स्‍वर्णनगरी जैसलमेर / रश्मि शर्मा

Gadya Kosh से
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हमलोग कई बरस पहले राजस्‍थान गए थे। जयपुर, पुष्‍कर और अजमेर। बहुत सुंदर लगा था गुलाबी शहर। मगर रेत के धोरों को न देख पाने का मलाल रह गया था। यह इच्‍छा बरसों बाद फलीभूत हुई. इस सर्दी में हमने प्‍लान कि‍या कि‍ इस बार राजस्‍थान हो ही लें। मुझे सबसे ज्‍यादा इच्‍छा थी रेत देखने की; इसलि‍ए सबसे पहले हमने स्‍वर्णनगरी जैसलमेर जाने की योजना बनाई.

बात हुई कि‍ जब जैसलमेर ही सबसे पहले जाना है तो सीधे वहीं की ट्रेन पकड़ी जाए, बजाय दि‍ल्‍ली होकर जाने के. तो तय हुआ कि‍ धनबाद से हर सोमवार एक ट्रेन सीधे जैसेलमेर जाती है, तो वहीं का टि‍कट कटा लि‍या जाए. हम खुश थे, उत्‍साह से भरपूर। जि‍स दि‍न जाना था सुबह उठकर अपनी गाड़ी से धनबाद पहुँचे। वहाँ से दोपहर 12 बजे की ट्रेन थी। बहुत थोड़े वक्‍त के लि‍ए वहाँ रुकती है ट्रेन सो हम एहति‍यातन घर से जल्‍दी नि‍कले। हमलोग समय से घंटे भर पहले पहुँच गए. वहाँ स्‍टेशन पर इंतजार कि‍या और ठीक वक्‍त पर जैसलमेर के लि‍ए नि‍कल पड़े।

दि‍न भर पूरे उत्‍साह से गुजरा। शाम होते पता लगा की इस ट्रेन में पेंट्री कार नहीं है। लो हो गई परेशानी। सबसे दि‍क्‍कत तो बच्‍चों को हुई. दूसरे दि‍न रात 12 बजे के आसपास ट्रेन पहुँचने वाली थी। वातानुकूलित बोगी में कोई खोमचे वाला भी नहीं आया और रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों पर ट्रेन जहाँ जाकर रुकती थी, वह जगह मुख्य प्लेटफार्म से इतनी दूर होती थी कि हमारा वहाँ से उतरकर खाना लाना संभव नहीं था। अब तो बड़ा अफसोस हुआ कि‍ घर से ही कुछ पैक करा लाते।

ट्रेन चूंकि‍ सुपरफास्‍ट थी, इसलि‍ए समय पर हम ठीक 12 बजे जैसलमेर स्‍टेशन उतरे। राजस्थान का आखिरी स्टेशन या कहें कि भारतवर्ष का आखिरी स्टेशन ट्रेन यहाँ आकर आगे नहीं जाती, वापस पीछे मुडती है। इस के आगे पकिस्तान की सीमा आरम्भ हो जाती है। यह बात पहले कहीं पढ़ी थी, सो उस जगह उतरते ही अजब-सा रोमांच हो आया। अलसाई आधी रात ने इस रोमांच को और पंख दिए. बच्चे इसलिए खुश थे कि अब किसी होटल में उन्हें उनका पसंदीदा भोजन मिल सकेगा। उम्‍मीद थी कि‍ खूब सर्दी होगी वहाँ, खासकर रातों को। सुन रखा था-रेत के शहरों में दि‍न गर्म और रात उतनी ही सर्द। मगर वहाँ का मौसम बि‍ल्‍कुल अपने शहर राँची जैसा ही था।

चूँकि‍ हमने ऑनलाइन होटल बुक कर रखा था; इसलि‍ए जाकर होटल ढूँढने की चिंता भी नहीं थी। होटल से कोई स्टाफ पहले ही गाड़ी लेकर हमें रि‍सीव करने आया हुआ था।

छोटा, मगर साफ-सुथरा लगा शहर। रात की लाइट में पूरा शहर स्‍वर्णिम आभा से दमक रहा था। जि‍तने होटल और घर दि‍खे, सबमें पीले पत्‍थरों की नक्‍काशी थी। पीले पत्थर, जिनको यहाँ की सोनल रेत अपने गर्भ में विकसित करती है। खामोश रात के विहंगम दृश्य से हम उत्‍साह से लबरेज हो उठे।

