स्वामी दयानन्द सरस्वती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
गॉंधी जी ने कहा था–महर्षि दयानन्द हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषियों, सुधारकों, श्रेष्ठ पुरुषों में से एक थे। उनके ब्रह्मचर्य, विचार–स्वतंत्राता, सबके प्रति प्रेम, कार्य कुशलता आदि गुण लोगों को मुग्ध करते हैं। उनके जीवन का प्रभाव हिन्दुस्तान पर बहुत पड़ा है। मैं जैसे–जैसे प्रगति करता हॅू, वैसे–वैसे मुझे महर्षि जी का बताया मार्ग दिखाई देता है। सरदार पटेल ने कहा–यदि स्वामी जी न होते तो हिन्दुस्तान की क्या हालत होती, इसकी कल्पना भी कठिन थी।
ऐसे महापुरुष का जन्म काठियावाड़ प्रदेश के मौरवी राज्य के अन्तर्गत टंकारा नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता करसन जी त्रिवेदी तहसीलदार थे। इनका नाम रखा गया मूलशंकर। मूल शंकर के दो भाई एवं एक बहिन अल्पावस्था में ही काल कवलित हो गए.
उन्नीसवीं सदी का यह वह समय था जब छोटे–छोटे क्षेत्रों के राजा विलासितापूर्ण जीवन में डूबे हुए थे। छुआछूत, ऊँच–नीच, पाखण्ड एवं आडम्बर भारतीय समाज को खोखला बना रहे थे। अशिक्षा बालविवाह नारी के प्रति उपेक्षा चरम सीमा पर थी। अंग्रेज अपने हथकण्डों से भारत को खोखला बना रहे थे।
आठ वर्ष की अवस्था में मूलशंकर का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। बाल मूलशंकर इतने कुशाग्रबुद्धि थे कि इन्होंने अल्प समय में ही गायत्री सन्ध्या रुद्री आदि कंठस्थ कर ली। 14 वर्ष की अवस्था तक व्याकरण–ज्ञान के साथ यजुर्वेद संहिता भी कंठस्थ कर ली थी।
शिवरात्रि का पर्व 14 वर्षीय मूलशंकर के जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आया। इन्हें उपवास एवं रात्रि जागरण के लिए तैयार किया गया। मन्दिर में पूजा अर्चना के बाद सब लोग रात्रि–जागरण के लिए बैठ गए. ज्यों–ज्यों रात्रि बीतने लगी भक्त एक–एक करके निद्रा में डूबने लगे। पुजारी भी सो गए. मूलशंकर की आँखों से नींद कोसों दूर थी। वह अकेला जगा हुआ था। इसी बीच अपने बिलों से बाहर आकर चूहे सन्नाटा भंग करने लगे। वे शिवलिंग के आस पास उत्पात मचाने लगे एवं प्रसाद की सामग्री खाने लगे। मूलशंकर चौंका-सच्चा शिव कोई और ही है। जो अपने ऊपर उछलकूद करने वाले चूहो को नहीं रोक सकता, वह सच्चा शिव नहीं हो सकता। मूलशंकर ने पिता को जगाया और अपने मन की शंका बताई. पिताजी समुचित उत्तर देकर मूलशंकर को सन्तुष्ट न कर सके.
जीवन–जगत् के उत्तेजक और अनुतरित प्रश्न अधिकतम महापुरुषों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए है। जब मूलशंकर 16 वर्ष के थे तभी इनकी छोटी बहिन हैजे से चल बसी. मृत्यु की यह घटना इस बालक के कोमल मन में वैराग्य के बीज बो गई. तीन वर्ष बाद इनके विद्वान चाचा की भी हैजे से मृत्यु हो गई. चाचा से इनका बहुत लगाव था। यह मृत्यु इनके लिए बहुत बड़ा आघात थी। मृत्यु के इस शाश्वत प्रश्न का इन्हें कोई समाधान नहीं मिला।
मूलशंकर 21 वर्ष के हो गए थे। इनका वैराग्य माता–पिता से न छुपा था। इनका विवाह करने की बात सोची। विवाह की बात सुनकर ये घर से भाग निकले। रास्ते में ठग साधुओं ने इनके वस्त्राभूषण भी ठग लिये। इधर–उधर भटकने के बाद ये सायला ग्राम के लाला भक्त नामक सन्त के आश्रम में पहुँचे। वहॉं इन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और योगाम्यास भी शुरू कर दिया। लाला भक्त ने इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य' रख दिया। जिज्ञासा शान्त न होने पर ये यहॉं से चल दिए और कोट कॉंगडा़ पहुँचे। साधु–सन्तों के वेश में बहुत से धूर्त्त साधु भी इन्हें मिले। इससे इनका मन उद्वेलित हो उठा। ये सिद्धपुर के मेले में चले गए. इनके पिता के परिचित वैरागी ने इनको पहचान लिया और इनके पिता को चिट्ठी लिख दी। वे सिपाहियों के साथ सिद्धपुर आ पहुँचे और इनको साथ ले लिया। रात्रि विश्राम के समय जब सब सो गए तो ये चुपचाप भाग निकले।
