स्वर्ण देवता दलित देवता / एस. आर. हरनोट
मैं तकरीबन आधी रात को लौट आया। यह लौटना अत्यन्त तकलीफ देह और अप्रत्याशित था। मेरे पास न तो कोई रोशनी का प्रबन्ध था और न ही किसी घर से रोशनी माँगने की होश ही रही। विचलित मन। आक्रोश और भय से मिश्रित। चार-पाँच किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद सीधे रास्ते में पहुँचा तो पीछे देखा। आश्चर्य हुआ कि इतने गहरे अन्धेरे में पाँव न लगी पगडंडी से मैं कैसे आ गया। कन्धे पर हाथ गया। फिर दाईं तरफ नीचे लटके झोले की डोरों से सरकता हुआ भीतर तक। ऊपर पट्टु था। उसके नीचे झोली में शहनाई। इसी का डर था कि कहीं हड़बड़ी और गुस्से में शहनाई को ही तो नहीं भूल आया।
हल्की सी आहट हुई। सचमुच कोई छोटा जानवर मेरे होने के एहसास को परखता या अपने आप में भयाक्रान्त नीचे कूदा था। मेरे दांत बैठ गए। दंदकुशकें बट गई। मुँह खोलने का प्रयास किया पर खुला नहीं। जीभ कहीं तालू में फंसती महसूस हुई। शरीर में ऐसी सिहरन हुई मानो किसी ने सिर पर ठंडे पानी का घड़ा उड़ेल दिया हो। उसके बाद एक अजीब सी गंध नाक में पसर गई। पिता की बात याद आ गई। वे बताया करते कि आधी रात को यदि मर्द कहीं रास्ते में अकेला चल रहा हो तो उसका साथ बाघ देता है। उससे डरना नहीं चाहिए। उनके साथ ऐसा कई बार हुआ था। पहले तो बाघ की कल्पना मात्रा से पानी-पानी हो गया। लेकिन साथ देने की बात ने मन में एक भरोसा भी पैदा कर दिया। एकदम मुँह से देवता का नाम निकला......। भय ने देवता की अचानक याद दिला दी।
गाँव अब कुछ दूरी पर था। इतनी रात घर पहुँचुंगा तो पिता क्या कहेंगे? माँ और दादी क्या सोचेगी ? इसका ख्याल करते-करते एक जगह विवशत: चट्टान पर बैठ गया। जगह खुली थी। तारों की संयुक्त iझलमिलाहट ने आँखों का अंधकार कुछ कम कर दिया था। बैठते ही ठंडी हवा के स्पर्श ने मन को थोड़ा हल्का किया। माथे और मुँह पर सिकुड़न सी हुई। पसीना सूखने की चिपचिपाहट। कुछ इसी तरह पूरे शरीर में भी महसूस हुई। एक ही साँस में इतना रास्ता तय करने के बाद जो गर्माहट और खुलापन शरीर में था वह कम होने लगा। सर्दी से बचने के लिए झोले से पट्टु निकालकर ओढ़ लिया।
पिछली शाम लीला दास शर्मा के यहाँ देवता गया था। उसने अपनी किसी मन्नत पूरी होने पर देव जातर मानी थी। उसके यहाँ दो और देवताओं के रथ भी आए थे। यानी तीन देवताओं की जातर थी। मुझे पिता ने पहली बार देवता के साथ भेजा था। उनका अब यह विचार था कि मैं ही देवता की कार निभाता रहूँ। सेवा करता रहूँ। मुझे अब आठवीं के बाद पढ़ाने का भी मन न था। जबकि मैं आगे पढ़ना चाहता था। पिता होश संभालते ही देवता की सेवा में लग गए थे। देवता के साथ रहते हुए हर अच्छे-बुरे को सहा, लेकिन कभी जुबान नहीं खोली। न ही कभी कुछ घर में बताया। उनका काम देवता के बजंतरियों (वादकों) के साथ शहनाई बजाने का था।
वे गाँव-परगने में शहनाई के माहिर थे। उन जैसा शहनाईया हरिजन बिरादरी में कोई दूसरा न था। देवता के साथ ही नहीं बल्कि शादी-ब्याह में भी उन्हें दूर-दूर तक लोग ले जाते थे। पैसे की भी उनकी ज्यादा माँग नहीं रहती। जिसने जो दे दिया सिर-माथे। न कोई लालच न ही किसी चीज की अधिक चाहत। बस लोगों के मुँह से बड़ाई के दो बोल सुन कर ही खुश हो जाते कि वह एक काबिल और बेजोड़ शहनाई मास्टर है। लोग तारीफों के पुल बाँधते तो वह ध्याड़ी तो क्या रोटी खाना भी भूल जाते। सचमुच ईश्वर ने उन्हें इस कला में खूब पारंगत भी बनाया था। वे इसे माँ सरस्वती की कृपा मानते। देवता का आशीर्वाद मानते.....और मन से सेवा में लगे रहते।
