हजारीबाग सेंट्रल-जेल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
प्राय: एक महीने के बाद एक दिन हुक्म आया कि 'ए' और 'बी' डिवीजनवालों को हजारीबाग जाना होगा। हम दो-चार साथी रेल से रवाना हो गए। वह हजारी बाग रोड स्टेशन पर सवेरे पहुँच गई। हम लोग पुलिस के साथ वहीं उतरे। मेरे साथ जगत बाबू भी थे। हमें न तो हथकड़ी-बेड़ी लगाई गई और न कमर में हमारे रस्सी ही बाँधी, जेल से लेकर यहाँ तक, या हजारीबाग जेल तक। मगर थोड़ी देर में भागलपुर से श्री रामेश्वनारायण अग्रवाल उतरे, तो देखा कि उनकी कमर में रस्सा बँधा हुआ है! ताज्जुब हुआ। एक ही सरकार और यह विचित्रता! वही कानून, वही पुलिस और उसी प्रकार के हम सभी राजबंदी! फिर यह विषमता हम समझ न सके। मगर सरकार को समझना आसान नहीं। यही समझ के संतोष किया। खैर, अग्रवालजी से दंड-प्रणाम हुआ। सबने वहीं स्नानादि किया।
वहीं पर मैंने बाबू जगतनारायण लाल की विचित्र पूजा देखी। घंटों सिर झुमाना और रम,रम,रम, रम, (राम, राम, राम,राम) करना सो भी निराले ढंग से,मेरी समझ में न आया। हालाँकि,मेरा जीवन पूजा में ही बीता है। उन्होंने कहा कि भगवान को रिझाता हूँ। मैंने रिझाने का यह तरीका अनोखा पाया,जो तमाम शास्त्र,वेदों और पुराणों में कहीं नहीं मिला था। सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह प्रत्यक्ष ही कोई झूठी बात बोलते या खराब काम करते थे। फिर यह कह के संतोष कर लेते थे कि मंो अपने भगवान को रिझाकर क्षमा करवा लूँगा। ऐसा मौका उसके बाद कई बार जेल में लगा था। मैं तो ऐसे भगवान को भी समझ न पाया। मेरे लिए वह भगवान, उनके रिझाने के लिए वह पूजा और वह पुजारी तीनों ही पहेली ही रहे और आज तक भी हैं।
हाँ, तो स्टेशन से हम हजारीबाग सेंट्रल जेल में पहुँचे। ऑफिस में ही हमारी सब चीजें रख ली गईं। मैंने अपना'दंड'पहली बार और इस बार भी साथ ही रखा था। इसलिए जेल में भी वह रहा। वह ऑफिस के एक कमरे में पहले ही की तरह टँगा था। कपड़े तो जेल के ही मिले। केवल मेरे दो लँगोटे मेरे साथ रहने पाए। अब तो नियम बदल गए हैं। मगर पहले कुछ वैसी ही बातें थीं। सिर्फ 'ए' डिवीजनवाले ही अपने कपड़े रख सकते थे। कुर्सी,मेज, गद्दें, खाट आदि तब नहीं मिलते थे। मामूली कैदियों जैसे ही सामान रहते थे। पीछे,जहाँ तक खयाल है,बदले। मगर मैं तो बराबर वही कपड़े रखता था और वही सामान। इसका कारण बताऊँगा। जेल के ऑफिस से मैं स्पेशल सेलों के दो नंबर के वार्ड में लाया गया। वहीं एक सेल में डेरा डाला। कुछ परिचित लोग पहले ही से थे। उनसे भेंट और बातें भी हुईं।
मगर पहुँचते न पहुँचते मुझे वहाँ बदली हुई दुनियाँ मालूम पड़ी। मालूम पड़ता था मैं एक निराले संसार में पड़ गया हूँ। पहले ही बता चुका हूँ कि सन 1922 ई. में जेल में मुझे कटु अनुभव हुए और सोचा कि गाँधी जी की बात तो चलती नहीं। लोगों पर उनका असर है नहीं आदि-आदि। मगर सोचता था कि गत दो वर्षों में लोगों ने उन सिध्दांतों को हृदयंगम किया होगा और बहुत कुछ उस मामले में आगे बढ़े होंगे। गाँधी जी तो अपने को बड़ा ही सख्त और बेमुरव्वत बताते हैं, जहाँ तक वसूलों की बात है। वह स्वराज्य को छोड़ दे सकते हैं। मगर अपने सिध्दांत छोड़ नहीं सकते। ऐसी हालत में लड़ाई शुरू करने के पहले उन्होंने जरूर ही देख लिया होगा कि पहले की खामियाँ अब नहीं हैं, या नाममात्र को ही हैं। तभी तो लड़ाई छेड़ी होगी। वे तो इस बात का दावा करते हैं कि उनका जीवन ही अनुभव का है और वे सभी बातें बखूबी समझते हैं,चाहे हम लोग भले ही छिपाएँ।