सूनी पड़ी हुई सड़कें ...सारा नज़ारा जैसे एक पीले बल्ब की रौशनी से नहाया हुआ कमरा—सा लगा। जब होटल पहुँचे तो बाहर से बेहद भव्‍य लगने वाला होटल अंदर से बि‍ल्‍कुल साधारण महसूस हुआ। हमें लग गया कि‍ आँनलाइन बुकिंग घाटे का सौदा है। मन खि‍न्न-सा हुआ। मगर थकान इतनी थी कि‍ कुछ सूझा नहीं। खाना खाकर सब सोने चले गए. सुबह तरोताज़ा होकर सोनार कि‍ला देखने का रोमांच तारी था। पर मुझे देर तक नींद नहीं आई. जाने असंतुष्‍टि‍ के कारण या सुबह घूमने जाने के रोमांच के कारण।

सुबह ज़रा देर ही नींद खुली। सबसे पहले हम लोग अपनी चाय लेकर छत पर भागे। वाकई स्‍वर्णनगरी लगी जैसलमेर। सुबह की धूप ने सुनहरी आभा बि‍खेर दी हो जैसे। जहाँ तक नजर गर्इ...सब सुनहरा। स्‍वर्णिम आभा वाला इमारती पत्‍थर वहाँ खूब पाया जाता है। नगर नि‍गम ने पीले पत्‍थर की उपयोगि‍ता अनि‍वार्य कर दी है, इसलि‍ए सारा जैसलमेर स्‍वर्णनगरी कहलाने की योग्‍यता रखता है।

हमारे होटल से सोनार कि‍ला बि‍ल्‍कुल पास था। उसकी लम्बी दीवार देख मन कि‍या कि‍ लगा दौड़कर चले जाएँ। पता लगा कि‍ वहाँ अभी जाने से कोई फायदा नहीं। बहुत धूप होगी और इतने बड़े कि‍ले को देखते-देखते वक्‍त नि‍कल जाएगा। वैसे भी शाम की धूप में कि‍ला स्‍वर्ण-सा चमकता है; इसलि‍ए कि‍ले को तभी देखना ठीक होगा। बाकी चीजें नहीं देखा पाएँगे; क्‍योंकि‍ अगले दि‍न सम ढाणी की बुकिंग थी। इसलि‍ए पहले से बुक कैब ड्राइवर हमें सबसे पहले गड़ेसर लेक लेकर गया।

गडेसर झील:

जैसलमेर में सुबह सबसे पहले हम जि‍स जगह को देखने गए, वह था गडेसर झील। गडेसर झील रेलवे स्‍टेशन से दो कि‍लोमीटर की दूरी पर है। इसे जैसलमेर के महारावल गडसी ने पीने के पानी के स्रोत के लि‍ए बनवाया था। हम अपने होटल से 10 मि‍नट के अंतराल में ही पहुँच गए वहाँ। ऐसा लगा पैदल भी आया जा सकता था। झील के ठीक पहले छोटा-सा बाज़ार लगा हुआ था। राजस्‍थानी कपड़े, बैग, हस्तकला और नकली आभूषण। पर्यटकों की अच्‍छी खासी भीड़ थी। लोग आसपास राजस्‍थानी ड्रेस में फोटो खिंचवा रहे थे। इन्होंने मुझसे कहा कि‍ चलो खिंचवा लो फोटो, पर मैंने मना कर दि‍या। अभी तो आए हैं। पहले घूमें; फि‍र फोटो-शोटो होता रहेगा।