उनकी इच्छा थी कि मुझे अपनी तरह कलाकार बनाएँ। एक अच्छा और बेहतर शहनाई मास्टर। लेकिन मेरा उस तरफ कोई ध्यान नहीं था। मैं अक्सर उन्हें निवेदन करता कि मुझे कम से कम दस तो पढ़वा दें। गाँव में आठवीं तक का ही स्कूल था। दसवीं के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था। लेकिन गरीबी के कारण उनकी हैसियत इसका दायित्व लेने की नहीं थी। मन से वे चाहते भी थे कि मुझे खूब पढ़ाएँ-लिखाएँ, लेकिन कई कारणों से वे टालते गए। एक कारण शायद गाँव के स्वर्णों का दबाव भी था। गरीबी का कारण तो समझ आता था जिसे मैं भी मानता था। लेकिन दूसरी बात मेरे गले कभी नहीं उतरी। फिर उस गाँव में शायद मैं पहला दलित लड़का था जिसने आठवीं प्रथम श्रेणी में पास की थी। मैं बोर्ड की परीक्षा में अपने जिले में भी प्रथम आया था। जबकि मेरे साथ स्वर्णों के कई लड़के फेल हो गए थे|
शहनाई बजाने का कोई शौक भी न था। कभी-कभार स्कूलों के कार्यक्रमों में बाँसुरी और शहनाई अवश्य बजाया करता। मुझे कोई खास स्वरज्ञान भी न था। न ही तालों की समझ। फिर भी मैं बहुत अच्छी शहनाई बजा लेता और पिता उस स्कूली शौक में मेरे भीतर अपना कलाकार तलाशने लगते। कई टुर्नामैंटो में मुझे इनाम भी मिले थे। वे इसमें होनहार बिरवान के होत चिकने पात वाली बात देखने लगे थे।
हालांकि मैं पिता जी का बहुत आदर करता था पर हमारे बीच अक्सर झड़पें हो जाया करतीं। उनका गाँव के ब्राह्मणों और ठाकुरों के प्रति अतिरिक्त आदर इसका मुख्य कारण था। बचपन से होश संभालने तक मेरे साथ कई घटनाएँ ऐसी घटी थीं जिन्होंने मेरे मन में नफरत के बीज रोपित कर दिए थे। एक घटना तो बार-बार आँखों के सामने आ जाती और पिता जब भी मुझ से कोई बात करते तो वह दीवार बन कर हमारे मध्य खड़ी हो जाया करती।
जब मैं पाँचवीं में पढ़ता था एक दिन उनके साथ देवता के मन्दिर चला गया। शायद सक्रान्त का दिन था। उस रोज गाँव-परगने के इलावा दूर-दूर से भी लोग पंची-पंचायत करने पहुँचे होते। उनमें ज्यादातर वे लोग होते जो अपने और अपने परिवार को भूत-प्रेतों द्वारा परेशान किया बताते र देवता से उसे भगाने की फरियाद करते। साथ ही अपनी गाय-भैंसों के लिए भी रक्षा के चावल लेते। कई बार तो लोग अपने सिर और पेट तक की दर्द के निवारण के लिए देवता के पास गुहार लगा देते।
देवता की पंचायत एक विशेष कार्यक्रम के आयोजन से होती। समय दोपहर बाद का रहता। बजंतरी देवता के सारे वाद्य बजाते। उनके साथ पिता शहनाई बजाते। जब वाद्यों का बजना उत्कर्ष पर होता तो मुख्य गूर (देवता का प्रतिनिधि जिसके द्वारा देवता बोलता है) में हल्की-हल्की कंपन होने लगती। कुछ देर बाद उसका पूरा शरीर काँप जाता। फिर वह झटके से सिर हिला देता। उसकी टोपी गिर जाती और औरतों की तरह रखे लम्बे बाल बिखर जाते। वाद्य बजते रहते। गूर का शरीर अब पूरी तरह देवछाया के वश में हो जाता। उसकी आँखों में खून तैरने लगता। चेहरा काला हो जाता। इसके बाद दूसरे सहायक देवताओं के गूरों में भी अलग-अलग देवता प्रवेश करते और वे भी पूरी तरह काँपने लग जाते। उनके हाथों में लोहे के विशेष शंगल होते। वे उन्हें काँपते हाथों में पकड़ते, हिलाते रहते और अपनी पीठ पर मारते रहते। यह क्रिया तीन या पाँच बार की होती। जमीन पर मुँह लगाकर जोर से किलकें देतें, लम्बी हू की आवाज करते।
फिर मुख्य देवता का गूर जमीन पर जोर से अपना हाथ मारता और कहता......"रख्खे......"। इसका मतलब होता " रक्षा "। ....और इसी के साथ दूसरे गूर भी वैसा ही करते। देवता के इस आयोजन को नियंत्रिात करने के लिए पाँच पंच आसपास बैठे होते। अब बारी-बारी लोग आते और अपनी पंची-पंचायत करवाते। अपनी समस्या बताते। मुख्य गूर उनका दु:ख-दर्द सुनता और उपाय बताने लगता। समस्याओं के निवारण के समाधान देवता कम और पंच कुछ ज्यादा ही बता देते। इनमें देवता की जातर और मन्दिर के पास बकरे की चढ़त और उसकी देवता के लिए बलि देने जैसे उपाय मुख्य रहते।