ऐसी दशा में स्वभावत: मुझे आशा थी कि लोग नियमों की पाबंदी और सत्य आदि के मामले में बहुत कुछ उन्नति कर गए होंगे। मगर यहाँ तो उल्टा ही पाया और देखा कि दस साल के भीतर लोग ठीक उलटे चले हैं। फलत: जहाँ सन 1922 में थे वहाँ से बहुत पीछे हट गए हैं। मेरे लिए यह बड़ा ही दर्दनाक दृश्य था। उस समय मेरे दिल की क्या दशा थी यह कौन समझ सकता था? मेरे जैसा आदमी जो अनुभवों के सहारे आगे बढ़ता आया हो और जिसे गाँधीवाद में अटूट श्रध्दा हो कैसे इस पतन के लिए तैयार हो सकता था? इस भीषण दृश्य को बर्दाश्त कैसे कर सकता था? आखिर, मैं तो धर्म दृष्टि से ही राजनीति में कूदा था। मगर यहाँ तो ऐसी गंदगी पाई कि हैरान हो गया। मुझे मालूम पड़ा कि मैंधोखे में पड़ गया।
बात यह है कि मुझे सन 1922 ई. के अंत तक होनेवाले अनुभवों के आधार पर यह खयाल हो आया था कि एकाएक गाँधी जी ने तथा परिस्थितियों ने भी कस के धक्का मारा और सारा मुल्क बहुत आगे बढ़ गया। लीडर भी और जनता भी दोनों ही बहुत आगे चले गए। उसके बाद लीडर लोग तो धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगे मगर जनता जहीं की तहीं रह गई। प्रत्युत वह धीरे-धीरे आगे ही जा रही है।
यह जान लेना चाहिए कि जनता जितनी दूर बढ़ी थी उससे कहीं आगे कई अर्थों में लीडर लोग चले गए थे। जनता में राजनीतिक चेतना और प्रगति बहुत हुई थी। मगर सत्य और अहिंसा आदि को उसने उतना कभी नहीं समझा था। वह समझती भी नहीं। उसका ऐसा स्वभाव ही नहीं कि इन गहरी बातों में माथापच्ची करे। उसका उसे मौका ही नहीं। भौतिक और आर्थिक मामलों को वह खूब समझती है। मगर दार्शनिक रहस्यों को वह क्या जानने गई ? उन्हें वह बेकार से समझती है। इनसे उसकी रोटी तो हल होती है नहीं। वह तो यह भी मानती है न , कि धर्म के ये सभी मामले उसकी पहुँच के बाहर हैं ? इसीलिए यह भी मानती है कि बड़े लोगों को खिला-पिलादेने , पैसे दान करने , और उनकी आज्ञा से थोड़ा कष्ट भोग लेने से ही उसका काम चल जाएगा ─ उसका कल्याण हो जाएगा। क्योंकि बड़े लोग ये बातें जानते ही हैं और उन्हीं के पुण्य प्रताप में से कुछ मिल ही जाएगा , उन्हें इस तरह मानने से। मगर बड़े लोग,नेता लोग,कार्यकर्तालोग─सारांश, चुने लोग─तो शौक से और चाह के साथ सत्य,अहिंसा आदि में पड़ते हैं। उन्हें जनता को ले चलना जो है। इसीलिए वह इस मामले में जनता से आगे बढ़ जाते हैं। कम-से-कम ऐसे प्रतीत होते हैं।
लेकिन वह बढ़े थे अपने बल से नहीं,दूसरे के बल से परिस्थितियों के दबाव से। फलत: जब तक वह दबाव था वे अपनी जगह पर रहे। मगर दबाव कम होते ही निराधार वस्तु की तरह गिरने लगे। कमजोरियाँ थोड़ी देर दबी रहीं। मगर अब मौका पाकर उन्होंने नेताओं को दबाना शुरू किया। इसीलिए मैंने कहा है कि वह गिरने लगे। उनकी अहिंसा और उनके सत्य का पर्दाफाश होने लगा! उनकी कलई खुलने लगी। मगर जनता का क्या? उसकी कलई क्या खुले? अगर कोई हो तब न? इसीलिए वह पीछे हटना नहीं जानती। किंतु धीरे-धीरे आगे ही बढ़ती है। मगर नेता पीछे हटने लगते हैं। जनता यदि धीरे-धीरे न बढ़े तो उसमें मजबूती न आवे और उसकी मजबूती से तो काम चलता है। लीडर तो आते जाते हैं। एक नहीं तो दूसरा लीडर होगा।
गिरने का मौका जेल में सबसे ज्यादा होता है। यानी असलियत यहीं आसानी से खुलती है। जेल में कुछी लोग ऊपर जाते हैं। कुछी अपनी जगह पर रह जाते हैं। मगर ज्यादा लोग नीचे चले जाते हैं। यह पक्की बात है। अब तक यही हुआ है। आगे की राम जानें। गाँधी जी कब इस बात को समझेंगे पता नहीं? कभी भी समझ सकेंगे या नहीं यह भी कौन बताए?
