हज़ार राहें मुड़के देखीं / माया का मालकौंस / सुशोभित

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हज़ार राहें मुड़के देखीं
सुशोभित


वायलिनों की अंगड़ाइयों से भरा यह गीत क़यामत का इश्तेहार है।

ये ऐसे मानीख़ेज़ बोलों की लड़ियों से सजा है कि एकबारगी जी करता है, उन ग़मों को ख़ुद गले लगा लें, जो इस गीत में बयान फ़रमाए गए हैं, ताकि इसी बहाने इन बोलों को जी सकें अपने भीतर । कुछ और नहीं तो यही हारा हुआ दिलासा ।

लता - किशोर का यह दोगाना है । गीत गुलज़ार ने लिखा और धुन ख़ैय्याम ने बाँधी। साल 1980 में इस एक गीत ने किशोर और गुलज़ार को गायकी और शायरी के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया था। और क्यों ना हो ?

परदे पर राजेश खन्ना और शबाना आज़मी । राजेश खन्ना सफ़ेद धुएँ के पसेमंज़र यह गीत गाते हैं, शबाना आज़मी ललाई से भरे साँझ के आसमान की पृष्ठभूमि में। दोनों के थ्री-फ़ोर प्रोफ़ाइल और कभी-कभी क्लोज़अप इन धुओं और रौशनियों के परदों पर हमारे सामने उभरकर आते हैं। दोनों उलाहने की लगभग सिनिकल और कटुतापूर्ण झोंक में एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराते अपनी नाकामियों का बखान करते हैं। कैमरा बार- बार एक से दूसरे के चेहरे की ओर कट होता रहता है

राजेश के चेहरे पर आत्ममंथन है । उम्र उनकी ढल गई है, किंतु जब-तब झिपने वाली पलकों में पुराना जादू रह-रहकर जाग उठता है । शबाना के चेहरे पर वही चिरपरिचित कातरता से भरा आत्मदैन्य, जिसने एक कोमल, करुण प्रेयसी के रूप में उनकी प्रतिमा अस्सी के दशक में अमर कर दी थी - 'स्पर्श', 'मासूम', 'निशांत' और 'अर्थ' जैसी फ़िल्मों की महान नायिका ।

‘जहाँ से तुम मोड़ मुड़ गए थे

वो मोड़ अब भी वहीं पड़े हैं'

राहों और मोड़ों और किनारों और कभी ना रुकने वाले सफ़र के मोटिफ़ का भरपूर दोहन करने वाले गुलज़ार ने इससे ठीक पांच साल पहले फ़िल्म 'आँधी' के लिए वे जादुई पंक्तियाँ लिखी थीं-

‘इन रेशमी राहों में, इक राह तो वो होगी

तुम तक जो पहुँचती है, इस मोड़ से जाती है । '

'तुम तक जो पहुँचती है' में उम्मीद का जो दिया है, वो इस गीत में मायूसी के मील के पत्थरों तक पहुँचकर बुझ-सा गया है 1

‘वो मोड़ अब भी वहीं पड़े हैं।'

इस इत्तेला के दो मायने हैं। एक तो ये कि जिस मोड़ पर तुम मुझे छोड़कर आगे बढ़ गई थीं, मैं आज भी वहीं खड़ा हूँ। तुम भूल गईं, किंतु मैं नहीं भूला हूँ । उलाहने का तंज़ है इसमें । दूसरा यह कि अगर तुम चाहो तो लौटकर फिर आ सकती हो, मैं उसी मोड़ पर तुम्हारा इंतज़ार करता तुम्हें मिलूँगा । अब यहाँ पर उम्मीद का चराग़ है, जो राह के उस मोड़ पर जलाए रखा गया है।

अगले ही पल नायिका का प्रत्युत्तर आता है-

‘हम अपने पैरों में जाने कितने

भँवर लपेटे हुए खड़े हैं।'

कि तुम तो मोड़ पर खड़े हो, किंतु वो सड़क कहीं जाती नहीं । ठहर जाना तुम्हारे लिए आसान है। मुझे देखो, मेरे पाँवों से कितनी भँवरें लिपटी हुई हैं। मुझे जाने कितनी लंबी दूरियाँ अपने बिना तय करना हैं । लेकिन तुम्हें इसका अंदाज़ा क्यूँ कर हो ?

