स्वांतः सुखाय / देवेंद्र
यह अस्सी चौराहे की सबसे प्रतिष्ठित और पुरानी चाय की दुकान है। बनारस वाले इसे साहित्य और कला का एकमात्र केंद्र मानते हैं। उन लोगों के विचार से ये प्रतिभाएँ यहीं अंकुरित होती हैं। रोपने के समय दिल्ली, भोपाल या पटना में चाहे जो बाजी मार ले जाय। बारह आने के एक गिलास चाय और चार आने में भाँग की एक गोली, तरह-तरह के लोग सुबह-से ही आने शुरू हो जाते हैं। यहाँ मौलिक खबरों का बाजार इतना गर्म रहता है कि दुकानदार ने आज तक अखबार खरीदने की जरूरत नहीं महसूस की। शरीफ लोग इस दुकान में कभी नहीं आते हैं। उनका कहना है कि एक तो इस दुकान में चाय देर से मिलती है और दूसरे शोर बहुत होता है। लेकिन जो बनारसी होते हैं वे शरीफ कम होते हैं।
अगर आप यह मानते हों कि आजकल के साहित्य को लेकर जनता में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है, अगर आपकी चिंता जनता के अराजनीतिकरण को भी लेकर बढ़ रही हो, तो मेरा आपसे निवेदन है कि आप एक बार यहाँ जरूर आएँ। आपको कोई तकलीफ नहीं होगी। बगल में दीक्षित जी की पत्रिका वाली दुकान है। वहाँ आप घंटों बैठकर मुफ्त में कोई अखबार, कोई पत्रिका पढ़ सकते हैं। आप एक बार जरूर आएँ। यहाँ लोग हर विषय पर समान अधिकार से बात करते हैं औरत पर भी और अध्यात्म पर भी।
आजकल शहर के बनियों ने सफलता और सार्थकता को आपस में इतना घुला मिला दिया है कि आम तौर पर लोग इनके बीच का फासला भूलकर इन्हें एक मान बैठे हैं। जबकि यहाँ बैठने वाले आज भी दोनों का अंतर समझते हैं। ये लोग सफलता का अर्थ जानते हैं। उसमें एक खूबसूरत बीवी होती है। दो या तीन बच्चे होते हैं। साफ-सुथरा ड्राइंग रूम होता है। आटा, चावल, चीनी, चाय और दूध का हिसाब होता है। मेहमानों की चिंता होती है। सफल लोगों की दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी होती है। और उस फन में सबसे कीमती मणि होती है। मणि के लिए सफल लोग नरक के रास्ते पर चलते जाते हैं। अकेले-अकेले। इसलिए यहाँ बैठने वालों को अपनी असफलता का कोई मलाल नहीं है। वहाँ कोने में बैठा हुआ आदमी जिसके कंधों पर झोला टँगा हुआ है, वह अपने आसपास के लोगों को एक कविता सुना रहा है।
दुकान में एक तरफ बैठा हुआ प्रभात सिगरेट पीते हुए ध्यान से कविता सुन रहा है। वह अपने मरे हुए बाप के बारे में सोच रहा है। वह उस औरत के बारे में भी सोच रहा है जिसने आज उसे सिनेमा दिखाने के लिए बुलाया है। इस समय ग्यारह बजे रहे हैं और 'शो' साढ़े बारह से पहले शुरू नहीं होगा। अगर वह यहाँ से पैदल भी चले तो 'विजया टाकीज' का रास्ता आधा घंटे से ज्यादा का नहीं है। इसलिए वह इत्मीनान से बैठकर सिगरेट पीते हुए सोच रहा है।
शेषनाग के फन पर टिकी दुनिया बहुत तेजी से घूम रही है और बदल रही है। प्रभात भी बदल रहा है। अगर वह पाँच साल पहले जैसा होता तो अब तक कभी का सिनेमा हाल पर पहुँचकर उस औरत की, जो तब सिर्फ सुमन थी, उसकी प्रतीक्षा करता। बेचैन होता। दूर दिखाई देने वाले टैंपो को आँखें गड़ाकर देखता रहता और बगल से गुजर जाने का इंतजार करता। फिर दूसरा, तीसरा, चौथा और पचासों टैंपों यूँ ही गुजर जाते। प्यार में प्रतीक्षा और प्रतीक्षा में समय बहुत मुश्किल होता है। वह झुँझलाता और सोचता कि आज गुस्सा जरूर करूँगा। लेकिन तभी पसीने से तर-ब-तर तेज धूप में जलती उस सड़क पर उसके एकदम करीब वसंत का एक छोटा-सा टुकड़ा हौले से आकर उसे पीछे से छू देता - “बच्चे मैं कब से खड़ी-खड़ी राह देख रही हूँ, और आप यहाँ किसका इंतजार कर रहे हैं।”