दूसरी बार जेल में आते ही जो नजारा देखा उससे मेरी पुरानी आशाओं पर पानी फिर गया और मेरा जो पुराना खयाल था जिसे अभी बताया है वह पक्का हो गया। मैंने मान लिया कि यह नाव तो डूबने वाली है। गाँधी जी का सत्य और उनकी अहिंसा,ये चीजें हर्गिज चलने की नहीं। जरा-जरा सी बातों के लिए लोग क्या-क्या न कर डालते थे? जरा सी सुविधा के लिए आकाश-पाताल एक कर डालते थे। पावरोटी, मक्खन और अंडे के लिए अनेक फरेब रचे जाते थे, अनेक बहानेबाजी होती थी। कोई किसी की सुनता न था। सब अपने-अपने मालिक। गाँधी जी के बताए नियम, कायदे तो कतई भूली गए थे। मानों, उन्हें कभी किसी ने सुना या जाना ही न हो! उनकी परवाह तो सचमुच किसी को भी न थी। चाहे गाँधी जी भले ही समझते थे कि साबरमती आश्रम के कुछी लोगों ने, या उनके एकाध परिचित ने ही किताबें पढ़ने के लिए जेल का काम करना बंद कर दिया और नियम तोड़ा! जैसा कि सत्याग्रह स्थगित करने के कारणों में उन्होंने सन 1934 ई. में बताया था। उन्हें क्या पता था कि पद-पद पर सभी नियमों की धाज्जियाँ बेरमुरव्वत से जानबूझकर उड़ाई जाती थीं। इसके अपवाद शायद हो दो-चार हों। जबर्दस्ती किसी की शिखा काट लेना और जनेऊ (यज्ञोपवीत) तोड़ देना तो मामूली बात थी। जिसके हाथ में गीता देखी, बस, लोग उसी के पीछे पड़ गए और उसके नाकों दम कर छोड़ा। अजीब हालत थी। मैंने देखा कि बाबू राजेंद्र प्रसाद परेशान और लाचार थे। उनकी कोई सुनता ही न था। फिर दूसरे की कौन गिनती?
