स्वराज्य की आकांक्षा / गणेशशंकर विद्यार्थी
देश के सजीव हृदयों में स्वराज्य की प्रबल आकांक्षा का उदय हो गया है। वे भली-भाँति समझ गये हैं कि जिस देश के निवासियों को अपने कानून आप अनाने का अधिकार न हो, जो अपनी रक्षा के लिए अस्त्र न बाँध सकें, जो देश की समृद्धि के लिए अपने व्यापार की रक्षा न कर सकें, जो अपने ही देश के ऊँचे पदों पर न पहुँच सकें और क्रूर नियमों और उन्नति में बाधा डालने वाली नीति में परिवर्तन न कर सकें, उस देश के निवासियों का जीवन अत्यंत दु:खमय है और इसीलिए उनके हृदय में इस विश्वास का जन्म हुआ है बिना स्वराज्य के देश का सच्चा कल्याण नहीं हो सकता, परंतु दूसरी ओर ऐसे लोग हैं, जिनके हाथों में शक्तियाँ हैं या जो अपने को शक्तिधर समझते हैं, कि वे भारतवासियों की इस आकांक्षा की उपेक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। यद्यपि एक जाति या एक देश के विकास के लिए मार्ग दे देना, उस पर से अपना बोझ उठा देना एक बड़ा भारी पुण्य कार्य है और ऐसा बड़ा कि अपने करने वाले के यश और सद्गुणों को बहुत बढ़ा देता है। यद्यपि लार्ड हार्डिंग - ऐसे बड़े शासक ने भारतीयों की स्वराज्याकांक्षा को उचित बतलाते हुए सत्ताधारियों को चेतावनी दी थी कि समय आ रहा है कि भारतीयों को आगे बढ़ने के लिए उन्हें मार्ग देना और अपने कुछ अधिकारों से नमस्कार करना पड़ेगा, परंतु संसार में ऐसे आदमी बहुत ही थोड़े हैं जो किसी अच्छे-से-अच्छे काम के लिए अपने अधिकारों से विलग होने के लिए राजी हों और यही बात हमारे समाने भी है। इसीलिए विरोधी पक्ष इस बहाने को पेश करने के लिए विवश होता है कि हमारी यह आकांक्षा कृत्रिम है। हमारे विरोधी तो इस बात को सदैव कहते रहेंगे, क्योंकि इसके विरुद्ध बात कहने से उनके स्वार्थों को धक्का पहुँचता है। इसलिए हमें उनके सामने किसी सफाई के पेश करने की आवश्यकता नहीं, परंतु उन लोगों के सामने, जिन्होंने अपनी आत्माऔर उसकी शक्तियों पर विश्वास करना नहीं छोड़ दिया, या जिन्हें स्वार्थपरता ने न्याय-मार्ग से बिलकुल ही भटका नहीं दिया, देश की इस आकांक्षा की सत्यता और औचित्य पर कुछ बातें रखने की आवश्यकता है।
देश में नवीन आकांक्षाओं का जन्म उसके पाश्चात्य सभ्यता के संसर्ग में आने का फल है। इस बात को नि:संकोच स्वीकार करने में किसी भी विस्तृत दृष्टि रखने वाले भारतवासी को कोई हिचकिचाहट नहीं हो सकती कि उसने पाश्चात्य् भावों के संसर्ग में आकर राष्ट्रीय उन्नति के विचारों को ग्रहण किया है। पाश्चात् साहित्य के प्रकाश ने उन पगडंडियों पर चलने का अवसर दिया जो हमें संसार के प्रशस्त मार्ग पर पहुँचाती हैं और जिन पर चलना हम