बच्‍चों ने जि‍द की कि‍ नाव पर घूमेंगे। सो टि‍कट लेकर अंदर गए. हम लोग झील के किनारे से बँधी, किंचित् डगमगाती नाव में एक-एक कर बैठने लगे, तभी एक महीन-सी आवाज़ ने चौंका दिया-'" क्या मैं भी आप लोगों के साथ चल सकता हूँ'-अकबका कर मैंने देखा-एक लम्बे बालों वाला पतला-सा लड़का फ़िल्म स्टार्स वाले अंदाज़ में नाव में चढ़ने की फ़िराक में था, मैंने एकदम से उसे रोकते हुए कहा-'नहीं ...यह हमारे लिए बुक है'-लेकिन इस बात का उस पर कोई असर नहीं हुआ और वह उसी लापरवाही से चलता हुआ नाव के दूसरे छोर तक आ गया। हम देखते ही रहे और उसने नाव के चप्पू थाम लिये, यह शाहरुख़ था जो अब शरारत से मुस्कुराते हुए कहने लगा-'मैडम मेरे बिना चल न पाएगी ये नाव।'-वो उस नाव का नावि‍क था, जिस पर हम सवार थे। झील के कि‍नारे कि‍नारे दूर तक सीढ़ि‍याँ और चबूतरे थे। अंदर झील में छतरि‍याँ बनी हुई थीं। संभवत: वि‍शेष आयोजनों के समय इसका प्रयोग होता होगा। शाहरूख अब तक हमारा गाइड भी बन चुका था। उसने बताया कि‍ वहाँ आयोजनों में नर्तकि‍याँ नृत्‍य करती थीं और राजा उसका आनंद लेते थे।

वहाँ ढेरों कबूतर थे। छतरि‍यों पर कबूतरों का जमावड़ा था। हमें उत्‍साहि‍त देख अब शाहरूख भी मजे से बताने लगा कैसे कि‍ यहाँ अनेक फि‍ल्‍मों की शूटिंग हुई है। सरफरोश में नसरूद़दीन शाह यहीं बैठते थे। दीदी, आप एयर लिफ्ट फ़िल्म ज़रूर देखना अक्षय कुमार की है वह। जब शूटिंग के लिए आया था तो मैंने ही उसे घुमाया इसी नाव। इस याद से उस की चमकती आँखों को देखकर उसकी बात पर यकीन कर भी लिया हमने। कि‍नारे बने प्राचीन कोष्ठों में साधुओं के अस्‍थायी नि‍वास का भी प्रबन्ध था, नर्तकियों और साधुओं के इस बेमेल जोड़ की कल्पना कर हमें हँसी भी आ रही थी।

झील में बहुत सारी मछलि‍याँ थी और बाहर उनके लि‍ए दाना भी बि‍क रहा था। झील के कि‍नारे कई भवन और मंदि‍र बने हुए थे। पीले पत्थरों से बने भवन। शाहरूख ने बताया कि‍ बाद के दि‍नों में इन कमरों में साधु नि‍वास करते थे। वाकई मनभावन नज़ारा था। पीले पत्थरों से बने भवनों को हम मंत्रमुग्‍ध होकर देखते रह गए. फोटोग्राफी के लि‍ए बहुत ही खूबसूरत जगह है गडेसर झील। झील से ही जैसलमेर कि‍ले की दीवार दि‍खती है।

अभी ठंड के दि‍नों में साइबेरि‍यन क्रेन्‍स नजर आए हमें। झील के बीच जहाँ टापू जैसी जगह थी वहाँ सैकड़ों पक्षी बैठे थे। मैं उत्‍साहि‍त होकर फोटो खींचने लगी। शाहरूख ने कहा-'रुको दीदी...तैयार हो जाओ कैमरा लेकर' फिर उसने अपने मुँह से एक अजीब-सी कोई जानवर जैसी आवाज नि‍काली और सारे पक्षी उड़ने लगे। अदभुत दृश्‍य था। मैंने फटाफट कई खूबसूरत शॉट लि‍ये।

दूर पेड़ पर एक बगुला बैठा था जैसे साधना में लीन हो। हमने उसे भी कैमरे में कैद कर लि‍या।

अब लौटना था। धूप तेज हो रही थी। तभी छोटे बेटे अभि‍रूप ने जि‍द की कि‍ वह भी नाव चलाएगा। हमारे शाहरूख खान ने उसे अपने पास बि‍ठा कर एक पतवार दे दी। थोड़ी देर चलाने के बाद उसने कहा कि‍ बहुत भारी काम है नाव चलाना।

सुनहरी आभा में झील और झील का कि‍नार बेहद खूबसूरत लग रहा था। बि‍ल्‍कुल गेट के पास एक पीपल का वि‍शाल पेड़ था। वहाँ कई चमगादड़ लटके हुए थे। बच्‍चों को अजूबा लगा। वे देर तक देखते रहे तो हमने भी याद रखने को तस्‍वीर ले ली।