मेरे सामने तो वहाँ जाते ही एक और प्रश्न आया। मैंने सन 1922 ई. में ही विशेष प्रकार का खाना वगैरह इनकार कर दिया था। उसके कारण भी बताई चुका हूँ। हजारीबाग आने पर मैंने फिर इनकार किया। और मामूली खाना वगैरह ही लेना शुरू किया। इस पर बड़ा तोबातिल्ला मचा। लोगों ने इधर-उधर से बहुत कुछ समझाना चाहा। मगर किसी की न चली। फिर तो सभी चुप रहे।
खैर, यह तो एक बात थी। मगर जब मैंने पीछे यह जाना कि बहुतों को यह मेरी बात बुरी तरह खटकती थी। इसमें वे अपनी अप्रतिष्ठा देखते थे। वह समझते थे कि इससे उनका प्रभाव साधारण कार्यकर्ताओं में कम हो जाएगा और इस एक आदमी का बढ़ेगा। और भी जाने क्या-क्या सोचते थे। फलत: अप्रत्यक्ष रूप से न जानें उनने कितने उपाय किए कि मैं भी उन्हीं जैसा खान-पान स्वीकार करके पथभ्रष्ट हो जाऊँ। लेकिन वे लोग अंत तक सफल न हुए। तब झूठी बातें फैला के मुझे बदनाम करना चाहा। मुझे इस नीचता का पता लगा तब तो अपार वेदना हुई और सोचा कि कहाँ चला जाऊँ। पर बेबस था।
परिणाम यह हुआ कि मैं अपने सेल से बाहर निकलता ही न था। केवल पाखाने और स्नान के समय को छोड़, शेष समय उसी के भीतर ही पड़ा रहता था। ऐसी तकलीफ थी और बाहर का दृश्य इतना असहनीय था कि बाहर निकलने की हिम्मत ही न होती थी। भीतर ही बैठा सूत कातता और पढ़ने-लिखने का काम करता रहता था। एकाध जवानों को कुछ पढ़ाता भी था। सूत तो मैंने काफी काता और बाहर जाने के समय पैसे देकर जेल से उसे खरीद लिया भी। चालीस नंबर (काउंट) का सूत काता था। उसका बारह गज कपड़ा चौवालीस इंच अरजवाला तैयार कराया। छ: आने गज बुनाई देनी पड़ी।
मेरी मानसिक वेदना कभी-कभी इतनी बढ़ जाती कि माफी माँग कर बाहर चले जाने की बात सोचने लग जाता। माफी केवल इसलिए, कि मुझे देशद्रोही समझ फिर ये लोग न मेरे पास कांग्रेस के संबंध में आएँगे और न फिर मैं कभी आगे इस नरक यातना में पड़ूँगा। यों तो खामख्वाह आएगे और घसीटकर फिर मुझे इस दोजख में लाएँगे। लेकिन फिर सोचता कि माफी माँगने का परिणाम देश के लिए घातक सिध्द होगा। जिस देश के लिए इतना किया उसी की हानि करूँ यह ठीक नहीं। उसने क्या बिगाड़ा है कि उसे हानि पहुँचाऊँ?बिगाड़नेवाले तो ये लोग हैं। तो फिर इन पर होनेवाला क्रोध देश के मत्थे नाहक क्यों उतरे? बस यही समझकर रुक जाता।
लेकिन चलने से पहले, और छ: ही महीने की तो सजा थी यह तय कर लिया कि चाहे जो हो मगर कांग्रेस में न रहूँगा। उससे तो अलग होई जाऊँगा। उसका या देश का तो कोई नुकसान जानबूझकर नहीं करूँगा। लेकिन कांग्रेस से अलग जरूर हो जाऊँगा। उसकी राजनीति से कोई नाता नहीं रखूँगा। यह बात लोगों को मालूम भी हो गई कि स्वामी जी लोगों पर बहुत ही रंज हैं। उन्हें डर हुआ कि बाहर जाकर कहीं कांग्रेस का विरोध न करें। क्योंकि मेरे स्वभाव से वे लोग परिचित थे और मानते थे कि यदि मैंने ऐसा तय कर लिया तो फिर मुझे कोई रोक नहीं सकता। इसलिए जब जेल से चलने के समय लोगों ने यह प्रश्न किया तो मैंने यही उत्तर दिया कि वर्तमान समय में कांग्रेस और देश का तो कभी भी विरोध आत्मघात है और मैं आत्मघाती नहीं बन सकता। तब कहीं जाकर लोगों को चैन मिला।
