स्वर्गीया श्रीमति शिवपूजन सहाय / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

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एक न भूलने वाली मार्मिक घटना का संस्मरण

मैं श्री शिवपूजन सहाय का आतुर प्रशंसक इसलिए नहीं कि वे मेरी प्रतिभा या शक्ति के कायल हैं, और न इसलिए कि वे अद्भुत भाषा-लेखक, 'हिन्दी-भूषण' और हमारे साहित्य के गम्भीर आचार्य हैं। मैं तो श्री शिवपूजनसहाय के प्रेमी, करुण और सरस हृदय का मुग्ध प्रशंसक हूँ। मेरा उनका परिचय कब का है, सो तो किसी और ही वक्त गाने की रागिनी है, मगर उनकी दिवंगता स्त्रियों से मेरा परिचय जो कुछ था उसी की चर्चा आज करना चाहता हूँ।

बात कोई बारह बरस पहले की है! शिवपूजन भाई उन दिनों काशी में दंडपाणि भैरव मुहल्ले में रहा करते थे। मैं कबीर चौरा में। दीवाली का त्योहार था। रात भर में पक्के महाल में एक गुजराती लखपती के मकान पर जुआ खेलता और हारता रहा। सर्वस्व हार जाने तथा सवेरा हो जाने पर भी खेलने का जोश मेरा मन्द न पड़ा। मगर, रुपये तो अब थे नहीं। फिर भी मैंने सोचा शिवपूजनजी का घर निकट है, चलूँ उन्हीं से चन्द रुपये ले आऊँ। मैं लपका हुआ बड़े सवेरे शिवपूजन के यहाँ आया। नीचे ही से आवाज दहाड़ने लगा। अविलम्ब दूसरे तल्ले की खिड़की खुली। उसके बाहर भाई शिवपूजन का मुखड़ा प्रकटा, मगर कपोल उसके आँसुओं से तर थे, शायद कुछ देर पहले वे रोये थे!

"क्या बात है?" मैंने जिज्ञासा की। "उग्र!" उन्होंने मुझे ऊपर बुलाया और पहुँचने पर रोकर बतलाया कि कल उनकी बीवी का देहान्त, बिहार में, हो गया।

बीवी के मरने पर भी कोई रो सकता है यह बात मुझे बड़ी कौतूहलजनक मालूम पड़ी! शिवपूजन जात के कायस्थ और मैं ब्राह्मण, मगर उनके निर्मल आँसुओं से प्रच्छालित ही हमारी बिरादरी एक हो गई।

"तुम सवेरे-सवेरे हमारे यहाँ कैसे?" उन्होंने पूछा।

"मैं तो अमुक रईस के यहाँ जुआ में हारकर तुमसे कुछ और रुपये लेने आया हूँ; अभी खेल की ख्वाहिश पूरी नहीं हुई है।" तुरन्त ही बक्स खोल, कई नोट निकाल, शिवपूजन ने मेरे हवाले किये, मगर मुद्रा उनकी बराबर करुण ही रही। मैंने सोचा, थोड़ा प्रसन्न इन्हें कर जाऊँ तो ठीक हो। बात टालने के विचार से बोला "कुछ खाना-दाना है? खाकर ही जाऊँगा। क्या जाने ताव में कब तक खेलते रहना पड़े।"

"आज तो उनके निधन का दूसरा दिन है न," करुण स्वर से शिवपूजन बोले "दूध-मूहीं का भोजन महज दूध-भात उर्द की दाल तैयार है। ठहरो; तुम्हारे लिए कचौड़ीगली से कुछ मँगवा देता हूँ।"

मैंने कहा "मैं दाल-भात ही का ज्यादा शौकीन हूँ और वही खाऊँगा जो तुम्हारी बीवी के नाम पर तैयार है।"

इस पर भी संकोची शिवपूजन भाई मिनटों इधर-उधर कर मुझे अपनी 'बँभनई' बचाने पर जोर देते रहे; मगर मेरा ब्राह्मणत्व कैसा है और कैसे सुरक्षित रह सकता है, इसे शायद मैं जानता हूँ। शिवपूजन भाई के कचौड़याँ मँगाने पर भी मैंने वही भोजन पाया श्राद्धान्न जो उनकी बीवी के नाम पर तैयार किया गया था। और फिर उन्हें शोक-मग्न छोड़ में अशोक, द्यूतयज्ञ करने चल पड़ा।

सन् 24 में गोरखपुरी 'स्वदेश' में आग उगल मैं स्वर्गीय मुंशी नवजादिकलालजी के साथ बनारस से कलकत्ता 'मतवाला-मंडल' में आया और मेरे पीछे 124 अ का वारंट! 'स्वदेश' में आग भड़काने का गर्म परिणाम; जिससे दूर भागकर मैं बम्बई चला गया। बम्बई में कई महीने मूक-चित्र-कथाओं के लिखने का अभ्यास और सिनेमा की एक्टिंग करता रहा; और फिर गोरखपुर का वारंट आया। मैं बम्बई से गोरखपुर लाया गया और मुझे हवालात और सजा कुल मिलाकर एक साल सख्त जेल में रक्खा गया।

इस बार जेल से बाहर आते ही प्रतिभा और पुरस्कार मानो मेरे साथ चिपके हुए आये! मैं महादेव बाबू के स्नेह से पुन: 'मतवाला-मंडल' में आया 'चन्द हसीनों के खतूत आये'; 'दिल्ली का दलाल' आया, और हिन्दी में एक हड़कम्प-सा आ गया। इतने रुपये आये इतने रुपये मेरी प्रतिभा के पीछे, कि मुझे तो धन ने 'काँच ते कृपानिधान किये सुबरन'! और मैं सोना और रेशम से सज कर सन् 27 में काशी आया। आते ही भाई शिवपूजन की तलाश; क्योंकि उनमें कुछ ऐसा मीठा आकर्षण था, जिसे अधिक से अधिक देखने को मैं आतुर रहता था।