हम उतर कर बाहर आ गए. वहीं दाहि‍नी ओर एक अति प्राचीन शि‍व मंदि‍र था। जब हम पहुँचे तो सैकड़ों महिलाएँ सर ढककर चुपचाप बैठी हुई थीं, शायद किसी परिजन की मृत्यु के उपरान्त वह सभी शिव के दरबार में उस आत्मा की मोक्ष की कामना करने वहाँ इकट्ठा हुई थीं। हमने वहाँ जाकर दर्शन कि‍ए. बेहद शांत माहौल। वहाँ मंदि‍र के बाहर एक छोटी-सी दुकान लगी हुई थी। पर दुकानदार गायब था। देखकर लगा यहाँ चोर-उच्‍चकों का वैसा आतंक नहीं, तभी खुले में सामान छोड़कर दुकानदार गायब है।

पटवों की हवेली

जैसलमेर कि‍ले के बाहर है पटवों की हवेली। जैसलमेर के स्वर्णिम इतिहास का जीवित दस्तावेज यह खूबसूरत इमारत, यहाँ निर्मित पहली हवेली है, जो वास्तव में पाँच इमारतों का एक संकुल है। 1805 में जैसलमेर के बड़े व्‍यापारी गुमानचंद पटवा ने अपने पाँच पुत्रों के लिए अलग-अलग हवेलियों का निर्माण कराया, जो कहते हैं कि लगभग पचास सालों में पूर्ण हुआ। उस वक़्त इन हवेलियों की लागत दस लाख रूपये आँकी गई थी, आज तो इनके मूल्य का अंदाज़ लगाना भी ज़रा मुश्किल काम है।

पाँच इमारतों को सामूहिक रूप से पटवों की हवेली कहा जाता है। मूलतः जैन परिवार के वंशज सेठ गुमानचंद वास्तव में बाफना गोत्र के थे। इन का परंपरागत कार्य पटवाई का था जिसका अर्थ है 'गूँथना' । इस परिवार में सोने और चँदी के तारों से जरी का काम होता था। इस में इनकी कुशलता से प्रभावित होकर जैसलमेर नरेश ने इनको पटवा की उपाधि दी थी। उनका सिंध, बलोचिस्तान, कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था। जरी के परम्परागत काम के अलावा इमारती लकड़ी, मसाले और अफीम के कारोबार से इन सेठों ने अकूत धन कमाया था। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होंने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।

जैसलमेर में पटवों की हवेली, के अलावा दीवान सालि‍म सिंह की हवेली व दीवान नथमल की हवेली भी विश्वप्रसिद्ध हैं। हम इनमें से सि‍र्फ पटवों और नथमल की हवेली ही देख पाए. इसके बाद हमें जैसलमेर का कि‍ला देखने जाना था। पटवों की हवेली घूमते-घूमते इतना थक गए कि‍ छोटे बेटे अभि‍रूप ने चलने से इंकार कर दि‍या। उसकी तबि‍यत भी खराब थी।

बहरहाल...पटवों की हवेली इतनी खूबसूरत है कि‍ हम मुग्‍ध होकर रह गए. सभी हवेलि‍याँ स्थानीय पीले पत्‍थरों से बनी हुई हैं। इन हवेलियों का स्‍थापत्‍य इस्लामिक और हिन्दुस्तानी कला का बेजोड़ 'फ्यूज़न' है, बेहद खूबसूरत और स्‍थापत्‍य कला का बेहतरीन उदाहरण। हमें तो एकबारगी ये लगा कि‍ यह लकड़ि‍यों पर नक्‍काशी का कार्य है। मगर नहीं, यह धरती को भेदकर निकाले गए प्रस्तर-खंडों में जान फूँकने जैसा परिश्रम है।

पटवों की हवेली तक जाने के लि‍ए हमें एक बेहद सँकरे रास्‍ते से गुज़रना पड़ा। गेट के अंदर जाते ही काफी भीड़ थी। हमें गाइड ने घेर लि‍या। पता चला कि‍ पाँच में से दो हवेली को सरकार ने म्‍यूजि‍यम बना दि‍या है। दो में लोग रहते हैं और एक बेहद जर्जर अवस्‍था में है। सरकार उसे बचाने के प्रयास में लगी हुई है। छि‍यासठ झरोखों से युक्‍त यह एक सात मंजि‍ली इमारत है। छत लकड़ी की है और इस पर सोने की कलम का काम है। जब हम सीढ़ी से चढ़कर पहली मंज़ि‍ल पर पहुँचे तो शीश महल-सा आभास हुआ। राजस्‍थानी चि‍त्रकला का अद़भुत नमूना नज़र आया हमें। काँच के जडाऊ काम देख हमारी आँखें चौंधि‍याँ—सी गई.

