स्वाधीनता का अमृत महोत्सव / प्रवीण गुगनानी
लोकमान्य व वीर सावरकर ने गणेशोत्सव को बना दिया था राष्ट्रीय पर्व
भारत में सार्वजनिक गणेशोत्सव सातवाहन, राष्ट्रकूट और चालुक्य वंशो से लेकर शिवाजी के शासन तक निर्बाध चलता रहा है। पेशवाओं के समय पर तो गणेशोत्सव को राष्ट्रदेवता की मान्यता के साथ मनाया जाता था। ब्रिटिशकाल में गणेश स्थापना व विसर्जन की परंपरा पर रोक लगने लगी और यह क्रम कहीं मंद पड़ा तो कहीं बंद हो गया। लोकमान्य तिलक ने वर्ष 1893 में दशकों बाद पहली बार सार्वजनिक गणेशोत्सव मनाया। गणेश स्थापना और विसर्जन के मध्य के ये दस दिन स्वतंत्रता सेनानियों के मिलन, चिंतन, बैठक स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु योजना गढ़ने व उन्हें क्रियान्वित करने के दिन बन गए। लोकमान्य तिलक व वीर सावरकर ने प्रथमपूज्य गणेश को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बना दिया। श्रीगणेश स्वाधीनता के देवता बन गए। यह अवसर धार्मिक पूजापाठ के साथ-साथ अंग्रेजों के विरोध, सामाजिक समरसता के निर्माण, अस्पृश्यता व अन्य सामाजिक बुराइयों के विरोध का भव्य अवसर बन गया। विभिन्न समाजों व सामाजिक संगठनों के एकमंच पर आकर विमर्श करने, संगठित होने, संवाद करने व मतभेद दूर करने हेतु गणेशोत्सव का भरपूर उपयोग हुआ। प्रमुखतः महाराष्ट्र, समूचे हिन्दी प्रदेशों और कहीं-कहीं दक्षिणी राज्यों में भी गणेशोत्सव के मंच पर राष्ट्रीयता और स्वशासन के स्वर मुखर होना प्रारंभ हो गए थे। दक्षिणी राज्यों में गणेश जी का 'कला शिरोमणि' नाम इस कालखंड में नए सिरे से स्थापित हुआ। वीर सावरकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्टर चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू जैसे अनेक नेताओं ने प्रतिवर्ष गणेशोत्सव में भाषण दिए। गणेश पंडाल जनप्रबोधन के जागृत केंद्र बन गए।
सर्वप्रथम श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी ने पुणे में 1892 में सार्वजनिक गणेशोत्सव प्रारंभ कर स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देने का प्रयास किया। इस मंच से गोवा मुक्ति संग्राम के क्रांतिकारियों को प्रेरणा व शक्ति देने के भी सार्थक प्रयास हुए। उस कालखंड में भाउसाहेब रंगारी के बाड़े को क्रांतिकारियों का मायका कहा जाने लगा था।
1893 में लोकमान्य ने श्रीमंत दगडूशेठ हलवाई के माध्यम से एक बड़ा गणेश पंडाल प्रारंभ करवाया व उसमें वे स्वयं उपस्थित रहे। इस पंडाल से स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने हेतु अनेक युवाओं, संतो, नेताओं व पहलवानों को संगठित किया गया। बाद में लोकमान्य तिलक ने धरोहर नाम से प्रसिद्ध केसरबाड़ा में 1894 में सार्वजनिक गणेशोत्सव की भी स्थापना की। पुणे के कसबा पेठ गणपति पंडाल में 1904 में हुए संस्कृत श्लोक पाठ के कार्यक्रम में अमर स्वातंत्र्यवीर वीर सावरकर उपस्थित थे। इस पंडाल से हिंदवी स्वराज स्थापना जैसे विषयों पर कई जन प्रबोधन हुए जिनसे समूचे राष्ट्र में जागृति आई।
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा!' का नारा देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी पुणे यात्रा के दौरान शनिवार वाड़ा पर जनसमुदाय से आर्थिक सहयोग का आग्रह रखा था। तब गंगूबाई नामदेवराव मते ने एक क्षण में अपने सोने के कंगन और कानों की बालियाँ उतारकर नेताजी के हाथों में रख दी थी। फिर तो राशि, आभूषण, संपत्ति आदि दान देने वालो का ताँता लग गया था वहाँ। पुणे व्यापारी मंडल के सदस्यों ने भी न केवल नगद राशि और सोना दिया अपितु स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भाग भी लिया।
देश भर के गणेश पंडाल पुणे के गणेशोत्सव से प्रेरणा लेकर अपनी झाँकियाँ व शोभा यात्राएँ आदि निकालने लगे। 1945 में पुणे की एक झाँकी में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को स्वाधीनता के सूर्योदय के रथ के सारथी के रूप में बताया गया। रथ में श्रीगणेश विराजमान थे। यह झाँकी इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसे देखने देश भर से लोग आने लगे। जनता के आग्रह पर और दर्शानार्थियों का ताँता देखकर इस झाँकी को 10 दिन के स्थान 45 दिन बाद विसर्जित किया गया था।