लेकिन "कालभैरव" में भाई शिवपूजन इस बार उदास नहीं सहास नजर आये।

"तुम्हें मालूम है कि नहीं?" उन्होंने विकसित प्रश्न किया "मैंने नई शादी की है।" स्वयं उत्तर देते हुए।

"वल्लाह-मुबारिक" मैंने दुआ दी; मगर सामने देखता हूँ तो दुआ सुनने को भाई शिवपूजन वहाँ नहीं। सुना मकान के अन्दर वह किसी को कोई विवश आज्ञा दे रहे हैं। मैं कुछ समझ न सका। भाई शिव बाहर आये गुलाब की तरह प्रसन्नता से प्रफुलित!

"चलो, जरा उसको देखो!" उन्होंने ललकारा।

"किसे?" मैं एकाएक कुछ समझ न सका।

"उसी अपनी नई बहू को।"

"दुत!" मैं झेंप सा गया।

"मैं ऐसा काम नहीं करता। मुझे कोई भी अपनी बीवी दिखाने की हिम्मत नहीं करता।" यहाँ तक कि सवर्गीय महादेव प्रसाद सेठ ने भी 'निराला' जी को अपनी बीवी के दर्शन कराये और उन पर कविता लिखाई; मगर जब 'निराला' जी की प्रतिद्वन्द्विता में मैंने भी मजाकन उनकी स्वी को देखना चाहा तब सेठजी ने हँसकर मधुरता से 'नहीं' कर दिया। उन महादेव प्रसाद सेठ ने जो अपनी बीवी की साड़ी रोककर मेरे लिए रेशमी जरी के दुपट्टे-सोत्साह खरीदा करते थे।

"इसमें रिस्क है", हँसकर उन्होंने [सेठजी ने] कहा, और मैं सेठजी के अनुमान को गलत मानते हुए भी इस नामंजूरी से नाराज नहीं हुआ।

"कुछ भी हो" शिव ने कहा "चलो तुम! देखो एक बार उसे"

और भाई शिव हाथ पकड़कर मुझे घसीट ले चले। उनकी पत्नी के कमरे में पहुँचकर मैंने देखा नई चुनरी में संकोच से सिमटी कोई नवयुवती बैठी है, जिसके सामने खुला पनडब्बा सुशोभित...

"इनसे परदा न करो!" उन्होंने घूंघटवाली से कहा, और उसने सुनते ही, सात इंच के घूंघट को लम्बा कर सत्रह इंच कर लिया!!

"वाह! यह भी कोई बात है!" कहकर भाई शिवपूजन अपनी बीवी पर रुष्ट हुए। बरबस बेचारी का चाँद-सा मुखड़ा उन्होंने घूंघट-घन-पट से बाहर कर दिया! बच्चों की तरह उस खूबसूरत खिलौने को दोनों हथेलियों में भरकर उन्होंने मेरे सामने पेश किया! विश्वास और प्रेम-भक्ति से मैं गद्गद हो उठा। उस समय मैं भाई शिवपूजन से दूना जवान और पचास गुना अधिक दर्शनीय था। मेरी चतुरङ्गिनी दुष्टता में कहाँ साधुता की झलक देखी थी भाई शिव ने जो ऐसी रिस्क उन्होंने ली, मैं समझ न सका। उन्होंने अपनी पत्नी के रंगीन शुभ हाथों से दो पान भी मुझे दिलाये!!

मैं अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए लहेरियासराय गया था। क्योंकि सरायवाले एक बार मेरा प्रकाशक होना चाहते थे। मगर इस बार मालूम पड़ा कि श्री रामलोचनशरणजी महाराज उदीयमान सूर्य की उपासना करते हैं। अस्तंगत सूर्य को चन्द पक्षियों की तरह वे मृत्युसंगत मानते हैं। साहित्यिक हृदय से मेरी रचनाएँ न छापकर भी वणिक-मन से उन्होंने मेरी पूजा की वस्त्र से, धन से। जिसका फल उन्हें अवश्य ही अवसर आने पर मेरे या मेरे ईश्वर द्वारा उचित मिलेगा।

लहेरियासराय की इस यात्रा में श्रीमती शिवपूजन के हाथों की सात्विक रसोई खूब ही खाने का मौका मुझे मिला। सन् 28 की वधू सन् 38 में 3-4 बच्चों की ममतामयी मां बन गई थी। और लहेरियासराय में श्री रामलोचनशरण का महल देखा तथा उसी के पिछवाड़े भाई शिव की झोपड़ी जरा भी अत्युक्ति नहीं, भाई शिव वहाँ तिनकों की कुटी में सपरिवार रहते थे! देखी! देखे मैंने उसी झोपड़ी में उनके बच्चे और वह दस बरस पहले की अनुपम सुन्दरी स्त्री भी। माता हिन्दी के नाम पर उसी में खपती-तपती नजर आई, अपने साधु और सज्जन और दुर्बल-तन प्राणपति के संग! मेरी छाती गर्व से सवा सौ गज चौड़ी हो उठी यह जानकर कि नव्य बिहार के साहित्यिकों का साधक सिर-मौर, मेरा एक ग़रीब और ईमानदार भाई है!

देशदूत (प्रयाग), 22.12.1940