स्वेटर / विमल चंद्र पांडेय
बाहर अभी उजाला है। हल्का-हल्का उजाला जो अभी थोड़ी देर में अँधेरे की शक्ल लेना शुरू कर देगा। माँ रसोई में अब भी कुछ खटपट कर रही है जबकि उसे अच्छी तरह पता है कि दोनों सूटकेस और बैग पैक हो चुके हैं और अब कोई चीज रखने की जगह नहीं।
वह कुर्सी पर आराम की मुद्रा में बैठा है। सामने अभिजीत पलँग पर बैठा है। पापा दरवाजे पर टहल रहे हैं और पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रहे हैं। वह कभी बाहर की तरफ देखता है, कभी अभिजीत की तरफ और कभी किचेन की तरफ। सभी मानो किसी चीज का इंतजार कर रहे हों। घड़ी की सुइयों का एक जगह से दूसरी जगह जाकर एक निश्चित जगह पहुँच जाना भी कितनी उदास घटना है, और कितना थका देनेवाला है यह इंतजार। पापा बाहर टहलते-टहलते ही उसे बीच-बीच में देख ले रहे हैं जैसे उन्हें यकीन ही न हो कि वह इसी घर में उसी हत्थे टूटी कुर्सी पर बैठा है। थोड़ी-थोड़ी देर पर अंदर आ जा रहे हैं।
‘विक्रांत का पता और फोन नंबर कहाँ रखा है?’
‘डायरी में।’ वह जैकेट की जेब थपथपाता है।
‘कहीं दूसरी जगह भी लिख लो, अगर ये डायरी खो गई तो...?’ थोड़ी देर खड़े रहते हैं फिर बाहर जा कर टहलने लगते हैं। माँ एक डब्बे में कुछ लेकर आती है।
‘इसे बैग की साइडवाली पॉकेट में जगह बना कर रख लो।’
‘क्या है ये...?’ वह डब्बे को बिना थामे पूछता है।
‘रास्ते में खाने के लिए मठरियाँ...।’
‘माँ, मैंने बताया था न कि प्लेन में खाना मिलता है।’ वह झुँझला जाता है।
‘...पर ये खाना थोड़े ही है, थोड़ी-थोड़ी देर पर निकाल कर खाते रहना।’ माँ थोड़ी सहम जाती है।
‘माँ तुम भी...।’
अभिजीत उठकर माँ के हाथ से डब्बा ले लेता है।
‘लाओ आंटी, मैं रख देता हूँ। दो-चार अपनी जेब में और बाकी बैग में...।’
‘हाँ बेटा, ले रख दे।’
पापा फिर अंदर आते हैं।
‘बेटा, वहाँ जाकर अपना हिसाब-किताब देख कर मुझे फोन करना। और भी पैसों की जरूरत होगी तो बताना। पढ़ाई में ध्यान लगाना, पैसों की कोई फिकर मत करना...।’
उसे पता है पापा की आदत है ये, जिस चीज की सबसे ज्यादा कमी होती है उसे ही सबसे ज्यादा उपलब्ध दिखाने की कोशिश करते हैं।
अभिजीत चुपचाप बैठा मठरियाँ खा रहा है। बीच-बीच में उसे देख ले रहा है और मुस्करा दे रहा है। ये इतना चुप तो कभी नहीं रहता। मठरियाँ खाने में ऐसे जुटा है जैसे मठरियाँ खाना दुनिया का सबसे जरूरी काम हो और उसका पढ़ाई करने ऑस्ट्रेलिया जाना एक मामूली बात हो।
अभी तीन घंटे बाद वह फ्लाइट में होगा। सभी से दूर... माँ-पापा से, दोस्तों से, इस मुहल्ले से, इस शहर से, इस देश से...।
थोड़ी देर में अनुज भी आ जाता है।
‘सब तैयार है न?’ वह अभिजीत से पूछता है।
‘हाँ, हाँ सब तैयार है। बस... निकलते हैं।’ अभिजीत इत्मीनान से एक मठरी निकाल कर अनुज की ओर बढ़ा देता है।
रोज का दिन होता तो अनुज इतनी शांति से एक मठरी लेकर खाने लगता? अभिजीत के हाथ से दूसरी भी छीन लेता और अभिजीत उसे छीनने के लिए उसकी टाँगों में हाथ डालकर गिरा देता और मठरियाँ छीनने लगता। माँ हमेशा की तरह दोनों की तरफ देख कर कहती, ‘अरे लड़ो मत बेटा। अभी और भी मठरियाँ बची हुई हैं।’
मगर अनुज एक मठरी आराम से खा रहा है। माँ सोफे पर बैठकर एकटक उसकी ओर देख रही है। वह मुस्करा देता है।
‘क्या है माँ? ऐसे क्यों देख रही हो?’
