स्वप्न ? / गी द मोपास्साँ / द्विजेन्द्र द्विज
मैंने उसे दीवानावार चाहा था। कोई किसी को क्यों चाहता है? क्यों चाहता है कोई किसी को ? कितना अजीब होता है, सिर्फ़ एक ही को देखना, पल-पल उसी के बारे में सोचना, दिल में बस एक ही ख़्वाहिश, होंठों पे बस एक ही नाम - एक ही नाम, जो बढ़ा आता है, सोते के पानी-सा, आत्मा की गहराइयों से होंठों तक, एक ही नाम जो आप दोहराते हैं बार-बार, एक ही नाम जो आप लगातार बड़बड़ाते हैं कहीं भी प्रार्थना की तरह।
हमारी कहानी, मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ क्योंकि प्रेम की बस एक ही होती है कहानी, जो हमेशा एक ही जैसी होती है। मैं उसे मिला; मैंने उसे चाहा; बस ! और पूरा एक बरस मैं उसकी नज़ाक़त उसके प्रेम-स्पर्शों, उसकी बाहों में, उसकी पोशाकों में, उसके शब्दों पर जीवित रहा हूँ, इतनी अच्छी तरह ढँका-लिपटा, बँधा हुआ उससे मिलने वाली हर चीज़ में, कि मुझे रात- दिन की परवाह ही नहीं कि मैं जीवित हूँ, या मर गया हूँ।
और फिर वो मर गई, कैसे ? मैं नहीं जानता ; अब मुझे कुछ भी याद नहीं है । लेकिन वह एक शाम को भीग कर लौटी थी, बारिश तेज़ थी। अगले दिन उसे खाँसी हुई, लगभग एक हफ़्ता वो खाँसती रही और उसने बिस्तर पकड़ लिया । फिर क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं है, डाक्टर आए, दवाइयाँ लिखीं और चले गए। दवाइयाँ लाई गईं, कुछ औरतों के द्वारा उसे पिलाई गईं। उसके हाथ गर्म थे। उसका माथा तपा हुआ था, आँखें चमकीली और उदास थीं। मैंने उससे बात की, उसने जवाब दिया, लेकिन मैं भूल गया हूँ कि उसने कहा क्या था । मुझे तो बस उसका वो हल्क़ी-सी, कमज़ोर-सी ठण्डी साँस लेना याद है। बस उसने कहा ‘आह!’ और मैं सब समझ गया।
इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता, कुछ भी नहीं। मैं एक पादरी से मिला, उसने कहा, ‘तुम्हारी प्रेमिका?’ मुझे लगा पादरी उसका अपमान कर रहा था, वह मर चुकी थी, और उसके बारे मैं ऐसा कहने का अधिकार किसी को नहीं रह गया था। मैंने उस पादरी को निकाल दिया। फिर एक और आया जो दयालू और कोमल हृदय वाला था। जब उस पादरी ने मुझसे उसके बारे में बात की तो मैंने आँसू बहाए। लोगों ने उसे दफ़नाने के बारे में मुझे पूछा। उन्होंने क्या कहा, मुझे कुछ भी याद नहीं। मुझे तो बस वो ताबूत याद है। हथौड़ी का वो नाद याद है जब उन्होंने उसे ताबूत में बंद करके ताबूत पर कीलें ठोंक दी थीं। आह! परमेश्वर! परमेश्वर! परमेश्वर!
