स्वर्ग की नियति / कुबेर
मैं जिस शहर में जन्मा, पला-बढ़ा उसका नाम स्वर्ग है, अतः चाहें तो आप मुझे स्वर्गवासी कह सकते हैं। देवता भी स्वर्ग में बसते हैं, पर वे स्वर्गवासी नहीं कहलाते। मैं और मेरे शहरवासी, चूँकि देवता नहीं हैं, अतः आप हमें निःसंदेह स्वर्गवासी कह सकते हैं। परंपरानुसार लोग मर कर ही ’स्वर्गवासी’ उपाधि से विभूषित होते हैं, पर हमारे अहोभाग्य कि हम जीते-जी इस उपाधि के हकदार हो गए हैं।
आज के पहले मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि मैं स्वर्गवासी हूँ। भला हो नगर निगम वालों का, जिनके विज्ञापन से मुझे इस बात की जानकारी हुई। शहर के मध्य, चौराहे पर, विज्ञापन तख्त में बड़े-बड़े गुलाबी अक्षरों में लिखा हुआ है, ’आप स्वर्ग में हैं।’
मेरे इस स्वर्ग में कई प्रकार, कई जाति-धर्म और कई सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। पर यहाँ इन्सान भी रहते हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। यहाँ के लोग स्वयं को अधिकारी, व्यापारी, नेता अथवा संत-मौलवी आदि कहलाना पसंद करते हैं, परन्तु इन्सान कहलाना शायद वे अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। अतः नगर निगम को चाहिए कि एक विज्ञापन तख्त और लगाए, जिसमें लिखा हो कि - ’आप इंसानों के शहर में हैं’, ताकि लोग जान सकें कि कुछ भी होने के पहले वे इन्सान ही हैं। पर ऐसा करने का दुःसाहस शायद उसमें नहीं है।
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पिछले कुछ वर्षों से रोजगार के सिलसिले में मैं बाहर रहा करता हूँ और अपने इस स्वर्ग में आना कभी कभार ही होता है। आज इस शहर में कदम रखते ही सबसे पहले इसी विज्ञापन तख्त को देखा। देखकर सुखद अनुभूति हुई। आज से पहले इस प्रकार की तख्ती मैंने यहाँ नहीं देखी थी। नगरवासियों का यह नूतन प्रयोग था।
मैं विचारों में खोया, थैले को एक हाथ से दूसरे हाथ में बदलता, राज-मार्ग के बाईं ओर पैदल चला जा रहा था। मार्ग निःसंदेह विभिन्न प्रकार के मोटर वाहनों, रिक्शा, सायकिल, पैदल चलने वालों और आवारा मवेशियों से खचाखच भरा हुआ था। सौहार्द्रपूर्ण सहअस्तित्व वाली इस प्रकार की जीवनशैली यहीं संभव है। पशु और मनुष्य में यहाँ कोई भेद जो नहीं है। कुछ-कुछ मामलों में तो पशु ही इन्सानों से श्रेष्ठ माने जाते हैं। इस पर तो हमे लानत भेजनी चाहिये, और चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये, परंतु परंपरा अनुसार हमें गर्व ही होता है। हमारी महान् संस्कृति का ऐसा उदाहरण मिलेगा भला और कहीं?
लोगों को, परस्पर धकियाते हुए दूसरों से आगे निकल भागने की जिद के अलावा और कुछ सूझ नहीं रही होगी। पर मैं इन सबसे बेखबर विचारों में खोया, अपने ही धुन में धुत, घर की ओर बढ़ा जा रहा था। उस व्यस्त मार्ग पर भी मैं बिलकुल अकेला था। मुझे शर्मा जी की भी कोई सुध नहीं थी जो बराबर मेरे साथ ही चले आ रहे थे। मेरी चुप्पी शर्मा जी को शायद अखर रही थी। उसने कहा - “कहो जनाब कहाँ खो गए?”
होश संभालते हुए मैंने कहा - “क्या आपको मालूम हैं कि आप स्वर्ग नामक इस शहर में हैं?”
“हाँ, क्यों?”
“तब आपको यह भी मालूम होगा कि आप इन्सानों के नहीं, देवताओं के शहर में हैं।”
शर्मा जी ने हो... हो... की हँसी में बात टाल दी।
सड़क पर जा रहे एक रिक्शे की ओर इशारा करते हुए मैंने फिर सवाल किया - “क्या आप उस रिक्शे को खींच रहे मरियल आदमी और उस पर सवार उस तोंदियल व्यक्ति के बीच संबंध बता सकते हैं?”
