हँसी / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा
साढ़े छह बजे मुझे पूरा यकीन था कि वह ज़रूर आएगी और मैं मारे ख़ुशी के सातवें आसमान पर था। तब मेरे ओवरकोट का महज़ ऊपर वाला बटन बंद था, ठंडी हवा से मेरा ओवरकोट फूला जा रहा था, परन्तु तब भी मुझे सर्दी बिलकुल भी नहीं लग रही थी। मेरा सर गर्व से तना हुआ था और टोपी पीछे गुद्दी की ओर सरकी हुई थी। सामने से आ रहे मर्दों को मेरी नज़रों में हिम्मत और हिफ़ाज़त दीख रही थी और ख़ातूनों को ललकार और मोहब्बत। हालॉंकि पिछले चार दिनों से मैं केवल एक उसी लड़की को चाह रहा था, पर तब मैं एकदम जवान था और मेरा दिल प्यार से ऐसे सराबोर था कि दूसरी लड़कियों को लेकर उदासीन भी नहीं रह सकता था। मैं तेज़-तेज़ क़दम भरता हुआ फ़ुर्ती से चला जा रहा था।
पौने सात बजे मेरे ओवरकोट के ऊपर वाले दो बटन बंद थे। तब मैं लड़कियों को देख रहा था। मैं तो उन्हें, बस, यूँ ही ताक रहा था, मेरे दिल में उनके लिए मोहब्बत का नामोनिशान तक नहीं था। किसी-किसी को तो देखते ही चिढ़ हो रही थी। मुझे तो महज एक वही लड़की चाहिए थी, उसके अलावा बाकी सब भाड़ में जा सकती थीं। सामने से आती ज़्यादातर लड़कियों में उसके होने के वहम से मुझे बेहद परेशानी हो रही थी। जब सात बजने में पाँच मिनट बचे थे, तब मुझे बहुत गर्मी लग रही थी और उसके तीन मिनट बाद मैं सर्दी से परेशान था।
ठीक सात बजे मुझे इस बात का पूरा यकीन हो गया कि वह नहीं आएगी।
साढ़े आठ बजे मुझे यह महसूस होने लगा कि मैं इस दुनिया का सबसे दुखी प्राणी हूँ। मेरे ओवरकोट के सारे बटन बंद थे, कॉलर ऊपर उठा हुआ था और टोपी माथे तक आ गई थी। कनपटियों के बाल, मूँछें और पलकें बर्फ़ के फ़ायों से सफ़ेद हो गई थीं और ठण्ड के मारे दाँत किटकिटाने लगे थे।
मेरी झुकी हुई पीठ और लड़खड़ाती चाल से मैं एक मस्तमौला बूढ़ा लग रहा था, जो किसी के घर में मेहमाननवाज़ी के बाद वापिस उस आश्रम में लौट रहा था, जहाँ ऐसे बड़े-बूढ़े रहते, जिन्हें समाज ने ठुकरा दिया है।
मेरी इस बदहाली की वजह, बस, एक वही लड़की है ! हे भगवान… नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा भी तो हो सकता है कि उसके घर वालों ने उसे मुझसे मिलने के लिए आने ही नहीं दिया हो या फिर वह बीमार हो गई हो। हो सकता है वह मर गई हो। वह मर चुकी हो और मैं उसपर ग़ुस्सा कर रहा हूँ। नहीं, नहीं… ऐसा कतई नहीं हो सकता।
2
मेरे एक दोस्त ने बिना कुछ सोचे-समझे मुझसे कहा —आज मैंने येवगेनिया को पोलअजफ़ के घर की क्रिसमस पार्टी में देखा। मेरे दोस्त को इस बात का ज़रा-भी अंदाज़ नहीं था कि आज ही मैं भरी सर्दी में सात से साढ़े आठ बजे तक येवगेनिया का इंतज़ार करता रहा था।
मैंने जानबूझकर दिखावा करते हुए कहा — अच्छा, वो भी वहाँ आई हुई थी और दिल ही दिल में येवगेनिया को कोसते हुए कहा : “लानत है, तुझ पर …”।
मैं पोलअजफ़ के घर पहले कभी नहीं गया था, पर आज मैंने तय कर लिया है कि अब ज़रूर जाऊँगा।
ख़ुशी से चिल्लाकर मैं बोला — दोस्तो सुनो, आज क्रिसमस है। सब लोग मस्ती कर रहे हैं। चलो, हम भी ख़ूब मौज़-मस्ती करें।
यह सुनकर एक ने मायूसी से पूछा — लेकिन कैसे ?