दुनिया की सबसे सुंदर लड़की के सामने वह गुस्सा होने की कोशिश करता लेकिन एक नैसर्गिक मुस्कान कोमलता से उसे थाम लेती - “बस-बस, क्या तुम्हें मुझ पर यकीन नहीं है। ये प्रमाण ले लो।” उसके खुले हुए हाथों पर सिनेमा के टिकट पहले से ही मौजूद होते। अब वह लाचार होकर अपने ही ऊपर खिसियाता कि सड़क पर खड़ा होकर भी सुमन को क्यों नहीं देख पाया था। वह बताती थी कि “दूर से ही मैंने तुम्हें सड़क पर देख लिया था। रिक्शे से उतरकर गली में मुड़ गई और पीछे के रास्ते सीधे टिकट खिड़की पर पहुँच गई।” फिर वह चुहल करती, “प्रतीक्षा में थके हुए प्रेमी को देखकर मन विश्वास से भर जाता है।”
लेकिन पाँच सालों में एक समूची दुनिया ही बदल गई। एक दिन शेषनाग के फन पर टिकी हुई धरती अचानक ही घूम गई थी। गर्मियों के दिन थे। 'लाइफ आफ गैलीलियो' का रिहर्सल चल रहा था। थियेटर के बगल वाले लान में बैठकर वह अपने डायलाग याद कर रहा था। तभी सुमन आई। उसकी उँगली में मँगनी पर मिली सोने की अँगूठी थी। वह बहुत खुश थी कि उसकी सास बहुत अच्छी है। उसका होने वाला पति इतनी कम उम्र में ही बैंक का मैनेजर है। उसने उँगलियाँ सीधी कीं और बताया कि ये अँगूठी उसकी सास ने दी है। प्रभात पूरी तरह डायलाग याद करने के नशे में था। उसने उसकी आँखों में आँखें डालकर चीखती हुई सी आवाज में याद किए हुए डायलाग का एक टुकड़ा किनारे से तोड़कर चस्पा दिया, “सुमन, जब तुमने कहा कि तुम्हारी मँगनी हो गई है तो मुझे तुम्हारा अस्तित्व चिता पर आग की लपटों से घिरा हुआ दिखाई देने लगा... जब तुमने सोने की अँगूठी दिखाई तो मुझे जलते हुए मांस की दुर्गंध महसूस होने लगी।”
शुभ मुहूर्त पर ऐसी अशुभ बातें सुनकर वह लड़की न सिर्फ रोने लगी बल्कि उसने यह भी बताया कि “तुम्हारे जैसा नीच आदमी इस दुनिया में मिलना मुश्किल है।”
भूरेलाल अपना डायलाग याद कर चुका था और थोड़ी दूर पर बैठा हुआ उन दोनों की बातें सुन रहा था। लड़की के हटते ही वह प्रभात के करीब चला आया। नाटक में उसे गैलीलियो की भूमिका करनी थी। आकाश की ओर देखते हुए अपना डायलाग बोलने लगा, “पोप और राजा और धर्म की किताबें इस सच्चाई को कब तक और कैसे छिपा सकती हैं कि पृथ्वी घूम रही है। लेकिन जेल की इस अँधेरी और भयानक कोठरी में अकेले पड़े-पड़े मुझमें सत्य को स्वीकारने का साहस नहीं रह गया है। आज की रात कितनी काली और भयावह है।”
प्रभात ने डायलाग के टुकड़े को पकड़ने की चेष्टा की, “कितना दुर्भाग्यशाली है वह देश जिसका कोई नायक नहीं होता।”
लेकिन उस लड़की का नायक था। नायिका ने ड्राइंग रूम सजाने के लिए सोफे खरीदे। टीवी और खिड़कियों के लिए पर्दे खरीदे। उसने चूड़ियाँ, साड़ियाँ और लिपिस्टिक खरीदे। तरह-तरह के क्रीम और पाउडर खरीदे। शिमला और मंसूरी की पहाड़ियों पर जाकर प्राकृतिक सौंदर्य का सृजनात्मक उपयोग किया। पाँच वर्षों में दो बच्चों की माँ बन गई।
फिल्मी गीतों की जितनी भी एक-दो लाइनें याद थीं, प्रभात ने सबको गाया। दाढ़ी भी बढ़ाई, लेकिन नौकरी के लिए जब पहली बार 'इंटरव्यू' देने गया तो उसे लगा कि दाढ़ी बढ़ाकर फकीर तो हुआ जा सकता है लेकिन नौकरी नहीं मिलेगी। फिलहाल उसे नौकरी की ही जरूरत थी। पिछले पाँच सालों से उसे लगातार नौकरी की जरूरत है।
कल शाम को प्रभात दशाश्वमेध से गोदौलिया की ओर आ रहा था। अचानक रास्ते में सुमन मिल गई। उसके हाथों में सामानों के पैकेट थे। वह बहुत खुश थी। उसने बताया कि “दुकान के शीशे में ही तुम्हें देखकर पहचान गई और दौड़ी हुई आ रही हूँ। और तुमने इस तरह दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है? अरे हाँ, तुम तो पहले से ही 'फिलासफर' थे।” प्रभात को लग रहा था कि इसके भीतर की सारी खुशियाँ गंदगी फैलाए हुए हैं। तभी वह बोल पड़ी, “चलो किसी दुकान में चलकर दोसे खाएँगे। कॉफी पिएँगे, इतने दिनों पर मिले हो, सबके हालचाल मालूम हो जाएँगे।”