गणेशोत्सव में देश भर के स्वातंत्र्य यौद्धा, विचारक चिंतक द्वारा जा जाकर भाषण देने व जनजागरण करने का कार्य अद्भुत रूप से गति पकड़ चुका था। इन गणेश पंडालों में एक ओर रात्रि में ब्रिटिश शासन विरोधी, अस्पृश्यता विरोधी, जातिवादी विरोधी भाषण होते थे तो दिनभर भी बड़ी सक्रियता बनी रहती थी। दिन में यहाँ दंड (लाठी) , मलखंभ, कुश्ती, तलवारबाजी, निशानेबाजी के प्रदर्शन व प्रशिक्षण होते थे।
गणेशोत्सव के इस बढ़ते स्वरूप से अंग्रेज घबराने लगे। रोलेट कमेटी ने इस पर चिंता व्यक्त की। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों और बच्चों की टोलियाँ सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेज विरोधी गीत गाती हैं और पर्चे वितरित करती हैं। इन पर्चों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का संदेश होता था। स्वाधीनता आंदोलन को धर्म के माध्यम से एक नई शक्ति, संगठन व ऊर्जा देने की प्रेरणा दी जाती थी।
इस प्रकार गणेशोत्सव को प्रमुखतः लोकमान्य बालगंगाधर तिलक व वीर सावरकर द्वारा एक अभियान के रूप में स्थापित किया गया। स्वाधीनता आंदोलन को गति देने व समूचे राष्ट्र को जागृत करने के गुण के कारण यह उत्सव सर्वधर्म प्रिय राष्ट्रीय उत्सव बन गया था। स्वराज के ध्येय को इन गणेश पंडालों के माध्यम से ही राष्ट्रीय ध्येय बना दिया गया और अद्भुत समाज जागरण का कार्य हुआ।
गणेशोत्सव की चर्चा बाल गंगाधर तिलक के बिना प्रारंभ नहीं होती व वीर सावरकर व कवि गोविंद की चर्चा के बिना समाप्त नहीं हो सकती। वीर सावरकर जी ने तिलक जी के ध्येय को आगे बढ़ाते हुये "मित्रमेला" नाम की एक संस्था बनाई थी जिसका प्रमुख कार्य था पोवाड़े गाना। पोवाड़े एक प्रकार के मराठी लोकगीत होते हैं। इस संस्था के पोवाड़े गायन ने समूचे महाराष्ट्र विशेषतः पश्चिमी महाराष्ट्र में बड़ा ही उल्लेखनीय समाजजागरण किया व चहुं ओर अंग्रेजों के विरुद्ध हल्ला बोल जैसी स्थिति का निर्माण कर दिया था। मित्रमेला के मंच पर कवि गोविंद के पोवाड़े सुनने हेतु कई-कई नगर उमड़ घुमड़ जाते थे।
इस प्रकार वीर सावरकर और लोकमान्य तिलक द्वारा प्रज्वलित गणेश उत्सव की यह ज्योति बाद में ज्वाला बन गई थी। वर्तमान में इस गणेशोत्सव के लगभग 50 हजार पंडाल केवल महाराष्ट्र में ही लगते हैं व संपूर्ण भारत में लगभग तीन लाख पंडाल गणेश लगते हैं। इस उत्सव से लगभग दो करोड़ मानव दिवस के रोजगार की उत्पत्ति होती है व अरबों रुपयों का कारोबार इस दस दिवसीय उत्सव से होता है।
इस प्रकार हमारे गणेश उत्सव का धार्मिक ही नहीं अपितु सामाजिक व राष्ट्रीय महत्त्व रहा है। इस उत्सव को मनाने वाले हम हिंदू बंधुओं का भी दायित्व बनता है कि हम इस उत्सव को सामाजिक समरसता स्थापित करने, जातिगत भेदभाव मिटाने और राष्ट्रीयता के भाव को स्थापित करने की दिशा में एक शस्त्र की तरह उपयोग करें। आज के दौर में आवश्यकता है कि इस उत्सव के माध्यम से हिंदुत्व के परम प्रयोगवादी, प्रगतिवादी व परम प्रासंगिक रहने के सारस्वत भाव की प्राण प्रतिष्ठा की जाए। गणेश पंडालों से, स्थापना व विसर्जन की शोभायात्राओं को फ़िल्मी गीतों, नृत्यों, शराब व अन्य व्यसनों से दूर रखा जाए; यही लोकमान्य तिलक व वीर सावरकर जैसे अनेक स्वातंत्र्य योद्धाओं को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
महाराष्ट्र के लगभग 50 हजार सार्वजनिक गणेश पंडाल व देश भर के लगभग तीन लाख पंडालों में स्वाधीनता के अमृत महोत्सव को भी उत्साह के साथ मनाया जाए तो राष्ट्रीयता को नए प्राणतत्व मिलेंगे। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में हम गणपति बप्पा से आराधना करें कि स्वतंत्रता के सौवें वर्ष के आने से पूर्व भारत माता अपने परम वैभव के शिखर पर विराजमान हो व हम एक विकसित व सर्वशक्तिशाली राष्ट्र बन जाए।