स्वेटर / नर्मदेश्वर

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सकल महतो के झोले, साइकिल और स्वेटर की उम्र में सिर्फ दो-तीन सालों का अन्तर था। तीनों उनके जीवन में एक-डेढ़ साल आगे-पीछे आए थे। झोला डाक विभाग से मिला था, साइकिल ससुराल की निशानी थी और स्वेटर उनकी पत्नी ने बुना था। तीनों मौसम की मार झेलते-झेलते और सेवा का भार ढोते- ढोते बुरी तरह थक चुके थे। झोले में जगह-जगह छेद बन गए थे। उसमें रखी चिट्ठियाँ बाहर झाँकती रहती थीं। सँभाल कर पहनने के बावजूद स्वेटर ढीला होकर लबादा बन गया था और कलाइयों के पास का ऊन उधड़ चुका था। साइकिल खड़खड़ाती चलती थी। उसके पार्ट-पुरजे हमेशा टूटते-बिगड़ते रहते थे। तीनों की हालत खस्ता हो चुकी थी और सकल महतो थे कि उन्हें छोड़ने का नाम ही नहीं लेते थे।

दस बजने वाले थे और धुंध घनी होती जा रही थी। मुट्ठी में धनिया लिए सकल महतो ने घर में क़दम रखा। उनके हाथ से धनिया लेकर बेटी चटनी पीसने लगी।

"इतनी देर कहाँ लगा दी? शहर नहीं जाना है क्या ?" — खाना निकालते हुए पत्नी ने पूछा।

"आलू का जोरा चढ़ा रहा था, अभी आधे बाकी रह गया है।"

"दो-चार बीघे खेत होते तो क्या करते? दस कट्ठे सँभालने में हमेशा परेशान रहते हो। इसीलिए मेरा भाई तुमको दस-कठिया किसान कहकर चिढ़ाता है।"

"तुम्हारे मायके के खेत से मुझे क्या लेना-देना? अपने बाप-दादा से मिली दस कट्ठा जमीन ही मेरे लिए सब कुछ है। किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाता ?"

सकल महतो को अपनी पत्नी की बात तीर की तरह बेध गयी थी। हमेशा अपने मायके के गुमान में फूली रहती है, सीधे मुँह बात ही नहीं करती। मन किया कि खाना छोड़कर खड़े हो जाएँ। तभी पूनम चटनी लेकर आ गई। उसने चटनी नहीं दी होती तो खाना गले से नीचे नहीं उतरता ।

"झोला और स्वेटर बरामदे में टाँगे थे, वे खूँटी पर नहीं दिख रहे हैं।" — बरामदे में ताकते हुए उन्होंने बेटी से पूछा।

"स्वेटर भिखमंगे को दे दिया। नंगे बदन था बेचारा। स्वेटर की जगह यह इनर पहन लो, उससे अधिक गर्मी देगा। आपका नया स्वेटर भी आठ-दस दिन के अन्दर तैयार हो जायेगा। स्कूल नहीं जाना होता तो कब का तैयार हो गया होता...।"

"अभी पन्द्रह दिन पहले तुमने ऊन खरीदने में पैसा लगाया था। यह इनर कब खरीद लाई ?"

"इनर भी मैंने उसी दिन खरीदा था। ऊन खरीदवाकर आप गुड़ लाने चले गये थे। डाँट खाने के डर से आपको नहीं बतलाया था। अपनी पहली तनख्वाह मुझे आप पर ही खर्च करनी है। अभी आपका चप्पल खरीदना बाकी रह गया है...।"

"वादा करो कि आइन्दा अपनी तनख्वाह का एक पैसा भी खर्च नहीं करोगी।"

"महीना मिलते ही मैं सारी रकम आपके हाथ में दे दूँगी।"

"मुझे देने की कोई जरूरत नहीं है। अपनी तनख्वाह तुम गाँव के ही डाकघर में जमा करती जाना। पोस्ट मास्टर से कहकर तुम्हारा खाता खुलवा दूँगा।" — अपनी साइकिल की चेन चढ़ाते हुए सकल महतो ने बेटी की ओर देखा । कितनी प्यारी है उनकी बेटी, बाप का कितना ख़याल करती है। पूरी पंचायत में सबसे अधिक अंक ले आई है। शिक्षामित्र बन जाना भी सबके भाग्य में नहीं। भगवान सबको ऐसी ही औलाद दे।

"मैं जा रहा हूँ, बेटी, तुम्हें स्कूल नहीं जाना है क्या ?"

