स्वर्ण-जयंती / जया झा
विद्यालय परिसर में काफी चहल-पहल थी। शिक्षक और विद्यार्थी भाग-दौड़ कर रहे थे। स्वयं प्राचार्य भी काफ़ी व्यस्त नज़र आ रहे थे। शारीरिक शिक्षा-निदेशक की व्यस्तता कुछ विशेष ही थी। माइक और साउण्ड-बॉक्स व्यवस्थित किए जा रहे थे। मंच-सज्जा का सूक्ष्म निरीक्षण हो रहा था। इस अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों में भाग लेने वाले विद्यार्थियों की स्टेज-रिहर्सल हो रही थी।
ये तैयारियाँ ज़रा भी अप्रत्याशित नहीं थीं। आख़िर स्वतंत्रता की स्वर्ण-जयंती मनाई जाने वाली थी।
हाँ! स्वर्ण-जयंती - आज़ादी की। वह आज़ादी जिसके पीछे न जाने कितनी क़ुर्बानियाँ, कितने दुस्साहस और कितने दृढ़ संकल्प छिपे थे। जिसके पीछे कैसी दीवानगी थी कि न जीवन से कोई मोह रह गया था, न ही मृत्यु से कोई भय। उसी आज़ादी की स्वर्ण-जयंती थी। निश्चय ही यह एक ऐतिहासिक मौक़ा था।
इस ‘महान् अवसर’ पर मुझे भी अपने विचारों को भाषण के माध्यम से व्यक्त करने का अवसर मिलना था। निश्चित समय पर मैं मंच पर चढ़ी और अपने उद्गार व्यक्त करना लगी,”…. बच्चे-बच्चे को शिक्षा देना हमारा पहला लक्ष्य है। चाहे वो अमीर हो या गरीब, लड़की हो या लड़का, ब्राह्मण हो या शूद्र….।” कि अचानक नज़रें हमारे विद्यालय के ‘सभ्य और अनुशासित’ विद्यार्थियों के पीछे खड़े बगल की बस्ती के कुछ ‘असभ्य’ बच्चों पर पड़ीं। एक लड़की थककर नीचे बैठी दुई थी। गोद में एक छोटा-सा बच्चा, संभवतः उसका छोटा भाई था, लेटा हुआ था। भाषण के किसी उत्तेजक भाग पर करतल-ध्वनि करने की सभ्यता नहीं आती थी उसे, क्योंकि ‘वंदे मातरम’का अर्थ नहीं जानती थी वो। मेरी आवाज़ कुछ लड़खड़ाई, किन्तु यह असर क्षणिक था। मैंने फ़ौरन ख़ुद को सँभाला। आख़िर मैं एक ‘कुशल वक्ता’ थी । अपनी ‘पहचान’ का भी तो ख़्याल रखना था।
लेकिन वह दृश्य दिमाग से नहीं उतरा। मंच से उतरने के बाद उसके पास गई। उसके विषय में पूछा, उसकी पढ़ाई के विषय में पूछा। पता चला,”बाबूजी कमाने के लिए पंजाब गए हुए हैं। माँ रोज़ सुबह घास काटने चली जाती है। मेरी एक बड़ी बहन है, शादी हो चुकी है। मेरे बाद दो बहनें हैं, फिर यह भाई। रही बात पढ़ाई की तो हम लड़कियों को पढ़कर क्या करना है? हाँ, हो सकता है कि माँ इस भाई को पढ़ाए। लेकिन संभव होगा तब तो।”
मैं भौंचक्क-सी खड़ी थी, उसकी बुद्धि और मानसिकता को देखकर। उम्र से पहले कुछ ज़्यादा ही समझने लगी थी। मैंने फ़िर पूछा, “यहाँ आती हो तो सभी को देखकर पढ़ने की इच्छा नहीं होती?”
“पढ़ने की? मुझे क्या पता कि यहाँ पर कोई क्या करता है। वो तो पिछले साल कुछ ऐसा ही हुआ था, तो उसमें एक-एक लड्डू हमें भी मिला था, इसलिए आज भी आ गई हूँ।”
मेरी नज़र गई वहाँ, जहाँ मेस के कुछ कर्मचारी उन बच्चों को एक-एक लड्डू दे रहे थे। बार-बार पंक्ति में लगने का आग्रह किए जाने के बाद भी उनकी ‘अनुशासनहीनता’ चरम पर थी। मैंने फिर उस लड़की की ओर देखा। वहाँ कोई नहीं था। नज़रें फिर उन बच्चों की तरफ़ गईं, तो वो कब की उन बच्चों में शामिल हो चुकी थी।
तभी मंच संचालक ने घोषणा की, “इसी के साथ स्वाधीनता-स्वर्ण जयंती पर आयोजित अभी का यह कार्यक्रम समाप्त होता है। सभी शिक्षकों, कर्मचारियों और छात्र-छात्राओं से अनुरोध किया जाता है कि सायं 6.30 बजे झंडा उतारने के कार्यक्रम में अवश्य सम्मिलित हों।