अंदर वि‍भि‍न्‍न आकार और वजन के बटखरे, मूर्ति‍याँ, काँच के टेबल-कुर्सी, कैमरा, नक्‍काशीदार कि‍वाड़ें, भि‍न्‍न-भि‍न्‍न प्रकार के ताले, बस हम देखते ही रहे।

अब आई झरोखों की बारी। वाकई मंत्रमुग्‍ध हुए हम। युवाओं के जोड़े हाथ पकड़कर तस्‍वीर खि‍ंचवा रहे थे। हमने भी कोशि‍श की। मगर भीड़ इतनी थी कि‍ अकेले तस्वीर ले पाना सम्भव नहीं हो पाया।

आगे बढ़ने पर नक्काशीदार बक्‍सों में रखे जेवर, वस्‍त्र, उस वक़्त चलन में रहे सिक्के, कलात्मक, मगर बेहद मजबूत इस्पात के ताले, खाना पकाने के बर्तन, वि‍भि‍न्‍न दुर्लभ वाद्ययंत्र। वहाँ की रसोई में काम आनेवाली दो चीज़ों ने वाकई मुझे हैरत में डाल दिया वह थीं उस ज़माने का फ्रिज और आटाचक्की इसके अलावा भी ढेरों चीज़ें, जो पहले हमने कभी नहीं देखी कित‍नी चीजें बताई जाएँ आपको। बस यही कहा जा सकता है कि‍ ज़रूर जाएँ और खुद से देखें। दीवानखाने पर बि‍छे चौसर और शतरंज, कमरे की खूबसूरत नक्‍काशी देख लगता है जैसे देखते रहें।

बहुत देर तक अंदर घूमने के बाद हम बेहद तंग सीढ़ियों से होते हुए हवेली की छत पर आ पहुँचे जहाँ से जैसलमेर शहर लगभग पूरा दिखाई देता है और सामने कि‍ले की दीवार। यहाँ आकर इत्मीनान से हमने कुछ फोटोग्राफ्स लिये, बच्चों ने कोल्ड ड्रिंक्स का लुत्फ़ उठाया, मगर अभिरूप को यहाँ आकर पिज़्ज़ा की चाह ने कुछ इस कदर बैचैन किया कि हम बहुत देर यहाँ नहीं रुक पाए. हम कुछ समय यहाँ व्यतीत कर और अपने को तरोताज़ा कर पाने के लिए अगले पड़ाव यानी सोनार–किला की ओर चल पड़े।

सोनार कि‍ला:

पटुओं की हवेली से नि‍कलकर हम सोनार कि‍ले की ओर चल पड़े। दोपहर हो गई थी और लगातार घूमने से थक गए थे। अब हमने एक अच्छे रेस्टोरेंट ले चलने के लि‍ए अपने कैब वाले से कहा। उसने वाकई एक बढ़ि‍या रेस्त्राँ के सामने गाड़ी रोकी। वहाँ बच्चों ने अपने हि‍साब से चायनीज़ व्यंजन लि‍ये। पर मेरी आदत है, मैं जहाँ जाती हूँ, वहाँ का स्थानीय खाना ज़रूर चखती हूँ। अगर अच्छा लगा तो जि‍तने दि‍न रहूँ, वहीं का भोजन करती हूँ। लि‍हाजा मैंने प्रसिद्ध राजस्थानी व्यंजन दाल-बाटी-चूरमा और बेसन-गट्टे की सब्जी मँगवाई.

