स्वार्थ / प्रताप नारायण मिश्र

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इस गुण को हमारे पुराने ऋषियों ने बुरा कहा है, पर हमारी समझ में इस विषय में उनका कहना अप्रमाण है, क्‍योंकि जो जिस बात को जानता ही नहीं उसके वचनों का क्या प्रमाण? वन में रहे, कंद मूल खाए, भोजपत्र पहिने, पोथियाँ उलटते वराम-राम स्‍याम-स्‍याम करते जन्‍म बिताया। न कभी कोई धंधा किया, न किसी की नौकरी की, न किसी विदेश से काम पड़ा, फिर उन्‍हें स्‍वार्थ का मजा क्या मालूम था? यदि कहिए कि नवीन ऋषियों में महाराज भर्तृहरि ने भी तो 'तेमी मानुष राक्षसा: परहितं स्‍वार्थाय निघन्तिए' लिखा है, तो हम कहेंगे उन्‍होंने केवल पुराने लोगों की हाँ में हाँ मिलाई है, या जान बूझ के धोख दिया है, नहीं तो स्‍वार्थ कोई बुरी वस्‍तु नहीं है।

सदा से सब उसी का सेवन करते आए हैं। हिंदुओं का राज्‍य था तब ब्राह्मण चाहे जो करें अदंड्य थे, क्‍योंकि राजमंत्री तथा कवि यही होते थे, इससे अपने को सब प्रकार स्‍वतंत्र बना रक्‍खा था। यह स्‍वार्थन था तो क्या था? मुसलमानी अमलदारी में भी राजा करै सो न्‍याव था। बादशाह का जुल्‍म भी ऐन इंसाफ समझा, उसमें भी स्‍वार्थ ही का डंका बजता था। आजकल अँगरेजी राज्‍य में तो ऐसा कोई काम ही नहीं है जो स्‍वार्थ से खाली हो, नहीं तो दो चार बातें बतलाइए जो केवल प्रजा ही के हितार्थ की गई हों। कोई काम बतलाइए जिसमें हिंदोस्‍तान की महान हानि के लिए इंग्लिश जाति का छोटा सा लाभ भी उठा रक्‍खा गया। चाहे जितना सोचिए अंत में यही कहिएगा, कोई नहीं।

फिर हम क्या बुरा कहते हैं कि 'स्‍वार्थ में बुराई कोई नहीं, सभी सदा से करते आए हैं।' यदि महिदेवों (ब्राह्मणों) और दीन दुनियाँ के मालकों (बादशाहों) हमारे गौरांग प्रभुओं को मनुष्‍य समझिए तो रामायण में देवताओं का चरित्र पढ़िए। रामचंद्र लक्ष्‍मण सीता को चौदह वर्ष बन-बन फिराया, भरती को अयोध्‍या में रख के उपवास कराया, दशरथ जी के प्राण ही लिए। क्‍यों? स्‍वार्थ के अनुरोध से। गोस्‍वामीजी ने खोल के कही दिया है 'आए देव सदा स्‍वारथी।' जब देवताओं की यह दशा है तब मनुष्‍य स्‍वार्थपरता से कैसे पृथक रह सकता है। सच पूछो तो जो लोग स्‍वार्थ की निंदा करते हैं, वे स्‍वार्थ ही साधन के लिए दूसरों को भकुआ बनाते हैं। दूसरों को दया, धर्म, न्‍याय नि:स्‍वार्थ इत्‍यादि के भ्रमजाल में न फँसावें तो अवसर पर अपनी टही कैसे जमावैं। इसमें हमें निश्‍चय हो गया है कि चतुर बुद्धिमान नीतिज्ञ पुरुषों के लिए स्‍वार्थ कभी किसी दशा में अत्‍याज्‍य नहीं है। जो लोग दूसरों को पर स्‍वारथ सिखाते हैं, वे तौ खैर अपना काम चलाने के लिए लोगों को फुसलाते हैं, पर जो उनकी बातों में फँस कर परस्‍वार्थी बनने का उद्योग करते हैं, वे नेचर के नियम को तोड़ते हैं अथच अपने सुख, संपत्ति, सौभाग्‍य से मुँह मोड़ते हैं। नहीं तो बड़ों में नि:स्‍वार्थी है कौन? क्या देवता लोग राक्षसों का भला चाहते हैं? क्या महात्‍मा लोग नास्तिकों की खैर मनाते हैं? क्या स्‍वयं परमेश्‍वर अप्रेमिकों से प्रसन्‍न रहैं? फिर परस्‍वारथ कहाँ की बलाय है? सब स्‍वार्थ तत्‍पर हैं। हाँ,अपने-अपने कुटुंब, अपनी जाति, अपने देश की जूठन काठन थोड़ी सी इतरों को भी देना चाहिए, जिसमें यश हो। परस्‍वार्थ ऐसी मजेदार चीज को बुरा समझ के उससे दूर रहना निरी मूर्खता है।