उस दिन जब पंची-पंचायत समाप्त हुई तो पता नहीं मुझे क्या सूझी। जाने-अनजाने मन्दिर की एक सीढ़ी पर बैठ गया। पुजारी की नजर पड़ी तो आग-बबूला हो गया। भागता हुआ आया और मेरे गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दिया। फिर बाँह से पकड़ा। घसीटते हुए मुझे पिता के पास फेंक दिया। पिता द्वारा बजाए इसका विरोध करने के एक और तमाचा मेरे मुँह पर जड़ दिया। मैं रोता हुआ चला आया, पर वे तमाचे मेरे मन पर स्थायी रूप से घर कर गए। यह बात भी गाँव-बेड़ में फैल गई थी कि शहनाईए का लड़का बड़ा कमजात है। इस घटना का प्रभाव कुछ ऐसा हुआ कि मैं अब ब्राह्मणों के बच्चों तक से स्कूल में नफरत करता और गाहे-बगाए उन्हें तंग भी करता। उनके बच्चे तो मुझे जाति के नाम से पुकारते और भद्दी गालियाँ भी देते रहते।
एक दिन पुजारी की दूसरी पत्नी, जो जवान और देखने में सुन्दर थी बावड़ी से पानी लेकर आ रही थी। मैं भी घड़ा उठा कर पानी भरने जा रहा था। हमारा पगडंडी में एक जगह टाकरा हो गया। नीचे-ऊपर होने को कोई जगह नहीं थी। अब मुझे बहुत पीछ लौटना पड़ता। उसके बार-बार कहने पर भी मैं रास्ते में डटा रहा। उल्टा उसे ही पीछे जाने को कहता रहा। जब वह अड़ी रही तो मैं किनारे से आगे निकल गया। फिर क्या था उसने सिर पर उठाई पानी की योकणी नीचे पटक दी और चिल्लाना शुरू कर दिया। मुझ से रहा नहीं गया। उसके पास आया और प्यार से पूछ लिया,"छोटी पंडताणी पहले तू एक बात तो बता? मैं तो तेरे में छूआ तक नहीं और तैने इतनी गाली-गलौज शुरु कर दी। उस दिन जो तू अपनी गौशाला के पिछवाड़े जगढ लुहार के लड़के की टाँगों के बीच नंगी पड़ी थी, उससे तो तेरे को छोत लगी ही नहीं..?"
ढोल की पोल खुल गई। चेहरा तमतमा गया था उसका। इतनी बड़ी बात वह सहती भी कैसे। गाँव में फैल गई तो क्या मुँह दिखाएगी। जैसे-कैसे बचाव जरूरी था। उसने रास्ते में गिराई टोकणी अब खेतों से नीचे फैंक दी थी और चिल्लाती घर चली गई। पुजारी से शिकायत लगा दी कि शहनाईए के लड़के ने उसका पानी तो छूआ ही पर हाथापाई भी कर दी। बात पिता तक पहुँची। उस दिन तो मेरी जो धुनाई हुई उसकी दर्दें आज भी महसूस होती हैं। अब तो आठवीं तक पहुँचते-पहुँचते मैं कई बार पिता को भी सीख देने लगा था कि वे इनकी इतनी आव-भगत न किया करें। बस पिता इसी बात से चिढ़ जाते। उनको मेरी यही एक बात पसन्द नहीं थी। मैंने अपने आप को पिता की खातिर काफी बदल दिया था परन्तु मन के घाव कभी नहीं भरे।
पिता कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे। इसी बीच गाँव के देवता की जातर का कार्यक्रम बन गया। पिता को बीमारी ने कमजोर भी बना दिया था। उनका साँस भी फूल जाता। इसलिए शहनाई बजाने में उन्हें काफी तकलीफ होती थी। लेकिन देवता के साथ जाने की कार तोड़ना भी मुमकिन न था। जातराओं के लिए तो देवता के साथ तकरीबन हर घर से एक आदमी का जाना जरूरी होता। उसे कोई न कोई काम पहले से ही सौंपा हुआ होता। इस तरह के काम दलित परिवारों के लिए ज्यादा होते।
...और देवता के नाम से कार निभाने के लिए बलि का बकरा आज मैं बन गया था। मुझे न चाहते हुए भी जाना पड़ा। देवता की कोठी के पास जब मैं पहुँचा तो पुजारी ने पिता के न आने का कारण पूछा। मेरे बताने पर वह कुछ परेशान हो गया। लेकिन जब मैंने बताया कि आज मैं शहनाई बजाने के काम के लिए आया हूँ तो वह विस्मित होकर मुझे देखने लगा। मेरी बिरादरी के कुछ लोगों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि लड़का अच्छी शहनाई बजाता है तो वह कुछ न बोला। मैं यह बखूबी समझता था कि मेरा आना उसे अखर रहा था। शायद कहीं उसके मन में यह बात भी उठी होगी कि अच्छा ही है आगे पढ़ने के बजाए मैं शहनाई बजाने का ही काम करूँ। इसीलिए कुछ देर के बाद बोलचाल में परिवर्तन हो गया और वह अच्छी बातें करने लगा। पुजारी और देवता के अन्य कारदार अब मुझे एक छोटे शहनाई मास्टर के रूप में देखने लगे थे। कईयों ने तो मुँह पर ही तारीफों के पुल बाँध दिए। इनमें पुजारी से लेकर देवता के पंचों तक थे। उनके चेहरे पर शायद इस बात की अब कुछ ज्यादा खुशी थी कि पढ़ने के बजाए मैं उन्हीं के बजंतरियों के बीच शहनाई फूँका करूँगा।