घूमते–भटकते ये नर्मदा के तट पर जा पहुँचे जहॉं इनकी भेंट स्वामी पूर्णानन्द से हुई. बहुत आग्रह करने पर पूर्णानन्द जी ने इनको संन्यास की दीक्षा दी और नाम रखा स्वामी दयानन्द सरस्वती। स्वामी पूर्णानन्द जी द्वारका की ओर चले गए. दयानन्दजी ने वहीं रहकर स्वामी योगानन्द जी से योग–विद्या सीखी, इसके बाद दयानन्द जी छिनूर चले गए और वहॉं पं। कृष्ण शास्त्री से व्याकरण पढ़ा। विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए आप हरिद्वार पहॅुंचे। हरिद्वार में चण्डीपर्वत पर इन्होंनें योगसाधना शुरू कर दी। हरिद्वार में एवं पुजारियों के आडम्बर को निकट से देखा। वहॉं से अन्य साधुओं के साथ ऋषिकेश, टिहरी, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, केदारनाथ गौरीकुण्ड आदि अनेक स्थानों पर होते हुए अलकनन्दा तक जा पहुँचे। विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते, कुछ न कुछ सीखते हुए आप नवम्बर 1860 में दण्डीस्वामी बिरजानन्द के पास मथुरा पहुँचे लगभग ढाई वर्ष तक गुरु के चरणों में बैठकर अष्टाध्यायी महाभाष्य आदि अनेक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। गुरुदक्षिणा देने के आग्रह पर दण्डी स्वामी बिरजानन्द ने कहा–"शिष्य, मैं तुमसे वही वस्तु चाहता हॅूं जो तुम्हारे पास है। जाओ देश का उपकार करो, सत् शास्त्रों का उद्धार करो, मत–मतान्तरों के अन्धकार को मिटाओ."
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने निश्चय किया कि जो पाखण्ड एवं आडम्बरों का पोषण कर रहे हैं, उनका मुकाबला करेंगे एवं जड़ता से मुक्त करके देश में स्वस्थ चिन्तन–धारा प्रवाहित करेंगे। इन्होंने पूरे देश में भ्रमण किया। आगरा धौलपुर–ग्वालियर होते हुए पुष्कर मेले में पहुँचे। जहॉं भी पाखण्ड एवं आडम्बर फैलाने वाले तथाकथित मठाधीश मिले, ये वहीं जा पहुँचे और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया। इन्होंने जयपुर, अजमेर, कर्णवास, रामघाट, सोरों, कायमगंज, फरुर्खाबाद, कन्नौज, कानपुर, बनारस, मिर्जापुर, आरा, कलकत्ता, छपरा, डुमराओं, प्रयाग, बम्बई, भड़ौंच, राजकोट, अहमदाबाद, लखनऊ, मुरादाबाद, अम्बेहटा, चॉदापुर, लाहौर, अमृतसर, गुरदासपुर, जालन्धर, फिरोजपुर, रावलपिंडी, मुल्तान रुड़की, मेरठ, रिवाड़ी, बदायूँ, बरेली, दानापुर, मुजफ्फरनगर, आगरा, मसूदा, शाहपुरा, उदयपुर जोधपुर आदि स्थानों पर शास्त्रार्थ किए एवं विभिन्न मत–मतान्तरों के मानने वालों के सामने धर्म के सत्य स्वरूप को स्थापित किया। कर्नल ब्रुक ने कहा था–' हमने जीवन में ऐसा संस्कृत का विद्वान नहीं देखा। "
ब्रहम समाज के बाबू केशवचन्द्र सेन के आग्रह पर ये कलकत्ता गए. वहॉं विद्वानों से इनका विचार–विमर्श हुआ। केशवचन्द्र सेन के परामर्श से इन्होंने अपना प्रवचन जनभाषा हिन्दी में देना शुरू किया। इससे पूर्व में संस्कृत में ही प्रवचन करने थे।
इनके तर्को के सामने निरुत्तर होने पर कुछ अराजक एवं स्वार्थी तत्वों ने इनको मारने का प्रयास किया कर्णवास में करौली के रईस कर्णसिंह ने तलवार से इन पर हमला करने का प्रयास किया। दयानन्द जी ने इनके हाथ से तलवार छीनकर उसके दो टुकड़ों कर दिए. अनूपशहर में एक ब्राह्मण ने प्रेमपूर्वक पान का वीड़ा दयानन्द जी को दिया जिसमें जहर मिला हुआ था। जहर का आभास होते ही न्यौली क्रिया द्वारा इन्होंने जहर शरीर से बाहर निकाल दिया। तहसीलदार सैयद मुहम्मद ने उस ब्राह्मण को गिरफ्तार कर लिया। स्वामीजी ने कहा–"इसे मुक्त कर दो। मैं संसार को कैद कराने नही, कैद से मुक्त कराने आया हूँ।"
प्रयाग में स्वामी जी के विराधियों ने मिठाई में विष मिलाकर देना चाहा। स्वामीजी ने एक टुकड़ा खुद लेकर लाने वाले को मिठाई खाने के लिए दिया तो वह थर–थर कॉंपने लगा। लोगों ने उसे पुलिस के हवाले करना चाहा परन्तु स्वामी जी ने मनाकर दिया।