"अभी आई, पापा... गाँव के बाहर तक तुम्हारे साथ चलूँगी।"

"आते वक्त तीन-चार गोला ऊन और लेते आना। सिर्फ एक गोला बचा है और स्वेटर का पिछला पल्ला आधा बाकी है।" — ऊन का एक लम्बा टुकड़ा और दो सौ का नोट पापा को थमाते हुए पूनम ने कहा। बाप-बेटी साथ चलने लगे।

"झोले के बिना मेरा काम नहीं चलेगा। हमारा विभाग अब झोला नहीं देता।"

"अपने बड़े अधिकारी से आप लोग माँग क्यों नहीं करते ?"

"शहर के डाकियों को भी जब झोले नहीं मिलते, तो देहात के डाकियों की कौन पूछ ?"

"डाकिया, डाकिया होता है। शहर का हो या देहात का।"

"शहर का डाकिया विभागीय होता है, उसे डिपार्टमेंटल कहा जाता है। उसे सालाना पाँच हजार रुपये यूनीफार्म के लिए मिलते हैं। देहात का डाकिया एक्स्ट्रा-डिपार्टमेंटल कहलाता है, वह वर्दी का हकदार नहीं होता।"

"शहर और देहात के डाकियों में ऐसा भेद-भाव क्यों किया जाता है, पापा ?"

"पता नहीं, बेटी। — पैडिल पर पाँव रखते हुए महतो जी ने कहा,— "मोबाइल के इस जमाने में चिट्ठियाँ पहले की तरह नहीं आतीं। झोले की जगह पालिथिन के थैले से भी काम चल जाएगा।"

शहर में घुसते ही सकल महतो ने गाँव के जुआ साह की दुकान से पालिथिन का थैला माँगा और उसे जेब में डालकर मुख्य डाकघर की ओर बढ़ गये। गोला बाजार से डाकघर तक पहुँचने में उनकी साइकिल की चेन कई बार उतरी। थोड़ी-सी भी ऊँचाई चढ़ते ही वह कड़कड़ाने लगती और नीचे उतर जाती। चेन की ग्रीस और कालिख से उनकी हथेलियाँ काली हो गई थीं। डाकघर पहुँचते- पहुँचते ग्यारह बज चुके थे। उनके संगी-साथी चिट्ठियाँ छाँटने में संलग्न थे। महतो जी को देखकर वे अपनी हँसी नहीं रोक सके।

"भौजी ने करिखाही हाँड़ी से मारा है क्या, भैया ?" — एक ने कहा।

"अरे नहीं, यार, बुरी नजर से भैया को बचाने के लिए उन्होंने इनके चेहरे पर कालिख के टीके लगा दिए हैं।" — दूसरे ने ठहाका लगाया।

"अपना रूमाल निकालो, सकल भाई।" — तीसरे दोस्त ने कहा।

"रूमाल लाना भूल गया हूँ।" — जेब से पालिथिन निकालते हुए सकल महतो ने जवाब दिया।

"थोड़ी देर शान्त खड़े रहो..." — अख़बार के टुकड़े से महतो जी के चेहरे के दाग़ को साफ़ करके दोस्त ने गन्दा अख़बार डस्टबीन में डाल दिया।

अख़बार के दूसरे टुकड़े से अपनी हथेलियाँ साफ़ करके महतो जी भी चिट्ठियाँ छाँटने लगे। तीन पोस्टकार्ड, एक अन्तर्देशीय, एक पत्रिका और बारह लिफ़ाफ़ों को पालिथिन के थैले में डालते हुए उन्होंने गौर से देखा, बारह लिफ़ाफ़ों में दो विभागीय थे और शेष लिफ़ाफ़ों का रंग सफेद था। ये सारे लिफ़ाफ़े उन्हीं के गाँव के लोगों के नाम थे। ज़रूर ये ग्रामीण बैंक से निर्गत कर्ज़ वसूली के नोटिस हैं। ऐसे ही लिफ़ाफ़े इन्हीं लोगों के नाम पिछले साल भी आए थे। अच्छा हुआ कि उन्होंने कोई कर्ज़ नहीं लिया। कर्ज लेकर चुकाना किसानों के बस की बात नहीं है। वह भी तब जब वे असिंचित इलाके के किसान हों। सब कर्ज़ माफ़ी की आस लगाए बैठे हैं, शायद सरकार को रहम आ जाए।