प्रभात ने दिन भर से कुछ खाया नहीं था। उसने सोचा कि दोसे के साथ इस औरत को थोड़ी देर झेल लेने में कोई हर्ज नहीं है। इस बीच साथ-साथ चलते हुए वह लगातार बोले जा रही थी कि “यहाँ बनारस में तो लोगों को सड़क पर चलने का 'शऊर' ही नहीं है। चारों ओर भीड़ किए रहते हैं। किसी भी आदमी के साथ चलो तो लोग ऐसे घूरते हैं जैसे शरीर को छेद देंगे।” रेस्टोरेंट में घुसते हुए उसने बताया कि “ये देखो, कैसे कुर्सियाँ लगा रखी हैं। किसी भी चीज का कोई तरीका ही नहीं मालूम।” आदि-आदि।
दोसा खाते समय प्रभात ने तीन बार साँभर मँगाया। नौकर सोच रहा था कि यह आदमी साँभर से ही पेट भर रहा है। इसी बीच वह औरत लगातार बोले जा रही थी, “तुम तो क्रांतिकारी हो, नौकरी करोगे नहीं और क्या तुम लोग अब भी सड़क पर नाटक करते हो? वो शुक्ला जी, वो अरविंद, वो द्विवेदी, सब कैसे हैं?” प्रभात सोच रहा था कि इतने सारे सवालों का जवाब एक साथ कैसे दिया जा सकता है। और असल तो इसे किसी के बारे में कोई दिलचस्पी भी नहीं है। कॉफी पीते हुए वह उसकी काँखों के नीचे ब्लाउज में चिपके हुए पसीने को देख रहा था, जो उसे काफी उत्तेजक लग रहा था। वह सोच रहा था कि पुरानी प्रेमिकाएँ सबसे दिलचस्प झूठ होती हैं। बातचीत के क्रम में उसने भी एक कुरूप झूठ बोला, “अगले महीने दिल्ली के एक अखबार में ज्वाइन करने की सोच रहा हूँ। यूनीवर्सिटी की मुदर्रिसी में तो कोई दिलचस्पी है नहीं। अखबारों के संदर्भ में अच्छा ये रहता है कि मुख्यधारा से जुड़े रहकर आप अपने विचारों को फैला भी सकते हैं। दो हजार का ऑफर है।”
औरत ने कहा, “है तो ठीक। लेकिन दिल्ली जैसे शहर में तुम दो हजार में कैसे रहोगे। अब देखो, छह सौ रुपया लेकर मैं चली थी। मुश्किल से तीस-बत्तीस रुपए बचे हैं।”
प्रभात ने सोचा कि अब यह इतनी बेशरम हो चुकी है कि इसे इतने झूठ से भी तसल्ली नहीं हुई। और यूँ ही मुस्कराकर रह गया।
चलने से पहले उस औरत ने बताया कि “उसका बड़ा वाला लड़का बहुत शैतान है। मुझे घर से निकले काफी देर हो गई है। अभी तो बहुत सारी बातें करनी हैं। कोई कायदे की फिल्म लगी हो तो बताओ। कल इत्मीनान से सिनेमा देखेंगे।”
प्रभात को बहुत दिनों से एक फिल्म देखने की इच्छा थी। उसने झट से बता दिया कि 'विजया' में 'उत्सव' लगी है।”
वह दुकान में बैठा हुआ यही सब सोच रहा था। इसी बीच उसके गाँव का एक आदमी आया। उसी ने बताया कि आज चार बजे के करीब उसके पिता की मृत्यु हो गई है। लाश रखी हुई है। लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। जल्दी चले जाओ। प्रभात एक क्षण के लिए तो चौंका, लेकिन जल्दी ही सामान्य हो गया। उसे लगा कि अभी पिताजी की उम्र पचास-पचपन ही रही होगी। उन्हें कोई बीमारी भी नहीं थी, फिर अचानक मृत्यु कैसे हो गई। वह सिगरेट पी रहा था और सोच रहा था। धीरे-धीरे उसे यह घटना सामान्य सी लगने लगी।
वह सोच रहा था कि अगर उसे पिता के मरने की सूचना न मिली होती तो वह इत्मीनान से उस औरत के साथ सिनेमा देख लेता। लेकिन अब तो जाना ही पड़ेगा। धीरे-धीरे उसके सोचने का पहलू बदलने लगा। अगर वह न भी जाए तो लोग थोड़ी देर इंतजार करने के बाद पिताजी की लाश को जला ही देंगे। वह साढ़े तीन बजे तक सिनेमा से खाली होकर रात साढ़े दस ग्यारह बजे तक घर पहुँच ही जाएगा। उसके पिता अकसर कहा करते थे “अगर मैं बीमार पड़ूँ तो कोई प्रभात को दवा के लिए मत भेजना। दूसरे लोग कफन लेकर चले आएँगे और तब तक दवा का पैकेट लिए वह बाजार में घूमता रहेगा।” उसे ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा था कि स्वतः ही सिनेमा का प्रोग्राम छोड़ दे। वह चाह रहा था कि पिता की मृत्यु पर वह भी दुखी और उदास हो। उसकी आँखों से दो-चार बूँद आँसू गिरें। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो पा रहा था।