ग़रज़ ये कि पहली ही कड़ी से रंग जम जाता है ।

इस गीत में किशोर की आवाज़ में एक अनूठा सम्मोहन चला आया है। किशोर ने अपने सबसे अच्छे गीत अपने जीवन की आख़िरी दहाई में गाए । अस्सी के इन सालों में किशोर की आवाज़ में ठहरे हुए सोग़ का जो पर्वत उग आया था, उसे आने वाली अनगिन सदियों की धूप भी पूरा पूरा गला नहीं पाएँगी। वो बस धीरे-धीरे यों ही पिघलता रहेगा अपनी अनुगूँजों के भीतर, जब भी कोई उन गीतों के तवे बजाएगा - गाढ़ी, पुरदर्द, तनहा और क़ायनाती अफ़सोसों से भरी आवाज़ के चंदोवे तले।

'कहीं किसी रोज़ यूँ भी होता

हमारी हालत तुम्हारी होती

जो रात हमने गुज़ारी मरके

वो रात तुमने गुज़ारी होती ।'

जैसे कि ज़िद ठान ली हो, यह बतलाने की कि किसने ज़्यादा दुःख झेला तुम्हें क्या पता मैंने क्या सहा? ख़ूब पता है, लेकिन मैंने तुमसे ज़्यादा झेला है। टूटे दिलों की यह हारी होड़ |

हस्बेमामूल, जितना प्यार, उतने ग़म का यहाँ हिसाब है । बड़ी अजीब बात है कि प्यार का पैमाना दुःख होता है। ख़ुशी से आप प्यार को नहीं माप सकते। ख़ुशी तो बड़ी बेमोल सी चीज़ है, जो केवल बाद में दुःख में याद करने के काम आती है। सोग़ से ही प्यार की सही-सही नापजोख होती है । जितना सोग़, उतनी मोहब्बत। और इस गीत में जब दोनों यह बतलाना चाहते हैं कि मैंने तुमसे ज़्यादा दुःख सहा, तो वास्तव में वे यह कहना चाह रहे होते हैं, कि मैंने तुम्हें ज़्यादा प्यार किया।

ये मीठे गिले, ये दिलफ़रेब शिकवे, ये जले हुए अहसास केवल प्रेमियों के नसीब में बदे होते हैं, बाज़ार की ज़बान में ऐसी सिफ़त आपको ढूँढ़े ना मिले।

'उन्हें ये ज़िद थी के हम बुलाते

हमें ये उम्मीद वो पुकारें ।'

कौन पहले पुकारे, कौन पहले बुलाए ? प्यार में खटका इस बात का नहीं है कि जो पहले पुकारेगा, वह दूसरे से छोटा हो जाएगा। बड़े-छोटे के भेद से प्यार नहीं डरता। लेकिन वह इस बात से ज़रूर डरता है कि कहीं ऐसा तो ना होगा कि पुकार लौटकर ना आए, कोई जवाब ना मिले ?

क्योंकि तब मैं अपनी अनुत्तरित पुकार के साथ कैसे जीऊँगा। प्यार में सबसे बड़ा दुःस्वप्न यही है कि जवाब ना मिले तो क्या होगा ? इसी पसोपेश में कही गई वह बात है।

गीत की इस तीसरी कड़ी तक आते-आते उम्र दस-पंद्रह साल के फ़ासले को लाँघ चुकी होती है। नायक ने मूँछें रख ली हैं और नायिका को चश्मा लग गया वही चौकोर फ्रेम का गुलज़ार वाला चश्मा ।