बरास्ते सूखा रौजा डाकघर से गोला बाज़ार जाना सबसे सुगम और सरल है। धर्मशाला रोड से होकर जाने में दूरी दुगुनी अधिक हो जाती है। जी० टी० रोड पर रोज़-रोज़ लगने वाला जाम देखकर उस रास्ते वे कभी नहीं आते-जाते। गोला बाज़ार में पहुँचकर वे सबसे पहले गफ़ूर मियाँ की साइकिल की दुकान पर जाएँगे। लगता है, चेन खींचते खींचते बढ़ गई है। उसकी एक-दो कड़ियाँ काट देने पर वह ठीक हो जाएगी।

"बिना काटे ही आपकी चेन ठीक हो जाएगी, लेकिन आपको एक-डेढ़ घंटों का इन्तज़ार करना होगा। पहले मैं इस चक्के के तार कस लूँ, फिर नीचे खड़ी साइकिल का ब्रेक बदलना है। जब तक आप स्टूल पर बैठें या बाज़ार में काम हो तो वहाँ हो आएँ..."" ख़ाली पड़े स्टूल की ओर इशारा करते हुए गफूर मियाँ ने कहा।

"मैं बाजार से होकर आ रहा हूँ।"

इस दौरान ऊनवाला काम निपट जाए तो अच्छा है, यह सोचकर महतो जी जायसवाल क्लॉथ स्टोर की ओर बढ़ गए। गोला बाजार की अन्य दुकानों से अलग जायसवाल जी की दुकान काउण्टर वाली है।

"आइए, महतो जी, आइए। बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए।" — काउण्टर पर बैठे जायसवाल जी ने महतो जी को देखा और सामने खड़ी औरतों को साड़ी दिखाने लगे।

"तीन-चार गोला ऊन और चाहिए।" — काउण्टर के चिकने सनमाइका पर ऊन का टुकड़ा फैलाकर महतो जी ने उनका ध्यान अपनी ओर खींचा।

"बस, थोड़ी देर रुक जाएँ। पहले इन बहनों को साड़ी दिखा लूँ। बिल्कुल नए फ़ैशन की साड़ी है। ऐसी साड़ी आपको कहीं नहीं मिलेगी...।" जायसवाल जी एक के बाद एक साड़ियाँ फैलाते जा रहे थे। काउण्टर पर साड़ियों का ढेर लग गया। औरतें इत्मीनान से शिफ़ॉन, जार्जेंट और सूती साड़ियाँ देखती रहीं। अन्ततः उन्हें एक साड़ी पसन्द आ गई। जायसवाल जी का सहयोगी लड़का साड़ियाँ समेटने और लपेटने लगा।

"हाँ, तो महतो जी, आपको कैसा ऊन चाहिए ?"

"अभी-अभी ऊन का टुकड़ा आपके सामने फैलाया था। कहीं नीचे तो नहीं गिरा ?"

"लगता है, वह साड़ियों में लिपट गया, नीचे तो नहीं गिरा है।" — पैरों की ओर देखते हुए जायसवाल जी ने पूछा, "लच्छीवाला ऊन था या गोला वाला ?"

"गोले का ऊन था, जायसवाल जी, दस-पन्द्रह दिन पहले आपकी ही दुकान से खरीदा था।"

"ऊन के टुकड़े से काम नहीं चलेगा। कल पूरा गोला लेकर आइए। समझ गए न ?" — जायसवाल साहब दूसरे ग्राहक को पैंट का कपड़ा दिखाने लगे।

महतो जी चुपचाप दुकान से बाहर निकल आए। रास्ते में पड़ने वाले गाँवों की चिट्ठियाँ बाँटते और गाँव के गुरु जी के नाम आई पत्निका कल सुबह उनके घर पहुँचाने की बात सोचते महतो जी घर पहुँचे तो साढ़े तीन बज चुके थे। पत्नी बिस्तर पर लेटी थी। चादर से मुँह निकालते हुए उसने कहा, — "धुन्ध छँट जाने के बाद ठंड और बढ़ गई है...। चाय पीनी है तो चूल्हे पर पड़ी है...। गरम कर लो।"

"पूनम के आने में अभी देर है। तब तक मैं बगल के गाँव से चिट्ठियाँ बाँटकर आता हूँ।" — महतो जी पालिथिन से चिट्ठियाँ निकालने लगे।

"चिट्ठियाँ तो कल-परसों कभी बाँटी जा सकती हैं। आलू पर जोरा चढ़ाने का काम पहले पूरा कर लो।" — करवट बदलते हुए पत्नी ने टोका।

