स्वभाव / प्रतिभा सक्सेना
मेला देखने के दिन आ गये! भाव-ताव और क्रय-विक्रय से निवृत्त होकर, यहाँ आ बैठे हैं- विश्राम की मुद्रा में। अच्छा लगता है बाज़ार के बीच दर्शक बन कर रहना। सहयात्रियों के साथ अनुभूतियाँ बाँटने के दिन हैं, निरुद्विग्न भाव से धारा को देखने के - जीवन और पानी बहते हुए ही अच्छे! तरंगों से रहित जल और भावना-कल्पना से रहित जीवन क्या रह जायेगा -निरा उदासीन, एकदम फीका और सपाट।
बच्चों के बच्चों के साथ मुक्त-भाव से जीने के दिन! अपने बच्चों के साथ मुक्त -भाव से जीने का मौका कहाँ मिलता है। दुनिया भर की जिम्मेदारियाँ लादे भागते-दौड़ते समय चुपके से निकल जाता है।कभी इसकी चिन्ता, कभी उसका सोच इस सबके बीच अपनी निजता कहीं दुबकी बैठी रहती है।मन बार-बार पुकारता है, सुनने का अवकाश नहीं होता। दौड़ते-दौड़ते पीछे मुड़कर देखने का भी मौका नहीं मिलता। अभी तक अनुभवों की पुटलियाँ बाँध-बाँध कर रखते रहे, अब अपनी गठरी खोल कर औरों से मिला-जुला कर देखने, फिर से परखने का अवसर आया है।
मेरी मित्र को पौत्री-लाभ हुआ।भरत से दूर अमेरिका की इस पश्चिमी तटवर्ती भूमि पर जब चाहो मिलने की सुविधा भले ही न हो, फ़ोन करना बहुत आसान है। सो हम दोनों फ़ोन पर अपने अनुभव बाँटती रहीं।सोंठ हरीरा, बुकनू से लेकर उबटन और मालिश की चर्चाएँ कीं।इस मामले मे मेरे अनुभवों की पोटली कुछ भारी बैठी। नव जात को उठाते लिटाते शुरू-शुरू मे उसकी जननी को भी डर लगता है -इतनी सुकुमार नन्हीं सी देह कहीं कुछ ग़लत न हो जाये! न जाने किस उमंग मे, मैं कह उठी, ’ मेरे पास भेज दीजिये, मैं कर लूँगी।’
'कैसे भेज दूँ? हम लोग ही कहाँ मिल पाते हैं एक-दूसरे से, फिर माँ से अलग कर बच्चे को इतनी दूर --।’
एकदम झटका लगा मुझे! यह क्या कह दिया मैने! क्यों कह दिया! यह तो सच कह रही हैं, मुझे सोच-समझ कर बोलना चाहिये था। मैनें ग़लत कहा।पर गलती क्या?
मन मे जब कोई तरंग उठती है तो वह सोचती-समझती है क्या?उल्लास का राग है वह जिसकी तान में जो कुछ संभव नहीं है वह भी कह बैठते हैं ! अन्तर्मन की अभिव्यक्ति अनायास हो जाती है। कभी जब मैं दूर भारत मे होती हूँ और मेरी पोती अमेरिका में, फ़ोन पर बातों के बीच वह पूछ उठती है, ’बड़ी माँ, क्या बनाया है?'
मुझसे कहे बिना रहा नहीं जाता, ’दही बड़े। आजा, खाले!’
'हाँ, बड़ी-माँ खाना है। लाइये न!'
हम दोनों हँसते हैं, मन तरंगायित हो उठते हैं। देना और खाना नहीं हुआ तो क्या हुआ, और बहुत कुछ हो गया जो आनन्दित कर गया।
लहर विकार है, यह सच है, तरंग मिथ्या है। पवन के आवेग से जलराशि अस्थिर है।सच तो जल है जितना गहरा उतना स्थिर!पर जल सचमुच स्थिर है क्या? स्थिर होना लाचारी है, विवशता है, कोई उपाय नहीं उसके सिवा! रास्ता मिलते ही बह चलेगा जल -पवन के झोंके लहरें उठाएँगे, कभी ऊँची कभी नीची, यह जीवन है।बहना प्रकृति है, तरंग स्वभाव है -समाज से जुड़ने का, रंग मे रँगने का! वह सच नहीं है, पर मिथ्या भी नहीं है। जैसे आकाश के प्रतिबिम्ब जल को रँग देते हैं, भाव के रँग में मन भी रँग जाता है भले अल्पकाल के लिये ही! भावना रँग देती है, उल्लास हृदय में लहरें उठाता है, तब भीतर जो सहज अनुभूति जागती है उसका अपना अस्तित्व है -वह मिथ्या नहीं है, सच भले ही न हो!
उम्र के चौथे प्रहर में मन, अपने आप मे मगन, देख रहा है इस मेले को! नदी किनारे बैठ बहाव को देखने का निस्पृह आनन्द!
यही तो स्वभाव है - अपना भाव!