चिरकाल से बिल्कुल भूल गये थे। पश्चिम के राजनैतिक दार्शनिकों ने हमें राष्ट्रीय स्वाधीनता का संदेश दिया और उदार अंग्रेज राजनीतिज्ञों के ये शब्द हमारे कानों में बारंबार गूँजे, 'स्वाधीनता हमारी जीवन-श्वास है। हम स्वाधीनता के लिए कमर कसे खड़े हैं, हमारी नीति स्वाधीनता की नीति है।' इन भावों से हमारी कल्पना-शक्ति को बहुत उत्तेजना मिली। इस उत्तेजना से कांग्रेस का जन्म हुआ और उसने, यद्यपि आज तक वह प्रस्तावों ही को पास करती रही है, देश के लाखों पढ़े-लिखे आदमियों के हृदय एक विशेष प्रकार के भाव से भर दिये और उनके प्रकट करने के अवसर दिये। कांग्रेस अवश्विास का शिकार बनी, उस पर तीव्र दृष्टि पड़ती रही, उसके काम करने वालों के मार्ग में बाधाएँ डाली गयीं, परंतु उसका काम नहीं रुका। बाधाओं ने उसके भक्तों को मजबूत किया और अंत में समय ने उसका साथ दिया। निराशा के अंधकार में प्रकाश की ज्योति दीख पड़ने लगी। पतित पूर्वी देशों में भी जागृति की देवी का स्वागत हुआ। संसार ने उस समय आश्चर्य से नेत्र मले, जब जापान ने रूस ऐसे विशाल साम्राज्य को सरे-मैदान पछाड़ दिया। पूर्वीय देशों की नसों में जीवन-रक्त दौड़ उठा। चीन की जागृति ने भी इस चैतन्यता को बल पहुँचाया। निराश हृदयों तक में आशा की लहर हिलोरें मार उठी। चीन और जापान के प्राचीन शिक्षक भारत ने उलट-फेरों को बड़ी उत्सुकता से निरखा। वर्तमान आकांक्षाओं का उस उत्सुकता से बड़ा घनिष्ठ संबंध है। भारतीय हृदय अधिक उत्साह और उज्ज्वल भविष्य के विश्वास के साथ अग्रसर होने लगे। 1914 में यह महासंग्राम आरंभ हुआ। भारतीय वीरों ने अंग्रेजी साम्राज्य की सेवा में अपना रक्त बहाकर भयानक संकट के समय को टाला और भारतीय वीरता का सिक्का संसार-भर के हृदय पर जमा दिया। भारतीय सहायता ने बड़े-बड़ों को पिघला दिया। नये दृष्टिकोण (New angle of vision) की बात का जन्म हुआ। विरुद्ध पक्ष तक ने हमारी आकांक्षाओं के औचित्य को स्वीकार किया। इंग्लैंड की गति बड़ी ही संतोषप्रद रही, क्योंकि अपने ही कथनानुसार वह केवल छोटे-छोटे राष्ट्रों की स्वाधीनता की रक्षा के लिए लड़ रहा है। महासंग्राम ने छोटे और पतित देशों की स्वाधीनता को भी मूल्यवान बना दिया। इंग्लैंड अपने लाखों आदमियों और अरबों रुपयों को बेल्जियम की स्वाधीनता के लिए नष्ट कर रहा है और पोलैंड की स्वाधीनता की भेरी हर ओर से बज रही है। क्या ये बातें हमारे हृदय को बढ़ाने वाली नहीं हैं? हमारा हृदय पत्थर की भाँति जड़ पदार्थ होता, यदि वह संसार की इन घटनाओं से प्रभावित न होता। फिर स्वाधीनता प्रिय इंग्लैंड से स्वाधीनता और स्वराज्य के नाम पर अपील करना किस प्रकार कृत्रिम हैं?