शर्मा जी मेंरे इस तमतमाये हुए तेवर की शायद जानबूझकर उपेक्षा करना चाहते थे, लिहाजा उपेक्षापूर्ण लहजे में उसने कहा - “निःसंदेह, वह आदमी जिसे आप मरियल कह रहे हैं, रिक्शा वाला है और वह तोंदियल पैसे वाला कोई ग्राहक हैं। वह मरियल अपने बीवी-बच्चों के लिये अपना खून सुखाये जा रहा है।”
मैंने शर्मा जी को बीच में ही रोकते हुए कहा - “नहीं जनाब, मैं आपसे सहमत नहीं हूँ। वह मरियल हमारी नजरों में निःसंदेह मनुष्य है, पर उस तोंदियल की नजरों में पशु से भी गया बीता प्राणी है। लेकिन सच तो यह है कि उस तोंदियल से बड़ा पशु शायद ही और कहीं हो।”
शर्मा जी ने मेरा प्रतिवाद करना चाहा, लेकिन उसे बलात् रोकते हुए मैंने आगे कहा - “सच तो यह है जनाब कि इन जैसे लोगों ने ही रिक्शा खींच रहे उस आदमी और उसके समान असंख्य लोगों के हक, अपनी तोंदों तें दबा कर बैठे हुए हैं। गरीबों को पशुवत् कार्य करने के लिए मजबूर करके अपने महलों को उनके खून-पसीने से चमका रहे हैं।”
मुझे बीच में ही अपना ढर्रा बंद करना पड़ा क्योंकि हम उस चौराहे पर आ चुके थे, जहाँ से हमारे रास्ते अलग-अलग दिशाओं की ओर जाते हैं। एक दूसरे से विदा लेकर हम अपने-अपने घर की ओर चल पड़़े। मुझे अपनी भड़ास न निकाल पाने के कारण झुंझलाहट हो रही थी। शर्माजी मुझसे पिण्ड छूट जाने के कारण निश्चित ही खुश हो रहे होंगे।
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मुहल्ले में सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग सामान्य ढंग से ही सड़कों पर आ जा रहे थे, पर सामान्य चहल-पहल का अभाव था। होटलों की भट्ठियाँ पहले जैसे ही दहक रहे थे, चाय बनाई जा रही थी, पकौड़े तले जा रहे थे, ग्राहक भी चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, पर उनके बीच चुटीले संवादों का अभाव था। लोग केवल मतलब की ही बात कर रहे थे। बच्चे गलियों में खेल जरूर रहे थे पर उनमें उत्साह नहीं था। एक अजीब तरह का तनाव वातावरण को असामान्य बना रहा था। चलते हुए मैं उस चौक तक आ पहुँचा था जहाँ ठेलू राम का पान ठेला पड़ता है। निकट पहुँचने पर ठेलू राम ने मेरा अभिवादन किया और पान की पत्तियाँ चुनने में फिर व्यस्त हो गया। पहले सा गर्मजोशी नहीं दिखाई दिया। बेंच पर बैठे अन्य परिचित लोगों से दुआ-सलाम करते हुए मैं आगे बढ़ गया।
अभी भी मैं अपने घर से आधा पर्लांग दूर था। मुहल्ले में छाये सन्नाटे से मेरा मन उद्विग्न होने लगा था। बाईं ओर की जमीन एक अर्से से बंजर पड़ी हुई थी। वहाँ अब सरकारी इमारतों का निर्माण प्रगति पर था। मेरे मन में अचानक एक प्रश्न कौंध गया। क्या इस दुनिया में सभी लोग अन्न खा कर संतुष्ट हो जाते हैं? और उतनी ही तीव्रता से इस प्रश्न का प्रतिवाद भी हुआ - “नहीं।” बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं जिन्हे अन्न से संतुष्टि नहीं मिलती। ये ईंट, सिमेंट और कंक्रीट खाये बिना जीवित नहीं रह सकते। इन्हें पीने के लिए पानी नहीं गरीबों का खून चहिए। कुछ लोग केवल पैसों से अपनी क्षुधा शांत करते हैं। ये लोग केेवल पैसा खाते हैं, पैसा ही पीते हैं पैसों पर सोते हैं और पैसों पर ही चलते हैं। इन्हें आम जनता भी केवल पैसों की तरह ही नजर आती है। इनके हाथ आया हुआ मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता, पैसे छापने वाली मशीन हो जाता हैं। कुछ लोग ऐसे होते है जिनका भोजन कुर्सी होती है। इन्हें तो खाने, पीने, सोने, बैठने के लिए बस कुर्सी ही चाहिये। कुर्सी के लिए ये अपनी मान-मर्यादा सहित, अपना सब कुछ दांव पर लगाने में भी नहीं शरमाते। इन सभी में एक समानता होती है, इन्हें साधारण और प्रचलित खेल-खिलौने अच्छे नहीं लगते। इन्हंे अपनी ऊब मिटाने और खेलने के लिये आम आदमी की इज्जत चाहिये।
मेरे विचारों का क्रम तब टूटा जब मेरे अवचेतन मन ने सूचित किया कि मैं अपने घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ।
घर में भी वैसा ही माहौल था जैसा बाहर गलियों में, स्तब्धता और तनाव का। मैंने बड़ों के पैर छुए। सिर पर आशिर्वाद का हाथ रखते हुए माँ सुबक पड़ी। उसके हाथ कांप रहा थे। आशंकाओं से उत्पन्न भय को दबाते हुए और सहज होने का प्रयास करते हुए मैंने पूछा - “क्या हुआ माँ? आप सब खामोश क्यों हैं?”