जो लोग बड़े त्‍यागी बैरागी, भक्‍त विभक्‍त होते हैं, वे तो स्‍वार्थ को छोड़ते ही नहीं। वे दुनिया के सुखों को छोड़ के महासुख स्‍वरूप सच्चिदानंद को चाहते हैं। अत: बड़े भारी स्‍वार्थ साधक हैं। फिर गृहस्‍थी कर के, दुनियाँ में रह के, नि:स्‍वार्थ या पर स्‍वार्थ पर मरना कहाँ की बैलच्छि है। स्‍वार्थ न हो तो संसार की स्थिति ही न हो। बड़े-बड़े परिश्रम करके जिन उत्तम बातों को लोग संचित करें बुह दूसरे को सौंप दें, दूसरा तीसरे को सौंप दे, इसी तरह होते-होते थोड़े दिन में किसी के पास कुछ रही न जाए। इसी से कहते हैं "स्‍वार्थ समुद्धरेत्‍प्राज्ञ:।" हाँ बहुत ही न्‍यून स्‍वार्थ बुरा है, "आप जियंते जग जिए कुरमा मरे न हानि" का आचरण निंदित है। इससे अधिक से अधिक स्‍वार्थ बढ़ाते रहना चाहिए। अपने ही लिए स्‍वार्थी न हो के अपने संबंधी मात्र का स्‍वार्थ करना चाहिए। अपने देश के स्‍वार्थ के लिए दुनिया भर को कैसी ही हानि हो, कैसा ही कर्तव्‍याकर्तव्‍य कर उठाना चाहिए। क्‍योंकि इसके बिना निर्वाह नहीं है। परस्‍वार्थी करने पर चाहे बैकुंठ जाते हों पर दुनियाँ में सदा दुखी रहते हैं और हमारे महा मंत्र के मानने वाले दिन दूनी रात चौगुनी उन्‍नति किया करते हैं। भारत और इंग्‍लैंड इसके प्रत्‍यक्ष प्रमाण हैं। फिर भी न जाने कब हमारे देशी भाई स्‍वार्थ की महिमा जानेंगे। हम प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं, जो कोई स्‍वार्थ साधन के लिए निंदा स्‍तुति, पाप पुन्‍यादि का विचार न करेगा वह थोड़े ही दिन में सब प्रकार संपन्‍न हो जाएगा और अंत में किसी को उसकी निंदा करने का साहस न होगा। महात्‍मा कह गए हैं 'समरथ को नहिं दोष गुसांई'। स्‍वार्थसाधन में दक्ष होने से बेईमान मनुष्‍य चतुर कहलाता है, हत्‍यारा वीर कहलाता है, परनिंदक स्‍पष्‍टवक्‍ता कीलाता है। जिस पर महात्‍मा की दया होती है वही स्‍वार्थसाधन तत्‍पर होता। इससे हे भाइयो, ब्राह्मण के वाक्‍य को वेद की रिचा समझ के दिन रात, सोते जागते, स्‍वार्थ-स्‍वार्थ रटा करो। इसी में भला होगा, नहीं सदा यों ही अवनति होती रहेगी जैसी महाभारत के समय से होती आई है।