समाज को नियमबद्व रूप देने के लिए 10 अप्रैल 1875 को मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की गई. आर्य समाज के 28 नियम बनाए गए. बाद में कुछ परिवर्तन करके 24 जून 1877 ई. में लाहौर में 10 नियम बनाए गए जो आज तक प्रचलित हैं। दयानन्द जी ने आर्यसमाज में एक सहायक के रूप में ही रहना स्वीकार किया ये 'गुरुडम' प्रथा के विरुद्ध थे? अत: किसी प्रकार का गुरुपद स्वीकार करने से मना कर दिया। में आर्यसमाज के इन नियमों में वेद का अध्ययन करना सत्य मार्ग पर चलना, संसार का उपकार करना, सब काम धर्मानुसार करना, सबसे प्रीतिपूर्वक व्यवहार, अविद्या का नाश एवं विद्या का प्रचार, सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति समझना, सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में स्वतंत्रा रहना आदि प्रमुख हैं।
दयानन्द जी ने विभिन्न ग्रन्थों की रचना की जिनमें सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि एवं ऋग्वेदिभाष्य भूमिका प्रमुख हैं। सत्यार्थ प्रकाश के 14 समुल्लासों में जीवनचर्या एवं विभिन्न मतमतान्तरों का गठन एवं तार्किक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसमें प्रश्नोत्तर शैली का रोचक प्रयोग करके दुरुह विषय को भी सर्वग्राहय बना दिया है। स्वामीजी ने अल्पायु में विवाह का निषेध एवं विधवा–विवाह का समर्थन किया है तृतीय समुल्लास में दयानन्द जी ने विभिन्न उदाहरणों द्वारा प्रमाणित किया है कि वेद पढ़ने का अधिकार सभी–स्त्री पुरुषों को है, चाहे वे किसी भी वर्ण के हों। संस्कार विधि में विभिन्न संस्कारों की विधि आदि का विस्तृत एवं शास्त्रीय उल्लेख किया गया है।
ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका चारों वेदों के तात्त्विक अर्थ को समझने के लिए एक अद्भुत ग्रंथ है। इस ग्रन्थ में स्वामीजी ने 57 विभिन्न विषयों पर तार्किक एवं शास्त्रीय पक्ष प्रस्तुत करके वेद विषयक विभिन्न भ्रांत धारणाओं को धराशायी किया। महीधर, उव्वट, सायण जैसे भाष्यकारों ने वेदों की जो ग़लत व्याख्याएँ की थीं, उनका खण्डन करके सही अर्थ प्रस्तुत किए. स्वामी जी ने बल दिया कि मंत्रों के अर्थ प्रकरण के अनुसार ही करने चाहिए. वैदिक पदो के अनेकार्थ होने पर भी प्रकरण–सम्बद्ध अर्थ ही संगत होते है। स्वामीजी ने इनके अतिरिक्त आर्याभिवनय तथा व्यवहार भानु जैसी पुस्तके भी लिखीं।
दयानन्द जी चाहते थे कि, तत्कालीन राजा विलासिता छोड़कर देशोत्थान पर ध्यान दें। जोधपुर के राजा यशवन्त सिंह के दरबार की वेश्या नन्ही जान स्वामी जी के इस तरह के सुझाव से जल उठी। उसने स्वामीजी के रसोइए जगन्नाथ को अपनी ओर मिला लिया। जगन्नाथ ने दूध में जहर मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। जहर मर्मान्तक प्रभाव दिखाने लगा। तीन उल्टियॉं हुई. दम घुटने लगा। दवाई भी प्रभाव शून्य रही। जगन्नाथ ने अपना अपराध स्वामी जी के सम्मुख स्वीकार कर लिया था। स्वामीजी ने कुछ धन देकर उसे नेपाल की ओर भागने के लिए कहा–"मेरे शिष्यों को मालूम हो जाएगा तो तुम्हें मार देंगे।" यह था उस भारतीय मनीषी का आदर्श। 26 अक्तुबर को उन्हें अजमेर ले जाया गया। समाचार सुनकर दूर–दूर से लोग अजमेर आने लगे।
दीपावली 30 अक्तूबर 1883, शाम साढ़े पॉंच बजे स्वामी जी ने कहा–"जो आर्यजन यहॉं आए हैं, उन्हें बुलाकर हमारे पीछे खड़ा कर दो। सभी द्वार एवं खिड़कियॉं खोल दो। ' तत्पश्चात् स्वामी जी ने पक्ष तिथि एवं वार पूछा। वेदमंत्रों का पाठ किया। संस्कृत और हिन्दी में ईश्वर की उपासना की तत्पश्चात् हर्षपूर्वक गायत्री पाठ करने लगे। गायत्री पाठ के पश्चात् नेत्र खोले–हे दयामय, सर्वशक्तिमान ईश्वर, तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हो! अहा तूने अच्छी लीला की। - कहकर करवट ली और चिरनिद्रा में विलीन हो गए.
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