हंगरी की गोल्डन टीम / फ़र्स्ट हाफ़ : बाइसिकल किक / मिडफ़ील्ड / सुशोभित

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हंगरी की गोल्डन टीम
सुशोभित


हंगरी की गोल्डन टीम ने 1950 से 1956 के दरमियान कई सनसनीख़ेज़ मैच खेले। इस दौरान उसने 69 मैचों में से 58 में जीत दर्ज की। यह सफलता का आश्चर्यजनक रेकॉर्ड था। 10 मैच बराबरी पर छूटे। इस अवधि में केवल एक मैच में उसकी हार हुई। और वह मैच कौन-सा था? वही, जिस पर सबकुछ निर्भर करता था, जिस पर नियति का दारोमदार था...जिसके बारे में यह लगभग मान लिया गया था कि उसे तो वह जीतना ही है, जैसे 1950 में मराकाना में ब्राज़ील की जीत अवश्यम्भावी मान ली गई थी। यह मैच था, 1954 का विश्व कप फ़ाइनल।

यह बेमिसाल टीम 1956 में एक शीराज़े की तरह खुलकर विच्छिन्न हो गई– किन्हीं अंदरूनी कारणों के चलते नहीं, बल्कि अपने देश की राजनैतिक उथल-पुथल के कारण। 1956 में हंगरी में सोवियत-विरोधी क्रांति हुई, तो उसकी राष्ट्रीय फ़ुटबॉल टीम के पैर उखड़ गए। उसके खिलाड़ी यूरोप के विभिन्न बड़े क्लबों के लिए खेलने लगे। कोच्सीस बार्सीलोना चले गए, तो पुस्कस रीयल मैड्रिड। वहाँ उन्होंने स्वयं को स्पैनिश एल-क्लैसिको में परस्पर-प्रतिद्वंद्वी की तरह पाया। पुस्कस स्पेन की राष्ट्रीय टीम के लिए भी खेले– एक अन्य मैड्रिड-लेजेंड डी स्तेफ़ानो की तरह जिन्होंने अर्जेंतीना के लिए खेलने के बाद स्पेन की राष्ट्रीयता ले ली थी। उन्होंने मैड्रिड में चैम्पियंस लीग ख़िताब जीते, लेकिन वह बूदापेस्त होनवेद के दिनों को भुला नहीं सके होंगे, जब हंगरी की गोल्डन टीम का न्यूक्लियस बनाने वाला दल होनवेद के लिए साल-दर-साल हंगरियन लीग जीतता रहा था– वही सब, योसेफ़ बोस्नीक, ज़ोल्तान षिबोर, गुयाला ग्रोसीच्स... और यक़ीनन– फ़ेरेन्स पुस्कस और सान्दोर कोच्सीस। ये सभी होनवेद में साथ खेल रहे थे और हंगरी की गोल्डन टीम का भी हिस्सा थे। एक मायने में होनवेद उनका प्रशिक्षण-केंद्र था, जहाँ वे अपने फ़न को निखार रहे थे, ताकि अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी प्रतिभा की चमक बिखेर सकें।

लेकिन हंगरी की टीम फ़ाइनल में पहुँचने के बावजूद विश्व कप नहीं जीत सकी। 1954 के बाद तो वह फिर कभी विश्व कप के फ़ाइनल तक भी नहीं पहुँची। उसके बाद उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन 1964 और 1968 में ओलिम्पिक गोल्ड मेडल जीतना था। लेकिन तब तक विश्व कप के सामने ओलिम्पिक के पदकों की चमक धूमिल हो चुकी थी।

1954 के फ़ाइनल तक हंगरी किसी अपराजेय आँधी की तरह पहुँची थी। वह 1952 का ओलिम्पिक गोल्ड मेडल जीत चुकी थी। 1953 में उसने वेम्बले में एक लाख अंग्रेज़ दर्शकों के समक्ष इंग्लैंड की टीम को 6-3 से हराकर सनसनी फैला दी थी। इसे आज तलक ‘‘मैच ऑफ़ द सेंचुरी’’ कहा जाता है। जब अंग्रेज़ बूदापेस्त में खेलने आए, तो अंतिम रिज़ल्ट था : 7-1...