गुलज़ार ने ख़ुद वैसा चश्मा ताउम्र पहना और अपनी फ़िल्म के केंद्रीय नायकों, मुख्यतया जितेंद्र और संजीव कुमार को भी पहनाया। चौकोर फ्रेम के चश्मे और सफ़ेद कुर्ते में तब गुलज़ार की फ़िल्मों के नायक उनकी ही प्रतिकृति दिखाई देने लगते। अति तो तब हो गई, जब उन्होंने अपनी नायिकाओं को भी वैसे चश्मे पहना दिए–‘अंगूर’ में दीप्ति नवल, 'इजाज़त' में रेखा, ग़नीमत है 'ख़ुशबू' में हेमा को उन्होंने बख़्श दिया ।

फ़िल्म 'थोड़ी-सी बेवफ़ाई' गुलज़ार ने नहीं बनाई थी, वे केवल इसके गीतकार थे, किंतु शबाना को वैसा ही चश्मा पहने देख एकबारगी हम सोच में डूब जाते हैं कि शायद गुलज़ार इस फ़िल्म के गीतकार से कुछ बढ़कर ही रहे होंगे ।

'उन्हें ये ज़िद थी के हम बुलाते

हमें ये उम्मीद वो पुकारें

है नाम होंठों पे अब भी लेकिन

आवाज़ में पड़ गई दरारें ।'

अगर मैं हिंदोस्तां का ज़िल्ले - इलाही होता तो मुनादी पिटवा देता कि यह फ़िल्म देखने वाले ख़ाली हाथ ना जाएँ, वे अपने साथ सोने की अशर्फ़ियाँ लेकर जाएँ, वे गिन्नियाँ आपको सिनेमाघर के दरवाज़े पर मुहैया करवा दी जाएँगी । शर्त केवल इतनी है कि फ़िल्म में जब यह गीत बजे तो इन पंक्तियों पर परदे पर आपको सोने के कलदार उछालना होंगे।

कि लाल-जवाहर में तौला जाए, इससे भी बढ़कर है यह बयान ।

'है नाम होंठों पे अब भी लेकिन

आवाज़ में पड़ गई दरारें ।'

बालों में चाँदी आ गई लेकिन तुम्हारा नाम आज भी मेरे होंठों पर है, मैं आज भी उसी मोड़ पर खड़ा हूँ । ये और बात है कि पुकारने की ही सूरत अब नहीं रही । पुकारना चाहता हूँ लेकिन पुकार हलक़ में घुटकर रह जाती है । हालात साथ नहीं देते। ज़िंदगी रास्ता रोक लेती है । कि अब आवाज़ में ही दरार पड़ गई है।

निपट उदासी, तनहाई, लाचारी और मायूसी से निकला गाना है यह । गीत का एक-एक बोल नूर की बूँद है | आवाज़ की एक - एक करवट क़यामत है। ख़ैय्याम साहब ने क्या ही जांलेवा धुन बाँधी है कि हीरा चाटकर मर जाने को जी होता है।

जिनके नसीब में ज़िंदगी ने ऐसे ही हालात लिखे हैं, वे 'लूप' में इस गाने को सुनते हैं, चश्मे को पेशानी पर चढ़ाकर, आँखें मूँदे, अंधेरे बंद कमरे में।

और जो कमनसीब ग़मों के इस लुत्फ़ से महरूम हैं, वो दुआ माँगते हैं कि हमारी ज़िंदगी में वैसा ही गाढ़ा कोई सोग़ आकर ठहर जाए, ताकि और कुछ नहीं तो कम-अज़-कम इस गीत की शिद्दत को तो हम पूरी तरह जी सकें।

और कुछ नहीं तो इतना तो कर सकें ।

ये चाक-जिगर की बज़्म है साहेबान, यहाँ ग़मों के मौसम सदाबहार हैं, यहाँ सोग़ का जश्न मनाया जाता है, यहाँ यह गाना रूह के सबसे गहरे सुर के साथ गाया - गुनगुनाया जाता है। यह टूटे दिल वालों की मेहफ़िल है, हुजूर ।

'हज़ार राहें मुड़के देखीं

कहीं से कोई सदा ना आई ।'

आमीन, आमीन, आमीन!