पिता ने मुझे शहनाई बजाने के कुछ गुर भी बता दिए। मसलन जब देवता का रथ मन्दिर से बाहर निकले तो शहनाई में यह गाना बजाना चाहिए। देवता चलने लगे तो वह गीत। देवता की जातर होने लगे और देवता नाचे तो वह धुन तथा जब देवता का हिंगर-हिंगराव यानी पंची-पंचायत हो तो फलां गाना बचाना चाहिए। मेरे लिए यह कोई मुश्किल का काम नहीं था।
उस घने अंधेरे में बैठे-बैठे मैं वर्तमान से लेकर अतीत की परतों को कुरेदने में उलझ गया था। आज देवता की कार निभाने का पहला दिन और इस तरह का हंगामा? सोच कर ही मैं परेशान हो रहा था। सचमुच देवता की पंचायत जो सजा दे वह तो माननी ही पड़ेगी पर पिता की डांट को सहना मेरे लिए असंभव जान पड़ता। उन्होनंे कितनी उम्मीद और विश्वास से मुझे देवता के साथ भेजा था। पर जब उन्हें पता चलेगा कि उनका बेटा पहली बार में ही अपनी करतूत के झण्डे इस तरह गाड़ कर लौटा है तो वह न केवल भीतर तक आहत और अपमानित होंगे बल्कि अब उनका यह विश्वास भी पक्का हो जाएगा कि मैं कभी नहीं सुधर सकता। .....और उनकी बनी-बनाई इज्जत-परतीत को निश्चित तौर से खाई में डाल दूँगा।
पता नहीं क्यों लीला दास शर्मा के घर देवता पहुँचने के बाद से ही मेरा मन उखड़ा-उखड़ा सा था। हमारे बैठने के लिए आँगन के नीचे खेतों में जहाँ जगह दी गई वहाँ कोई अच्छा इंतजाम नहीं था। हालांकि खेत बड़ा था। उसमें पीछे की तरफ छोटा सा तरपाल बाँस के डंडों पर लटका दिया था। देवता के रथ रखने और पुजारी, गूर तथा पंचो इत्यादि के लिए अच्छी जगह बनाई थी। उनके लिए बेहतर प्रबन्ध था। हमारी बिरादरी के लोगों के लिए प्राल( पुआल) बिछाई गई थी लेकिन ऊपर कुछ भी नहीं था। न आग ही का कोई इंतजाम था। नवम्बर का महीना था। हमारे पास सर्दी के बचाव के लिए पर्याप्त कपड़े भी न थे। रात भर की ठंड, ऊपर गिरती ओस और पाला, सोच कर ही मैं सिहरने लगा था।
देवता की पूजा के बाद हम काफी देर तक इस आस में नौबत बजाते रहे कि हमारे लिए कुछ कपड़ों और आग का प्रबन्ध हो जाएगा। पर किसी ने बात तक न पूछी। हमने यह भी सुना था कि यहाँ की पंडित बिरादरी हरिजनों से कुछ ज्यादा ही नफरत करती है। उन्हें आँगन में भी नहीं मानते। हमारे देखते-देखते देवता के साथ आए सभी स्वर्ण बिरादरी के लोगों को रजाईयाँ, कम्बल और अंगेठी में आग दे दी गई और हम सभी मुँह ताकते रह गए। सर्दी बहुत बढ़ रही थी। अब गुस्सा भी आने लगा था। मेरा गुस्सा लीला दास शर्मा पर कम और अपने देवता के कारदारों पर ज्यादा बढ़ता गया।
इधर-उधर देखा। मेरे साथ के वादक अपने-अपने वाद्यों की ओट में पट्टु की बुक्कल मारे सो गए थे। पहले सोचा कि जैसे-कैसे रात काट ली जाए। पर मन की बेचैनी नहीं गई। मैंने रथ के साथ सोए पुजारी पर डाली दो रजाईयों में से एक खींची। वह हड़बड़ा कर उठ गया। पहले तो एसे कुछ नहीं सूझा। जब रजाई मेरे हाथ में देखी तो पगला गया। जोर-जोर से बकने लगा। उसकी चिल्लाहट सुन कर सभी उठ गए। जैसे उन्हें साँप सूँघ गया हो या किसी ने ठंडे पानी की बाल्टी उन पर उड़ेल दी हो। हंगामा मच गया। उसका रुख मेरी तरफ था,
"ओ छोकरे, तेरा दमाग खराब हो गया। दिखता नहीं तेरे को। यहाँ रथ रखा है। उसे छू दिया तैने। तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की। और रजाई में हाथ लगाने की।"
मैं इस अप्रत्याशित घटना का सामना करने के लिए कतई तैयार नहीं था। डाँट मुझ पर किसी डंडे की तरह पड़ी। मैं कुछ संभलता, लीला दास शर्मा वहाँ टपक पड़ा। उसने आव देखा न ताव मुझ पर कुत्ते की तरह झपटा-
"सालों ने आठ जमात क्या पास कर ली, आसमान में चढ़ने लग गए। तेरे को दिखता नहीं कि ई रजाईयाँ हैं। तेरे छूने के बाद मैं इन्हें कहाँ डालूँगा।"
