स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से / जयप्रकाश चौकसे

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स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
प्रकाशन तिथि :20 सितम्बर 2017


फिल्मों में स्वप्न दृश्य में कोई बात सिलसिले से पूरी अभिव्यक्त की जाती है, जबकि यथार्थ में स्वप्न टुकड़ों में बंटा आधा-अधूरा होता है। फिल्म स्वप्न दृश्य पूरे वाक्य की तरह होता है, जबकि यथार्थ में वह वाक्यांश ही होता है। स्वप्न के अर्थ निकालने वाले विशेषज्ञ भी होते हैं परंतु पंडित, नज्मी व मौलवी लोग स्वप्न की अपनी परिभाषा द्वारा यजमान को पूजा-हवन इत्यादि करने की सलाह देते हैं गोयाकि स्वप्न को भी व्यापार में बदल दिया जाता है। कहते हैं कि स्वप्न में स्वयं की मौत देखना शुभ और दीर्घ जीवन का संकेत माना जाता है। कुछ लोगों को स्वप्न में अपने दिवंगत माता-पिता दिखाई देते हैं और सावधान करते हैं।

दरअसल, हमारा अवचेतन ही हमारे स्वप्न गढ़ता है और विचार प्रक्रिया के अनुरूप स्वप्न दिखाई देते हैं। अपराधी अपने स्वप्न में पुलिस को देखता है, पुलिस के स्वप्न में नेता का हाथ उसके मेडल और पोशाक पर रैंक दिखाने वाली पट्‌टियां नोचता नज़र आता है। फिल्मकार शांताराम को अपनी आंखों की शल्य चिकित्सा के बाद लंबे समय तक आंखों पर पट्‌टी बांधना पड़ी और उसी अवस्था में उन्होंने रंगों और ध्वनि को बंद आंखों से देखा तथा ऑरजी स्वरूप फिल्में 'नवरंग' और 'झनक झनक पायल बाजे' का आकल्पन किया परंतु संभवत: इन पलायनवादी फिल्मों से वे स्वयं दुखी थे और पश्चाताप स्वरूप उन्होंने महान फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' रची जिसकी भोंडी नकल सुभाष घई ने 'कर्मा' के नाम से बनाई। यह आंखों पर काली पट्‌टी बांधना एक युद्ध की रचना कर चुका है। अगर जन्मांध धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी अपने पति के समान जीने की इच्छा के अनुरूप, स्वयं अपनी आंखों पर काली पट्‌टी नहीं बांधती तो बचपन से ही बिगड़ते हुए दुर्योधन को सही राह पर ले आती। माता-पिता के अंधत्व से अधिक भयावह सिद्ध हुआ दुर्योधन की आंख पर अहंकार व घृणा की पट्‌टी का बांधना, क्योंकि पांडव अपने समान अधिकार के बदले मात्र पांच गांवों का शासन ही तो मांग रहे थे। कहते हैं कि संसार में ऐसी कोई घटना नहीं होती, जिसका विवरण वेदव्यास की महाभारत में नहीं किया गया है और कुरुक्षेत्र का युद्ध भी बार-बार होता है चाहे उसे कुछ और कहा जाता है। हर घर में दिन-प्रतिदिन कुरुक्षेत्र घटित होता है। एक तरह से स्वप्न असंपादित फिल्म की तरह है या आधे-अधूरे वाक्य की तरह है। जेम्स जॉयस ने अपने उपन्यास 'यूलिसिस' में कहीं फुल स्टॉप या कॉमा इत्यादि का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि वे अपने पात्रों के अवचेतन को प्रस्तुत करते हैं जिसमें ग्रामर के नियम नहीं होते। इस उपन्यास को पढ़ने वाला हर व्यक्ति इसका अपना अर्थ निकाल सकता है। अत: जितने पाठक हैं उतने यूलिसिस हैं।

स्मरण रहे कि फिल्म तकनीक में प्रस्तुत फ्लैश फारवर्ड को स्वप्न दृश्य नहीं कहा जाता। पात्र के मन में होने वाली घटना का भय होता है, जिसे फ्लैश फारवर्ड कहते हैं और विगत की याद प्रस्तुत करने को फ्लैश बैक कहते हैं। दर्शक फ्लैश बैक की अधिकता से भ्रमित हो जाता है परंतु कौतुक बनाए रखने के लिए फ्लैश बैक का प्रयोग किया जाता है। प्राय: फिल्मों में प्रारंभ और क्लाईमैक्स के अतिरिक्त सारी कथा फ्लैश बैक में दिखाई जाती है। कभी-कभी विगत जन्म भी फ्लैश बैक की तरह ही प्रस्तुत किए जाते हैं। मसलन बिमल रॉय की 'मधुमति' में नायक अतिवृष्टि से बंद हो गए रास्ते के कारण रात एक पुरानी हवेली में गुजारता है, जहां पूर्व जन्म में उसकी बनाई एक पेन्टिंग देखकर उसे विगत जन्म याद आता है।

ख्वाजा अहमद अब्बास की 'आवारा' को अगर घटनाक्रम के अनुरूप प्रस्तुत करते तो नायक 45 मिनट बाद ही परदे पर नज़र आता है और 45 मिनट तक उसके जन्म और बचपन की कथा है। इस तरह का प्रस्तुतीकरण दर्शक को उबा देता। इसलिए पहला ही दृश्य कोर्टरूम का है जहां नायक अपराधी के कटघरे में खड़ा है, उसकी प्रेमिका उसकी वकालत कर रही है और जज की कुर्सी पर विराजमान रघुनाथ यह जानते ही नहीं कि अपराधी उनका अपना पुत्र है। यह एक अत्यंत प्रभावोत्पादक प्रारंभ था। जन्म व बचपन बीच-बीच में छोटे-छोटे फ्लैश बैक में प्रस्तुत किया गया है।

चेतन आनंद ने अपनी पुनर्जन्म आधारित कथा 'कुदरत' को फ्लैश बैक में प्रस्तुतकिया। उनके पात्र को मनोवैज्ञानिक हिप्नोटाइज करता है और इस तरह कथा को छोटे-छोटे भागों में करके प्रस्तुत करता है जैसे आप एक टूटे आईने के टुकड़ों में विविध बिम्ब देख रहे हों।

प्राय: फिल्मकारों को ड्रीम मर्चेन्ट्स कहते हैं परंतु आजकल नेता सपने बेच रहे हैं। 'अच्छे दिनों' का स्वप्न इतना बिका कि करेंसी बदलने का स्टंट रचना पड़ा। फिल्मकार के बेचे सपनों में मनोरंजन मिलता है परंतु राजनेता के सपने केवल भूख की रचना कर रहे हैं।