हमारी वर्तमान अवस्था ऐसी नहीं है जो हमें संसार के बराबर चलने की उत्सुकता रखते हुए भी चुप बैठे रहने दे। अंग्रेजी शासन की बरकतों से कोई इंकार नहीं, परंतु उसके कारण देश में बहुत-सी ऐसी बातों का जन्म भी हुआ है, जो देश को अवनति की ओर ले जाने वाली हैं। नि:संदेह लार्ड मोरले के कथनानुसार किसी भी शासन में सब कुछ-भला ही भला नहीं हो सकता, परंतु अच्छे शासन में भलाई का हिस्सा बहुत अधिक होना चाहिए। हमारा विश्वास है कि वर्तमान शासन में यह बात नहीं है और वह हो भी नहीं सकती, क्योंकि सात समुद्र पार से आने वाला अंग्रेज हाकिम देश की रीति-नीति और उसके कल्याणकारी उपायों को भली-भाँति नहीं जान सकता और बहुत-सी हालतों में वह देश-कलयाण की दृष्टि ही से काम भी नहीं कर सकता। यदि बातें ऐसी न हों तो आज 60 वर्ष के पूरे शासन के पश्चात् भी हमें देश के शासन में अविश्वास और बाधाओं की गहरी पुट नजर न आती। देश की खुशहाली शिक्षा-प्रचार बिना नहीं बढ़ सकती, परंतु शिक्षा-प्रचार का क्या हाल है? 40 वर्ष में जापान में एक भी अनपढ़ बच्चा नहीं रहा, परंतु भारत पर अविद्या और इसीलिए अज्ञान की घोर घटा छायी हुई है। इंग्लैंड अपने बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य रूप से दे, परंतु बड़ों में प्रति बच्चे पर शिक्षा में साढ़े छह आने खर्च होते हुए भी भारत सरकार केवल एक आना प्रति छात्र ही खर्च करना यथेष्ट समझे और जब किफायत की आवश्यकता पड़े, तब शिक्षा-खर्च में ही कतरब्योंत करने के लिए तैयार हो! किसानों की सहायत की हालत दिन-ब-दिन बुरी होती जाती है। 22 करोड़ भारतीय किसानों में से 10 करोड़ से अधिक केवल एक समय रूखा-सूखा भोजन करते हैं। देश का व्यापार-धंधा अत्यंत शिथिल है। विदेशी उसके लाभ उठाते हैं, परंतु देश की सरकार उसकी रक्षा तक नहीं कर सकती। देश पर ऋण बढ़ता चला आ रहा है और विदेशी उसके देने वाले हैं, इसलिए उनको सूद के रूप में और पेंशन पाने वाले अपने हाकिमों और सैनिकों को होम चार्जेज के रूप में इस गरीब देश को अपनी जेब से प्रति वर्ष कभी न लौटने के लिए करोड़ों रुपया निकाल देना पड़ता है। हाकिमों को बहुत बड़ी तनख्वाहें मिलती हैं और देश की संतानों के लिए ऊँचे पदों और सेना के दरवाजे बंद हैं। सरस्वती के मंदिर तक में भेदभाव की लकीरें खिंची हुई हैं। विदेशों में हमारा जो घोर अपमान होता है, उसकी कथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। देशोन्नति में बाधा डालने वाले अनेक कानून-कायदे बनते जाते हैं। प्रेस ऐक्ट ने समाचार-पत्रों की स्वाधीनता का गला घोंट दिया और अन्य कितने ही ऐक्टों ने हमारे बोलने-चालने और काम करने की आजादी छीन ली है। यदि देश के शासन में देशवासियों का यथेष्ट हाथ होता तो ये बातें कदापि न हो पातीं, क्योंकि वे सिी भी काम के करने के पहले इस बात पर विचार के लिए सदा तैयार होते कि उससे देश की उन्नति या हमारे संसार के साथ पग से पग मिलाकर चलने में कोई बाधा तो उपस्थित नहीं होती! हमारे हकिमों में भारतीय भी हैं, परंतु कितने? सिविल सर्विस में 1319 आदमी हैं, जिनमें केवल 46 भारतीय है और ये भी महत्व के स्थानों पर नहीं। अपने ही देश के शासन में भारतीयों का कितना कम हाथ है, यह बात इन दो अंकों से पूर्णतया स्पष्ट है। हमारी वर्तमान अवस्था हमें घोर निद्रा में मग्न नहीं रहने दे सकती। आकांक्षाएँ उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकतीं और जो लोग हमारी इन आकांक्षाओं को कृत्रिम कहते हैं, उनमें सहानुभूति और उदारता से किसी बात के समझने की शक्ति ही नहीं।