दूसरे ने उसकी बात आगे बढ़ाते हुए कहा —कहाँ चलेंगे हम ?
मैंने कहा — हम लोग तैयार होकर सबकी क्रिसमस पार्टियों में जाएँगे।
मेरी यह बात सुनकर उन सब आवारा लड़कों को सचमुच बहुत मज़ा आया। वे सब उछल-कूद करते हुए ज़ोर-ज़ोर से बात करने और नाचने लगे। मेरी इस बात को सुनकर पहले तो सब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे, फिर उलटा-सीधा बकने लगे और फिर सब लोग अपनी-अपनी जेब से पैसे निकालकर गिनने लगे। आधे घंटे में हमने शहर के उन लोगों को भी इकठ्ठा कर लिया, जो बड़े दिन के इस त्यौहार पर घर पर बेकार बैठे थे और बोर हो रहे थे। हमारी टोली हुड़दंग मचाते हुए नाई की दुकान पर गई, कुछ लोगों ने वहाँ अपनी हजामत बनवाई उसके बाद हम उस दुकान पर पहुँचे, जहाँ स्वांग और नौटंकी के लिए पोशाकें मिलती थीं। हमारे वहाँ घुसते ही हँसी-ठहाके गूँजने लगे।
मैं काले या सलेटी रंग की कोई ऐसी पोशाक पहनना चाहता था, जो ख़ूबसूरत भी दिखे और जिससे मेरी उदासी भी उभर आए, इसलिए मैंने स्पेन के रईसों जैसी कोई पोशाक देने के लिए कहा।
वह पोशाक मेरे लिए इतनी बड़ी थी कि मैं तो उसमें छुप ही गया। उसे पहनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं किसी बड़े हॉल में एकदम अकेला खड़ा हूँ। मैंने वे कपड़े उतारकर फेंक दिए और कोई दूसरी पोशाक दिखाने के लिए कहा।
— आपको जोकर के कपड़े दे दूँ क्या ? ये रंग-बिरंगे हैं और इनमें छोटी-छोटी घंटियाँ भी लटकी हुई हैं। मेले में रंग-बिरंगे कपड़े आप पर बहुत जमेंगे।
— ना बाबा, ना ! यह कहते हुए मेरा मुँह बन गया था।
— अच्छा तो डाकू का भेस कैसा रहेगा ? देखो, इसके साथ सर पर हैट और हाथ में तलवार भी है।
— अरे वाह ! तलवार। यही तो मुझे चाहिए। मेरा दिल आज तलवार चलाने का हो रहा है।
लेकिन वो डाकू वाली पैंट-बुशर्ट तो बहुत छोटी निकली। वे कपड़े शायद नौ-दस साल के बच्चे के रहे होंगे। हैट से तो मेरा आधा सर भी नहीं ढक रहा था और वह मखमली पतलून तो मेरे पाँवों में ऐसी फँसी कि मेरे साथियों ने मुझे उसमें से ऐसे खींचकर बाहर निकाला मानो मैं किसी फंदे में उलझ गया हूँ। उसके बाद मैंने सूरमाओं वाली वर्दी पहनकर देखी। ख़ाकी रंग की वह वर्दी बेहद गन्दी और धब्बेदार थी। फिर मुझे साधुओं वाला चोगा पहनने के लिए दिया गया, जो कई जगहों पर फटा हुआ था और उसमें छेद ही छेद थे।
मेरे साथ आए सारे लोग स्वांग बनाए खड़े थे और वे मुझसे भी जल्दी-जल्दी कोई पोशाक पहनने के लिए कह रहे थे।
दुकान वाले ने कहा — भैये, अब तो, बस, एक ही पोशाक बची है और वह है - चीन के रईस की पोशाक।
मैंने जल्दी से हाथ आगे बढ़ाकर कहा — दीजिए, दीजिए ! मुझे यही दे दीजिए। इस तरह क्रिसमस के त्यौहार पर स्वांग भरने के लिए एक चीनी रईस की पोशाक मेरे हाथ आई। भगवान जाने यह कैसा लिबास था ! पाजामे और कुर्ते की तो मैं बात ही नहीं कर रहा। जूतों को लेकर भी मैं चुप हूँ। वे रंगीन-ऊँचे जूते मेरे लिए बहुत छोटे थे। उनमें मेरा आधा ही पाँव घुस पाया था। उन जूतों के आगे वाले हिस्से में दोनों तरफ़ दो अजीब-से फुँदने लटक रहे थे। कपड़े की गुलाबी टोपी के बारे में भी कुछ न कहना ही बेहतर है । वह उस तरह से मेरे सर पर चिपकी हुई थी जैसे मैंने नक़ली बालों की विग पहन ली हो। और उसके दोनो तरफ़ निकली हुई दो-दो सुतलियाँ मेरे कानों पर बँधी हुई थीं। उसे पहनने के बाद मेरे कान ऊपर की तरफ़ उभर गए थे और में किसी चमगादड़ की तरह लग रहा था।