‘अं हाँ, अपने खाने-पीने का बहुत खयाल रखना। रात को दूध जरूर पीना और... और फोन करते रहना। पढ़ाई पर ध्यान देना और चिट्ठी जरूर डालते रहना।’
‘अरे आंटी, अब कौन चिट्ठी-विट्ठी लिखता है। यह हर दो-तीन दिन पर ई मेल करता रहेगा और हम आकर इसका हाल-चाल आपको बता दिया करेंगे।’ अनुज कहता है।
‘जुग-जुग जीओ बेटा।’
वह अनुज की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखता है। अनुज भी कुछ बताने के लिए उसकी तरफ देख रहा है पर माँ की उपस्थिति से दोनों खामोश हैं। वह अभिजीत की ओर देखता है। अभिजीत उसकी आँखों का इशारा समझा जाता है। वह उठकर माँ के पास चला जाता है।
‘आंटी वह नमकीन वाली गुझिया दो न एक।’
‘जा बेटा, उस सफेद डब्बे में है, निकाल ले।’ माँ वहाँ से बिल्कुल नहीं उठना चाहती।
‘नहीं आंटी प्लीज आप निकाल लाओ न।’
‘अच्छा रुको लाती हूँ।’ माँ धीरे से उठ कर रसोई की तरफ चली जाती है।
अनुज लपक कर उसके पास पहुँचता है।
‘क्या हुआ?’ वह बेचैन दिख रहा है।
‘वह सीधा एअरपोर्ट आएगी।’ अनुज बताता है।
‘यार यहाँ आ जाती तो मैं नीचे जाकर मिल आता। एअरपोर्ट पर तो पापा भी होंगे। क्या बोलकर परिचय कराऊँगा उसका...?’
‘बोल देना दोस्त है।’ अनुज राय देता है।
‘हाँ पर... फेयरवेल किस नहीं ले पाएगा पापा के सामने।’ अभिजीत मुस्कराता हुआ कहता है।
‘अरे यार वो बात नहीं... अभी तक माँ-पापा को कुछ नहीं बताया तो अब जाते वक्त...। बाद में बताऊँगा, सीधे फाइनल डिसीजन के समय...।’ वह कुछ सोच में पड़ जाता है।
‘सुन तू पापा को एअरपोर्ट चलने के लिए मना कर दे। कुछ भी बोल कर समझा ले। बोल दे कि दो लोग तो जा ही रहे हैं।’ अभिजीत आइडिया देता है।
‘हाँ शायद यही ठीक रहेगा।’ वह सोचते हुए बुदबुदाता है।
माँ गुझिया रख कर पापा के पास चली गई है। दोनों आपस में बातें कर रहे हैं। या अब अकेले सिर्फ एक दूसरे के साथ रहने का अभ्यास...?’