हमारे विरोधियों का एक दल हमें स्वराज्य के अयोग्य सिद्ध करते नहीं थकता। माँ के पेट से योग्यता साथ लेकर कोई नहीं जन्मता। अभ्यास आदमी को योग्य बनाता है। हमें अभ्यास का अवसर नहीं मिलता, इसलिए अपनी त्रुटियों के लिए हम बहुत अधिक दोषी नहीं हैं। अंग्रेजी राज्य के पहले भी देश में सुशासन के तत्व समझे-बुझे जाते थे और हमें विश्वास है कि हम अभी तक इतने अयोग्य नहीं हो गये कि अपने पूर्वजों के उन गुणों को बिल्कुल ही खो बैठे हों। अपनी बात के प्रमाणस्वरूप हम बड़ौदा, मैसूर, ग्वालियर, कोचीन, ट्रावनकोर आदि देशी राज्यों की ओर संकेत कर सकते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि स्वराज्य आंदोलन के लिए यह ठीक समय नहीं, युद्ध के पश्चात् जो चाहे सो करना और कुछ हमारे शांतिप्रिय भाई भी तेज चाल से घबड़ाते हैं। वे फूँक-फूँक कर और गिन-गिन कर कदम रखने के कायल हैं और वैसा ही करने की सलाहें देते हैं, नहीं तो उनकी भविष्यवाणी है कि ठोकर खाओगे और गिर पड़ोगे। स्वराज्य आंदोलन अंग्रेजी सत्ता की जड़ उखाड़ फेंकने वाला नहीं है, इसलिए वह युद्ध के समय भी हो सकता है और उसका इस समय करना इसलिए और भी आवश्यक है कि कहीं युद्ध के पश्चात् भारतवर्ष इंग्लैंड के सिवा अंग्रेजी उपनिवेशों की मातहती में न दे दिया जाये, जैसा कि एक बार चर्चा चल चुकी है। भारतवर्ष इस बात में अपना अपमान समझता है और इसलिए इस आंदोलन द्वारा उसके बच्चे यह सीखना चाहते हैं कि भारतवर्ष उपनिवेशों का सेवक कभी न होगा, वह उनकी बराबरी का बनेगा। फूँक-फूँक कर कदम रखने की सलाह व्यर्थ है। स्वराज्यवादी बगावत नहीं करता और यदि उसकी साधारण तेज-कदमी उसके सामने कुछ क्षणिक विपत्तियाँ ला देती है, तो क्या हर्ज़ है, बिना विपत्तियों के कोई बड़ा काम नहीं होता। मंद गति वालों ने वर्षों की याचना के पश्चात् कोई भी संपदा प्राप्त नहीं की है और इसलिए उनकी सलाह कैसे मूल्यवान समझी जाय? बोलने पर हम अपराधी समझे जाते हैं, पर न बोलने पर हम मातृभूमि के बंधनों की वृद्धि कर पाप के भागी बनते हैं, क्योंकि समय पड़ने पर हमारा अधिकारी वर्ग अपने सुशासन का बखान करता हुआ कहेगा कि भारत अत्यंत संतुष्ट है, उसे कुछ भी न चाहिए और यह सब हमारे सुशासन से!
हम स्वराज्य-पथ में पग रखकर एक बड़े भारी काम को आरंभ कर रहे हैं। यह परमावश्यक है कि हम अपने काम का निश्चित रूप का सदा ध्यान रखें, अन्यथा पथ से भटकाने वाले लोग हमारे उद्देश्य की अस्पष्टता से लाभ उठायेंगे और उसके उलटे-सीधे अर्थ निकाल कर हमारे दल को गहरा धक्का मारने का यत्न करेंगे। स्वराज्य से हमारा यह मतलब नहीं है कि हम अपने देश से अंग्रेजों को निकाल देना चाहते हैं या हम अंग्रेजी सत्ता को मिटाने के लिए तैयार हैं। हम स्वराज्यवादी सम्राट जार्ज की वैसी ही नम्र और सच्ची प्रजा हैं, जैसे कि इंग्लैंड में उत्पन्न एक अंग्रेज, परंतु अपने देश के कल्याण की दृष्टि से, अपने देशवासियों के गुणों के विकास और उनके पथ की रुकावटों को दूर करने के लिए हम इस बात को