“माया अब नहीं रही बेटे।” कहकर माँ फफककर रो पड़ी।
मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मैं सबके चेहरे पर सच्चाई पढ़ने का प्रयास करने लगा। सबकी आँखें झुकी हुई थी। मन बेचैन था और आत्मा जैसे चित्कार रही थी। मुझे माँ की कथन पर अविश्वास करने का कोई कारण नजर नहीं आया कि मैं अपने दिल को झूठी तसल्ली दे पाता। कुछ क्षण के लिए मैं जैसे चेतनाशून्य हो गया। पास रखी कुर्सी पर मैं बिछ गया। अतीत मेरे हृदय को मथने लगा।
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माया मास्टर साहब की बेटी थी। पाँच साल पहले मास्टर साहब हमारे मुहल्ले की शाला में स्थानांतरित होकर आए थे और हमारे पड़ोस में रहने लगे थे। तब माया ग्यारहवीं में पढ़ती थी। मास्टर साहब नेक और सज्जन व्यक्ति थे। प्रारंभिक जान पहचान धीरे-धीरे घनिष्ठता में बदल गई और शीघ्र ही एक दूसरे के घर आने-जाने का सिलसिला भी प्रारंभ हो गया। दोनों परिवार की घनिष्ठता और पारिवारिक संबंधों के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माया ही थी। माया ने माँ पर न जाने कैसा जादू किया था कि वह उसके बिना रह नहीं सकती थी।
मृदुल स्वभाव वाली माया के चेहरे पर हमेशा शांत आभा छाई रहती थी। आँखों में चंचलता की जगह अपनत्व का भाव अधिक होता। वाणी जैसे जानी-पहचानी और मन को भाने वाली होती थी। वह कम बोलती, पर अधिक कह जाती। माँ से भरपूर ममता पाती और फिर उसे विकास पर लुटा देती। तब उनकी चेष्टाएँ बाल सुलभ हो जाती थी।
विकास मेरा छोटी भाई है जो तब मिडिल में पढ़ता था। अपनी पढ़ाई समाप्त कर मैं तब नौकरी की तलाश में था। दिन में अधिकांश समय घर से बाहर ही रहता। मेरी उपस्थिति में माया हमारे घर कम ही आती। कभी आमना-सामना होने पर वह झेंप जाती और तुरंत मेरी आँखों से ओझल हो जाती। उनका शरमरना मुझे अच्छा लगता। उनकी बातें मुझे आकर्षित करती। उन्हें कविताएँ लिखने का शौक था। कविताओं को संशोधित करने विकास के जरिये वह मेरे पास भेजती। उन कविताओं को पढ़कर मुझे लगता कि शायद वे मेरे लिये ही लिखी गईं हो।
इसी बीच मेरी नौकरी लग गई और मुझे बाहर रहने के लिये मजबूर होना पड़ गया। उस दिन, जब मैं सामान लेकर घर से बाहर निकलने वाला था, माया का चेहरा उदास और मुरझाया हुआ लग रहा था। माँ की आँखें बात-बात में डबडबा जातीं। माया उन्हें सांत्वना देती और खुद भी भावुक हो जाती। माँ मुझे बार-बार समझा रही थी कि बाहर रहते हुए मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं। और यह भी कि मैं अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखूँ। जाते ही खत लिखूँ। जब मैं अपना बैग उठा रहा था, एक अत्यंत भावुक और कोमल वाक्य ने मेरे मन को छू लिया - “अपना खयाल रखियेगा।” यह माया की मनुहार थी। मैंने आश्वस्त निगाहों से माया की ओर देखा। उसकी आँखों में सिर्फ मेरे भविष्य के सपने थे।