उसे देवता के रथ की चिन्ता कम और अपनी रजाईयों का फिक्र अधिक था। अब चारों तरफ से गालियों की बौछार होने लगी थी। जितने मुँह उतनी बातें। मेरे साथ जो ढोलिया, नगारची, एक-दो दलित गूर, करनालची इत्यादि थे वे सहमे हुए पीछे खड़े हो गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
देवता का एक पंच पंडित नारायणू पता नहीं कब उठा और सीधा मुझ पर टूट गया। उसने जैसे ही थप्पड़ मारने को हाथ उठाया मैंने वहीं रोक दिया। झटका इतना तेज था कि वह बाँस की कनात से टकराया और ऊपर लगा तरपाल नीचे गिर गया। किसी ने इतना सोचा भी न था कि बात हाथापाई तक आ जाएगी। इससे सारे ब्राह्मण संभल गए। गालियों की जो झड़ी लगी थी वह कुछ थम गई। जो उछलकर मेरी तरफ आ रहे थे वह काफी पीछे चले गए। मेरा चुप रहना मुमकिन नहीं था। मैं कुछ दूर खड़े लीला दास शर्मा के पास गया और उससे सीधे-सीधे पूछा,
"पंडत, जितनी गालियाँ तुमने मेरे को दी वह तो मैंने सहन कर ली। लेकिन मेरी एक बात का जवाब तू देदे। तू ही क्यों देवता के साथ जो ये पुजारी और पंच आए हैं इनसे भी मैं पूछता हूँ कि क्या ठंड बामणों और कनैतों को ही लगती है या कि कोली-चमारों को भी। खुद तो तुम दो-दो रजाईयाँ लेकर खराटे मारने लग गए और हम लोगों को बैठने के लिए पूरा प्राल भी नहीं। हमारे में भी ऐसा ही दिल है, प्राण है जैसे तुम लोगों में हैं। हमारे पुजारी और पंचों को तो शर्म है नहीं लेकिन पंडित तेरे तो बड़ा कारज है। तीन-तीन देवताओं की जातरा है, तेरे को तो समझ चाहिए थी कि देवता के साथ बाहर की बिरादरी के भी लोग हैं। इस सर्दी में उन्हें भी तो रात काटनी है।"
मुझे खुद पता नहीं चला कि मैं इतना कुछ कैसे बोल गया। वहाँ तीनों देवताओं के साथ आए लोग एकत्र हो गए थे। उसका घर दो मंजिला था। उसके साथ दो-तीन और घर थे। शोर सुनकर घरों की औरतें और बच्चे खिड़कियों से झाँक कर नीचे देख रहे थे। मर्द और छोकरे-छल्ले आँगन की मुंडेर पर आकर खड़े हो गए। मैं घबरा भी गया था। कहीं सारे ब्राह्मण-कन्त इकट्ठे होकर मेरा हुलिया ही न बिगाड़ दे। अब वहाँ रुकना खतरे से खाली न था। क्योंकि मैं जानता था मेरे अपने लोग भी मेरा साथ नहीं देंगे। अपना सामान संभाला। मौका देख कर नीचे की तरफ पगडंडी से भागता हुआ सामने की चढ़ाई में चढ़ गया। कुछ छोकरे मेरे पीछे भागे लेकिन अंधेरे में वे अधिक दूर तक नहीं आ सके। बोलचाल अभी भी जारी था। वहाँ अभी भी हंगामा हो रहा था। जिसके मन में जो आता बकता जाता। दूर घाटी से गुजरती सड़क से कोई रात्री बस सेवा गुजरी। मोड़ काटते हुए उसकी लाइट सीधी मेरे आसपास पड़ी तो मैं चौंक गया। एक पल तो पता ही नहीं चला कि क्या हुआ। दोबारा मोड़ काटते हुए जब उसकी रोशनी सीधी मेरे मुँह पर पड़ी तो मन सहज हुआ। माथे पर हाथ गया तो उँगलियाँ भीग गई। पसीने से तरबतर। नीचे बूँदे टपक रही थी। हालांकि मुझे बैठे काफी समय हो गया था लेकिन उस घटना को याद करते हुए स्मृतियों में उसे पूरी तरह दोबारा जी लिया।
धीरे से उठा। चलना शुरु किया। आसमान की तरफ पुन: नजर गई। आकाश गंगा उत्तर की तरफ चली गई थी। सप्तऋषि तारे पश्चिम की तरफ बढ़ रहे थे। एक बहुत बड़ा तारा चमकतादिखाई दिया। ध्रुव तारा। रात अभी भी काफी है मैंने सोचा। पर घर जाने से कतरा गया। कुछ दूर चलने के बाद फिर एक जगह बैठ गया।
मेरे सामने कई चीजें एकाएक खड़ी हो गई। सबसे पहले जो बात मन में उठी वह देवता को लेकर थी। यह देवता आखिर है किसका? स्वर्णों का या हम सभी का। सचमुच वह देवता है तो सभी का ही होगा। एसे न तो पुजारी या गूर ने कभी प्रत्यक्ष देखा और न ही सरपंचों या कारदारों ने। हमने भी नहीं देखा। बस एक परम्परा तय हुई, उसे पीठ पर उठाए नगाड़ों की तरह हम सभी ढोते चले गए। आज भी निभा रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी। लेकिन क्या इसमें एक खतरनाक साजिश नहीं रची गई?