मेरे स्वास्थ्य की हालत यह हो गई कि मैं काला पड़ गया। केवल हड्डियाँ रह गईं। मानसिक वेदना और चिंता ऐसी ही वस्तु होती है। पहले पढ़ा था कि 'जल गए लोहू-मांस गई रह हाड़ की ठट्टी'। लेकिन उसका प्रत्यक्ष अनुभव जेल में इस बार हुआ। जेलवाले घबरा गए। श्री नारायण बाबू जेलर ने मुझसे पूछा कि हमें आपको मरने से बचाना है। हमारे ऊपर जिम्मेदारी है। इसलिए बतलाइए कि आप बाहर क्या खाते-पीते थे? जेल में मैं रोटी मात्र लेता था और थोड़ा दूध लेकर खा लेता था। नमक,दाल, साग, चटनी तो खाता न था। उनकी जगह दूध लेता था। जब उनने पूछा तो कुकर की चर्चा मैंने की और कहा कि उसी में पका के दलिया खाता था और कभी-कभी केले आदि फल भी। फिर तो बिहटा लिखवा कर मेरा कुकर उन्होंने मँगवा दिया और दलिया वगैरह का प्रबंध कर दिया। इससे, जो स्वास्थ्य गिर रहा था वह रुक गया सही। मगर उसमें उन्नति न हो सकी।
लेकिन जब और कुछ न मिला तो यह कुकर वगैरह देख के ही कुछ दोस्तों ने चुपके-चुपके कहना शुरू किया कि आखिर रिआयतें तो स्वामी जी ने भी स्वीकार किया ही! इससे मुझे बड़ा दर्द हुआ और इतना भी मौका न देने के लिए मैं तैयार हो गया। इसलिए जेलर को लिखा कि आप कृपा करके वे सभी चीजें, जो रिआयत के रूप में हैं, लौटा लें। इस पर उसने कहा कि यहाँ रिआयत का सवाल है कहाँ? हमने जेल के कायदे के अनुसार प्रबंध किया है। उसे वापस नहीं ले सकते। क्योंकि आपकी शरीर रक्षा की जवाबदेही भी तो आखिर हमारे ऊपर है। इस पर विवश हो के मैं चुप हो गया।
आज तो मैं मानता हूँ कि मेरी वह सख्ती कुछ दृष्टियों से गलत थी। राजनीतिक बंद, जिन्हें जेलों में, ज्यादा समय अक्सर गुजारना पड़ता है,यदि सुविधाएँ न पाएँ तो मर ही जाए और खत्म ही हो जाए। उनके लिए तो यह जरूरी है कि आराम से रहें। बाहर रहने पर तो कामों के भार से फुर्सत रहती ही नहीं। स्वास्थ्य गँवाकर ही उन्हें काम करना पड़ता है। ऐसी दशा में तो जेल में ही स्वास्थ्य सुधारने का मौका उन्हें मिल सकता है। और अगर ये सुविधाएँ न रहीं तो आमतौर से सबका स्वास्थ्य सुधारने के बजाए चौपट ही हो जाएगा। इसीलिए तो जेल में जहाँ तक हो सके अधिकारियों से कोई खटपट न होने देने का मैं कट्टर पक्षपाती हूँ। क्योंकि नाहक परेशानी उठानी पड़ती है और दिल, दिमाग एवं शरीर तीनों पर ही उसका बुरा असर पड़े बिना नहीं रहता। जेल में अनशन का कट्टर विरोधी भी मैं इसीलिए हूँ कि दिल, दिमाग और शरीर तीनों पर ही उससे आघात होता है। सिवाय प्राणों से भी प्यारी चीज के और बात के लिए तो अनशन करना ही न चाहिए। प्राणों से प्रिय वस्तु के लिए भी बहुत सोच-विचार की जरूरत है। भरसक उसे भी टालना ही चाहिए। खूब पढ़ना-लिखना, पुराने विचारों को नए सिरे से फिर उधेड़बुन करके उन्हें पक्का करना या छोड़ना, नए विचारों को स्थान देना और व्यायाम, संयमादि के द्वारा शरीर को मजबूत करना यही काम जेल में होना चाहिए। बाहर के काम की चिंता छोड़ ही देना चाहिए। नहीं तो नाहक परेशानी होती है। कुछ कर भी तो पाते नहीं।