इस तरह वह कभी पिताजी के बारे में और कभी सुमन के बारे में सोच रहा था। पिछले पाँच सालों में वह थोड़ी सी मोटी हो गई है। लेकिन उसकी आँखों में अब भी वही चमक है। जब औरत पहली बार अपने गर्भस्थ शिशु का हिलना अनुभव करती है तो आत्म गौरव से भरकर उसकी आँखें चमकने लगती हैं। उसकी देह का एक-एक पोर सौंदर्य की समूची आंतरिक संभावनाओं को समेट कर किसी अदृश्य इच्छा से खिल जाता है। पूरे व्यक्तित्व की गरिमा को समेटकर अपने अस्तित्व की अद्वितीयता से सारी सृष्टि को चुनौती देती हुई औरत की आँखें चमक उठती हैं। सुमन की आँखों में स्थायी तौर पर बस गई वही चमक उसे शुरू से ही आकर्षित करती रही है। क्या वह उसे पहले की तरह छूने देगी? वह तरह-बे-तरह की बातें सोच रहा था और इस तरह उसने उस दुकान पर बारह बजा दिए, जहाँ सुबह आठ बजे बैठा था। जब वह सिनेमा हाल पर पहुँचा तो सुमन उसी का इंतजार कर रही थी। कत्थई बार्डर पर गुलाबी रंग की साड़ी पहने उसका समूचा व्यक्तित्व प्रौढ़ और तेजस्वी लग रहा था। बहुत पहले एक बार 'कैफेटीरिया' में बैठे हुए उसने सुमन से कहा था कि “तुम्हारे ऊपर हल्का आसमानी या गुलाबी रंग बहुत अच्छा लगता है।” उन दिनों वह सिर्फ सलवार और कुर्ता पहना करती थी। वह सोच रहा था कि क्या इसे आज तक वे बातें याद हैं, या यह केवल इत्तिफाक है? औरतें एकदम गैर मर्दों और अपरिचितों तक के सामने अपने कपड़ों को लेकर बहुत ज्यादा सजग रहती हैं। आत्म-प्रशंसा की भूख औरतों में कवियों की तरह होती है। जगह-जगह विभाजित व्यक्तित्व को एक साथ सहेजकर जीना औरत की कला है। एक को पाकर दूसरे को भूल जाना या किसी याद को लंबे समय तक जीते हुए भी शब्द न देना, यह सब औरत ही कर सकती है। वह सोच रहा था कि अब इस औरत से कौन-सी बात किस तरह शुरू की जाय। वह अपने या अपने दोस्तों के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता था। क्योंकि सारे दोस्त विश्वविद्यालयों या डिग्री कालेजों में लेक्चरर हैं। मोटी रकम वसूल रहे हैं। परीक्षा की कापियाँ जाँचते हैं। जीवन-बीमा कराते हैं। और वह आज की सुबह की दिनचर्या ब-मुश्किल पाँच रुपए या कभी-कभी खाली हाथ शुरू करता है।
सिनेमा हाल में वह उसके बाईं तरफ ही बैठी, प्यार के दिनों में कभी लड़-झगड़कर उसने हमेशा के लिए उसकी बाईं सीट अपने लिए रिजर्व माँगी थी। इस समय उसकी देह-गंध से छनकर पाउडर की हल्की-हल्की महक आ रही थी। वह स्लीवलेज ब्लाउज पहने हुए थी। उसे याद आया इन्हीं उन्मुक्त बाँहों पर दो छोटे-छोटे तिल हैं, जिनसे वह अकसर छेड़छाड़ किया करता था। अँधेरा होने के थोड़ी देर बाद प्रभात ने बहुत अनजान भाव से, लेकिन सचेत होकर अपनी उँगलियों से उसकी बाँह को छू लिया, गुलामों की तरह औरतों की आँखों में भी पैनापन और थाह लेने की अद्भुत शक्ति होती है, पुरुष को पढ़ने में औरत धोखा नहीं खाती। सुमन ने तत्काल अपनी बाँह को हटा लिया। और अपनी कुर्सी पर बाईं तरफ सिमट गई। अब प्रभात अपने पतन और गिरते जाने की हद को सोचकर परेशान होने लगा। क्षमा कर देना औरत का सबसे कोमल दुर्गुण है। प्रभात की मनःस्थिति को भाँपकर उसने भुलाने की गरज से कुछ बातें करनी शुरू कर दीं जिसके जवाब में प्रभात बस यूँ ही हाँ-हूँ करता रहा। फिल्म के अलावा भी वहाँ का सारा माहौल प्रभात के भीतर ऊब पैदा कर रहा था।
'इंटरवल' में जब वे बाहर निकलकर लिम्का पी रहे थे तो उसने सोचा कि हो सकता है कि पिता की लाश उसी के इंतजार में रखी हुई हो। उसने बहुत ठंडे तरीके से, जैसे कि कोई बर्फ चिटक रहा हो, उस औरत को बताया कि “आज सुबह उसके पिता की मृत्यु हो गई है।”
वह अचानक चिहुँक गई, “क्या कह रहे हो तुम? क्या यह सच है? और तुम सिनेमा देख रहे हो?”