सोचते हुए पहले तो मुझे सचमुच एक झटका सा लगा। मैं अंधेरे में खड़ा हो गया। आसपास कुछ नहीं था। मन का भ्रम...या देवता का डर..या इन तयशुदा परम्पराओं के विरुद्ध जाने का भय...। मस्तिष्क में कई बातें कौंधती रही।
जिस देवता को छोड़ कर मैं आया हूँ। वह तो उसके निशान मात्र है। रथ है। बहुत सुन्दर जिसे दो लम्बी कनातों पर बनाया गया है। कनाते चाँदी से मढ़ी हैं। शिखर पर सोने का बडा छत्तर है। उसके नीचे मुख्य देवता का एक सोने का मोहरा ( देवता का काल्पनिक चेहरा) है। साथ कई सहायक देवता हैं...एसी की तरह बड़ी देहरी के, जिनके मोहरे चाँदी और पीतल के हैं। एक मूर्ति याक के बालों के नीचे ढकी रहती है। बताते हैं कि वह किसी रकसीन यानी राक्षसी देवी की है। उसे खुली रखे तो उत्पात मचा देती है। उसकी जिधर भी नजर पड़ी सब कुछ वहीं ढेर। बस सुना है, होते किसी ने कुछ नहीं देखा। चारों तरफ चार छत्तर। चाँदी से बने हुए। चारों तरफ चाँदी की गाची यानी चौड़ी पट्टी है। उस पर गूर और पुजारी के नाम खुदे हैं........जैसे देवता उन्हीं का है। उसमें जो चार-पाँच किलो चाँदी लगा है वह देवता के नाम का है, निजी तौर पर किसी का भी कुछ नहीं।
पर देवता के भय से कोई कुछ नहीं कहता न पूछता। पूछे-टोके तो बागी। या देवता के खोट के प्रतिभागी। देवता नाराज तो कौन मनाए। आदमी हो तो सौ उपाए। सब कुछ सिर माथे। मुख्य देवता रथ पर चलता है। उसी में रहता है। उसी पर बैठता है। आलीशान कोठी है। दो मंजिली। जब जातरा नहीं होती, कोई मेला नहीं होता तो उस रथ को खोल दिया जाता है। उसके मोहरे भीतर बनी अट्टालिकाओं में रहते हैं। उनकी रोज पूजा होती है। सुबह-शाम। घी-दूध से। उसके लिए पुजारी नियुक्त है। ब्राहमण पुजारी। दूसरा नहीं हो सकता। देवता नहीं मानता? जब से गाँव बसा, देवता आया तभी से एक ही खानदान से पुजारी देवता की सेवा में लगा है। पहले उसका पड़दादा। फिर दादा। उसके बाद वह खुद। आगे उसके बेटे। पोते और पड़पोते।
मुख्य और सहायक देवताओं के इलावा कई दूसरे देवता भी हैं। हालांकि ये सभी उस देवता के अंग रक्षक या द्वारपाल है। उनकी न तो आलीशन कोठी हैं, न सोने-चाँदी के मोहरे हैं। न कोई रथ है। न छत्तर है। न ही कोई पालकी।
देवता के साथ तीन देवता प्रमुख हैं। इन्हें द्वारपाल कहते हैं। पहला गेट के पास रहता है। उसकी आदमकद काले पत्थर की मूर्ति है। किसी अच्छे कारीगर ने घड़ी है। नंगधड़ंग। कपड़े के नाम से महज लिंग ढका है। न कोई चौबारा है न सिर पर किसी तरह की छत। धारणा यह है कि वह न तो कपड़े पहनता है न मन्दिर में रहता है। उसे नंगापन पसन्द है। बाहर खुले आसमान के नीचे रहना अच्छा लगता है।
दूसरे द्वारपाल की मूर्ति तक नहीं है। पुजारी बताता है कि उसे अपनी मूर्ति पसन्द नहीं। एक नुकीला लम्बा सा पत्थर जमीन में स्थापित है। चारों तरफ एक चबूतरा सा बनाया गया है। वहाँ कई लोहे के कड़ोले रखे हैं। उसी तरह के पहले द्वारपाल के गले में भी है। बाहों में भी है। आसपास भी है।
तीसरे द्वारपाल की निशानी एक लोहे की गुरज है। मोटी लम्बी। उसे जमीन में गाड़ा गया है।
इन द्वारपालों को सोना नहीं चढ़ता। दूध नहीं चढ़ता। घी के दिए नहीं जलाए जाते। चाहे ब्राह्मण हो या दलित, जब कोई मन्नत करते हैं तो उनकी हैसियत देख कर। यानी द्वारपालों को अनछाणा आटा लाएँगे। लोहे के कड़े वे भी अनगढ़े हुए। दिया जलाना हो तो सरसों के तेल का। उसके लिए भी शुरु सरसों का तेल नहीं खरीदेंगे। जो सबसे घटिया होगा, सस्ता होगा उसे ले आएँगे। उन्हे घी से बनी कढ़ाई भी नहीं दी जाएगी। भोग के नाम से कच्चे आटे के रोट। न गरी न छुहारे। न केसर न सुपारी। न ही कोई कपड़ा। कपड़ा जितना आएगा वह बड़े देवता के रथ के लिए। उसी को ही सोना, चाँदी, दूध और घी। यानी जिसकी जैसी हैसियत वैसा चढ़ावा।