बाटी तो अपने यहाँ की लि‍ट्टी जैसी ही लगी। हाँ, हम यहाँ चोखा लेते हैं और वह लोग दाल। बेसन-गट्टे की सब्जी भी स्वादि‍ष्ट थी, ताज़ा दही का स्वाद भी उसमें आ रहा था।

भोजन उपरांत हम सीधे सोनार कि‍ले की ओर बढ़े। अब तक भगवान भास्कर पश्चि‍म की ओर बढ़ चले थे। कैब वाले लच्छू महाराज यानी लक्ष्मण सिंह ने हमें पार्किंग के पास छोड़ दि‍या और कहा कि‍ वापस आकर यहीं मि‍लना। हमें काफी दूर पैदल चलना पड़ा। हम श्रीरामदेव मंदि‍र वाले रास्‍ते से आगे बढ़े। ऊँची प्राचीर देख बड़ा अच्छा लग रहा था। गेट के बाहर कुछ राजस्थानी महि‍लाएँ आभूषणों की दुकान सजाए बैठी थीं। मन अटक जाता है वि‍भि‍न्न आभूषणों को देखकर। खुद वहाँ की महि‍लाएँ भी खूब गहने पहनती हैं। पूरे रास्‍ते सड़क के दोनों ओर दुकान सजे नजर आए. हस्तशि‍ल्प के, कपड़ों और बैग के.

एक दुकान के बाहर हमें बैग पसंद आया। हमने सुन रखा था कि‍ यहाँ ऊँट के चमड़े के बने बैग और चप्पल मि‍लते हैं। मैंने पूछा दुकान वाले से कि‍ क्या वाकई ये बैग ऊँट के चमडे़ का बना है। उसने जवाब दि‍या कि‍ लोग बेचने के लि‍ए ये बोल देते हैं, पर ये सच नहीं है। ये ऊँट के चमडे़ का नहीं है। अच्छा लगा...रेगि‍स्तान के जहाज की सवारी ही करते हैं लोग यहाँ, यही करते रहें।

कि‍ले के ऊँची–ऊँची प्राचीरों को हम गर्दन उठाकर देखते आगे बढ़े चले जा रहे थे। जहाँ से कि‍ले की सीढ़ि‍याँ ऊपर जाती थीं, वहाँ से ठीक बाहर एक बेहद खूबसूरत नक्‍कशीदार मंदि‍र मि‍ला। पीले पत्थरों पर खूबसूरत नक्काशी। सोने-सी दमक।

जैसलमेर कि‍ला, यह सर्वश्रेष्ठ रेगि‍स्तानी कि‍लों में से एक है, जि‍सका नि‍र्माण भाटी नरेश महारावल जैसल ने 1156 में कि‍या था। यह किला धनुदुर्ग कहलाता है जिसका मतलब है कि ऐसे किले निर्जल भूमि पर होते हैं। यह कि‍ला 80 मीटर ऊँची त्रि‍कुट पहाड़ी पर स्थि‍त है। इसकी सँकरी गलि‍याँ और चार वि‍शाल प्रवेश-द्वार हैं, गणेश पोल, सूरज पोल, भूत पोल और हवा पोल। मुख्य द्वार को अखैपोल कहा जाता है जो महारावल अखैसिंह ने बाद में बनवाया था। कि‍ले के प्राकार का घेरा पाँच कि‍लोमीटर है। तीस फीट ऊँची दीवार वाले कि‍ले में 99 प्राचीर हैं। कहते हैं विश्व में दो ही किले 'लाइव फोर्ट्स' की श्रेणी में रखे जाते हैं यानी ऐसे किले, जिनमें अभी भी आबादी वास करती है, संयोग से दोनों ही राजस्थान में हैं एक यही सोनार किला, दूसरा चित्तौड़गढ़ का किला। आज इस कि‍ले में एक पूरा शहर बसा है। यहाँ की आबादी करीब 5000, छोटे-बड़े 30 से ज़्यादा होटल, एक दर्जन रेस्तराँ और लगभग 100 से ज़्यादा दुकाने हैं। रेगिस्तान के इस किले के भीतर शहर की एक चौथाई आबादी रहती है, जिसके लिए यहाँ बहुत से कुएँ भी बने हुए हैं, मुगल कालीन शैली जिसमें किलों में बाग़-बगीचे, नहर, बावड़ियाँ, फव्वारे इत्यादि होते हैं, इनका यहाँ पूर्णतया अभाव है। यह राजपूताना स्थापत्य का बेजोड़ उदाहरण है जिसमें तड़क-भड़क से ज़्यादा सुरक्षा और प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रहने के सरंजाम जुटाए जाते थे।