पापा फिर अंदर आते हैं।
‘ठंड से बचकर रहना। वहाँ ठंड ज्यादा पड़ती है। हमेशा मफलर लगा कर रहना। ठंड कानों पर ही सबसे पहले आक्रमण करती है। कान हमेशा ढके होने चाहिए। ये नहीं कि फैशन में बाल न बिगड़ें, इसलिए मफलर ही न लगाओ। स्वविवेक से काम लेना। वहाँ कोई देखने नहीं आएगा। वह तुम्हारा घर नहीं मेलबर्न है।’
पापा पिछले कुछ दिनों से हर बात में घुमा-फिरा कर मेलबर्न का जिक्र जरूर ले आते हैं जैसे पूरी तस्दीक कर लेना चाहते हों कि वह वाकई इतनी दूर जा रहा है।
पापा बाहर जा कर फिर टहलने लगते हैं। माँ बाहर कुर्सी पर बैठी है।
‘जी...।’ इतनी बातों के जवाब में वह सिर्फ एक शब्द बोलता है जो बाहर पसर रहे अँधेरे में गुम हो जाता है।
‘आज रोज इतनी ठंड नहीं है।’ अनुज कहता है।
‘हाँ बल्कि मुझे तो गर्मी लग रही है।’ वह कहता है।
‘वह तो लगेगी ही, तूने स्वेटर और जैकेट दोनों पहन रखी है। मुझे देख...।’ अभिजीत उसे अपना हाफ स्वेटर दिखाता है।
‘अरे यार, पापा ने जबरदस्ती...।’
‘तो पापा के सपूत, अब तो उतार दे। पापा बाहर हैं। उतार कर जैकेट की चेन बंद कर ले। उन्हें क्या पता चलेगा।’ अभिजीत राय देता है।
वह जैकेट उतार कर स्वेटर उतार देता है। फिर जैकेट पहन कर उसकी चेन बंद कर देता है।
‘मैं सोच रहा था, ये स्वेटर न ले जाऊँ।’ वह स्वेटर को तह करते हुए कहता है।
‘सही सोच रहा है। इस पुराने स्वेटर को ले जाकर क्या करेगा? तीन-तीन अच्छे स्वेटर तो हैं तेरे पास...।’ अनुज समझाता है।
‘मगर पापा देख लेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा। वह खुद यह स्वेटर मेरे लिए नेपाल से लाए थे।’ वह हिचकिचाता है।
‘अभी नहीं देखेंगे ना? बाद में देखेंगे तो सोचेंगे गलती से छूट गया।’ अनुज स्वेटर तह करके तकिए के नीचे रख देता है।
फिर तीनों अचानक चुप हो जाते हैं। अनुज व अभिजीत दोनों उसकी तरफ देख कर मुस्कराते हैं।
‘कुछ कह रही थी?’ वह भी मुस्कराता है।
‘नहीं, कुछ खास नहीं। बस यही कि पहुँचते ही अपना पोस्टल एड्रेस उसे मेल कर देना। जो स्वेटर तुम्हारे लिए बुन रही है, बस पूरा होने ही वाला है, उसे कूरियर करेगी। कह रही थी बहुत सारी बातें हैं जो तुमसे एअरपोर्ट पर करेगी। मैंने कहा मुझे बता दे, मैं तुम्हें बता दूँगा तो नाराज होने लगी...।’ अनुज कुटिल मुस्कान मुस्कराता है।
‘साले, तुझसे क्यों बताएगी? वो बातें तू सीमा से क्यों नहीं करता?’ वह भी मुस्कराता है।
‘यार, वह ना तो मुझे घास डालती है न मेरी डाली घास खाती है। उससे क्या बातें करूँ, मुझे तो तेरी कविता ही पसंद है।’ अनुज ढीठता से हँसता हुआ कहता है।
वह फिर मुस्कराता है। वह जानता है ओर कोई दिन रहता तो सीमा का नाम सुनते ही अनुज दिल पर हाथ रखकर सारी बातें धीरे-धीरे नाटकीय अंदाज में कराहते हुए कहता। वह भी उसकी जबान से कविता का नाम सुनते ही उस पर लातें चलाने लगता। पर आज की बात दूसरी है। आज उनके पास वक्त नहीं है। आधे घंटे के भीतर वे एअरपोर्ट के लिए निकल लेंगे। उससे पहले यारों के बीच होने वाली बेवकूफियों को रिवाइंड करना अच्छा लग रहा है।
