स्वीकारोक्ति / प्रतिभा सक्सेना

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ट्रेन का सफ़र कभी-कभी बड़ी यादगार बन जाता है. मुझे बहुत यात्राएं करनी पड़ती हैं और अधिकतर अकेले ही। पति अधिकतर टूर पर और फिर उन्हें इतनी छुट्टी भी कहाँ।

उस दिन भी विषय-विशेषज्ञ बन कर एक मीटिंग में जा रही थी.

पहले ही पता कर लिया था जिस कूपे में मेरा रिज़र्वेशन है उसमें एक महिला और हैं। मुझे सी ऑफ़ कर ये चले गए।

वे महिला समवयस्का निकलीं

चलो, अच्छी कट जाएगी !

बातें शुरू -

'आप कहाँ जा रही हैं। '

'इंदौर, और आप?'

'हमें तो उज्जैन तक जाना है, आप भी अकेली हैं '

'मैं? हाँ अकेली ही, अक्सर जाना-आना पड़ा है,आदत-सी हो गई है। '.

'हमारी भाभी बीमार हैं सो अचानक चल दिए. आप तो इन्दौर रहती हैं शायद!

'नहीं, अहिल्याबाई वि.वि में एक मीटिंग है, बस अगले दिन लौटना है। '

'हाँ, हम भी दो दिन की सी.एल. ले के '.

पता लगा मेरठ में पढ़ाती हैं। बस फिर खूब घुल-मिल कर बातें होने लगीं।

कहाँ -कहाँ के सूत्र निकल आए।

मज़ेदार बात यह कि दोनों ने एक ही कॉलेज से बी.एड. किया. बस, भावना जी एक साल पहले कर चुकी थीं, उस कॉलेज को खुलने का पहला साल, तब वह पूरी तरह व्यवस्थित नहीं था।

हम अगले साल वहीं दाखिल हुए।

वार्डन -लेक्चरर प्रीफ़ेक्ट सबकी बातें.मिट्ठू,जो ऊपर के काम कर देता था -दोनों होस्टलों में उसकी पूछ थी.

'मिट्ठू?'

'हाँ -हाँ, था तो। पर ब्वाएज़ हॉस्टल में ज़्यादा रहता था। हमारे यहाँ तो कभी वार्डन के पास या किसी काम से नोटिस वगैरा ले कर आता था। '

'आपके सामने ब्वायजट हॉस्टल कहाँ था?'

'उधर चौबीस खंभा रोड पर जो धरमशालावाली बिल्डिंग है, वही किराए पर चल रही थी, सुनने में आ रहा था कि अगले साल होस्टल शिफ्ट हो जाएगा। .

'हूँ। '

'ये मिट्ठू दोनों होस्टलों में काम करता था न, और एक मज़ेदार बात, हम मिट्ठू के लिए टियू-टियू शब्द स्तेमाल करते थे और खूब हँसते थे, पर उसके सामने नहीं। '

'हाँ, वो तो शुरू से ही दोनों होस्टलों के काम देखता था, पास में हैं न। हमारे वार्डन ने भी कह रखा था, झाड़ू वगैरा लगा कर उधर चले जाया करो। उन दिनों खाना तो इकट्ठा वहीं बनता था। '

'और वह सामने की दूधवाली दूध में वात्सल्य रस की मात्रा बहुत कर देती थी। '

'हम लोगों ने तो अपना अलग इंतज़ाम कर लिया था। '

खूब सारे किस्से- रूम मेट कैसी, दूसरों का घी चाट कर स्वास्थ्य बनाते लोग,

और फिर मिट्ठू !

'वही तो। ..'

'क्या, वही तो?'

'कुछ नहीं यों ही '.

'सब टेम्परेरी इंतज़ाम थे तब. कोई ऐसा कमरा नहीं जहाँ यूनियन की मीटिंग कर लें। '

'वो तो हमारे सामने तक था। कैबिनेट की मीटिंग किसी के रूम में कर लेते थे और जनरल के लिए हॉल, बस.'

'अब तो बढ़िया होस्टल बन गया है। आप नहीं गईं कभी फिर?'

'नहीं जा नहीं पाए। मन तो करता था पर बात कुछ ऐसी हो गई थी कि जाने की हिम्मत नहीं पड़ी। '

'ऐसा क्या हो गया?