"कौन-सी चिट्ठी किसके लिए कितनी जरूरी है, यह बात तुम्हारी समझ के बाहर है। कोई चिट्ठी किसी को समय पर नहीं मिली और उसका काम बिगड़ गया तो कौन जिम्मेवार होगा। मोबाइल के इस जमाने में भी सरकारी चिट्ठियाँ डाक से ही आती हैं। चिठ्ठियों में नौकरी का नियुक्ति-पत्न, किसी साक्षात्कार के लिए बुलावा, कोर्ट-कचहरी का सम्मन वारंट कुछ भी हो सकता है। इन्हें समय पर पहुँचाना मेरा कर्तव्य है। आलू का जोरा बाद में भी चढ़ जायेगा।" — पालिथिन का थैला खूँटी पर टाँगकर महतो जी घर से बाहर निकल गए। ग्रामीण बैंक से आई चिट्ठियाँ वे कल बाँट देंगे। सारी चिट्ठियाँ अपने गाँव की हैं।

चिट्ठियाँ बाँटकर सकल महतो घर पहुँचे तो देखा, पूनम स्वेटर बुन रही थी। तेज़ साइकिल चलाने के बावजूद पूनम उनसे पहले आ गई थी। वे जाकर उसकी बगल में बैठ गए।

"ऊन ले आए, पापा ?

"ऊन का वह टुकड़ा जायसवाल जी की दुकान में गुम हो गया। उन्होंने कहा है कि टुकड़े से काम नहीं चलेगा, पूरा गोला लेकर आना होगा। बचा हुआ गोला मुझे दे देना। ऊन कल जरूर मिल जायेगा।"

"आखिरी गोला यही बचा था। इसे अभी-अभी जोड़ी हूँ। नहीं तो बुनाई बन्द करनी पड़ती।" — काँटों पर फन्दा देते हुए पूनम ने गोला दिखलाया।

"तो बुनाई बन्द कर दो। अभी गोला पूरा बचा है। इसे तोड़कर अलग कर दो, कल लेते जाऊँगा।"

ग्रामीण बैंक की चिट्ठियाँ बाँटकर और गुरु जी को पत्रिका देकर महतो जी रोज़ से बहुत पहले तैयार हो गए। अपनी साइकिल निकालकर उन्होंने पूनम को आवाज़ दी, — "ऊन का गोला देना, बेटी।"

पूनम अभी स्कूल जाने के लिए तैयार नहीं थी। रूमाल में बँधा गोला लाकर उसने पिता को थमा दिया।

जायसवाल जी की दुकान खुल गई थी। साइकिल खड़ी करते ही जायसवाल जी ने उनका स्वागत किया,— "आइए, महतो जी ! आज पहले ग्राहक आप ही हैं। ऊन का गोला लाए हैं न ?"

"यह रहा पूरा गोला, एक-आध मीटर ऊन ही खर्च हुआ है।" — रुमाल में बँधा गोला खोलकर महतो जी ने काउण्टर पर रख दिया।

"इसके चारों तरफ लिपटा रैपर कहाँ है ?"

"क्या ?" — महतो जी के ओठ देर तक खुले रह गए।

"अरे, महतो जी, गोले के गिर्द एक कागज लिपटा रहता है। उस पर कम्पनी का नाम, बैच नम्बर सब कुछ लिखा रहता है। अच्छी कम्पनियाँ एक बैच में एक ही तरह का ऊन बनाती हैं। दूसरे बैच के ऊन का रंग पहले वाले बैच से नहीं मिल सकता।"

"ऊन खरीदते वक्त आपके पास सिर्फ दस ही गोले थे। मेरी बेटी ने तीन-चार और गोले माँगे थे तो आपने कहा था कि चिन्ता की बात नहीं, घटेगा तो मिल जाएगा।"

"मैं तो आज भी कह रहा हूँ कि इस तरह का ऊन मिल जाएगा। मेरे पास नहीं भी होगा तो मैं कम्पनी को आर्डर देकर फिर मँगा दूँगा। लेकिन बिना बैच नम्बर के ऊन खोजना मुश्किल है। जाइए, इसका रैपर खोज लाइए। बोहनी के समय सुबह-सुबह बिना रैपर के आ गए। आपने मेरा पूरा दिन बिगाड़ दिया। भगवान बचाए, आप जैसे देहाती ग्राहकों से।" — जायसवाल जी ने अपने हाथ जोड़ दिए।

महतो मुँह लटकाए दुकान से बाहर आ गए। कब और कैसे वे डाकघर पहुँच गए, उन्हें पता नहीं चला। उन्हें याद नहीं कि वे अपनी साइकिल डुगराते हुए पैदल आए ये या उस पर सवार होकर। डाक छाँटते हुए उन्होंने सोचा कि ऊन पर लिपटे कागज भी चिट्ठियों से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होते। घर लौटते ही उन्होंने पत्नी से पूछा :

"आज सुबह झाडू किसने लगाया था ?"