विश्व कप शुरू हुआ, तो इस बुलडोज़र टीम ने साउथ कोरिया को 9-0 और वेस्ट जर्मनी को 8-3 से रौंद दिया। मानो कह रही हो कि रास्ते से हट जाओ, मुक़ाबला करने का कोई फ़ायदा नहीं है। फिर ब्राज़ील और उरुग्वे को उसने अत्यंत कड़े मुक़ाबलों में परास्त किया। ब्राज़ील के साथ खेला गया मैच तो अपनी कशमकश के कारण ‘‘बैटल ऑफ़ बेर्ने’’ कहलाता है। फ़ाइनल तक आते-आते हंगारी की यह टीम अपने सभी मज़बूत प्रतिद्वंद्वियों को किनारे कर चुकी थी और ख़िताबी मुक़ाबले में उसका सामना वेस्ट जर्मनी की उस टीम से था, जिसका वह इसी विश्व कप में 8-3 से मानमर्दन कर चुकी थी। कोच्सीस ने उस मैच में चार गोल दाग़े थे। लेकिन ग़ज़ब हो गया! 1950 के अंडरडॉग उरुग्वे की तरह 1954 में भी वेस्ट जर्मनी ने टूर्नामेंट फ़ेवरेट्स हंगरी को 3-2 से हराकर उलटफेर कर दिया। मैच अप्रत्याशित था। 8 मिनटों के बाद ही हंगरी की टीम दो गोल दाग़ चुकी थी और दर्शक-दीर्घा में खुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं कि हंगेरियन जर्मन को बख़्श देंगे या कम से कम आधा दर्जन गोल और करेंगे? हंगरी के कमेंटेटर रेडियो पर दम्भ से कहने लगे– साहेबान, हम एक और 8-3 की ओर अग्रसर हैं। लेकिन जर्मन टीम ने सबको चौंकाते हुए पलटवार किया और 18वें मिनट तक स्कोरलाइन 2-2 से बराबरी पर थी। कड़ी कशमकश चलती रही। 84वें मिनट में जर्मनी की ओर से हेल्मुत रॉन का विनर आया। रेडियो पर इस मैच की कमेंट्री कर रहे महान जर्मन उद्घोषक हर्बर्त ज़िमरमान हर्षातिरेक से उन्मादी हो गए थे। उनके यादगार शब्द जर्मन-फ़ोकलोर में आज भी दोहराए जाते हैं : ‘‘शैफ़र पुट्स इन द क्रॉस... हेडर... क्लीयर्ड... रॉन शुड शूट फ्रॉम द डीप... रॉन शूट्स! गोल! गोल!! गोल!!! गोल!!!!’’ फिर आठ सेकंड की स्तब्ध चुप्पी के बाद : ‘‘गोल फ़ॉर जर्मनी, जर्मनी लीड! कॉल मी मैड, कॉल मी क्रैज़ी!’’

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद टूटा, ध्वस्त, पराजित और नात्सी-कलंक से अवमानित जर्मनी का आहत-गौरव जैसे ज़िमरमान के इन शब्दों में गूँज उठा था। एक कुचली हुई अस्मिता वाले देश ने फिर से उठकर दुनिया से आँख मिलाई थी, गोला-बारूद और ख़ून-ख़राबे के दम पर नहीं, बल्कि फ़ुटबॉल के ख़ूबसूरत खेल के ज़रिए। यह एक सॉफ़्ट-पॉवर की अभिव्यक्ति थी। मानो जर्मन ने कहा– ‘‘हम अब भी मनुष्य हैं, हम कृमि-कीट नहीं बन गए, हम धरती में धँस नहीं गए।’’ युद्ध में फ़ौजी रह चुके ज़िमरमान के वे शब्द युद्धोत्तर जर्मनी के सबसे प्रसिद्ध वक्तव्यों में से एक बन गए थे। प्रसिद्ध जर्मन इतिहासकार योख़िम फ़ेस्त ने तो यहाँ तक कह दिया कि जुलाई 4, 1954 (विश्व कप फ़ाइनल का दिन) ही जर्मन गणराज्य का वास्तविक स्थापना-दिवस है। 1950 के विश्व कप में जर्मनी को युद्ध के दंडस्वरूप खेलने की अनुमति नहीं दी गई थी!

पर अफ़सोस, जर्मनी को वह जीत हंगरी की गोल्डन टीम के पराभव की क़ीमत पर मिली। अलबत्ता रॉन के लेजेंडरी गोल के दो ही मिनटों बाद पुस्कस ने बेहतरीन स्लाइडिंग गोल करते हुए इक्वलाइज़ कर दिया था, लेकिन एक विवादास्पद निर्णय में उसे ऑफ़साइड क़रार दे दिया गया। आज तलक हंगेरियन आहें भरकर कहते हैं कि पुस्कस ऑफ़साइड नहीं थे। अंतिम मिनटों में षिबोर को भी एक नज़दीकी अवसर मिला, जिसे वह चूक गए। जर्मनी ने पहला विश्व कप जीत लिया। हंगरी की टीम टूटकर बिखर गई। देश में अंदरूनी-विप्लवों के चलते इस करिश्माई टीम को दोबारा अवसर नहीं मिले। वास्तव में, गोल्डन टीम के गोलकीपर ग्रोसीच्स का तो कहना था कि हंगरी की विश्व कप में हार के बाद देश में हुए विरोध-प्रदर्शनों ने ही दो साल बाद 1956 की सत्ताविरोधी क्रांति के बीज बो दिए थे। हंगरी फिर कभी विश्व कप जीतने के क़रीब नहीं पहुँच सका। यूरो कप में भी उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1964 में तीसरा क्रम पाना ही था। आज हंगरी की टीम फीफा की रैंकिंग में 37वें पायदान पर है- कैमरन और ईजिप्ट के समकक्ष। यूरोपियन-एलीट्स के बीच लगभग महत्वहीन!

लेकिन 800 से ज़्यादा करियर गोल करने वाले फ़ेरेन्स पुस्कस को ज़रूर आज तलक बड़े सम्मान से याद किया जाता है। पता है कैसे? फीफा पुस्कस अवॉर्ड के ज़रिए, जो कि साल के सर्वश्रेष्ठ गोल को दिया जाता है। हर साल एक बेहतरीन गोल की विरुदावली के साथ ही पुस्कस का नाम भी स्मृतिदीर्घाओं में फिर से गूँज जाता है, और फिर से याद हो आती है हंगरी की वह अभागी टीम, जो दुनिया जीतने के इतने क़रीब पहुँचकर मानो नियति के बल से ठिठक गई थी!