वे चुप हैं

'आप मुस्करा रही हैं। '

'हाँ, एक बात मन में है। अब तक किसी से कहते नहीं बनी। पर अब उम्र के चौथे पहर में इच्छा होती है कि सब-कुछ कह-सुन कर हल्की हो लूँ। '

'हम दोनों तो बराबरी की हैं एक दूसरे को समझने में मुश्किल नहीं होगी.'

'हाँ,हाँ इसीलिए तो। आप भी तो वहीं पढ़ चुकी है?'

♦♦ • ♦♦

थोड़ी भूमिका बाँधने के बाद बताने लगीं - छात्र चुनाव में एक काफ़ी बड़ा-सा गंभीर सा लगनेवाला लड़का सेक्रेटरी बना,काफ़ी रिज़ोर्सफुल था।

उसने अपनी कैबिनेट में हमें भी ले लिया। कई क्षेत्रों में सक्रिय रहे थे न हम।

मैंने अपने होस्टल की दो लड़कियों और एक लड़के को, जिसे मेरी रूम-मेट जानती थीं बोलीं बहुत साहित्यिक रुचि का संस्कारी लड़का है - ले लिया।

'मैं चाहती थी मीटिंग्ज़ में अनुराग जाए, मुझे न जाना पड़े.'

'क्यों, जब इन्चार्ज आप थीं। '

'हाँ, थी। पर। .असल में जो सेक्रेटरी था वह मिट्ठू के हाथ मुझे पर्चियाँ भेजा करता था, अकेले में मुझे देने के लिए। '

'फिर?'

उत्तर वह माँगता था। मैंने कभी दिया नहीं,

'हाँ, तो वो लड़का क्या नाम था उसका?

'अब असली नाम बता कर क्या होगा समझ लो- आलोक.'

'और पर्चियों में संबोधन क्या?'

'इस सबसे क्या। बात तो कुछ और है जो बतानी है। .'

'नहीं, यह तो बताना ही पड़ेगा नहीं तो इमेज कैसे बनेगी?'

'संबोधन कुछ खास नहीं डियर फ़्रेंड, या माई चम और अपने को क्वेशचन मार्क, या ऐसे ही कुछ। '

'क्या लिखता था?'

'छोटी-छोटी बातें -तुम ध्यान में रहती हो वगैरा '.

'और क्या लिखा होता था। '

'बस साधारण सी बातें -कि तुम मुझे अच्छी लगती हो। कभी कोई परेशानी हो तो बताना। '

'बस यही?'

'हाँ. कभी-कभी यह भी कि क्लास के बाद ऑफ़िस की तरफ़ आ जाना, कुछ छात्रसंघ के बारे में सलाह करनी है। '

'तुम लिखता था?'

'अरे, अंग्रेज़ी में -क्या आप और क्या तुम !'

'सही कहा, जो हिन्दी में कहना शोभनीय नहीं लगता अंग्रेजी में अच्छी तरह चल जाता हैं, कभी वे तीन शब्द लिखे थे उसने?'

'अच्छा! अब आप मज़ा ले रही हैं? नहीं ऐसा कभी कुछ नहीं?'

'हाँ, तो और क्या?'

'यही कि सुबह-सुबह तुम्हें देख लेता हूं तो दिन अच्छा बीतता है। '

'सुबह-सुबह कैसे?'

'सब लोग इकट्ठे प्रेयर करते थे सात बजे लड़कों के होस्टल में -फिर नाश्ता और फिर क्लासेज़ शुरू। '

'नाश्ते में क्या?'

'ज़्यादातर पोहे, चाय. कभी-कभी और कुछ भी, जलेबी वगैरा। . '

'वाह उज्जैन के पोहे! पानी आ गया मुँह में !'

' देवास गेट पर हम हमेशा खाते हैं। ऊपर से सेव डाल कर देता है। '

और आप क्या- क्या जवाब देती थीं?

मिट्ठू हमेशा जवाब माँगता, पर हम क्या लिखें और क्यों लिखें?

कह देती मैं खुद बात कर लूँगी, और उसके जाते ही पर्ची फाड़ कर फेंक देती। '

'आप जाती थीं?'