उसे दफ़्न कर दिया गया। दफ़्ना दिया गया उसे! उस गड्ढे में! कुछ लोग आए, कुछ मित्र औरतें, मैं उनसे बचने के लिए भागा, भागा और गलियों में पैदल चला, घर गया और अगले दिन सफ़र पर निकल गया ।
अभी पिछले कल ही पैरिस लौटा हूँ। और जब मैंने अपना कमरा - हमारा कमरा, हमारा बिस्तर, हमारा फ़र्नीचर और मौत के बाद जो कुछ भी शेष रह जाता है - फिर देखा तो दु:ख के एक ज़ोरदार झटके ने मुझे यूँ जकड़ लिया कि मैंने खिड़की के रास्ते से ख़ुद को गली में फेंक देना चाहा। मैं इन चीज़ों में, उसे अपने भीतर रखने और पनाह देने वाली दीवारों में, जिनकी अत्यन्त सूक्ष्म दरारों में उसकी त्वचा और साँसों के अनगिनत परमाणू मौजूद थे, और अधिक नहीं रुक सका। इस सबसे बचने के लिए मैंने अपना हैट उठाया और जाते-जाते हाल में लगे उस आदमक़द शीशे (आईने) के क़रीब से गुज़रा जो उसने वहाँ इसलिए लगवाया था कि बाहर जाने से पहले उसमें स्वयं को सिर से पैरों तक (सरापा) निहार सके, देख सके कि उसके ऋंगार अच्छे लग रहे हैं या नहीं।
मैं ठिठक कर रुक गया उस दर्पण के सामने जिस में वह न जाने कितनी ही बार प्रतिबिंबित हुई थी - इतनी बार- इतनी बार कि शायद उस दर्पण ने उसके प्रतिबिम्ब को ही सुरक्षित कर लिया हो। मैं वहाँ खड़ा था, काँपता हुआ, आँखें गड़ाए, उस दर्पण पर - उस सपाट,गहरे, ख़ाली दर्पण पर जो उसे सरापा ख़ुद में क़ैद कर लेता था उस पर मेरी तरह और मेरी दीवानी निगाहों की तरह क़ाबिज़ हो जाता था। मुझे लगा मैं उस दर्पण को चाहने लगा हूँ। मैंने दर्पण को छुआ, वह ठण्डा था। आह ! यादें ! व्यथित दर्पण; जलता हुआ दर्पण; भयावह दर्पण; पुरुषों को तड़पाता हुआ दर्पण! भाग्यशाली होते हैं वे जिनका हृदय स्वयं में बन्दी वस्तुओं को विस्मृत कर पाता है, भूल जाता है बीते हुए क्षणों को ! कितना व्यथित हूँ मैं !
मैं बाहर चला गया, अनजाने में, न चाहते हुए भी, क़ब्रिस्तान की ओर। मुझे उसकी सादा-सी क़ब्र मिल गई जिस पर सफ़ेद संगमरमर का क्रॉस बना हुआ था, जिस पर ये कुछ शब्द खुदे हुए थे :
'उसने किसी को चाहा, चाही गई , और स्वर्ग सिधार गई। ’
वहाँ है वह , क़ब्र में, सड़ी हुई ! कितना भयानक है यह सब । मैं सुबकता रहा, अपना माथा ज़मीन पर टिकाकर, बहुत देर, बहुत देर वहीं रहा। मैंने देखा अँधेरा हो रहा था और एक अजीब-सी पागल ख़्वाहिश, एक हताश प्रेमी की चाहत ने मुझे जकड़ लिया । मैं सारी रात उसकी क़ब्र पर रो कर बिता देना चाहता था । लेकिन वहाँ देखे या पाए जाने पर मुझे वहाँ से खदेड़ दिया जाता तो फिर मैं क्या करता ? मैं उठा और