इतना ही नहीं उनके लिए गूर भी उसी तरह के। मुख्य देवता का गूर ब्राहमण। उसका दर्जा भी उतना ही बड़ा। उतनी ही इज्जत-परतीत। ऊँचा आसन। और जो द्वारपाल यानी दूसरे सहायक देवता उनके गूर दलित। वैसे ही स्थान। उतनी ही इज्जत-परतीत। उतना जैसा बोलबाला। गूर होने पर भी मंदिर का बरामदा तक छू लें तो दंडित।
बुजुर्ग बताते हैं कि गाँव का मुख्य देवता हम सभी का इष्ट है। कुल देवता है। पर हमें कभ मन्दिर की दहलीज तक भी जाना नसीब नहीं। मन करता है कि भीतर जाकर हम भी घी का दिया जलाएँ। धूप दें। बैठ कर उसकी पूजा करें, लेकिन हमारे लिए सब कुछ निषेद्ध। प्रतिबन्धित। बस दूर से हाथ जोड़ो और मन की मुराद पूरी। ज्यादा ही लोभ है तो बाहर बिठाए द्वारपालों के पास मथा टेको, रोट-आटा चढ़ाओ और मन्नतें माँग कर चलते बनो।
देवताओं में भी दलित देवता.....? स्वर्ण देवता.....? स्वर्ण तो फटाफट सीढ़ियाँ ऐसे चढ़ेंगे जैसे ये देवता इन्हीं के टब्बर-बिरादरी से हैं। पर इसमें शंका भी क्या....? जिस अधिकार से जाते हैं होगा ही। दलितों के लिए तो द्वारपाल यानी दलित देवते बाहर नंगधड़ग खड़े हैं। सर्दी में भी। गर्मी में भी। पाला भी उन्हीं के ऊपर। आँधी-तूफान भी इन्हीं पर। न कपड़ा-न लत्ता। बस घटिया से लोहे की तारों से बनाए कड़ोले। एक चढ़ा दो तो बेचारे प्रसन्न। पर आलीशान कोठी में बसा मुख्य देवता तो नहीं लेगा न लोहे का कड़ोला। किसी की हिम्मत जो उसे चढ़ा दे। नहीं तो उम्र भर खोट-दोष का भागी।
देवता की कथा याद आ रही है। पिता सुनाते हैं कई बार। गाँव में देवता कैसे आया। मन्दिर कैसे बना। किसने पहली बार उसे देखा। एक रात एक तुरी यानी ढोल बजाने वाला ब्याह-शादी बजा कर अपने घर लौट रहा था। गाँव से कुछ दूर पहुँचा तो झाड़ियों में किसी के कहराने की आवाज सुनाई दी। वह पहले खड़ा रहा। आवाज बन्द हो गई। चलने लगा तो आवाज फिर आने लगी। पहले उसने सोचा कि कोई छल हो रहा होगा। लेकिन आवाज आदमी के कहराने की थी। उसने हिम्मत की और झाड़ियों के बीच चला गया। जमीन से आवाज सुनाई दी। एक जगह कुछ पत्थर पड़े थे। उसने पत्थर किनारे किए। आवाज फिर भी बन्द न हुई। ढोल बजाने की एक छट्टी निकाल कर जमीन कुरेदने लगा। कुछ देर बाद उँगलियाँ किसी चीज से टकराई। वहाँ उसे चिपचपाहट महसूस हुई। दियासिलाई जला कर देखा तो वह खून था। घबरा गया। चमत्कार....? पहले रुका। फिर हिम्मत बाँध कर मिट्टी इधर-उधर करता गया। किसी कठोर चीज से हाथ टकराया। एक पत्थर की पिंडी थी जिससे खून बह रहा था। मफलर उसमें बाँध दिया। कहराना बन्द हो गया। खून भी अब नहीं निकल रहा था। कुछ देर बाद घर आ गया।
उस रात को उसे स्वप्न हुआ। एक आदमी सफेद घोड़े पर सवार आँगन में खड़ा है। माथे पर बड़ा सा तिलक। लम्बे बाल। बड़ी-बड़ी आँखें। घुटनों तक लटकती बाहें। सिर पर वही मफलर। निर्देश दे रहा है कि उसका मन्दिर उसी जगह बनाए। नहीं तो गाँव का सर्वनाश। वह देवता है। महाभारत काल का देवता। पाँडवों की तरफ से लड़ा था युद्ध में। गाँव में बसना-रहना चाहता है।
पहले भी कई घटनाएँ घट चुकी थी। जहाँ तुरी को पिंडी मिली थी वहाँ सुई हुई गाएँ चली जातीं और खड़ी हो जाया करती। उनके थनों से स्वत: ही दूध चूने-गिरने लगता। गाय खाली थन लिए घर लौटतीं। गावों वाले कई दिनों से परेशान कि आखिर माजरा क्या है?