उस चीनी पोशाक के साथ एक मुखौटा भी था। और उस मुखौटे का तो कहना ही क्या ! उसके बारे में यह कहा जा सकता है कि वह मुखौटा किसी चेहरे की कल्पना ही हो सकती है। उसकी नाक, आँखें और होंठ मेरी नाक, आँखों और होंठ पर बहुत अच्छी तरह से बैठे हुए थे, पर वो मुखौटा किसी आदमी के लिए नहीं था। जैसे शांत भाव उस मुखौटे पर दिख रहे थे, वैसे तो कभी किसी मरे हुए आदमी के चेहरे पर भी नहीं हो सकते। उससे न तो उदासी ज़ाहिर हो रही थी और न ही ख़ुशी, और न ही किसी प्रकार की हैरानी या मसखरापन। वह मुखौटा एकदम भावहीन था। जो कोई भी उसकी ओर देखता, वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। उसे देखकर मेरे साथियों के भी हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गए। कोई सोफ़े पर तो कोई कुर्सी पर गिरकर लोट-पोट हो रहा था।
मेरे साथ आए लड़कों ने कहा — हमारे स्वांग में यह सबसे मौलिक और मज़ेदार मुखौटा होगा।
मैं रुआँसा-सा हो गया था। ऐसा लग रहा था कि, बस, अब मेरी रुलाई फूट पड़ेगी, पर जब मैंने आईने में ख़ुद को देखा, तो मैं भी हँस पड़ा। और मैंने दिल ही दिल में कहा — यह मुखौटा बेहतरीन होगा।
पोलअजफ़ के घर में चल रही क्रिसमस पार्टी में जाते हुए हम सभी ने एक दूसरे से वादा किया कि हम सबको मुखौटे उतारने नहीं हैं। आख़िर तक लगाए रखने हैं। सबने एक सुर में कहा :
— ये वादा रहा ! ये वादा रहा ! …
3
वास्तव में मेरा मुखौटा सबसे अच्छा था। पार्टी में आए लोग उसे अच्छी तरह से देखने के लिए मेरे पीछे लगे हुए थे। वहाँ धक्का-मुक्की शुरू हो गई थी। सब मस्ती में थे। वे लोग कभी मुझे धक्का मारते और कभी मेरे चिकोटी काटते और जब मैं ग़ुस्से से पीछे मुड़कर उन्हें देखता, तो वे खिल-खिलाकर हँस पड़ते। मैं उनसे इतना परेशान हो गया था कि मुझे ऐसा लगने लगा मानो वे मेरा मज़ाक उड़ा रहे हों। उनका मज़ाक देखकर मेरा दिल रोने-रोने को हो आया था। मेरा मन कर रहा था कि मैं अपना यह स्वांग उतार फेंकूँ, पर दोस्तों से किया गया वायदा मैं नहीं तोड़ सकता था। इसलिए मैं भी उन्हीं की तरह ज़ोर-ज़ोर से हँसने और चीखने-चिल्लाने, गाने और नाचने लगा। सब लोगों ने शराब पी रखी थी और जैसे पूरी दुनिया शराब के नशे में मस्त होकर नाच रही है। परन्तु त्यौहार की मस्ती में डूबी, नाचती-गाती यह बाहरी दुनिया मेरे भीतरी दुनिया से कितनी जुदा थी ! मुखौटे के नीचे मैं बेहद उदास था ! तभी मुझे वह लड़की दिखाई पड़ी।
आख़िर किसी तरह मैं लोगों के उस झुण्ड के घेरे से बाहर निकला। मुझे येवगेनिया पर ग़ुस्सा भी आ रहा था और प्यार भी। मैं उसके सामने पहुँचा और मैंने उसे रोक लिया। फिर मुखौटे के पीछे से ही मैंने उसकी ओर देखते हुए बड़े प्यार से कहा :
— येवगेनिया ! यह मैं हूँ !