'हाँ, जिन दो को साथिनों को मैनें अपनी समिति में लिया था उन्हे भी बुला लेती, कि अच्छी सलाह हो जाए, एक तो साथ में होती ही थी। उसने एकाध बार कहा भी क्या मुझसे डरती हैं, कुछ बातें सबसे कहने की नहीं होती और ये लड़कियाँ ऐसी हैं ख़ुद मुझे रोक लेती हैं और सबसे कहती फिरती हैं कि मैं उन्हें बुलाता हूँ। मैंने आपके सिवा किसी को नहीं बुलाया। .'

♦♦ • ♦♦

मैं चुपचाप रुचिपूर्वक सुन रही हूँ।

अचानक वे पूछ बैठीं ' अगर आपसे कोई पूछे -तुम तो खाई -खेली हो तो कैसा लगेगा?'।

'एक चाँटा लगा दूँगी. '

'आज नहीं, तब जब होस्टल में रह कर बी.एड. कर रहीं थी। तब क्या कहतीं?'

'अब इतना तो नहीं बता सकती, आजकल की लड़कियों में समझदारी हम लोगों से ज़्यादा विकसित है। हम लोग ये सब काफ़ी बातें देर में समझा करते थे. अब जब ये टी.वी. वगैरा। .'

'हाँ वही तो ! और जब इसका मतलब मुझे पता चला तभी से.... मन पर एक बोझ सा आ गया। '

'पर क्यों?'

वे बताने लगीं -

अक्सर ही बुलावा आ जाता था आलोक की ओर से -कल्चरल सोसायटी की इन्चार्ज जो बना दिया था मुझे.

कभी पत्रिका कैसी हो इसके बारे में डिस्कशन, कभी क्या प्रगति, चल रही है, मीटिंगे हो रही है। शुरू-शुरू में बड़ उत्साह से पहुँच जाती रही फिर जब रंग-ढंग समझ में आने लगे, तो बचने की कोशिश कर जाती। एक अजीब -सी खिसियाहट घेर लेती। फिर भी जाना तो अक्सर ही पड़ता था.

एक बार खबर आई, मीटिंग कामना लॉज के रूम नं. 7 में है। वहाँ जल-पान का बढ़िया डौल बन जाता है.अनुराग पिछले दो दिनों से गैरहाज़िर था और मीरा -निर्मला दोनों एक साथ किसी रिश्तेदारी में पार्टी खाने।

मैं पहुँच गई टाइम से, समय से पहुँचना आदत में शुमार है।

पहुँची तो वहाँ कोई नहीं बस आलोक कुर्सी पर जमा बैठा है.

जाते ही कहने लगा, देख लिया? ये हाल हैं यहाँ के, किसी को काम की चिन्ता नहीं। सब मौज कर रहे हैं। एक मैं ही हूँ जो मरा जा रहा हूँ'जैसे मेरा अपना इन्टरेस्ट हो !

,'क्या कोई नहीं आया?'

'आते?अरे, नोटिस पर साइन ही नहीं किये। भगा दिया होगा मिट्ठू को.'

'तो फिर तो कोई आयेगा भी नहीं। ..मैं बेकार। .'

'वाह बेकार क्यों?तुम्हीं तो एक समझती हो मुझे। तुम भी नहीं आतीं तो मैं तो बिल्कुल अकेला रह जाता। मैंने तो नाश्ते का बढ़िया ऑर्डर दे रखा है। '

'मुझे नहीं करना, कर के आई हूँ। '

अरे बैठो, बैठो। .अब मिले हैं तो कुछ बातें कर ही लें',उसने आगे जोड़ा, 'तुमने भी तो कुछ सोचा होगा मेगज़ीन के लिये। '

वह कुर्सी से उठा और सोफ़े पर लेट- सा गया, 'क्या बताऊं कल, बिल्कुल सो नहीं पाया..'

'क्यों क्या कुछ परेशानी है?'

'इधर बैठो न आराम से। .'

'नहीं, ठीक हूँ यहीं। '

'हाँ तो, क्या-क्या कर लिया है?'

उसकी की आँखें उसे अपने चेहरे पर चुभती लग रही थीं। लंबा-चौड़ा था ही जब सामने बैठ कर अपनी नज़रें पर गड़ा देता - लगता भीतर तक पढ़ लेना चाहता है, बड़ी उलझन होने लगती थी.

खिड़की से बाहर देखते मैंने कहा,

'मीरा और निर्मला की रचनाएं ले ली हैं, कई लोग देने वाले हैं और अनुराग जी की कवितायें भी, सुन्दर लिखते हैं। '

एकदम बोला

'कब से जानती हैं आनुराग को?

