हंगामा क्यों है बरपा? / ममता व्यास
पंजाब राज्य महिला आयोग ने महिलाओं को सलाह देने के लिए, समझाइश देने के लिए इक परचा प्रकाशित करवाया है, जिसमें कहा गया है कि महिलायें फ ोन पर बातें ना करें, इससे पुरुषों को ईर्ष्या हो सकती है। इससे तलाक में बढ़ोतरी हो रही है। महिलाओं को चाहिए कि मोबाइल पर बात ना करें इसके बजाय वो अच्छी पत्नी बनकर घरेलू काम पर ध्यान दें।
सबसे पहले तो गंभीरता से सोचने वाली बात ये है कि आखिर आयोग को ऐसा परचा जारी क्यों करना पड़ा? क्या सच में पुरुष महिलाओं के मोबाइल फ़ोन पर बात करने से ईर्ष्या करते है? इसका जवाब है हाँ, मैंने अपने आसपास ऐसे बहुत से पुरुषों को देखा है जो ये कतई बर्दाश्त नहीं कर पाते कि उनकी पत्नी या प्रेमिका उनके अलावा किसी और पुरुष से बात करे। बहुत से पतियों ने अपनी बीवियों के मोबाइल तोड़ दिए या फेंक दिए या चुरा लिए, इतना ही नहीं अपनी साथी के फोन डिटेल्स देखना और मैसेज पढऩा (वो भी अधिकार से) आम बात है, पिछले दिनों बैंगलौर के इक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने अपनी इंजीनियर पत्नी को सिर्फ इसलिए मार डाला क्योंकि उसे शक था कि वो किसी और से प्यार करने लगी है। यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि उन दोनों ने कुछ दिनों पहले ही प्रेम विवाह किया था।
अब बात राज्य महिला आयोग के हास्यास्पद बयान पर... मैं आयोग से पूछना चाहती हूँ कि पुरुष कब से ईर्ष्यालु होने लगे, ये तो महिलाओं का विशेष गुण था न? दूसरी बात यदि फ़ोन की वजह से तलाक हो रहे है तो प्रतिबन्ध सिर्फ महिलाओं पर ही क्यों? पुरुषों को भी मनाही होनी चाहिए कि वो भी मोबाइल ना रखे।
जो आज मोबाइल की वजह से शक कर रहे हैं। कल वो किसी और वजह से करेंगे। महिला आयोग का अगला फरमान हो कि महिलाओं को नेट का उपयोग नहीं करना चाहिए। फिर... अन्तिम फरमान कि महिलाओं को तो साँस भी नहीं लेना चाहिए, उन्हें जि़न्दगी जीनी ही नहीं चाहिये है न?
मेरी इक दोस्त ने बताया कि उसके मंगेतर ने उसे सगाई पर मोबाइल गिफ्ट किया था, जिससे वो दिन भर बातें करती थीं। शादी होते ही मोबाइल वापस ले लिया कि अब क्या जरूरत तुम्हें मेरे अलावा किसी से बात करने की... वाह रे मेरे भारतीय पुरुष तुम्हें सलाम। क्या कोई महिला या लड़की की जि़न्दगी 'तेरे नाम से शुरू तेरे नाम पे खत्म हो जाती है उसकी अपनी कोई जि़न्दगी नहीं। उसके अपने विचार, उसके अपने मत नहीं हो सकते? सदियों से भारतीय स्त्री अपने पति पर आंख मूंद कर विश्वास करती आई है, वो चाहे देश में हो या परदेश में उसे याद करती आई है, पुरुष की बेवफाई, उसकी लम्पटता, उसकी मौजमस्ती और अन्याय के दर्द को अपने लाल सिंदूर, बड़ी सी बिंदिया में छिपाती आई है तो पुरुष उस पर भरोसा क्यों नहीं करता?
आज, यदि वो अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ-साथ कुछ वक्त अपने लिए निकाल लेती है। कुछ देर वो खुश हो लेती है। कुछ पल वो हंस लेती है तो इतना हंगामा क्यों है भाई? आज क्यों पुरुष का विश्वास अपनी जीवनसंगिनी पर से उठ गया? सिर्फ इसलिए कि वो अब घर से बाहर जाकर काम करने लगी है, वो जागरूक हो गयी है। सदियों तक खामोशी से सब सुनते-सुनते उसने अब सवाल पूछना शुरू कर दिए, इसलिए विश्वास टूट गए? कितने कमजोर है हमारे विश्वास। इन खोखले विश्वासों को कब तक कोई भारतीय महिला अपने सुहाग चिन्हों में छुपा कर ढ़ोती रहेगी, उसे भी जीने का हक है, उसे अपने पति बच्चों, मायके, ससुराल के, लोगों से ही नहीं खुद से भी मोहब्बत करने का हक है। उसे भी साँस लेने का हक है, उसके जीने पर, उसके जि़न्दगी 'जी लेने पर इतना हंगामा क्यों? आखिरी बात महिला आयोग से कि विवाह मोबाइल से नहीं टूटते और ना सिर्फ महिलायें ही दोषी हैं विवाह टूटने की। विवाह को बचाना है तो पहले विश्वास को टूटने से बचाना होगा। दिलों को चटकने से बचाना होगा। कोई जीता है खुशी से तो उसे जीने दिया जाये ना कि हंगामा किया जाये, क्या हुआ कोई थोड़ी-सी जी लेना चाहता जि़न्दगी को।
हंगामा क्यों है बरपा, थोड़ी सी जो जी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है।