मुर्दों के शहर में घूमने लगा। मैं चलता रहा, चलता रहा । कितना छोटा होता है यह शहर, उस शहर जिसमें हम ज़िन्दा लोग रहते हैं, की तुलना में । फिर भी मुर्दे ज़िन्दा लोगों से कितने अधिक होते हैं! हम ऊँचे घर चाहते हैं, चौड़ी गलियाँ और ज़मीन चार पीढ़ियों के लिए जो एक ही समय में दिन की रोशनी देखती हैं, झरनों से पानी, अंगूर की बेलों से शराब पीती हैं और समतल ज़मीनों (की उपज) से पेट भरती हैं। और मृतकों की समस्त पीढ़ियों के लिए, मानवता की हम तक उतरने वाली सीढ़ियों के लिए संभवत:कुछ भी नहीं है। ज़मीन उन्हें वापिस ले लेती है, विस्मृति उन्हें मिटा डालती है।
क़ब्रिस्तान के एक छोर पर, सहसा मैंने देखा कि मैं उसके सबसे पुराने हिस्से में हूँ, जहाँ बहुत पहले मर चुके लोग धूल में मिल रहे हैं, जहाँ क्रॉस भी सड़-गल चुके हैं, जहाँ संभवत: कल, नए आने वाले लोगों को गाड़ा जाएगा। क़ब्रिस्तान का यह भाग मानव-मांस की गंध पर पले हुए उपेक्षित गुलाबों सरू-वृक्षों और उदास सुन्दर उद्यानों से भरपूर है।
मैं अकेला था,बिल्कुल अकेला। मैंने स्वयं को हरे पेड़ के पीछे दुबक कर, अँधेरी, उदास झाड़ियों में छिपा लिया मैं प्रतीक्षा करता रहा तने से चिपका हुआ जैसे तूफ़ान में क्षतिग्रस्त जहाज़ का सवार तख़्ते से चिपककर प्रतीक्षा करता है।
अँधेरा गहराते ही मैं अपने आश्रय से बाहर आकर मुर्दों से अटी ज़मीन पर धीरे-धीरे, हौले-हौले बिना कोई आहट किए हुए उसकी क़ब्र की तलाश में चल दिया। मैं क़ाफ़ी देर इधर-उधर भटका लेकिन फिर उसे ढूँढ नहीं पाया। मैं बाहें पसारे अपने हाथ-पैर घुटने, अपना सीना, यहाँ तक कि अपना सर भी क़ब्रों से तकराते हुए, चलता रहा लेकिन उसे ढूँढ नहीं पाया। अन्धे की तरह रास्ता टटोलता मैं, अँधेरे में, पत्थरों को लोहे के जँगलों को, धातुओं की मालाओं, मुर्झाए हुए फूलों के हारों को महसूस कर पा रहा था। उँगलियों को अक्षरों पर फेर कर मैंने नाम पढ़े!
क्या रात थी! क्या रात थी! चाँद कहीं था ही नहीं । क्या रात थी ! मैं बहुत डर गया था । क़ब्रों की क़तारों के बीच के तंग रास्तों में मैं बहुत ज़्यादा डर गया था । मेरे दायें-बायें, आगे-पीछे, आस-पास, हर जगह क़ब्रें ही तो थीं ! मैं एक क़ब्र पर बैठ गया। चलने की ताक़त मुझमें नहीं बची थी। मेरे घुटने बहुत क्षीण पड़ चुके थे, मैं अपनी धड़कनें सुन पा रहा था। मैंने कुछ और भी सुना, क्या ?एक अजीब-सा शोर था यह। क्या यह शोर मेरे ज़ेहन में मचा था, अभेद्य रात में मचा था,या फिर मेरे पाँवों तले की लाशें-बोई हुई ज़मीन के भीतर मचा था?