उसने कोई उत्तर नहीं दिया और बचे हुए लिम्का का आखिरी घूँट पीने लगा। वह उसे अचरज से देखने लगी, “मैं तो ऐसे किसी आदमी की कल्पना भी नहीं कर सकती।” फिर उसने सिनेमा के टिकट फाड़कर फेंक दिए और उसे जल्दी घर पहुँचने की हिदायत दी। वह और भी बहुत कुछ बातें कर रही थी। जिनका उसके लिए कोई अर्थ नहीं था। वह सिगरेट सुलगाने के लिए एक आदमी से माचिस माँगने चला गया।
जब वह रिक्शा पकड़कर अपनी एक सहेली के घर जाने लगी तो उसने वहाँ खड़े-खड़े उसे एक भद्दी-सी गाली दी और पैदल ही बस अड्डे की ओर चल पड़ा।
श्मशान घाट तक पहुँचने में साँझ हो गई थी। वहाँ उसे कोई भी परिचित आदमी नहीं दिखाई दिया। एक लाश जल रही थी। उसके पास दो आदमी हाथों में बाँस लिए बहुत तटस्थ भाव से लाश को जलने में मदद दे रहे थे। पास में ही एक लड़का, जिसकी उम्र मुश्किल से दस साल होगी, बैठकर उस जलती लाश की ओर देख रहा था, लड़के ने सिर पर बाल मुँड़ा लिए थे और पूरे शरीर पर मारकीन का एक सफेद झिलगा कपड़ा लपेटे हुए था। लाश और लकड़ी के धुएँ से लड़के की आँखें लाल पड़ गई थीं। उसे लड़के को देखकर बहुत दया आई। पास ही पीपल के नीचे बैठे हुए डोम से उसने पूछा कि पिपनार गाँव से कोई लाश आई थी? डोम ने बताया कि दोपहर को ही वे लोग ट्रैक्टर पर एक लाश लेकर आए थे, और आधा घंटा हुआ जा चुके हैं।
वह उल्टे पाँव बस अड्डे की ओर लौट गया। परसों उसे 'इंटरव्यू' के लिए इलाहाबाद जाना है। वह सोच रहा था कि शहर लौट चले या घर जाय। पिता की अनुपस्थिति में उसे घर का कोई रूप ही नहीं समझ में आ रहा था। पिछले पाँच सालों में वैसे भी वह बहुत कम घर जाता रहा है। गाँव पर उसका लड़का धीरे-धीरे बड़ा हो रहा है और पत्नी बूढ़ी। इन सबके बीच उसका वजूद पिचके हुए टीन की तरह होता जा रहा था।
पिता के न होने पर माँ की क्या दशा होगी? रोती कलपती माँ अब एक विधवा हो चुकी होगी। इस खयाल के साथ ही वह नर्वस होने लगा। दुविधा के इस क्रम में ही अचानक गाँव जाने वाली बस आ गई और वह बैठ गया। यह सोचकर कि पिता की मृत्यु के गम में कोई उससे उसकी नौकरी के बारे में नहीं पूछेगा, उसे थोड़ी राहत महसूस हुई। पिता की मृत्यु के साथ ही एक अनर्गल सवाल भी मर गया। कस्बे से गाँव की ओर जाते हुए इस बार वह एक खास किस्म के तनाव से मुक्त था।
रात घिर चुकी थी। दूर से उसे अपना गाँव शोक के काले समुद्र में घिरा और डरा हुआ द्वीप लग रहा था। गाँव के बाहर 'कोट' के टीले पर नरकट की झाड़ियों के बीच एक भैंसा हूँफ रहा था। उसे बचपन का एक दृश्य याद आया - पिताजी उसे लेकर इन्हीं झाड़ियों के पास आए थे। उन्होंने हँसिए से काटकर उसे ढेर सारे नरकट दिए थे। उन दिनों वह पटरी पर नरकट की ही कलम से लिखता था। पिता ने उससे कहा कि इन झाड़ियों में चुड़ैल और भूत हैं जो रात को निकलकर चारों ओर घूमते रहते हैं। चारों ओर एक भयावह और घुप्प अँधेरे से घिरे हुए घर के दरवाजे पर एक बीमार सी लालटेन जल रही थी। वहीं पड़ोस के सात-आठ लोग चुपचाप बैठे थे। उनके आने की आहट पाते ही माँ और उसकी पत्नी जोर-जोर से चीखने लगीं। उस अँधेरे सन्नाटे में गूँजती हुई चीख दूर सिवान में जाकर विलीन होने लगी, जहाँ सियारिनें रो रही थीं। थोड़ी देर तक तो किंकर्तव्यविमूढ़ सा पड़ा हुआ वह वहाँ के माहौल में खुद को अजीब सा महसूस करता रहा, लेकिन धीरे-धीरे सामान्य हो गया। दरवाजे पर लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। पत्नी बीच-बीच में उठकर घर के भीतर और बाहर का काम करती जा रही थी, और फिर जब फुर्सत मिलती तो माँ के पास बैठकर रोने लगती।