माँ की अनुभवी निगाहों ने हमारी निगाहों को अच्छी तरह पढ़ लिया था। माया को उसने मन ही मन बहू स्वीकार कर लिया था। संभवताः इसीलिए हमारे लिये एकांत सृजित करने के लिये किसी बहाने वह कमरे के बाहर चली गई। हमारा प्यार हमारे परिवार के लिये न तो अनजाना था और न ही आपत्तिजनक।
वही माया अब नहीं रही।
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न जाने किस प्रेरणा से प्रेरित हो, मैं माया की कविताओं का फाइल ढूँढने लगा। मेरे मस्तिष्क की चेतन, अचेतन और अवचेतन स्थिति की हर स्पंदन कों माया की सूक्ष्म और अदृश्य अनुभूतियाँ रह रह कर उद्वेलित कर रही थी। तभी ग्रीष्म की झंझा की तरह विकास मेरे कमरे में दाखिल हुआ। किंवाड़ आवेग में धकेला गया था जिसकी आवाज से मैं अपनी चेतना के बिखरे संदर्भों को सूत्रबद्ध करने लगा।
मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि विकास के चेहरे पर जाकर अटक गई। क्रोध, घृणा और वेदना के सम्मिलित मनोभावों से उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। वह बगैर किसी भूमिका के प्रारंभ हो गया। तूफान किसी भूमिका का मोहताज नहीं होता। वह कह रहा था - “छात्रों की जुलूस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया है। काफी लोग घायल हुए हैं। बहुत से छात्रनेता पकड़े गये हैं। शायद मेरे पीछे भी पुलिस लगी हुई है।”
मैं फिर भी मौन रहा। प्रश्न मेरी निगाहें कर रही थी। विकास ने आगे कहा - “माया की मौत के लिये ठेकेदार के आदमी जिम्मेदार हैं। सब राक्षस हैं साले हरामजादे। ऐसा आज पहली बार नहीं हुआ है, पहले भी हो चुका है, रोज होता है। इसी मुहल्ले की, घंसू की लड़की रज्जो के साथ भी यही हुआ था। शाम को रज्जो अपने बाप के साथ काम से लौट रही थी। मोड़ पर जहाँ सरकारी इमारतें बन रही हैं, कुछ लोग उन दोनों को बलपूर्वक कार में बिठा कर कहीं ले गए थे। सुबह होने पर वे दोनों उसी जगह पर बेहोशी की हालत में मिले थे। कल माया की बारी थी।”
मैं मूर्तिवत विकास की बातों को सुन रहा था। “सूर्य निकलने से पहले माया उन राक्षसों की नगरी से दूर, बहुत दूर जा चुकी थी; अपने अपवित्र हो चुके शरीर को छोड़कर। नगर के सभी असरदार लोग अपराधियों से मिले हुए हैं। उनका कौन क्या कर सकता है? छात्रों ने नगर बंद का आह्वान कर जुलूस निकाला है।” विकास ने अपनी बात समाप्त की।
विकास से ही आगे पता चला कि मास्टरजी, जो सदा संयत और नम्र व्यवहार के लिये जाने जाते थे, एकाएक परिवर्तित हो गये थे। टूटने के बजाय मास्टर जी खुद ही इस अनाचार और अत्याचार के खिलाफ निकाले गये जुलूसा का नेतृत्व कर रहे थे। वे न्याय मांग रहे थे। जुलूस पर पुलिस ने अंधाधंुध लाठीचार्ज किया था। इस अन्याय का विरोध करते हुए मास्टर जी बुरी तरह घायल हो गये थे। फिर भी न तो मास्टर जी का आक्रोश थम रहा था और न ही जुलूस की उग्रता।
पर उन लोगों के लिये यह सामान्य घटना थी। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
संध्या उतर आई थी। स्वार्गिक सुख भोगने वालों की कोठियों में फिर एक रज्जो, फिर एक माया लाकर बंद की जा चुकी होंगी और कल प्रातः शायद फिर यही दृश्य दोहराया जायेगा।
क्या यही स्वर्ग की नियति है?