स्वर्णकलश / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल
जो रस प्रबन्ध काव्यों में धारा के रूप में बहता है वही मुक्तक पद्यों की छोटी छोटी नलिकाओं से पिचकारी की तरह छूटता है। यह पिछला ढंग समाज और जलसों के अधिक अनुकूल पड़ता है। इसी से प्रबन्धों के साथ साथ मुक्तकों की परंपरा भी बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। हिन्दी के पुराने कवियों ने साहित्य ग्रन्थों में निरूपित रस के अवयव के क्रम से अपनी फुटकल रचनाओं के सन्निवेश की जो परिपाटी चलाई वह बहुत दिनों तक हिन्दी साहित्य में चलती रही है। आजकल हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित पुराने कवियों में इस काव्य के आधुनिक मार्ग पर जिन्हें पाते हैं उनमें से कई एक उस पुरानी परिपाटी पर अत्यंत रसमयी रचना कर चुके हैं। ऐसे कवियों में आधुनिक काव्य क्षेत्र के महारथी 'हरिऔध' जी प्रमुख हैं। आजकल लोग प्राय: खड़ीबोली के कई रूपों की झलक दिखाने वाले उनके उन प्रौढ़, सरस और मधुसिक्त काव्यों से ही परिचित हैं जिन्होंने खड़ी बोली काव्य के गौरवपूर्ण भविष्य को स्थिर किया है। उनकी व्रजभाषा की नई और पुरानी कविताओं के माधुर्य के आस्वादन का सौभाग्य बहुत लोगों को प्राप्त नहीं हुआ था। मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि हरिऔधजी की व्रजभाषा की माधुरी भी लोगों को सुलभ हो जाय। सौभाग्य से मेरी इच्छा पूरी हुई। व्रजभाषा का रसभरा स्वर्णकलश सामने आया।
रस ही काव्य का प्राण या आत्मा कहा गया है। अलंकार आदि उसी के भीतर अपनी शोभा का रमणीय प्रकाश करते हैं। उससे विच्छिन्न होकर वे चमकीली वस्तुओं के निर्जीव ढेर से जान पड़ते हैं। रस भरे हृदय और रस भरी ऑंखों के लिए यह सारी सृष्टि रसमयी है। रस की कच्ची सामग्री प्रत्येक घर के भीतर रहती है। पर उसे रस रूप में परिणत करने वाला प्रभाव कवियों की वाणी द्वारा प्राप्त होता है जो उसे शब्दों से खोद कर कल्पना और भावों की रसविधायिनी क्रिया में तत्पर करती है। अत: और बातों के अतिरिक्त कवियों में ये बातें अवश्य होनी चाहिए। भाव प्रवणता, प्रतिभा या कल्पना, शब्द धन तथा उसके उपयोग की प्रत्युत्पत्ति।
हरिऔधजी शब्दों के कितने बड़े धनी हैं यह उनके प्रियप्रवास आदि काव्यों का अनुशीलन करने वाले जानते ही हैं। खड़ी बोली से जब उनकी कोमल कान्त पदावली इतनी मिठास घोल देती है तब स्वभावत: कोमल और मधुर व्रजभाषा के बीच उसकी छटा का क्या कहना। रीतिग्रन्थ माला अब इस युग में समाप्त हो गई। अत: उसके लिए जैसे सुमेरु की आवश्यकता थी वैसा ही सुमेरु इसमें पिरो दिया गया। रसकलश में हरिऔधजी ने काव्य की प्रतिष्ठित परंपरा को चरम उत्कर्ष पर पहुँचा कर छोड़ दिया। हिन्दी के पुराने ग्रन्थों में नायिका भेद ही वास्तव में रहता था। और रस प्राय: एक एक उदाहरण देकर किसी प्रकार चलता कर दिए जाते थे। रस के अवयवों पर भी पूरा ध्यान नहीं दिया जाता था। पर इस कलश के भीतर जिस प्रकार और रसों का भी पूरा समावेश है उसी प्रकार रस के अवयवों की भी निराली छटा है। इस रसकलश की स्थापना आधुनिक काल में हुई है। अत: इसमें आधुनिकता का रंग बिना कुछ घुले कैसे रह सकता था। जबकि अवस्था, प्रकृति आदि के विचार से नायिकाओं के इतने भेद किए गए हैं तब और भेदों की संभावना की ओर ध्यान जाना आवश्यक ही है। देश प्रेम, जाति प्रेम आदि का पुनीत स्रोत आज कितने ही हृदयों से फूट कर जनता के जीवन की गतिविधि निर्दिष्ट कर रहा है। अत: हरिऔधजी ने इन नूतन भावों से अलंकृत नायिकाओं के लिए भी स्थान निकाल कर रसज्ञों के निकट विचार के लिए एक विषय उपस्थित कर दिया है। देशप्रेम और जातिप्रेम भी प्रेम का एक प्रकार ही है। यह एक ऐसे गुण के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है कि जिससे नायिका का उत्कर्ष साधन होता है और वह श्रृंगार की भी नायिका बनी रहती है।
रसकलश में हरिऔधजी ने जो विचारपूर्ण भूमिका लगा दी है उससे रस के सम्बन्धह में लोगों को बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है। अन्त में वही कहना पड़ता है कि व्रजभाषा की काव्य परंपरा का अत्यंत पूर्णता पर पहुँचा हुआ रूप दिखाकर हरिऔधजी ने एक बार फिर शिक्षित समाज को उसकी ओर आकर्षित कर लिया है।
('प्रेम पत्र', अंक 4 पूर्णांक 5 शुक्ला द्वितीय श्रावण, 1934 ई.)
[चिन्तामणि, भाग-4]
[ 'रसकलश' अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कृति है। नेता, लेखक एवं संपादक वेंकटेश नारायण तिवारी ने इस पुस्तक के संबंध में दो लेख लिखे थे। एक लेख का शीर्षक था 'हरिऔध जी का बुढ़भस'। इसी से इन लेखों की विचारधारा स्पष्ट हो जाती है। इसी पर गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' ने अरुणोदय पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद से 'प्रेम-पत्र' का एक विशेषांक (अंक 4, पूर्णांक 5, शुक्ला द्वितीय श्रावण) रसकलश पर 1934 ई. में निकाला था। इस अंक में आचार्य शुक्ल का 'स्वर्णकलश' शीर्षक यह लेख प्रकाशित है। ]