उसने अपनी लम्बी-घनी पलकें हैरानी से ऊपर उठाईं और मुस्कुराते हुए मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में चमक थी और वह कहकहे लगा-लगाकर ज़ोर-ज़ोर से हँस रही थी। बसंत की मीठी और सुहावनी धूप जैसी उसकी हँसी ही मेरी बात का जवाब थी।
हँसते हुए मैंने भी दोहराया — अरे, ये मैं हूँ, मैं हूँ ! आज शाम को आप क्यों नहीं आईं ?
वह हँसती रही। वह खिलखिलाकर हँसती रही।
मैं बहुत थक गया था और मेरा मन दुखी था। मैं उसके जवाब का इंतज़ार कर रहा था।
लेकिन वह पागलों की तरह हँस रही थी। अब उसकी आँखों में चमक पहले जैसी नहीं थी और उसकी हँसी वहशियाना हो गई थी।
— आपको क्या हो गया है ? आख़िर इस तरह क्यों हँस रही हैं ?
उसने एक ज़ोर का ठहाका लगाया और फिर ज़ोर से बोली :
— ओह ! तो ये आप हैं…? आप कितने मज़ेदार लग रहे हैं…एकदम मसखरों की तरह !
— उसने अपनी हँसी रोकते हुए कहा।
यह सुनकर मेरा सर लटक गया, कंधे झुक गए दुख और निराशा से मेरा पूरा बदन ढीला पड़ गया। वह मंद-मंद मुस्कुराती हुई, हमारे पास से गुज़र रहेजवान और ख़ुशमिज़ाज जोड़ों को देख रही थी। अब मैंने उससे कहा :
— अरे, इसमें हँसने की क्या बात है। आप मेरे ऊपर हँस क्यों रही हैं ? हालाँकि आज त्यौहार का दिन है, हँसी-ख़ुशी का माहौल है। लेकिन आज आपने मुझे बहुत परेशान किया। आप क्या जाने कि इस हँसोड़ मुखौटे के पीछे मैं कितना दुखी हूँ। सिर्फ़ आपसे मिलने, आपको देखने के लिए मैं यह मुखौटा पहनकर यहाँ आया हूँ। ख़ैर, आप यह बताइए कि आज शाम को आप मुझसे मिलने क्यों नहीं आईं ? आपने वायदा किया था ना ?
वह फिर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। अपनी हँसी रोकने के लिए उसने अपना रुमाल अपने मुँह पर रख लिया और फिर मेरी हँसी उड़ाते हुए बोली :
— ये मुँह और मसूर की दाल। कभी अपनी शक़्ल देखी है आईने में…। मुझे मुलाक़ात के लिए बुलाने से पहले ज़रा आईना ही देख लेते। आप कितने… कितने… कितने… ।
उसकी बात सुनकर मुझे ग़ुस्सा आ गया। मुझे लगा कि मेरे ऊपर हँस रही है। ग़ुस्से से काँपती आवाज़ में मैं चिल्लाकर बोला :
— आपको इस तरह हँसना नहीं चाहिए !