पापा माँ के साथ फिर अंदर आते हैं।
‘अब निकलते हैं बेटा, कहीं पहुँचने में देर न हो जाय।’
‘अरे अंकल, अभी तो टाइम है।’ अनुज कहता है।
‘अरे भई ट्रैफिक जैम का कोई भरोसा है क्या। कभी भी लेट करा सकता है।’
माँ भीगी आँखों से उसे देखती है। ‘तेरे जाने के बाद घर एकदम सूना हो जाएगा।’ लगता है माँ रो देगी।
‘कम ऑन आंटी, हम सूना होने देंगे तब ना...।’ अभिजीत माँ के कंधे पर हाथ रखता है। माँ उसका गाल थपथपा देती है।
‘चलो बेटा चलो, अब निकलते हैं... कहीं देर न हो जाय।’ पापा पास आकर खड़े हो जाते हैं। उसे पापा पर इसी बात से गुस्सा आता है। जिस बात को एक बार मुँह से निकाल देते हैं उसके पीछे ही पड़ जाते हैं।
‘चलो बेटा, आओ अनुज...।’ उसके सोचने भर में पापा एक बार और अपनी बात दोहरा देते हैं और एक बैग उठाने का उपक्रम करते हैं।
‘अरे अंकल, आप कहाँ परेशान होंगे? हम हैं ना...। आप आराम कीजिए।’ अनुज यह कहता हुआ बैग उठा लेता है। अभिजीत दोनों सूटकेस उठा लेता है।
‘अरे नहीं बेटा, मैं भी चलता हूँ।’ पापा परेशान दिखने लगे हैं।
‘छोड़िए अंकल, डॉक्टर ने वैसे भी आपको ज्यादा दौड़ने-धूपने से मना किया है। आप यहीं रहिए । हम हैं ना...।’ कहता हुआ अभिजीत बाहर निकल जाता है। पीछे-पीछे अनुज भी।
‘डॉक्टर ने दौड़ने को मना किया है भई। मुझे दौड़ते हुए थोड़े ही चलना है। ...चलता हूँ मैं भी...।’ पापा उसके कंधे पर हाथ रखते हुए एक उदास हँसी हँसते हैं जो इस उदास शाम को और उदास कर जाती है।
‘रहने दीजिए पापा, आप बेकार परेशान होंगे।’ वह पापा के पैर छूता है, फिर माँ के।
‘बेटा, माता के पैर छू लो।’ माँ दुर्गा के शीशे में मढ़ाई गई तस्वीर की ओर इशारा करती है।
वह आगे बढ़कर दुर्गा की तस्वीर को प्रणाम करता है जिसके शीशे में पापा की उदास खड़ी परछाई दिखाई देती है। वह बाहर आ जाता है। पापा उम्मीद भरी आँखों से उसे देखते रहते हैं। माँ उसे दही खिलाती है। वह जल्दी से दही खाकर निकल जाता है।
तीनों घर से निकल कर सड़क पर आ जाते हैं। वह खुद को ऐसे मकाम पर पा रहा है जहाँ एक वाजिब खुशी का एहसास दिल में इसलिए नहीं उमड़ पा रहा है क्योंकि कुछ छूट जाने का गम उस पर हावी होता जा रहा है। अपने दोस्त, अपनी जगह, अपना माहौल...। एक नई दुनिया में जाने की खुशी पता नहीं क्यों इतनी शिद्दत से महसूस नहीं हो पा रही है।
करीब सौ मीटर चलने के बाद अनुज सिगरेट जलाकर दोनों को एक-एक थमा देता है। दोनों सिगरेट फूँकते हुए ऑटो स्टैंड की तरफ जाने लगते हैं।
‘आज सुबह मनु के घर पुलिस की रेड़ पड़ी थी।’ अनुज सिगरेट का धुआँ छोड़ता हुआ बताता है।
‘हाँ, उसके डैडी बिजनेस की आड़ में कुछ गलत धंधा करते थे।’ अभिजीत कहता है।
उसका मन सुबह से भारी हो रहा है। वह अपनी बीती जिंदगी और आनेवाली जिंदगी के बारे में सोच रहा है। इन दोनों की बातें सुनकर उसका मन डूबता हुआ सा लग रहा है। वे भी तो उसके बिना अकेले हो जाएँगे। वह कितना मिस करेगा इनको...।
