स्वर्ग सुख / कुबेर

Gadya Kosh से
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सवाल समानता का है। वे स्वर्ग में स्वार्गिक सुख भोगें और यहाँ हम दुख; लानत है ऐसी व्यवस्था पर। इस अन्याय के खिलाफ आवाज तो उठाना ही पड़ेगा। परोठे जी का मन विद्रोह के मूड में आ गया। उसने हॉट लाइन से स्वर्गाधिपति से संपर्क किया - “हेलो! हेलो।”

“हेलो।”

“कौन, प्रभुजी आप? नमस्कार। मैं ए. जी परोठे बोल रहा हूँ।”

“अच्छा, अच्छा। नमस्कार। सुनाइये आलू गोभी परोठे जी, कैसे हैं?”

“भाई वाह, आपको तो हमारा फूल नेम भी मालूम है।”

“भई परोठे जी, हम ऐसे ही स्वर्गाधिपति नहीं न बन गये होंगे? एक-एक की खबर रखना पड़ती है। हमें तो यह भी मालूम है कि आप अराजधानी वाले एरिया के सबसे उपजाऊ इलाके में रहते हैं।”

“वाह प्रभुजी, आपके कमाण्ड की तो दाद देना पड़ेगी। लेकिन ये अराजधानी और उपजाऊ के क्या मतलब?”

“अरे इसी भेलेपन की वजह से तो आप अभी तक स्वर्ग-सुख से वंचित हैं। जरा कॉमन नॉलेज बढ़ाओ भाई, परोठे जी। अब तुम्हीं बताओ, क्या तुम्हारे इलाके में राजधानी का कानून चलता है?”

“समझ गया प्रभुजी, समझ गया।”

“ अब यह भी बताओ, तुम्हारे इलाके में रोज कितने फूल खिलते हैं? कितने घर बसते हैं?

“समझ गया प्रभुजी, समझ गया।”

“क्या खाक समझ गये? झोपड़पट्टी के गरीब, भले और निरक्षर लोगों के बीच, जिसे हम बेवकूफ समझते है; रहकर भी तुम्हें सुखी जीवन जीने की कला नहीं आई। लानत है तुम पर। स्वर्ग का सुख भोगना चाहते हो, तो परिस्थितियों का नगदीकरण करना सीखो भाई। कहो किस लिए फोन किये हो?”

“प्रभुजी! आप तो वहाँ पर स्वर्ग-सुख भोग रहे हैं, और हम यहाँ नारकीय जीवन जीने के लिये मजबूर हैं। हमें भी तो चांस मिलना चाहिये न।” परोठे जी ने चिरोरी की।

“देखिये परोठे जी, स्वर्ग का सुख भोगने के लिये कुछ कीमत चुकानी पड़ती है।” स्वर्गाधिपति ने खुराक पिलाई। 

“सो तो ठीक है प्रभुजी, और हम तो तैयार भी हैं; लेकिन हमारी घरवाली का बेड़ा गर्क हो। ऐसे घोर कलियुग में भी सती सावित्री सी पत्नी आपने हमें क्यो दिया? साली, मरने भी नहीं देती।”

“अरे, अरे! परोठेजी, मरने की भला क्या जरूरत है? हमने कब कहा मरने के लिये। बात पूरी सुन लिया करो भाई। मरने की जरूरत नहीं है, मुक्त होने की जरूरत है।”

“मुक्त होने की?”

“अरे भाई, तुम्हारे यहाँ जो फूल खिलते हैं, उसमें फल भी तो लगते होंगे? हमारे यहाँ ऐसी मुसीबत नहीं है। समझ गये न? फल लगने से मुसीबत ही मुसीबत है। रिश्तों और संबंधों की मुसीबत, माँ-बाप, काका-काकी, भाई-बहन, दादा-दादी मुसीबत ही मुसीबत है। यहाँ आराम ही आराम है। नहीं है यहाँ कोई किसी का माँ-बाप, काका-काकी, भई-बहन, दादा-दादी। मुक्ति ही मुक्ति है।”

“समझ गया प्रभुजी, रिश्तों-नातों और मानवीय भावनाओं से मुक्त होना पड़ेगा। फिर मरने की क्या जरूरत है। आदमी को मरा-मराया ही समझो।”

“हाँ! लगता है अब तुम कुछ-कुछ समझ रहे हो परोठे जी।”

“प्रभुजी, आपकी जय हो ।” अपनी तारीफ सुनकर परोठे जी कृतज्ञ हुआ।

“और सुनो, भाई परोठे जी! अभी यहाँ पर कोई जगह खाली नहीं है। वहाँ पर तुम अपनी तैयारी पूरी करो। यहाँ की सारी सुविधाएँ तुम्हें हम वहीं पर उपलब्ध करा देंगे।” सवर्गाधिपति ने खुशखबरी सुनाई।

“जय हो प्रभुजी, आप तो महान् हैं। आपकी उदारता महान् है। अब फोन रखता हूँ। प्रणाम।”

“फूलो, लेकिन फलो मत। खूब ऐश करो। मुसीबत पड़े तो फिर याद कर लेना।”

कुछ ही दिनों में परोठे जी अपने इलाके के जाने-माने नेता बन गये।

अब वे सरकार में हैं।