लेकिन जन-आंदोलन में जेल की सुविधाओं का विचार जरूरी हो जाता है। क्योंकि आम जनता पर हमारे जेल के व्यवहारों का काफी असर हो जाता है। और भी कई कारण मैं पहले ही कह चुका हूँ। फिर भी यह बात चल नहीं सकती। जब गाँधी जी जैसों का प्रभाव कुछ कर न सका तो औरों की क्या बात? और हमें तो व्यावहारिक बनना चाहिए। केवल आदर्शवादी बनने से इस भौतिक दुनिया का काम कभी नहीं चल सकता। इसीलिए मैंने अपने को अब ऐसा बना लिया है कि जेल में कोई कुछ भी ऊधाम करे या सच-झूठ से काम ले , मेरे दिल पर उसका पहले जैसा असर अब नहीं होता। मैं तो मानता हूँ कि दुनिया का यही रूप ही है। इसके बिना वह एक क्षण भी टिक नहीं सकती। गाँधीवाद का भूत और आदर्शवाद की सनक ये दोनों चीजें अब मेरे ऊपर से उतर गई हैं। इनके लिए बेकार माथापच्ची करना मैं भूल समझता हूँ फिर भी स्वयं ऐसी बातें कर नहीं सकता। मेरी हिम्मत ही नहीं होती कि झूठ बोलूँ या कोई जाल-फरेब करूँ। ऐसा खयाल मन में लाते ही आत्माधंसती सी मालूम पड़ती है।
जेल में मुझे और भी अनुभव हुए। आज जो लोग राजनीति के लीडर बने हुए हैं और बिहार के अनेक जिलों या समूचे प्रांत के कर्ता-धर्ता होने का दावा करते हैं, जहाँ तक राजनीति से संबंध है, वह प्राय: सभी हजारीबाग जेल में ही थे। जिस प्रकार युक्त प्रांत के कई सौ चुने-चुनाए लोगों से फैजाबाद,लखनऊ और बनारस जेलों में साबका पड़ा था और मैंने अनेक अनुभव प्राप्त किए। ठीक उसी प्रकार बिहार के कई सौ दोस्तों से हजारीबाग जेल में काम पड़ा था। वे तो आज प्राय: सभी लीडर हो गए हैं। इसलिए इन्हें नजदीक से जिस प्रकार आचरण और गाँधीवाद के सिध्दांतों के पालन के संबंध में मैंने देखा, ठीक उसी तरह उनकी राजनीतिक मनोवृत्ति के अंतस्तल की झाँकी करने का भी मौका मिला। इस मामले में उनके दिल और दिमाग कैसे हैं,उनकी मानसिक रचना कैसी है, इसके जानने का खासा अवसर वहाँ मिला। फलत: मैं उनकी ऊँची-ऊँची बातों से धोखे में पड़ नहीं सकता।
चाहे किसी भी कारण से हो, लेकिन मेरी धारणा, उस समय थी कि वह लड़ाई जल्दी ही खत्म होगी─एक साल से ज्यादा न चलेगी। मैंने दो-एक समझदार लोगों से, जो मुलाकात करने आये थे, कहा भी था। बात भी कुछ ऐसी ही हुई। तब से तो मेरी यह पक्की धारणा हो गई है कि गाँधी जी के नेतृत्व में चलनेवाली आजादी की लड़ाई लगातार जारी रह नहीं सकती। खैर, उन दिनों तो मैं समझौता, सुधार और क्रांति की बातें विशेष रूप से जानता भी न था। और न यही जानता था किगाँधीजी समझौतावादी एवं सुधारवादी हैं। मैं तो उन्हें पक्का क्रांतिकारी मानता था, जैसा कि आज भी कुछ अच्छे और समझदार लोग मानते हैं। फिर भीयह धारणा दृढ़ हो चली थी कि जम के लड़ते रहनागाँधीजी के लिए असंभव है। लेकिन जो आजादी हम चाहते हैं वह तो बिना मुड़े, झुके और समझौता किए ही लड़ाई जारी रखने से ही मिल सकती है।
हाँ, तो जब कभी अखबारों में कोई समझौते की बात आती और गाँधी जी उसमें'नहीं' कर देते या अन्यमनस्कता दिखाते तो हमारे दोस्त लोग जो उन्हीं के नाम पर जेल गए थे और आज भी उन्हीं की एकमात्र दुहाई देते हैं, उन पर कुढ़-कुढ़ के मरते थे। वे लोग रंज हो के कह दिया करते थे कि वह सुलह क्यों नहीं कर लेते? बाल की खाल क्यों खींचते हैं? हठ क्यों करते हैं?बहुत बार यह भनक और यह खबर मुझे मिलती रही। बातचीत भी तो आखिर कभी-कभी होई जाती थी और साफ मालूम होई जाता था। मगर दूसरे लोग भी सुनाया करते थे। गाँधीजी तो यों भी कहते हैं कि मेरी रग-रग में समझौते का भाव भरा है। वह तो मेरे स्वभाव का एक भाग ही है। मगर उनसे भी जो लोग हजार कदम आगे बढ़े हों उन्हें क्या माना जाए? वह पीड़ित जनता को आजादी दिलाएँगे, यह कौन मान सकता है? उस आजादी को समझौते से भला क्या ताल्लुक? आज तो यह साफ है कि उस आजादी के चाहनेवाले मानते हैं किगाँधी-अरविन समझौता एक भारी भूल थी। फिर भी हमारे दोस्तों का दावा है कि वह पीड़ितों के लिए─ही मर रहे हैं और उन्हें आजादी दिला कर ही दम लेंगे।