"झाड़ू लगाने का जिम्मा तुम्हारी बेटी पर है। जब से स्वेटर बुनना शुरू किया है, किसी दूसरे काम में उसका मन ही नहीं लगता। सुबह उठते ही उसपर स्वेटर बुनने का भूत सवार हो जाता है। किसी-किसी दिन वह झाडू देना भी भूल जाती है।"

"मेरी ही शिकायत कर रही थी न? क्या कह रही थी ?"

नाम लेते ही पूनम स्कूल से वापस आ गयी थी। पापा के हाथों से पालिथिन का थैला छीनते हुए उसने पूछा, —ऊन मिल गया, पापा ?" "ऊन के लिए रैपर जरूरी है।"

"तुम्हें अपने काम से फुर्सत ही नहीं मिलती। रोज भूल जाते हो और कोई न कोई बहाना गढ़ लेते हो।" — पालिथिन में पड़ा पुराना गोला देखकर पूनम मुँह फुलाकर बैठ गई।

"मुझ पर विश्वास करो, बेटी, जायसवाल जी ने रैपर माँगा है। इस गोले के ऊपर लिपटा हुआ कागज कहाँ है? याद करने की कोशिश करो, इस गोले को स्वेटर से जोड़ते वक्त तुम कहाँ बैठी थी? कल शाम की ही बात है, कुछ तो याद होगा ?"

"याद नहीं, कहाँ फेंक दिया।"

"आज सुबह तुमने झाड़-बुहारू किया था, या नहीं ?"

"भूल गई थी, पापा ! "

"अच्छा हुआ कि भूल गई। अब वह कागज जरूर मिल जाएगा। इस गोले के साथ तुम कहाँ-कहाँ बैठी थी? ऊन जोड़ते वक्त तुम बरामदे में थी या आँगन में? मेरे कमरे में थी या अपने कमरे में? चौकी पर बैठी थी या खाट पर?"

"कुछ भी याद नहीं, पापा !" — पूनम की आँखें नम हो आईं।

"लो, पहले याददास्त ठीक करने की दवा पी लो।" — बाप-बेटी को चाय की प्यालियाँ थमाते हुए पूनम की माँ मुस्कुराई।

"उस कागज का रहना बहुत जरूरी है क्या, पापा ? बिना उसके रंग का मिलान नहीं हो सकता?" चाय की प्याली रखकर पूनम अपना बैग तलाशने लगी। कल स्कूल से लौटते समय बैग भी उसके साथ था।

चाय पीकर बाप-बेटी रैपर खोजने लगे। पूनम आँगन में चक्कर काट रही थी। उसके पिता बरामदे की तलाशी ले रहे थे। ताखों और खिड़कियों पर नज़र दौड़ाते हुए दोनों ने कमरों का कोना-कोना छान मारा। बाप बिस्तर झाड़कर देखता, बेटी तकियों को उलटती-पलटती। टेबुल पर रखी किताबों और कापियों में भी वह काग़ज़ नहीं था।

"कभी-कभी चीजें बिना खोजे मिल जाती हैं। चलो, सो जाओ। कल सुबह तक वह कागज जरूर मिल जाएगा।" — बेटी को सान्त्वना देते हुए सकल महतो ने कहा, लेकिन स्वयं उनके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ खिंच आई थीं। रात-भर बाप-बेटी ठीक से नहीं सो पाए।

अगली सुबह सकल महतो न आलू का जोरा चढ़ा सके और न उन्हें चिट्ठियाँ बाँटने की फुर्सत मिली। खोजने की प्रक्रिया फिर दुहराई गई, आँगन का हर कोना-अँतरा खंगालने के बावजूद काग़ज़ नहीं मिला।

"डाकघर से निकलने के बाद मैं पूरा बाजार छान मारूँगा, किसी-न-किसी दुकान में इस रंग का ऊन जरूर मिल जाएगा।"

पूनम को स्कूल भेजकर देर तक महतो जी उसे जाते देखते रहे। उसकी चाल में कल जैसी फुर्ती नहीं थी।