‘अच्छा सुन, वहाँ की लड़कियाँ बड़ी फ्रैंक होती है। दो-चार पट जायँ तो बताना, हम भी आय ई एल टी एस ट्राय कर लेंगे। क्यों अभि?’ अनुज खी-खी करके हँसने लगता है।
वह भी मुस्करा देता है। अभिजीत एक बार उसकी तरफ देख भर लेता है। वे कितनी सफाई से दिल दुखानेवाली बातें नहीं करना चाहते।
‘मैं वहाँ तुम लोगों को बहुत मिस करूँगा...।’ वह भरी-भरी आवाज में कहता है। अभिजीत उसकी हथेली अपनी हथेली में पकड़ कर दबा देता है।
‘अरे कभी-कभी उसे भी मिस कर लेना जो अपना प्यार स्वेटर की शक्ल में भेजनेवाली है...।’ अनुज अपनी आदत के अनुसार भावुक होने के बावजूद बात को हँसी में उड़ा देता है।
‘अंकल आ रहे हैं। पीछे पलटने से पहले सिगरेट फेंक दो।’ अभिजीत धीरे से फुसफुसाता है।
वह सिगरेट फेंक कर पलटता है। पापा लगभग दौड़ते हुए आ रहे हैं। वह आगे बढ़कर सड़क पार करता है और उनके पास पहुँचता है।
‘क्या बात है पापा? आपके लिए दौड़ना नुकसानदायक है, आप जानते हैं फिर भी...?’ वह हल्का गुस्सा दिखाता है। उसे पहली बार याद आता है कि उसके जाने के बाद पापा का उतावलापन नियंत्रित करनेवाला कोई नहीं रहेगा और वह उतावली में अपना नुकसान करते रहेंगे।
‘अरे तुम ये स्वेटर भूल आए थे तकिए के नीचे...। तुम्हारी मम्मी ने कहा कि तुम्हें दे आऊँ... इसलिए थोड़ा दौड़ना पड़ा। ...लो बैग में रख लो...।’ पापा अटकती साँसों के बीच बोलते हैं और उसे देखते रहते हैं।
उसे अचानक पापा के ऊपर तरस आने लगता है, फिर अपने ऊपर। फिर पापा के ऊपर प्यार आने लगता है और अपने ऊपर गुस्सा। स्थिर, गंभीर आँखों और लंबी साँसों के बीच पापा ने कितनी चिंताएँ छिपा रखी हैं। उसका मन करता है कि अपने दिल में पापा के लिए छिपा सारा प्यार जाहिर कर दे। क्या पता फिर पापा भी जाते समय उससे पैर छुआने की जगह उसे गले लगा लें।
वह डूबती आँखों और काँपते हाथों से स्वेटर हाथ में लिए थोड़ी देर खड़ा रहता है और पापा को देखता रहता है।
‘सारी जरूरी चीजें रख ली हैं न? ये याद रखना कि हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रखना। सही रास्ता कठिन हो या लंबा, हमेशा उसे ही चुनना। शरीर और पढ़ाई दोनों पर ध्यान देना। पैसों की चिंता मत करना। चलो, अब जाओ, देखो अनुज ने ऑटो तय कर लिया है। ...बुला रहा है तुम्हें।’ पापा सामान्य दिखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
‘जी...।’ वह भरी आँखों के साथ पलटता है। दो-तीन कदम चलने पर पापा की आवाज सुनाई देती है।
‘कहो तो मैं भी चला ही चलूँ...। वैसे भी घर पर बैठा ही रहूँगा...।’ पापा की धीमी आवाज जैसे कहूँ और न कहूँ के संशय के बीच से निकल कर आ रही है। जमाने भर का दर्द और निवेदन समेटे अपनी आवाज को उन्होंने इस तरह जाहिर करना चाहा है जैसे उन्होंने बहुत सामान्य और छोटी सी बात कही है और इसके न माने जाने पर भी उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।