जहाँ तक पढ़ने-लिखने का मेरा ताल्लुक था, जैसा कह चुका हूँ, कुछ लोगों को गीता या संस्कृत पढ़ाता था। मौलनिया (चंपारन) की राजनीतिक डकैती केस के तीन राजबंदी वहाँ थे। उनमें एक को मैं संस्कृत पढ़ाने के साथ ही आतंकवाद के विपरीत शिक्षा भी देता था। इस बात का उसके दिल पर कुछ असर भी हुआ था। वह अभी बहुत ही कम उम्र का था। आजकल वह घर पर है। उसका नाम कपिलदेव है। दूसरा'गुलाली' नाम का जवान कभी-कभी कुछ बातें कर जाता था। श्री ननकू सिंह नाम के तीसरे सज्जन कुछ गीतें कभी-कभी सुना जाते थे। “घूँघट के पट खोल रे तोहि राम मिलेंगे!”को बड़े प्रेम से वे गाते थे। इस समय ये तीनों ही राजनीति से विरक्त से हैं और शायद घर-गिरस्ती की चिंता में हैं।
मैंने स्वयं वही चिरपरिचित नन्हीं-सी गीता का आलोड़न-प्रत्यालोड़न किया। उस पर बहुत से महत्त्व पूर्ण नोट 'गीता हृदय' के लिए तैयार किए। आज भी पुन: इस जेल में वे नोट मेरे सामने पड़े हुए हैं। महाभारत का मैंने आद्योपांत पारायण किया। उससे भी कई स्फुट एवं उपयोगी बातों के नोट तैयार किए। ज्यादा समय मिल न सका कि और कुछ करता। मानसिक स्थिरता भी न थी कि कुछ ज्यादा कर पाता। इस प्रकार जैसे-तैसे छ: महीने गुजर गए। लखनऊ जेल में अमेरिका के श्री जेम्सएलेन को 'the by ways to bliss' का हिंदी अनुवाद 'आनंद की पगडंडियाँ' और दूसरी किताबें पढ़ने का जैसा मौका मिला था और रूसो, रस्किन आदि की भी कुछ किताबें पढ़ी थीं, वैसा मौका यहाँ न लगा। क्योंकि मानसिक अशांति बहुत थी।
प्रसंगवश एक बात कह के जेल की यह दास्तान खत्म करूँगा। जेल की तीन बातों ने मुझे सदा आकृष्ट किया है और जब-जब मौका लगा है,मैंने इन पर विचारा है,इन्हें गौर से देखा है। वे तीन बातें हैं सफाई, समय का पालन (punctuality) और चोरी। जितना जोर पहली दो बातों पर जेल में दिया जाता है उतना शायद ही और कहीं होता हो। वहाँ सफाई और समय को पाबंदी ये दोनों, मौजूदा हालत में एक तरह से आदर्श कहे जाते हैं। समय की पाबंदी की तो इतनी सख्ती है कि कभी-कभी तो आदमी मशीन की तरह काम करते हैं और तबीयत झल्ला उठती है। चोरी की भी वही दशा है। मैंने देखा है कि तमाखू की सख्त मनाही होने पर भी सभी कैदी उसे पा ही जाते थे। इसी प्रकार और-और बातों को ले लीजिए। मैंने लखनऊ जेल की बातें पहले लिखी ही हैं। कहते हैं जेलवाले भी सभी प्रकार की चोरी करते हैं। इन तीन बातों के सिवाय एक और भी कैदियों को आदमी न समझने की। जेलवाले उन्हें पशु से भी बदतर समझते थे। मगर वह बात अब प्राय: खत्म हो गई। पाँचवीं बात है कैदियों के मार्के (Remission)की। रेमिशन को'मार्का' कहा जाता है। वे दिन-रात उसी के लिए मरते रहते हैं। मारपीट भले ही बर्दाश्त कर लेंगे। मगर एक दिन का मार्का नहीं कटना चाहिए! राजनीतिक हलचलों के करते रात में सोने के समय उनका हिसाब तो बराबर लगता ही रहता है कि हम लोग अब छूटेंगे तब छूटेंगे। इसके बारे में तरह-तरह की बेसिर-पैर की बातें उनमें चलती रहती है