स्वभाव के प्रभाव / पहला: अन्तरंग भाग / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वभाव की बात कुछ ऐसी है कि मनुष्य संस्कारों के मजबूत हो जाने या मानस पटल पर जम जाने से सपने में चीजें देखने लगता है! वहाँ चीजें तो होती नहीं। लेकिन पहले देखी दिखाई चीजों का गहरा संस्कार ही उन्हें घसीट के दिमाग के सामने नींद के समय में ला देता है। हालाँकि स्वभाव जैसी मजबूती उस संस्कार में कभी होती नहीं। इसी से स्वभाव की ताकत समझी जा सकती है कि वह क्या कर सकता है। मेरे गुरु जी महाराज अत्यंत वृद्ध और प्राय: सौ साल के हो के मरे थे। उनका हृदय बच्चों जैसा सरल और प्रेम से ओत-प्रोत - सना हुआ - था। बचपन से ही उनकी आदत थी; स्वभाव था, अपनी ऊँगलियों पर ही माला की तरह ओंकार या भगवान के नाम के जपने का। उनका यह काम निरंतर धारावाही रूप से चलता रहता था जब तक नींद न आ जाए। मगर इसका परिणाम यह हो गया कि गाढ़ी नींद में भी ऊँगलियों कि वह क्रिया बराबर जारी रहती थी। कितनी ही बार जब मैं दिन में उनके दर्शनों के लिए गया और वे सोए थे, तो अविच्छिन्न रूप से चालू ऊँगलियों की वह क्रिया मैंने खुद-ब-खुद देखी है। महान आत्माओं के कर्मों की यही दशा होती ही है।

कहते हैं कि कविता है दरअसल कवि के हृदय का बहके - प्रवाहित हो के - बाहर निकल आना। बेशक सच्ची कविता तो इसी को कहते हैं। वाल्मीकि ने वन में एकाएक देखा कि क्रौंच पक्षियों का जोड़ा आपस में रमा हुआ है। इतने में ही एक शिकारी ने तीर से ऐसा मारा कि मादा वहीं लोट गई! यह देख के नर तिलमिला उठा और इधर दयाद्र मुनि वाल्मीकि का हृदय-स्त्रोत फूट निकला और उनके मुख से सहसा शब्द निकल पड़ा कि 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:' 'निषाद, तुझे भी बहुत दिनों तक चैन न मिलेगा' - क्योंकि तूने इस निरपराध पक्षियों में से एक को मार डाला है! कहा जाता है कि यही वाल्मीकि रामायण की रचना का श्रीगणेश है और इसी को ले के वह लंबी और सुंदर काव्य रचना हो गई। लोग जो कहते हैं कि कवि लोग लोकमत बदलने या जनता का दिमाग फेरने में कमाल करते हैं उसका कारण यही है कि उनका जिंदा दिल कविता के रूप में खयालों से बिंधा-बिंधाया बाहर आ के पुकारता है। मगर पहुँचे पुरुषों के कामों और शब्दों में तो कविता से लाख गुना शक्ति होती है अपनी ओर खींचने की। क्योंकि कविता में जहाँ कुछ कृत्रिमता होती ही है, तहाँ उनके काम और शब्द बिलकुल ही अकृत्रिम होते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने परमहंस रामकृष्ण की जीवनी में लिखा है कि जब मैं उनके पास यह जान के दौड़ा-दौड़ाया पहुँचा कि भगवान के बड़े भक्त हैं और मुझे तो भगवान की सत्ता ही स्वीकार नहीं, इसलिए वे कुछ चीजें बताएँगे जिससे मैं उस सत्ता के संबंध में सोचूँ-विचारूँगा, तो वहाँ अजीब हालत देखी। उसने मेरे प्रश्न के उत्तर में कोई तर्क दलील न देके चट कह दिया कि 'हाँ, मैं तो भगवान को ठीक वैसे ही देखता हूँ जैसे तुम मुझे देखते हो।' मगर इन सीधे-सादे शब्दों में क्या जादू था! इनमें क्या गज़ब की ताकत थी! जहाँ बड़े से बड़े दिमागदार की दलीलें मुझ पर इस बारे में जरा भी असर न कर सकी थीं, तहाँ इन्हीं शब्दों ने कमाल किया और मुझे मजबूर किया कि उन परमहंस जी को मैं अपना गुरुदेव बना लूँ। हुआ भी ऐसा ही और मैं उसी क्षण से घोर नास्तिक और अनीश्वरवादी से परम आस्तिक एवं ईश्वरवादी बन गया! यह शक्ति उन शब्दों की नितांत अकृत्रमता में ही थी! परमहंस जी का बाहर-भीतर एकरस था। वे जैसा बोलते वैसा ही सोचते और करते भी थे। दिल, दिमाग, जबान और काम - इन चारों - में उनके यहाँ सामंजस्य था। यह नहीं कि दिल में कुछ, दिमाग में दूसरी ही, जबान पर तीसरी और काम में चौथी ही चीज हो जाए। यही महात्मापन है।