डाकघर से निकलकर महतो जी ने रोज़ आने-जाने वाला नज़दीक का रास्ता नहीं पकड़ा। आज उन्हें धर्मशाला रोड की दुकानें खँगालनी थीं। सबसे पहले उन्होंने ’जनता ऊन घर’ को देखने की योजना बनाई। अपनी साइकिल खड़ी करने वे दुकान में घुसना ही चाहते थे कि सामने से एक मोटर साइकिल सवार भीड़ को चीरता गुजर गया। पकड़ो पकड़ो, चोर-चोर की आवाज़ें सुनकर वे ठिठककर खड़े हो गए। लोग चिल्लाते रह गए, चोर भाग चुका था। अपनी साइकिल सड़क पर खड़ी करके दुकान में जाना ख़तरा मोल लेना था। साइकिल गायब हो गयी तो शहर आना-जाना मुश्किल हो जायेगा। इसे किसी सुरक्षित जगह पर खड़ी करने के बाद ही ऊन खरीदना अच्छा होगा। रेलवे स्टेशन का साइकिल स्टैण्ड दूर नहीं था। स्टैण्ड का किराया लगे तो लगे। दुकानों का चक्कर काटने से पहले निश्चिन्त हो लेना, अच्छा होगा। साइकिल जमा करके वे पुनः ’जनता ऊन घर’ आ गए।

"आपको क्या चाहिए? — दुकान में घुसते ही दरवाज़े के पास बैठे दुकानदार ने पूछा।

"इस रंग का ऊन दिखलाइए।"

"कोने में खड़े तीसरे लड़के के पास जाइए।"

कोने में जाकर महतो जी ने ऊन का टुकड़ा लड़के को थमा दिया। उलट-पुलटकर देखने के बाद उसने ऊन को वापस लौटा दिया। थोड़ी ही देर के बाद नारंगी रंग की लच्छी महतो जी के सामने थी।

"इसका रंग मेरे ऊन के रंग से अलग है।"

"थोड़ा फर्क जरूर है, लेकिन इसका रंग आपके ऊन से अच्छा है।"

"हो सकता है, लेकिन मुझे अपने ऊन से मिलता-जुलता रंग चाहिए।"

"यह देखिए। बिल्कुल आपके ऊन का रंग है।"

"रंग मिलता जरूर है, लेकिन आपके ऊन में चमक है। मुझे चमकने वाला नहीं, बिल्कुल सादा ऊन चाहिए।"

"आजकल चमकने वाले ऊन अधिक बिक रहे हैं।"

"मुझे ऐसा ऊन नहीं चाहिए।"

"तब तो आपको कोई दूसरी दुकान देखनी होगी।

सकल महतो उस दुकान से बाहर निकल आए। तीन-चार दुकानों के बाद एक शीशे के दरवाज़े वाली दुकान दिखी। भीतर बैठे आदमी को ऊन दिखलाते हुए उन्होंने बाहर से ही पूछा :

"इस तरह का ऊन होगा ?"

"आपके लिए ऊन लेकर मैं बाहर नहीं आ सकता। ज़रा भीतर आइए।"

"यह तो रेडीमेड कपड़ों की दुकान है।" — दुकान पर नज़र दौड़ाते हुए महतो जी ने कहा।

"ऊन के लिए आपको दूसरे तल्ले पर जाना होगा। बाएँ जाकर सीढ़ी के ऊपर चले जाइये।"

"कहिए अंकल, आपकी क्या सेवा करूँ ?" — उनकी बेटी की उम्र की लड़की सामने खड़ी थी।

बिना कुछ बोले महतो जी ने ऊन के टुकड़े को लड़की की ओर बढ़ा दिया।

"आपका ऊन किस कम्पनी का है ?"

"शायद लाल इमली का।"

"यह तो बहुत पुरानी कम्पनी है। शायद बन्द हो गई है। मेरे पास ओसवाल और वर्धमान कम्पनियों के ऊन हैं।

"मुझे कम्पनी से नहीं, रंग से मतलब है।

"रंग के साथ-साथ क्वालिटी भी देखनी पड़ती है, अंकल।"

"रंग और क्वालिटी दोनों मिल जाए तो और अच्छा है। मुझे सिर्फ़ तीन-चार गोलों की जरूरत है।"

"यहाँ खुदरा गोले नहीं बिकते। आपको पूरा डिब्बा खरीदना होगा। डिब्बे में छह गोले होते हैं। मेरे पास पच्चीस या पचास ग्राम वाले गोले नहीं हैं। आपको सौ ग्राम वाले छह गोले लेने होंगे।"

"कितनी कीमत देनी होगी।"

"साढे पाँच सौ रुपये।"

"रंग मिलता-जुलता होना चाहिए।"

"रंग में थोड़ा-बहुत अन्तर जरूर होगा।"