किले की आबादी पार कर हम भीतर से होते हुए ऊपर की ओर गए. अंदर जाते ही दीवारों पर लगे, राइफल, भाले, तीर-धनुष देख बच्‍चे उत्‍साहि‍त हो गए और छू-छूकर देखने लगे। अंदर वह कक्ष भी दि‍खा जि‍समें राजा बैठकर मंत्रणा करते थे। ऊपर छत पर जाने पर वास्‍तव में स्‍वर्ण नगरी देखने को मि‍ली। बाहरी दीवारों जि‍से कँगूरा कहा जाता है, उस पर प्रस्‍तर के बड़े-बड़े हजारों गोले और बेलन रखे हुए थे। इन गोलों का इस्‍तेमाल युद्ध के दौरान कि‍सी बाहरी आक्रमण को रोकने के लि‍ए प्रयुक्‍त कि‍या जाता होगा। यहाँ दोहरी प्राचीर है जि‍सके भीतर 2.4 मीटर का अंतर है, जि‍से मोरी के नाम से जाना जाता है। कि‍ले की सुरक्षा के लि‍ए यहाँ प्रहरी घूमा करते थे।

प्राचीर की दीवार पर श्रीकृष्‍ण की वंशावली भी लगी हुई थी। पता लगा कि‍ जैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैं, संभवतः छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। इस जिले में यादवों के वंशज भाटी राजपूतों की प्रथम राजधानी तनोट, दूसरी लौद्रवा तथा तीसरी जैसलमेर में रही। वहाँ बने झरोखे बेहद आकर्षक हैं। एक पंक्ति‍ में सजाकर काष्ठ प्रति‍माएँ भी रखी हुई थी। काष्ठ के दरवाजे पर शानदार नक्काशी की गई है।

ऊपर छत से सारा शहर नजर आता है। भव्य, पीली रौशनी में नहाया हुआ। वहाँ आस-पास के घरों को देखकर ऐसा महसूस हुआ जैसे उन्हें होटलों में तब्‍दील कर दि‍या गया है। छत से ही हमने देखी सालिमसिंह की हवेली, हमारे कैब वाले ने कहा था कि‍ दुष्ट व्यक्ति‍ की हवेली क्या देखने जाएँगे, यहीं से देख लीजिए और जिस तोप के पास आप खड़ी हैं, इसी तोप से गोला दागकर, यहीं से महाराजा ने उस ज़ालिम की हवेली को गिरा दिया था। सालिमसिंह की कहानी मैं बाद में बताऊँगी। फि‍लहाल तो जब हम छत पर पहुँचे तो दूर दि‍ख रहे पंक्ति‍यों में लगे विंड मि‍ल्स को देखकर बेहद रोमांचि‍त हुए. बच्चों ने यहाँ खूब फोटोग्राफी की और नयनाभिराम दृश्यावली को कैमरे में कैद कर लिया। इस जगह पर खड़े होकर हम बहुत देर तक बहती हवाओं का आनन्द लेते रहे, हालाँकि भीड़ बेहद से ज़्यादा थी किले की छत पर।

वापस उतरते हुए हमलोगों ने म्यूजि‍यम देखा और पूरे कि‍ले का एक कृत्रिम मॉडल भी। दमदम पर तोपें रखी हैं जो गुजरे वक्‍त की शौर्य गाथा का बयान कर रही है। बच्चे बेहद खुश हुए तोपों को देखकर। प्राचीर का कि‍नारा बि‍ल्‍कुल खुला हुआ था और नीचे सड़क पर राहगीर नजर आ रहे थे। प्राचीर की दीवारों पर एक पंक्ति‍ में कबूतर बैठे थे जैसे सभा कर रहे हों। बाहर नि‍कलते वक्‍त हमने फि‍र देखा मुड़कर, शाम की पीली रौशनी पूरे कि‍ले पर सुनहली आभा बि‍खेर रही थी। थोड़ी देर में महसूस किया कि कैसे ढलती शाम अपना पल्लू, जवान होती रात के आँचल से छुड़ाकर भागी जा रही है अद्भुत दृश्य। सारे दि‍न की थकान के बाद कुछ देर आराम की ज़रूरत महसूस हुई, तो हम वापस होटल की ओर चल पड़े।

शाम ही हुई थी, मगर वैसा कुछ और नजर नहीं आ रहा था कि‍ हम घूमें। हमारा एक दि‍न और जैसलमेर रुकने का प्लान था। पर लगा कि‍ बाकी चीजें कल देखी जा सकती है, तो हमने बच्चों को होटल में छोडा़ और शहर घूमने नि‍कल गए.

