स्वयंवर / राजकिशोर

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मैंने कभी किसी का स्वयंवर नहीं देखा था। जब सुना कि राखी सावंत का स्वयंवर टीबी पर, माफ कीजिएगा, टीवी पर मंचित होने वाला है, तो उत्सुकता पैदा हो गई। उत्सुकता राखी में नहीं, स्वयंवर में थी। रोज सैकड़ों राखियाँ टीबी पर, फिर माफ कीजिएगा, टीवी पर आती रहती हैं। इसलिए किसी एक को महत्व देना लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। लोकतंत्र का महत्व कम करके न आँकिए। यह लोकतंत्र का ही प्रताप है कि स्वयंवर सार्वजनिक रूप से दिखाया जा रहा है।

किताबों में जो पढ़ा है, उसके अनुसार स्वयंवर इस तरह खुलेआम नहीं होते थे। स्वयंवर का तरीका भी कुछ और था। संभावित वरों के लिए कोई कठिन परीक्षा रख दी जाती थी। जो इस परीक्षा में उत्तीर्ण होता था, उसे चुन लिया जाता था। सीता और द्रौपदी के लिए वर इसी तरह खोजा गया था। दूसरी युवतियों के लिए स्वयंवर हुआ था या नहीं और हुआ था, तो उसमें जीत की कसौटी क्या रखी गई थी, यह मालूम नहीं। जो लोग प्राचीन इतिहास पर शोध करते हैं, उनके लिए यह एक अच्छा विषय है। अगर सौ-दो सौ स्वयंवरों के ब्यौरे निकाल कर ले आएँ, तो हम समझ पाएँगे कि उस जमाने में विवाह के लिए कौन-सी योग्यताएँ अपेक्षित मानी जाती थीं।

वैसे, यह बात समझ में नहीं आती कि राजकुमारी सीता के योग्य वर होने और शिव का धनुष उठा लेने की क्षमता के बीच संबंध क्या है। राजा जनक को सुयोग्य पात्र चाहिए था या कोई गँठा हुआ पहलवान? मुहावरे में कहा जाए तो कोई भी विवाह शिव का धनुष उठाने की चुनौती से कम नहीं है। लेकिन यह वर के बारे में जितना सच है, उतना ही वधू के बारे में भी सच है। मैत्रेयी पुष्पा वगैरह के उपन्यास पढ़ने पर तो लगता है कि यह चुनौती वधू के लिए ज्यादा है। स्त्रीवादी लेखिकाओं का कहना है कि प्रत्येक पुरुष एक तनी हुई प्रत्यंचा है। पर आजकल यह उपमा स्त्रियों पर भी लागू होने लगी है। ऐसा लगता है कि आधुनिक सभ्यता में स्त्री-पुरुष नहीं मिलते, बल्कि दो तनी हुई प्रत्यंचाएँ मिलती हैं। क्या पता पहले भी ऐसा होता हो। उन दिनों की व्यक्तिगत डायरियाँ नहीं मिलतीं। वरना हम समझ पाते कि अहल्या की मनःस्थिति क्या थी और उसके पति गौतम ऋषि के मन में किसी बात को लेकर कोई कुंठा तो नहीं थी। चंद्रमा को छिछोरा छोकरा माना जाता है। हो सकता है, अहल्या से उसका वास्तविक अनुराग रहा हो और अहल्या भी उस पर अनुरक्त रही हो। यह भी एक तरह का स्वयंवर ही था, जो गौतम ऋषि को ठीक नहीं लगा।

द्रौपदी को पाने के लिए जो शर्त रखी गई थी, उसमें वजन उठाने की शक्ति के बजाय सही निशाना लगाने की क्षमता पर स्वयंवर को केन्द्रित किया गया था। इस शर्त की प्रासंगिकता भी समझ में नहीं आती। आदर्श पति जरूरी नहीं कि अपने मुल्क का सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज ही हो। अगर उन दिनों स्वयंवर में सफल होने के लिए ऐसी ही ऊटपटाँग शर्तें रखी जाती थीं, तो यह दावा किया जा सकता है कि लड़कियों के, माफ कीजिएगा, राजकुमारियों के माता-पिता की नजर में सभी वर एक-जैसे ही थे। उनके बीच चयन की मुश्किल को दूर करने के लिए कोई ऐसी चित्र-विचित्र परीक्षा रख दी जाती थी जिसमें पास होना जरा कठिन हो। बस हो गया फैसला। जाहिर है, वर के चयन में वधू की कोई भूमिका नहीं होती थी। उसकी पसंद-नापसंद का खयाल नहीं रखा जाता था। कहलाता था स्वयंवर, पर जयमाला किसके गले में डालनी है, इसका फैसला वधू की आँखें, हृदय या मस्तिष्क नहीं, वह शर्त तय करती थी, जिस पर खरा उतरना स्वयंवर जीतने की कसौटी थी। मान लीजिए कि जिस राजकुमार ने यह शर्त पूरी कर दी, उसके निकट जाने पर राजकुमारी साँसों की बदबू से परेशान हो गई या राजकुमार का चेहरा देखकर उसकी आँखें मुँद गईं, तो क्या? उसने स्वयंवर जीता था और अब वही उसका भावी पति था। राजकुमारी के विकल्प खत्म हो चुके थे।

उस सब से तो राखी सावंत का ही स्वयंवर बेहतर है। वह खुद उम्मीदवारों को देख-परख रही है। काश, यह असली होता। लेकिन तब, सवाल-जवाब भी तो कुछ और होते। असली जीवन में स्वयंवर आँखें खोल कर नहीं, आँखें मूँद कर किए जाते हैं।