देर तक महतो जी असमंजस में पड़े रहे। थोड़ा सोचने के बाद उन्होंने फिर पूछा, — "आपके पास लच्छीवाले ऊन हैं या नहीं? शायद उनका रंग मिलता- जुलता हो।

"यहाँ लच्छीवाले ऊन नहीं मिलते हैं।" — लड़की किताब पढ़ने लगी। महतो जी सीढ़ियाँ उतर आए। दुकान से बाहर आकर उन्होंने सामने देखा। सड़क के उस पार छोटे-बड़े तीन मार्केट हैं। ऊन की दुकान किस मार्केट में है, सकल महतो याद नहीं कर पाए। दुकान-दुकान भटकने से अच्छा है कि विधायक जी के मॉल में देखा जाए। सुना है कि वहाँ छोटी-बड़ी हर चीज़ मिल जाती है।

इस मॉल की जगह पहले कनीराम की धर्मशाला थी। कनीराम कलकत्ते के बड़े सेठ थे। देश के छोटे-बड़े कई शहरों में उन्होंने धर्मशालाएँ बनवाई थीं।

शायद उनके वारिस ग़रीब हो गए हैं। नहीं तो, इस धर्मशाला को वे विधायक जी के हाथों क्यों बेचते ? एक ज़माने में यह धर्मशाला ग़रीबों की शरण-स्थली थी। मरीज़ों के साथ दूर-दराज के गाँवों से आए लोग इलाज करवाने के दौरान यहाँ गुज़र-बसर करते थे। रात हो जाने पर कोर्ट-कचहरी के काम से आए लोग भी यहीं ठहर जाते थे। सकल महतो ने भी एक तूफ़ानी रात यहीं काटी थी। स्कूल के दिनों की बात है। देश के नामी-गिरामी नेता बाबू जी का भाषण हो रहा था। वे भी सुनने लगे। भाषण खत्म होते ही आँधी आ गई थी। पेड़ों की डालियाँ टूटकर सड़कों पर आ गिरी थीं। थोड़ी ही देर के बाद मूसलाधर बारिश होने लगी थी। आँधी-पानी की वह भयानक रात उन्हें धर्मशाला के बरामदे में काटनी पड़ी थी।

मॉल के सामने जाकर सकल महतो अचरच में डूब गए। शीशे की इतनी ऊँची दीवार उन्होंने आज तक नहीं देखी थी। राख के रंग की यूनीफ़ार्म पहने दरबान दरवाज़े पर खड़ा था। ’पुश’ और ’पुल’ का मतलब सकल महतो को मालूम था, फिर भी हड़बड़ी में दरवाज़े को भीतर दबाने की बजाए वे बाहर खींचने लगे। फिर तुरन्त अपनी ग़लती सुधारते हुए वे दरवाज़ा ठेलकर भीतर आ गए। दरबान ने सलामी ठोंकी तो उनमें हिम्मत आ गई। इतनी रोशनी थी कि उनकी आँखें चौन्धिया गईं।

"यहाँ ऊन मिलता है क्या, भाई?" — उन्होंने दरबान से पूछा।

"यहाँ ऊन का बना सामान मिलता है। ऊन खरीदना है तो पुराने बाजार में जाइये।"

"मैंने सुना था कि मॉल में हर तरह की चीज़ मिल जाती है।

"आपने ठीक सुना है, चाचा, लेकिन आजकल लोग ऊन बहुत कम खरीदते हैं। यह रेडीमेड चीजों का जमाना है।"

बग़ल में ही ’मीना बाज़ार’ था। बजरंग साड़ी भण्डारवाले ऊन के थोक विक्रेता थे। छोटे-से दरवाज़े के भीतर घुसते ही एक बड़ा हॉल था। चारों तरफ़ रंग- बिरंगे ऊन के ढेर लगे थे। गद्दी पर बैठे सेठ जी के क़रीब जाकर महतो जी ने ऊन देखने की इच्छा जाहिर की}

"मुझे इस रंग के चार-पाँच गोले चाहिए, सेठजी।"

"रंग मिल भी जाए, तो यहाँ एक किलो से कम ऊन नहीं दिया जाता। मन हो तो देख लो, अपना ऊन अपने आप मिला लो।" — यह कहकर सेठ जी दूसरे ग्राहक से बात करने लगे। वह कालीन बुनने के लिए एक-डेढ़ क्विण्टल ऊन ख़रीदना चाहता था।