दिन भर की भूख, प्यास, ऊब और थकान की पीड़ा से भरा हुआ वह धीरे-धीरे अपने आस-पास की उदासी का हिस्सा बन गया। लोगों से दूर अँधेरे में अकेले चारपाई पर बैठा हुआ वह उस औरत के बारे में सोचने लगा। सिनेमाहाल के भीतर जिस तरह खिसककर वह उससे दूर बैठ गई थी, वह अपमान अब भी उसके भीतर धीरे-धीरे घुल रहा था। वह सोच रहा था कि कल शाम को जब उस औरत ने सिनेमा देखने के लिए कहा था, तभी मुझे इनकार कर देना चाहिए था। पिता की मृत्यु की बात सुनकर वह कैसी नसीहतें दे रही थी। क्यों वह मेरी आंतरिक दुनिया में दखल दे रही थी। औरत किसी पुरुष की आंतरिक दुनिया में निर्वस्त्र होकर ही प्रवेश करने का अधिकार पा सकती है, वरना, सब अपना नफा-नुकसान जानते हैं। आप अपनी सुरक्षित दुनिया में तिजोरी के ऊपर बैठकर परिवार की, गृहस्थी की, आदर्शों की माला फेरते रहिए। हमें आपकी नसीहतें नहीं चाहिए। हमारी बीवी, हमारे बच्चे, हमारी गृहस्थी आपके लिए एक मनोरंजक दया की चीज हैं। यह सही है कि मेरी जिंदगी बाँझ है, लेकिन हे सुखी-संतुष्ट लोगों, आपके आदर्श उससे ज्यादा बाँझ हैं। क्योंकि देश, दुनिया के संबंध में आपके सारे विचार वहीं अकेले, असहाय और गतिहीन हो जाते हैं जहाँ आपकी बीवी को 'मासिक धर्म' होने में तीन दिन की देरी हो जाती है। जहाँ आपके बच्चे को जुकाम हो जाता है। उसके भीतर एक भयंकर उथल-पुथल मची हुई थी। मानों एक ऊँची और विशाल सूली के सामने खड़ा होकर तमाशबीनों की भारी भीड़ को ललकारते हुए वहीं से एक खौफनाक हँसी हँस रहा हो कि हमारे बाद भी यह सूली रहेगी और फिर आपमें से कोई भी एक आदमी यहाँ तक लाया जाएगा। और यह क्रम चलता रहेगा। सुमन से शुरू होकर वह सारे समाज, दोस्तों, पत्नी और फिर सारी औरत जाति के खिलाफ सोचने लगा। वह सोच रहा था कि ये औरतें अपनी इच्छाओं के अनुसार संबंध बनाती हैं, और सुविधाओं का गणित लगाकर कन्नी काट लेती हैं। ईश्वर की बनाई हुई इस दुनिया में सबसे स्वार्थी औरत ही होती है। वह सुमन और फिर अपनी पत्नी के प्रति घृणा से ऐंठने लगा। तब अचानक उसकी विचार श्रृंखला टूटी और सोचने लगा कि अगर वह यहाँ न भी आता तो ठीक ही रहता। कब सो गया, पता नहीं चला। रात के अँधेरे में जब सब लोग जा चुके थे तो पत्नी उसे जगाने के लिए आई। दालान के अँधेरे कोने में अपने घुटनों पर सिर रखे माँ हिचकी लेते हुए सिसक रही थी। सारा गाँव सो चुका था। वह अपनी पत्नी के साथ घृणास्पद एकांत में चला गया।
सवेरे काफी दिन चढ़ आने के बाद उसकी नींद टूटी। शरीर का एक-एक पोर अब भी दुख रहा था। उसने चाय पी और यह सोचकर कि पिता की मृत्यु की सूचना पाकर रिश्तेदार आज आने शुरू हो जाएँगे। और बे-वजह उसकी नौकरी को लेकर पूछताछ करेंगे। उसने गाँव में न रुकने का फैसला किया। जब पत्नी ने और गाँव के भी एकाध लोगों ने पिता की मृत्यु के बाद उसे रुकने की अनिवार्यता बताई तो उसने कह दिया कि “कल इलाहाबाद इंटरव्यू देने जाना है।”
शाम को शहर पहुँचने के बाद वह अपने एक अध्यापक मित्र के घर गया। पिता की मृत्यु की खबर उन्हें पहले ही लग चुकी थी। संवेदना व्यक्त करते हुए वे दुखी और उदास थे। प्रभात भी दुखी और उदास बना रहा। फिर उसने उन्हें 'इंटरव्यू' की बात बताई और पचास रुपए उधार माँगे। अन्य कई बार उधार देने के बाद उस अध्यापक मित्र ने फैसला कर लिया था कि अब उसे कभी पैसा नहीं देंगे। लेकिन आज उसके पिता की मृत्यु की वजह से फिर इनकार नहीं कर सके। उन्होंने मन ही मन सोचा कि इसे संवेदना देना भी काफी महँगा है। भारी मन से पचास रुपए देते हुए उन्होंने कहा कि “देखिए इस बार आप 'इंटरव्यू' देने जरूर चले जाइएगा।”