पास ही रेलवे स्टेशन था। हमने वहाँ जाकर चाय पी. फि‍र शहर की ओर नि‍कले। बहुत छोटा—सा शहर, बहुधा सुनसान पड़ा शहर, जैसे सारा शहर सोया हुआ हो। दिन में स्वर्णिम आभा से दमकता, चहकता शहर रात में एक बीमार-सी पीली मद्धिम रौशनी में लिपटा हुआ, दूर किला भी पीले वस्त्र ओढ़े एक वृद्ध हठयोगी—सा प्रतीत हुआ। कभी सुनी राजेन्द्र–नीना मेहता की ग़ज़ल की पंक्तियाँ कानों में गूँजने लगीं, जो ताजमहल के लिए कही गई थीं...

तन्हाई है जागी-जागी-सी, माहौल है सोया-सोया हुआ।

जैसे कि खुद ये ताजमहल ख़्वाबों में तुम्हारे खोया हुआ। रात में कई जगह हैंडीक्राफ़ट की दुकानें खुली हुई थीं। हमने एक चक्‍कर वहाँ का लगाया। एक दुकान में हम घुसे। सेल्समैन के बोलने के लहजे को देखकर लगा कि यह हमारी तरफ का होगा। विश्वास नहीं हुआ इतनी दूर सीमान्त प्रदेश में कोई व्यक्ति यहाँ आकर दुकान में काम करता होगा; परन्तु पता लगा कि वह व्यक्ति देवघर (झारखंड) का ही है। कुछ आभूषण और कपड़े खरीदे, यादगारी के लि‍ए. फि‍र पैदल टहलने लगे, तो वापस कि‍ले के पास पहुँच गए. मगर अब रात हो गई थी। सोनार कि‍ला का सौंदर्य धूप में ही है, जैसे रेत का। घूमते-फि‍रते हम बाज़ार नि‍कले। वहाँ लोहे की बड़ी-सी कड़ाही में दूध खौलाया जा रहा था, मलाईदार दूध। हमारा मन हो आया कि‍ आज यही पि‍या जाए. वाकई स्वादि‍ष्ट लगा-इलायची, पिस्ते में उबाला हुआ गाढ़ा दूध, केवड़े की महक समेटे।

लौटकर बच्चों को लि‍या और डि‍नर के लि‍ए नि‍कले। एक झोपड़ीनुमा ढाबे जैसी जगह थी। वहाँ अंदर अच्छा इंतजाम था। कोने पर छोटे-छोटे बच्चे साज के साथ ऊँची तान में माँड सुना रहे थे

केसरि‍या बालम...

आओ नी, पधारो जी म्‍हारे देस... राजस्थान पर्यटन की कैच लाइन भी यही है। डोर फ़िल्म में भी फ़िल्माया है यही मांड। ये बच्चे हारमोनियम और ढोलक के साथ-साथ ताल देने के लिए करताल और खड़ताल नमक वाध्य यंत्रों का भी प्रयोग कर रहे थे। ये लकड़ी के दो या चार लम्बे टुकड़ों से बने होते हैं और एक या दोनों हाथों की अँगुलियों व अँगूठे के बीच फँसा कर बजाए जाते हैं इनसे बहुत कर्णप्रिय 'कट–कट' की मधुर ताल निकलती है, जो सुनने में बहुत भली लगती है। अभिरूप ने उन बच्चो से लेकर बजाने की कोशिश की, परन्तु उसे हाथ में साधकर पकड़ना ही मुश्किल काम था, बजाना तो बहुत दूर। उन बच्चों से बात करने पर पता लगा कि ये मांगणीयार लंगा जाति के हैं, जिनका यहाँ के लोकगीत गायकी पर एकाधिकार-सा है।

हमने कुछ देर आनंद लि‍या। वह बच्चे जगह बदल-बदलकर गा रहे थे। पर्यटकों के पास जाकर। समझ आया कि‍ वह खास फर्माइश पर गाने सुना रहे हैं। हमने भोजन और गीतों का आनंद लि‍या और वापस होटल में। अब सुबह हमें बड़ा बाग और कुलधरा देखने के बाद शाम से पहले सम ढाणी पहुँचना था। अब वहाँ की बुकिंग थी हमारी। -0-