'बस, यहीं आकर। पहले एकाध कविता पढ़ी थी कहीं। .'

और वह अनुराग को बिलकुल पसंद नहीं करता, एकदम मुझे याद आया..अनुराग भी उसकी मीटिंग में आना अक्सर टाल जाता है।

उस दिन की घटना याद आते ही अपने लिए धिक्कार उठने लगती है.कैसी बेवकूफ़ी, उफ़!

रोम खड़े हो जाते हैं। . '

मैं बैठी सुन रही हूँ -विस्मित सी।

फिर उसने मुझसे पूछा था, 'तुम तो खाई-खेली हो?'

मैंने बैठने की पोज़ीशन बदली थी।

वे कहे जा रहीं थीं -

'हाँ। बिलकुल.' मैंने उत्तर दिया था। '

मेरे मुँह से निकल गया 'अच्छा!'

'आलोक की कौतुक भरी दृष्टि मुझ पर टिकी थी,उसने भी कहा था -अच्छा !'

' मैं बोलती जा रही थी- और क्या! घर में छोटी थी, छूट मिलती रही, बचपन से खूब खाती-खेलती रही '.

'वाह !'

मैं उसे देख कर हँस दी।

वह चुप हो गया। फिर अचानक बोला

'अच्छा, अब तुम जाओ.'

मैं चौंक गई। उसका विचित्र व्यवहार समझ में नहीं आया. कैसे बोल रहा है यह!

मुझे बड़ा अजीब-सा लग रहा था.

'तुम फ़ौरन यहाँ से चली जाओ.'

मैं हकबकाई सी उठी अपना पर्स उठाया और एकदम चल दी। अपने कमरे पर आकर ही दम लिया।

रूम-मेट लेटी हुई थी पूछने लगी। 'क्या हुआ?'

'कुछ नहीं, बस अच्छा नहीं लग रहा है। '

'घर की याद?'

'पता नहीं क्यों आँखों में आँसू भर आए.ऐसा व्यवहार किसी ने मेरे साथ नहीं किया था।

मैं भी लेट गई चुपचाप। किसी से कुछ कहने को था ही क्या?'

तब तो कुछ खास नहीं लगा। एक्ज़ाम हो गए सब तितर-बितर हो गए।

बाद में जब खाई-खेली का असली मतलब पता लगा तो मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। '

मैं क्या बोलती ! बैठी रही आगे का सुनने के चाव में

'जब भी वह घटना ध्यान में आती मन ग्लानि से भर जाता। .पता नहीं क्या सोचता होगा मेरे लिए, पता नहीं और लोगों से उसने क्या-क्या कहा होगा !'

बाद में जितने दिन होस्टल में रही लोग कैसी निगाहों से देखते होंगे मुझे, और मैं बेखबर। लोगों को लगता होगा इसकी आँखों में शरम है ही नहीं।

इसीलिये बाद में कभी किसी से मिली नहीं। और फिर तो सब इधर-उधर हो जाते हैं। सबको भूल जाना चाहती थी मैं. '

'और फिर कोई चिट नहीं भेजी?'

'एक्ज़ाम पास आ रहे थे, सब बिज़ी हो गए थे।

मेरी उस स्वीकारोक्ति के बाद उसने कभी मिट्ठू के हाथ कोई चिट नहीं भेजी और कभी जब मौका पड़ा भी, बड़ी सभ्यता से बात करता था।

शादी के बाद भी सर्विस करती रही मैं.

पर सेमिनार आदि के अवसर पर यही डर रहता था कि कहीं वह सामने न पड़ जाय!

बहुत डर-डर कर रही हूँ।

मैंने आज तक किसी से नहीं कहा आज अपना मन हल्का कर रही हू, पर अब मन से वह पछतावा निकल चुका है, इसीलिए कह पाई हूँ। '

'और कहीं वह मिल गया तो?'

वह हँसीं -निश्छल हँसी।

'पता नहीं कैसी स्थिति हो !पर अब घबराहट नहीं लगती। उम्र के इस प्रहर में अपनी बेवकूफ़ी पर तरस आता है। अब वह सामने आ गया तो उससे भी हँसकर बोल लूँगी। '

'पूछ लीजिएगा उसने क्या समझा था। '

वे सिर्फ़ मुस्करा दीं।

उज्जैन आ गया था, उन्हें यहीं तो उतरना था।