स्वाद / रमेश बतरा
हीरा और मोती दो भाई हैं। जब वे देस में थे तो थोड़ी-बहुत खेती-बाड़ी करते थे, मगर आज़ादी के बाद वे हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद लगातार ग़रीब होते गए। इसलिए अब एक ज़माने से परदेस में रहकर रिक्शा खींचते हैं। वे सुबह छह बजे संग-संग निकलते हैं और दिनभर चाहे कहीं भी क्यों न रहें, रात को दस बजे घण्टाघर वाले ढाबे पर आ मिलते हैं।
हमेशा की तरह वे उस दिन भी मिले तो मोती अपनी रिक्शा पर ही बैठा हीरा की प्रतीक्षा कर रहा था। हीरा आया तो रिक्शा से उतरते ही बोला — चल मोती, आज देसी घी वाले होटल में खाना खाएँगे ... बढ़िया दिहाड़ी हो गई अपनी।"
— तुम खा लो, भैया ! -- मोती बोला, — मैं आज नहीं खाऊँगा।
— क्यों नहीं खाएगा ? — हीरा परेशान हो उठा, —तबीयत तो ठीक है ?
— बिल्कुल ठीक है ।
— झूठ बोलता है, — हीरा ने उसका माथा छूने के बाद उसकी नब्ज़ टटोलकर कहा, — कुछ खा-पी लिया है ?
— न, वही, बस, सुबह खाया था ।
— दोपहर को कुछ नहीं खाया ?
— मन ही नहीं हुआ कुछ खाने को ।
— चाय तो नहीं पी ली ज़्यादा ?
— ना, एक कप भी ना पिया ।
हीरा हैरान कि मोती तो साला ग्राहक छोड़कर भी ठीक दस बजे ढाबे पर आ बैठता है। फिर आठ-दस रोटियाँ झटककर ही दम पड़ता है पट्ठे में । और आज इसने दोपहर से कुछ नहीं खाया, फिर भी ...। असमंजस में पड़ा वह बड़े भाई की हैसियत से बोला — देख, मोती, गफ़लत ना कर । जरूर तेरी तबियत खराब है । तू चल डाक्टर के पास।
— मुझे कुछ नहीं हुआ, भैया ! हट्टा-कट्टा हूँ ... कहो तो अभी ले चलूँ रिक्शा दस कोस तक एक ही सांस में ।
— फिर खाना क्यों नहीं खा रहा ? चल, सीधे से खा ले, नहीं तो, मैं भी नहीं खाऊँगा।
— जिद मत करो, भैया, तुम खा लो । — मोती भावावेश में कह गया, — मैं तो यों नहीं खा रहा कि स्वाद बिगड़ जाएगा।
— अच्छा तो माल खाकर आया है अकेले-अकेले और स्वाद ले रहा है अब तक ? — हीरा ने शिकायत भरे लहज़े में पूछा — क्या खाया तूने, बता तो ?
— बात यह है, भैया, — लाचार मोती मानो किसी मीठी याद में डूबता हुआ बोला — सुबह एक व्यापारी अपना टिफ़िन रिक्शा में भूल गया। पहले तो मैं घण्टा भर वहाँ खड़ा रहा कि शायद वह वापस आ जाए, पर कोई नहीं आया तो मैंने टिफ़िन खोलकर देखा ... घर का खाना था। मुझसे रहा नहीं गया । सारा चट कर गया । क्या स्वाद था, भैया ... तब से कुछ खाने को जी ही नहीं चाह रहा है ...।
हीरा पल भर तो मोती की ख़ुशी में आत्मविभोर-सा हो गया, लेकिन फिर सहसा बड़े रूआँसे स्वर में उसे डाँटते हुए बोला — पर तूने आधा मेरे वास्ते क्यों नहीं रखा, बेवकूफ़ !