मोल-भाव चल रहा था। महतो दाल-भात में मूसलचन्द नहीं बनना चाहते थे। वे उल्टे पाँव दुकान से बाहर निकल आये। घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर आया था। माँ-बेटी बोरसी ताप रही थीं। इसके पहले कि पूनम कुछ पूछे, महतो जी ने कहा- 'बेकार पूरा दिन बड़ी दुकानों की खाक छानने में गुजर गया, अगले दिन मैं पुराने बाजार की छोटी दुकानों का चक्कर लगाऊँगा।' देर रात तक महतो जी करवटें बदलते रहे। अधूरा स्वेटर आँखों के सामने टैगा था। अचानक उम्मीद की एक किरण झिलमिलायी और उन्हें नींद आ गयी। सुबह में नींद खुलते ही वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। पीछे के घूरे पर खोजा जाये, रैपर जरूर वहीं मिल जायेगा। पत्नी खर्राटे भर रही थी। पूनम के कमरे से भी कोई आवाज नहीं आ रही थी। दबे पाँव वे बरामदे में आ गये। कुदाल अपनी जगह पर थी। कुदाल को कन्धे पर टाँग करके उन्होंने बिना आहट किये घर का दरवाजा खोला। गली में निकलते ही उनके चेहरे पर ठंडी हवा की मार पड़ी। ठंड से बेपरवाह वे अपने खेत की ओर चल पड़े। खेत के दायें कोने में पड़ा घूरा टीले की तरह दिख रहा था। उस पर चढ़ते वक्त पैर राख में धँस जाते थे। कुदाल को घूरे के माथे पर फेंककर वे किसी चौपाये की तरह ऊपर चढ़ आये। दस-पन्द्रह दिनों का कूड़ा-कचरा घूरे के माथे पर होगा या नीचे, उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। झाडू-बुहारू करके कूड़े को धूरे पर फेंकने का काम हमेशा पूनम करती है। अब ऊपर चढ़ ही आये हैं तो क्यों नहीं तलाशी की शुरुआत माथे से ही की जाये? महतो जी ने कुदाल का एक जोरदार प्रहार किया। कुदाल पत्थर के किसी टुकड़े से टकरायी और चिनगारी छिटक आयी। पत्थर के टुकड़े को नीचे फेंककर महतो जी पालथी मार कर इत्मीनान से बैठ गये। वे बैठे-बैठे घूरा कोड़ते और उसमें मिलने वाले कूट के डिब्बों, कागज,

दवा की शीशियों, खपड़े के टुकड़ों और पालिथिन के थैलों को छाँट-छाँटकर नीचे फेंकते जाते। एक हाथ से नीचे कोड़ना उन्होंने जरूरी नहीं समझा। हाल- फिलहाल में फेंका गया कूड़ा-कचरा इससे अधिक ऊँचा नहीं हो सकता। अब नीचे उतरकर घूरे के चारों तरफ कोड़ना चाहिए। उतरने से पहले उन्होंने कुदाल को नीचे फेंक दिया। खुद उतरते वक्त फिसलन से बचने के लिए उन्होंने धतूरे के एक पौधे का सहारा लिया। पौधा उखड़ गया। और वे घूरे के नीचे आ गिरे। कुदाल की धार से पैर कट गया और खून निकलने लगा।

कटी हुई जगह को पालिथिन से बाँधकर उन्होंने घूरे को चौतरफा कोड़कर ही दम लिया। खाद का बोरा खींचते वक्त राख और मिट्टी मुँह में आ गयी। थूकते हुए भी उन्होंने अपनी तलाश जारी रखी। सर से पाँव तक राख और धूल से ढँकी महतो जी की आकृति डरावनी लग रही थी। रोज उनके आगे पूँछ डुलाने वाला कुत्ता उन्हें देखकर भौंकने लगा। वे कुत्ते को पत्थर मारकर भगाते, कुत्ता बार-बार लौट आता। तलाशी में मिली चीजों को वे सरसरी निगाह से देखते और अलग फेंकते जाते। उन्हें सिर्फ कागजों से मतलब था। फटे-पुराने अखबारों, दवा की पुर्जियों, देवी-देवता की तस्वीरों, बिस्किट के पाकिटों और निमन्त्रण पत्नों के बीच ऊन के गोले का एक भी रैपर नहीं मिला। दस-दस गोलों के रैपर आखिर कहाँ चले गये ? अपने थके हाथों पर गाल रख कर महतो जी सोच में डूब गये। कुत्ता अब भी भौंके जा रहा था। दूर से देखने पर महतो जी खुदाई से निकली किसी मूर्ति की तरह लग रहे