परमावश्यक समझते हैं कि देश के वर्तमान शासन में गहरा परिवर्तन हो और देशवासियों को देश के भीतरी मामलों में बिल्कुल स्वाधीनता प्राप्त हो। देश वालों को अधिकार मिलने से अंग्रेजों का अधकार बल कम अवश्य हो जायेगा, परंतु कहीं भी यह डर होना ही न चाहिए कि स्वराज्य से उनके लिए देश में कोई स्थान ही न रहेगा, क्योंकि महारानी विक्टोरिया के शब्दों के अनुसार तब इस देश में रंग, धर्म, जाति के भेद बिना, केवल योग्यता ही की दृष्टि से सबको देश के शासन में भाग मिलेगा।
देश के लिए स्वराज्य प्राप्त करना अत्यंत कठिन काम है। देश के युवको! तुम्हें इस महान कार्य के लिए तैयार होना चाहिए। मार्ग में बड़े-बड़े कष्टों का सामना करना पड़ेगा, परंतु मातृभूमि के कल्याण के नाम पर तुम अपने उद्देश्य से कभी दृष्टि हटाने का विचार भी मत करो। अपना परम सौभाग्य समझो कि तुम ऐसे समय में उत्पन्न हुए हो, जबकि माता को तुम्हारी सेवा की परमावश्यकता है। कठिन समय की सेवा हृदय को विकसित करेगी और तुम्हारा विपत्तियों पर न्योछावर हो जाना एक ऐसे महावृक्ष के जन्म का पूर्वसंदेश होगा, जिसे नीचे आगामी भारतीय संतानें खड़ी होकर गदगद हृदय से तुम्हारा नाम लेंगी। महान कार्य अपने कर्ता को संयमी होने का संदेश भेजते हैं और देश के युवको, यह संदेश तुम्हाने सामने है। अपनी इच्छाओं को वश में करो और शरीर को सुदृढ़ बनाओ। ईर्ष्या और द्वेष को छोड़कर उदारता से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो जाओ और यदि विरोधी टेढ़ी चालें चलते हैं तो देश के भावी कल्याण के नाम पर तुम उस मार्ग का अवलंबन कदापि मत करो! इतने सचेत रहो कि उन चालों से बच सको, परंतु चालों का उत्तर चालों में मत दो। उद्देश्य पर दृष्टि रखते हुए किसी की भृकुटि के तनाव से मत डरो और किसी की मुस्कराहट की भी परवाह मत करो। अपने ऊपर विश्वास करो और अपने देश के भविष्य पर विश्वास करो। मत मानो कि तुम अयोग्य हो, तुम भीरु हो और तुम्हारा देश इसी दशा में शताब्दियों तक पड़ा रहेगा। मत मानो कि कुरीतियों के आगार हो और तुम्हें असंभव कायाकल्प की आवश्यकता हो। भुलावा देने के लिए हमारे 'हितैषी' बहुधा ऐसी बातें कहा करते हैं। कौन-सा देश ऐसा है, जिसमें कुरीतियाँ नहीं है या जिसमें किसी विषय में अयोग्यता न हो! आम सुधार से दृष्टि हटा लेने की आवश्यकता नहीं, परंतु अधिकार प्राप्त होने पर ही देश की कुरीतियाँ और अयोग्यता, आजकल के प्रयत्नों की अपेक्षा, शीघ्र दूर हो सकेंगी और सांसरिक अधिकारों की प्राप्ति का स्वराज्य ही एक ऐसा साधन है। इसलिए स्वराज्य के नाम पर की गयी घोषणा देश की कुटी-कुटी तक में कर दे! जागृति की ज्योति देश में सब कहीं पहुँच जाये और राष्ट्र-जीवन - भास्कर के प्रकाश में हम देखें कि हमारी भूमि पर स्वाधीनता का राज्य है और हम उतने ही स्वाधीन हैं, जितना एक अंग्रेज इंग्लैंड में। हमारे ही आदमी देश के शासक और कानून के रचने वाले हैं। स्वाधीन व्यक्ति की तरह हम हथियार बाँध सकते हैं और सेनाएँ रख सकते हैं और टैक्स लगा सकते हैं और देशी व्यापार की रक्षा कर सकते हैं-संक्षेप में साम्राज्य के अंतर्गत बिल्कुल एक स्वाधीन राष्ट्र की भाँति विचार कर सकते हैं। परमात्मा करे, हममें उद्योग की तीव्र स्फूर्ति बढ़े और वह हमें स्वराज्य-दिवस शीघ्र दिखावे।