अचानक उसका हँसना बंद हो गया और वह सहम-सी गई। उसकी हँसी रुकते ही, मैं फुसफुसाता हुआ उससे अपने प्यार का इज़हार करने लगा। इससे पहले मैंने कभी किसी से इतनी अच्छी तरह से यह नहीं कहा था — मैं आपसे मोहब्बत करने लगा हूँ। मैं आपको बेहद प्यार करता हूँ।
मेरी बात सुनकर उसका गुलाबी चेहरा जैसे सफ़ेद हो गया। उसकी लम्बी और घनी पलकें धीरे-धीरे नीचे की ओर झुकीं और उसके शरीर में हलकी-सी कँपकँपी होने लगी उसका लचीला बदन धीरे-धीरे मेरी ओर झुक गया। वह रात की देवी के भेस में थी। उसने कसीदे की कढ़ाई वाली जो काली पोशाक पहन रखी थी, उस पर सितारे जगमगा रहे थे। वह रात के अन्धकार जैसी रहस्यमयी और इतनी ख़ूबसूरत लग रही थी कि मुझे लगा मानो वह मेरे बचपन का ख़्वाब हो। और यह ख़्वाब अब पूरा हो गया हो।
मैं उससे अपनी मोहब्बत का आगे इज़हार करने लगा। मैं लगातार बोलता जा रहा था, मेरी आँखों में आँसू छलक रहे थे और दिल ख़ुशी से धड़क रहा था। मुझे उसके शांत चेहरे पर कुछ हरकत-सी दिखी — उसके होंठों पर मधुर और दयनीय मुस्कुराहट थी। उसने धीरे से अपनी पलकें ऊपर उठाईं, फिर हौले-हौले, डरते-डरते पर गहरे विश्वास के साथ उसने अपना सर मेरी ओर मोड़ा और… उसकी हँसी फूट पड़ी। ऐसा कहकहा मैंने पहले कभी नहीं सुना था।
— नहीं, नहीं, मैं नहीं…। ठहाका लगाते हुए उसका सर झटके से पीछे की ओर झुका और फिर जैसे हँसी का एक फव्वारा फूट पड़ा।
ओह ! उसका इनकार सुनकर मैं बेहोश होता-होता बचा। नाराज़गी से मैंने अपने होंठ चबा लिए। मेरे गालों पर गर्म-गर्म आँसू बह रहे थे। मेरे दिल के भीतर तूफ़ान मचा हुआ था और यह कम्बख़्त मेरा मुखौटा ऐसा था कि यह मेरी भावनाओं के विपरीत पूरी शांति और उदासीनता व्यक्त कर रहा है। काश ! एक मिनट के लिए मेरे पास इस मुखौटे की जगह कोई मानवीय चेहरा होता, जिस पर मेरी भावनाएँ साफ़-साफ़ झलक पातीं !
मैं लड़खड़ाता हुआ त्यौहार के उस तामझाम से बाहर निकला। उसकी वह वहशियाना हँसी देर तक मेरे कानों में गूँजती रही । मेरी उदासी पहले से बहुत घनी हो गई थी।
4
चारों तरफ़ रात का सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग अपने-अपने घरों में आराम से सोए हुए थे। हमारी टोली के लोग भी अपने-अपने घर जा रहे थे। मेरे साथी अभी-भी बहुत जोश में थे। वे ऊँची आवाज़ों में उलटा-सीधा बोलते हुए ख़ाली पड़ी सड़क को पूरा घेरकर चल रहे थे। मेरे दोस्तों ने मुझसे कहा :
—चीनी साहब का तुम्हारा भेस लोगों को बहुत पसंद आया। हमने कभी लोगों को इस तरह बेतहाशा हँसते हुए नहीं देखा…।
उनकी बातें सुनकर मेरा ग़ुस्सा और नाराज़गी फूट पड़े थे। मैं अपना मुखौटा तोड़-मरोड़कर फेंकने लगा। मेरे दोस्त मुझे रोकते हुए चिल्ला रहे थे — अबे, रुक-रुक। तू यह क्या कर रहा है ? तू मुखौटा क्यों फाड़ रहा है ? भाई लोगों, ज़रा इसे देखो… यह पागल हो गया है ! देखो, यह स्वांग की पोशाक फाड़ रहा है ! अरे, तुझे हुआ क्या है… ? ! तू ज़ार-ज़ार क्यों रो रहा है ? !
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’स्मेख़’ (Леонид Андреев — Смех)