मैंने अपने चारों तरफ़ देखा। मुझे याद नहीं मैं वहाँ कब तक रुका, मुझे लक़वा मार गया था, भय ने मुझे बर्फ़ बना दिया था, मैं चिल्लाने वाला था मैं मरने ही वाला था।
सहसा, संगमरमर की वह पट्टी जिस पर मैं बैठा था, मुझे लगा हिल रही थी। हाँ, यह हिल रही थी, मानो इसे कोई उठा रहा हो। एक ही छलाँग के साथ मैंपास वाली क़ब्र पर कुउद गया। और मैंने देखा, हाँ, मैंने साफ़ देखा, ऊपर उठते हुए उस संगमरमर के टुकड़े को जिसे मैंने अभी-अभी छोड़ा था । फिर मुर्दा, एक नंगा कंकाल अपनी दोहरी कमर से पत्थर को धकेलते हुए बाहर निकला, घने अँधेरे के बावजूद मैं क्रॉस पर लिखा हुआ पढ़ पा रहा था:
‘यहाँ लेटे हैं जेक्वीज़ ओलीवाँ, जो इक्यावन वर्ष की आयु में भगवान को प्यारे हुए । वे अपने परिवार से प्रेम करते थे, दयालू थे, सम्मानित थे और प्रभुकृपा में स्वर्ग को सिधारे।’
उस मुर्दे ने भी अपनी क़ब्र पर लिखे हुए को पढ़ा; फिर उसने रास्ते से एक तीखा पत्थर उठाया और बड़ी सावधानी से अक्षरों को खुरचने लगा। उसने धीरे-धीरे उन्हें मिटा दिया और अपनी आँखों के झरोखों से उन सब जगहों को देखा जहाँ वे अक्षर उकेरे गए थे, उसने हड्डी की नोंक के साथ जो कभी उसकी तर्जनी रही होगी, प्रदीप्त अक्षरों में, जैसे कि लड़के दीवारों पर दियासलाई की नोंक से पँक्तियाँ उकेर देते हैं, लिखा:
"यहाँ लेटा है जेक्वीज़ ओलीवाँ, जो इक्यावन वर्ष की आयु में मर गया। उसकी निष्ठुरता उसके पिता की श्शीघ्र मृत्यु का कारण बनी, क्योंकि वह अपने पिता की समस्त सम्पत्ति का उत्तराधिकार चाहता था; उसने अपनी पत्नी को संतप्त किया; बच्चों को यातनाएँ दीं; पड़ोसियों से धोखे किए; जिसे भी लूट सकता था, लूटा और फिर यह घिनौना व्यक्ति मर गया।"
लिख चुकने के बाद वह निश्चल खड़ा अपनी अपनी कृति को निहारता रहा। मैंने नज़रें घुमाकर देखा कि सब क़ब्रें खुली हुई थीं, सब मुर्दे अपनी-अपनी क़ब्रों से निकल आए थे और उन्होंने अपनी-अपनी क़ब्रों से अपने रिश्तेदारों द्वारा खुदवाए गए झूठ मिटा डाले थे और उन पर सच उकेर दिया था। और मैंने देखा कि अपने जीते-जी वे सब अपने पड़ोसियों के उत्पीड़क, दुर्भावपूर्ण, बेईमान, पाखण्डी,झूठे, कपटी,निंदक और ईर्ष्यालू रहे थे। मैंने पढ़ा कि उन्होंने चोरियाँ की थीं, धोखे दिए थे; हर घृणास्पद काम किया था, ये अच्छे पिता, ये वफ़ादर पत्नियाँ; ये समर्पित सुपुत्र; ये कुँवारी बेटियाँ ;ये सम्मानित व्यापारी ; औरतें और मर्द थे जिन्हें उनके सम्बन्धियों ने अनिंदनीय लिखवाया था। वे सबके सब एक ही साथ, एक ही समय में, अपने अंतिम आवास की दहलीज़ पर सच लिख रहे थे, भयानक और पवित्र सच, जिससे हर व्यक्ति अनभिज्ञ था या कम-अज़-कम उनके जीते जी अनभिज्ञ बनने का ढोंग किया करता था।
मुझे विचार आया कि उसने भी अपने समाधि प्रस्तर पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा होगा और अब मैं बेख़ौफ़ हो अधखुले ताबूतों, लाशों और कंकालों में से होता हुआ उसके पास गया इस विश्वास के साथ कि वह मुझे तुरंत पहचान लेगी। मैंनेआ तो उसे एकदम पहचान लिया, कफ़न में लिपटे हुए उसके चेहरे को देखे बिना, और संगमरमर के क्रॉस पर, जहाँ कुछ समय मैंने पढ़ा था:
‘उसने किसी को चाहा, चाही गई, और स्वर्ग सिधार गई।’
के स्थान पर मैंने उकेरा हुआ पढ़ा:
‘एक दिन अपने प्रेमी को धोखा देने के लिए वह बारिश में बाहर गई, उसे सर्दी लग गई और वह मर गई।’
ऐसा लगता है कि सुबह होते ही लोगों ने मुझे उसकी क़ब्र पर बेहोश पाया होगा।