वहाँ से उठने के बाद वह सीधे होटल गया। फिर उसने एक छोटा सा गणित लगाया। अगर वह पैसेंजर ट्रेन से इलाहाबाद तक जाए तो लौटने तक में कुल अट्ठाइस रुपए लगेंगे। उसके पास पहले से बचे हुए ग्यारह रुपए थे। इस तरह उसके पास तीस से कुछ ज्यादा रुपए ही अतिरिक्त बच रहे थे। उसने दाल फ्राई, हॉफ प्लेट सब्जी और सलाद के साथ चार तंदूरी रोटियों का आर्डर दिया। बाद में उसने एक प्लेट चावल भी लिया। सड़क पर आने के बाद उसने महसूस किया कि महीनों बाद आज उसे मनमाफिक भोजन मिला है। पान की दुकान से उसने पनामा की एक पूरी डिब्बी ली। उसके पास अभी भी सत्रह रुपए थे।
जह वह हॉस्टल की ओर जा रहा था तभी एक लड़का मिल गया। उस लड़के के पास व्हिस्की का एक क्वार्टर था। उसे बताया कि “अगर मेरे कमरे में चलो तो साथ अच्छा रहेगा। वैसे भी आजकल चीफ प्रोफेसर रोज किसी न किसी हॉस्टल की तलाशी ले रहा है। जो लड़के अनधिकृत हैं उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया जा रहा है।”
वह पिछले पाँच सालों से बिना कोई कमरा 'अलाट' कराये छात्रावास में ही रहता है। उसे आशंका हुई कि कहीं पुलिस ने धर लिया तो कल का 'इंटरव्यू' भी 'डिस्टर्ब' होगा। साथ वाले लड़के ने कहा कि “अगर चाहो तो मेरे साथ मेस वाले कमरे में रह सकते हो। उधर तो पुलिस या प्राक्टर आफिस वाले आएँगे नहीं।”
'इंटरव्यू' के लिए तैयारी की गरज से उसने अपने कमरे से थीसिस ली और उस लड़के के साथ मेस की ओर चला गया। वहाँ चारों तरफ बीड़ी और सिगरेट के जले-अधजले टुकड़े पड़े थे। सोने के लिए कोई तख्त वगैरह था नहीं। उन्होंने कमरे का एक कोना अपने बिस्तर से झाड़कर वहीं दरी बिछा दी। एक नजर में उसे यह स्थान काफी शांत और निरापद लगा। सोने की व्यवस्था उपयुक्त थी, सिर्फ तकिया एक था। उसने सोचा कि सोते समय थीसिस से तकिए का काम लिया जा सकता है। पूरी तरह निश्चिंत हो लेने के बाद उसने मेस के नौकर से दो गिलास मँगवाए।
पहला घूँट लेने के साथ ही उन्होंने महसूस किया कि नमकीन के अभाव में कुछ मजा नहीं आ रहा है। सो, उन्होंने नमक-मिर्च मिलाना शुरू कर दिया। प्रभात ने बताया कि “कैसे कल उसकी प्रेमिका सिनेमा देखते समय उसके हाथ को पकड़कर अपने सीने तक ले गई थी। उसने यह भी बताया कि शादी के बाद आज भी वह सोने के पहले हर रात मेरे बारे में जरूर सोचती है। और जब भी इस शहर में आती है किसी न किसी तरह एकांत में जरूर मिलती है।” साथ वाले लड़के की आँखों में लार टपक रही थी। थोड़ा संयम बरतते हुए उसने इत्मीनान से सिगरेट की राख झाड़ी और अपने बाप को भद्दी सी गाली दी, “हाईस्कूल में था, तभी मादरचोद बाप साले ने शादी कर दी। मैं तो पत्नी के अलावा आज तक किसी लड़की को छू भी नहीं सका हूँ। लड़कियाँ कैसे नहाती हैं, कैसे खाती हैं, कैसे सोती हैं? मैं आज तक कुछ भी नहीं जान सका। रही पत्नी, तो उन्हें छूना न छूना सब बराबर। मुँह में पायरिया घड़े जैसी गोलाई। साथ सोओ तो लगता है चीर घर की लाश अपनी भूख मिटाने के लिए हिंसक हो उठी हो। सारी देह बजबजाने लगती। मेरी तो आत्मा घिना जाती है। तीन साल हो गए, घर नहीं गया हूँ। गुरू! यू आर वेरी लकी। और क्या-क्या हुआ माशूका के साथ?”