जब दूसरे दिन तुरी ने गाँव में बताया तो सभी उस तरफ चले गए। लोगों ने देखा कि एक गोल पिंडी काफी बाहर निकल गई है और तुरी का मफलर भी उस पर बंधा है। उसके बाद गाँव के लोगों ने वहाँ मंदिर बनाया। गर्भगृह में वही पिंडी स्थापित की। उस देवता की छाया भी उसी तुरी में आई। कई बरसों तक वह गूर रहा पर उसके मरने के बाद पता नहीं कैसे मन्दिर पर स्वर्णों का कब्जा हो गया..?
आज जिन तुरियों के पुण्य से वह देवता गाँव में प्रकट हुआ था वे उसके मन्दिर तक को नहीं छू सकते। अछूत हो गए और ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व देवता पर भी स्थापित कर लिया। उस तुरी को कोई याद तक न करता। हाँ जब शहनाई, ढोल बजाने या नगाड़ा उठाने की बारी आती है तो पुजारी-पंच उस तुरी की दुहाई अवश्य देते हैं कि देवता को वे कितने प्यारे हैं। उनके बिना देवता एक कदम भी नहीं चल सकता। वे यदि देवता के कामकाज से पीठ फेरेंगे तो देवदोष के भागीदार।...सचमुच मेरी हँसी निकल गई। मैं जैसे सपनों में ही हँसता रहा। इस बात ने तूल पकड लिया था। बात आग की तरह हर जगह फैल गई। जहाँ देखो यही चर्चा थी। मुझे गाहे-बगाहे खबर मिल जाती। गाँव में तो ब्राह्मण और कनैत बिरादरी के लोग मुझे देख कर ही मुँह चिढ़ा लेते। सामने से आते तो किनारा कर लेते। कुछ-कुछ अपनी बिरादरी में भी ऐसा ही माहौल था, जैसे मुझे कोई अछूत रोग लग गया हो। मुझे दुख पिता जी का था कि उनके हृदय को बहुत चोट पहुँची है। उनके जख्मों को भरने का मेरे पास न कोई उपाय था न ही अब कुछ कहने की हिम्मत।
एक दिन फिर देवता की कहीं जातरा थी। एक कारदार गाँव-परगने में सभी को बुला गया था। वह पिछली शाम पिता के पास भी आया था।
पिता सुबह से ही शहनाई का अभ्यास करने लगे थे। उन्होंने शहनाई बड़े दिनों से उठाई थी। वरना सुबह-शाम वे बराबर अभ्यास करते रहते थे। बीमारी के कारण शायद पहले उन्होंने तय किया होगा कि बेटा ही अब इस काम को संभाल लेगा पर उनके मन की वह आस भी जाती रही थी। जब मेरे कानों में शहनाई के पत्तों की पीं...पीं..और चीं...चीं सुनाई पड़ी तो मेरा मन कुछ शान्त हुआ। सोचा कि देवता कमेटी ने शायद कोई कड़ी सजा नहीं सुनाई है। इसीलिए पिता देवता के साथ जाने की तैयारी करने लगे हैं। मुझे भेजने का तो अब सवाल ही न था। उन्होंने अभ्यास तो डट कर किया लेकिन देवता के साथ आज वे भी नहीं गए। कई बार एक लड़का उन्हें बुलाने आया पर हर बार उन्होंने अनसुना कर दिया।
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। पिता का कई दिनों बाद शहनाई का अभ्यास। बीच-बीच में उठना और मुझे देख जाना। चेहरे पर सहजपन। उन्होंने आँगन में आकर आज दो-तीन बार चिड़ियों को चावल भी डाले थे और उनके लिए पेड़ में टाँगे पानी के पौ में पानी भी भर दिया था। कई दिनों बाद आँगन में चिड़ियों की चहचाहट भर आई थी। इसका मतलब मेरी बात का...? इतना सोच कर मैं मन ही मन खुश हो गया। पर पिता के सामने जाने का साहस नहीं हुआ। न ही उन्होंने मुझ से कोई बात की। लेकिन मैं जैसे आज सातवें आसमान पर उड़ रहा था।
अन्धेरा हुआ तो अपना ट्रंक खोला। पिछले सप्ताह पिता ने मुझे टेरीकोट का साढ़े पाँच मीटर कपड़ा सादे सूट के लिए लाया था। मैंने चुपके से वह निकाला। काछ के बीच दबाया और बिल्ली के पाँव आँगन से निकल कर देवता के मन्दिर की तरफ भाग गया। हाँपता हुआ पहुँचा। शुक्र है कोई रास्ते में नहीं मिला। पहुँच कर इधर-उधर देखा। वहाँ कोई नहीं था। जूते बाहर खोले। गेट के भीतर गया। द्वारपाल देवता की मूर्ति के सामने आकर मथा टेका। सूट के कोरे कपड़े की तहें खोली और उसे मूर्ति के सिर से लेकर पाँव तक लपेट दिया।
बाहर इतमिनान से निकला। जूते पहने। पहले मन किया कि छोटे रास्ते से निकल जाऊँ पर मन हुआ कि ब्राह्मणों की बेड़ से ही चला जाए।