हकीकत / रूपसिंह चन्देल
सुबह एक कवयित्री मित्र का फोन आया. बोलीं, "आपने अमुक अखबार देखा?"
"देखा. उसमें कुछ खास है?"
"स्नेह रश्मि के कविता संग्रह की समीक्षा----."
"वह भी देखा--लेकिन..."
मेरी बात बीच में ही काट वह बोलीं, "मेरा संग्रह प्रकाशित हुए एक वर्ष होने को आया और किसी भी पत्र-पत्रिका ने अभी तक उसकी समीक्षा प्रकाशित नहीं की, जबकि मैंने सभी को समीक्षार्थ प्रतियां भेजी थीं. स्नेह रश्मि के संग्रह को प्रकाशित हुए छः माह भी नहीं हुए और कितनी ही पत्रिकाओं और रविवासरीय अखबारों में समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकीं हैं." उनके स्वर में उदासी स्पष्ट थी.
"देखिए---" मैने उन्हें नाम से संबोधित करते हुए कहा, "आपके पति दूरदर्शन या आकाशवाणी में निदेशक नहीं हैं और न ही किसी मंत्रालय या लाभप्रद विभाग में ऊंचे पद पर हैं. आकाशवाणी या दूरदर्शन में निदेशक नहीं तो कम से कम प्रोग्राम एक्ज्य़ूकेटिव ही होते---लिखने वाले लपककर आपका कविता संग्रह थामते और आपको बताना भी नहीं होता कि आपने कहां-कहां समीक्षार्थ प्रतियां भेजी हैं. वे स्वयं पत्र-पत्रिकाएं खोज लेते. स्नेह रश्मि के संग्रह की भांति ही वे आपके संग्रह पर भी टूट पड़े होते और सारे कामकाज छोड़कर उस पर लिखते. आपके पति हैं तो रक्षा मंत्रालय में लेकिन ऎसे पद पर भी नहीं कि वहां की कैंटीन से लिखने वालों के गले तर करने की व्यवस्था कर सकते."
"यह तो मुझ जैसी साधनहीना के साथ ज्यादती है." लंबी सांस खींच वह बोलीं.
"कुछ जोड़-जुगाड़कर आप भी इंडिया इंटर नेशनल सेंटर या इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक गोष्ठी कर डालें---समय की वास्तविकता को समझें--वर्ना---."
"वर्ना--वर्ना---" उनके शब्दों में पहले की अपेक्षा और अधिक उदासी थी. उनको उदास जान मैं उनसे अधिक उदास हो चुका था.