प्रभात ने बताया, “यार पिताजी की मृत्यु की वजह से मेरा मन उचट गया था। वह तो कह रही थी कि शाम को भाभी-भैया एक पार्टी में जा रहे हैं। माँ अपने कमरे में चुपचाप पड़ी रहती हैं। तुम शाम को आठ बजे आना, इंतजार करूँगी। लेकिन यार औरतों के मामले में ज्यादा 'सेंटीमेंटल' नहीं होना चाहिए। 'माया महाठगिनी हम जानी' तुलसी बाबा ने कहा है 'अवगुन आठ सदा उर रहहीं।' कभी तो कहेंगी कि 'दुनिया में तुम्हारे जैसा कोई नहीं है।' और फिर कहेंगी 'तुमसे प्रेम की बात तो कभी मेरे मन में आई ही नहीं। तुम मेरे आदर्श हो।' अब दुनिया में सबसे सुंदर तुम। निरीह आदर्श पुरुष बने रहो। अपनी मूर्खताओं को बेपर्द करके उपदेश सुनो, और पैसे का एक थैला 'हस्बैंड' बनेगा।”
मेरे आखिरी घूँट के साथ उसने निर्णय दिया कि “इन वाहियात बातों में कुछ नहीं रखा है। बेकार सोचकर दिमाग खराब करने से क्या फायदा? कल 'इंटरव्यू' देने जाना है। देखो, कौन साले 'एक्सपर्ट' होते हैं। हिंदी में इतने टेढ़-बाकुच भर गए हैं कि पूछो मत। वह देखो, वर्मा जी हमारे यहाँ प्रोफेसर हैं। अगर ये पान की दुकान पर होते तो अक्ल और शक्ल से ज्यादा सही लगते। इसके पहले एक 'धीचोद' हेड थे। सारा हिंदी जगत उनके कदमों तले शरणागत था। मुक्तिबोध को मरे हुए पच्चीस साल हो गए। और उसने उनके नाम से 'चेक' भेज दिया। साथ में सूचना भी कि 'तुम्हारी कविता एम.ए. के कोर्स में लगवा दिया हूँ। तुम अपने विश्वविद्यालय से जाँचने के लिए थीसिस कब भिजवा रहे हो?' इन्हीं सबके लिए निराला जी ने लिखा है, 'लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं' खैर, इन सब बातों से क्या होने वाला है।”
उसने अपनी थीसिस पलटनी शुरू की। जैसे कोई बूढ़ी औरत अपने ब्याह का बक्सा खोल रही हो। एक जगह उसने लिखा कि - “अकविता के लिए औरत का अर्थ सिर्फ योनि था। नई कविता की प्रतिक्रिया में अकवि सिर्फ औरत की जाँघ की गोलाई नाप रहे थे। नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में जनवादी कविता का जो तीसरा दौर शुरू हुआ उसने अमरीकी साम्राज्यवाद के दलाल पूँजीवाद और उसके सांस्कृतिक उत्तराधिकारी 'लुकमान अली' का वध किया और दूसरी तरफ सामाजिक साम्राज्यवाद के संशोधनवादी चेहरे की प्रगतिशीलता को भी बेनकाब कर दिया। यौन कुंठाओं की अकवितावादी अराजकता को नक्सलबाड़ी आंदोलन ने साहित्य से भी और समाज से भी बहिष्कृत कर दिया।” अपने ही लिखे हुए इस वाक्य को पढ़कर उसे बहुत तेज हँसी छूटी और वह जोर-जोर से हँसने लगा। साथ वाला लड़का जो 'डेवोनार' का कोई पन्ना पलटे हुए था, ने उसकी ओर अचरज से देखकर मुस्कराते हुए पूछा, “क्या बात है गुरू?”
उसने कहा, “कुछ नहीं यार। एक पुरानी बेवकूफी याद आ गई। उठो, चलो एक जगह चलते हैं। व्हिस्की में कुछ मजा नहीं आया।”
सड़क पर आकर उसने एक रिक्शा पकड़ा और भेलूपुरा जाकर ठर्रे की एक बड़ी वाली बोतल खरीदी। एक दुकान से नमकीन का पैकेट और एक पाव कच्ची प्याज ली। रिक्शेवाले को आठ रुपए देने के बाद उसके पास कुल केवल पाँच रुपए बचे। जाहिर है इतने पैसे से इलाहाबाद तक नहीं पहुँचा जा सकता। सुबह-सुबह कौन उधार देगा? उसके पास उधार देने वाले आठ-दस लोगों की एक फेहरिस्त थी। उनका चेहरा याद करने पर उसे उनके भीतर बैठा हुआ एक कोढ़ी उपदेशक नजर आ रहा था। वह सब याद करके अब वह बोतल का मजा किरकिरा नहीं करना चाहता था। उसने कल के बारे में सोचना बंद कर दिया और तन्मय भाव से बोतल को देखते हुए बाबा तुलसीदास को याद करने लगा। - 'स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।'