऐसा लग रहा है मानो बहुत पुराना परिचय हो। बलभद्र रायगुरू एकदम गंभीर हो गए।
“उसकी किस लड़की के बारे में कह रहे हो? ”
श्रीकांत बाबू स्वाभाविक होकर कहने लगे- “उनकी छोटी बेटी अभी कॉलेज में बी.ए. कर रही है ! देखने में खूबसूरत है।”
“उसकी शादी होगी, कह रहे थे।”
“ऐसे कहने से क्या होगा? लड़के को भी कहो देखने के लिए।”
अचानक चिड़कर रायगुरु कहने लगे -
“वह और क्या देखेगा? कह दो हम राजी है।”
श्रीकांत बाबू ने विस्मय से एक दृष्टि से देखा ऑफिस की तरफ। रायगुरु दृष्टिहीन आंखों से शून्य को देखने लगे। सुलोचना की लड़की के साथ मेरे लडके की शादी होगी, नहीं तो और किसके साथ शादी होगी? तीस साल पहले रायगुरु के परिवार में कोई इंजिनियर नहीं था इसलिए यह अपमान सहना पड़ा था - अब वह महापात्रा बूढ़ा नातिन की शादी में आएगा या नहीं? जो मैं कर नहीं सका, मेरा बेटा नहीं कर पाएगा? ”
वही पुराने जमाने की काली चप्पलें और चादर ओढ़े तेजी से वह दायीं तरफ चला गया।
ऑफिस में काम नहीं करने से भी चलेगा। दो चार को छोड़कर और प्राय: सभी नहीं आए थे। आएंगे वही तीन बजे के आस-पास। वोट देने के समय उन को दूसरे लोग लेकर आएंगे।
बलभद्र बाबू बहुत गंभीर मुद्रा में अपनी चौकी पर बैठ गए। अन्यमनस्क होकर टेबल पर कागजों से खेलने लगे। आंखों में एक अलग राज्य, और गुजरे समय की यादें। तभी किसी ने कहा- “आपकी चिट्ठी है। उधर रख रहा हूं, देख लेंगे।”
पलक झपकते ही टेबल दिखने लगा। ऑफिसर का कंधा, फाइलें, जाने-पहचाने चेहरें सभी दिखने लगे। बलभद्र बाबू ने सांस छोड़ते हुए उसे उठाया। एक अंतर्देशीय पत्र पर अपरिचित अक्षरों से उसका पता लिखा हुआ था। उसने पलटकर रबर स्टांप पर लिखे पते को देखा, “जे. भादुरी, काठ कंट्रेक्टर, जशीपुर, मयुरभंज...... ये कौन? जशीपुर में तो बगुली रहता है - उसकी तबीयत खराब हो गई क्या? ”
चिट्ठी फाड़ते समय उल्टी तरफ से फट गई। चिठ्ठी बीच में से दो टुकडे हो गई। कांच के टेबल पर उन दोनों टुकडों को जोड़कर पढ़ने लगा, “आप चिट्ठी पढ़कर आश्चर्यचकित हो जाओगे”
“आपका पुत्र प्रियदर्शन बहुत ही चमत्कारी लड़का है, अद्भुत प्रतिभाशाली”..
“और बगुली को तुम मुझसे ज्यादा जानते हो क्या? ”
“उसका यहां पर काफी अच्छा नाम है। सभी उसकी तारीफ करते हैं...” यहां तुम्हारा क्या मतलब है, कहो ना ! वह देखते-देखते अचानक एक नाम पर जाकर रूक गया- सिप्रा भादुरी... फिर पीछे लौट आया।
आश्चर्यचकित हो गया। शुरु से फिर पढने लगा। उसका शरीर पसीने से भीग गया।
प्रियदर्शन ने आपसे कहने के लिए कहा कि वह सिप्रा के साथ शादी करेगा। लड़की के पिता की ओर से.... उसके बाद केवल धुंआ ही धुंआ और आँखों में छलकता पानी ! कितनी बार श्रीकांत बाबू पास में खड़े होकर क्या कुछ कह रहे थे, बहुत दूर से उसको सुनाई पड रहा था - “बूबूआ फोन कर रहा है...” उसके बाद श्रीकांत बेहेरा उसके चेहरे की तरफ देखता रहा- “तुम्हें आज क्या हो गया है बलि भाई? ”
“बूबुआ फोन कर रहा है कि उसका मेडिकल में नहीं हुआ। आखिरी तारीख चली गई। तुम जाकर नहीं कहोगे तो होगा नहीं।”
उठने या सुनने का कोई मन नहीं था। काफी समय के बाद, ऐसा लग रहा था जैसे वह मन ही मन कह रहा हो “बूबुआ क्यों मेडिकल में घुसेगा? मैं कह रहा हूं इसलिए? मैं कौन होता हूं? ”