हड़ताल / नताशा

Gadya Kosh से
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मिडिल की पढाई तक लड़के भले भाग भुग के गाँव के सरकारी स्कूल में हाजरी बनाते रहें लेकिन कॉलेज में पढने के लिए शहर तो जाना ही पड़ता है। उसमें भी वही जो होनहार छात्र हो। बाकी तो गिनती और ककहरा पढ़ के मुह में पुड़िया दबाये, गले में गमछा लपेटे हुरपेट के फुल साउंड में भोजपुरी गीत बजाता हुआ तीन पहिया की स्टेयरिंग थाम लेता है। वो ही बहुत है। होनहार बच्चा में एक रवि शंकर झा रहा जो कॉलेज का मुँह देख पाया। इसलिए कि वह ऐसी जाति से नहीं था जिसको किसी सरकारी राशि का लोभ हो। वह गरीब बाभन बाप का बेटा था। सरकारी कपडा लत्ता और खिचड़ी के बल पर स्कूल का मुहं देख पाया और जानता था कि आगे भी कोई नम्बरिया छूट उसे मिलने वाली नहीं थी। जी तोड़ के पढना था उसे

गंगा के इस पार वह और उस पार माँ बाबू। जब भी उदासी छाती है गंगा के किनारे आ बैठता है। गंगा की लहरें माँ के आँचल जैसी शीतलता देती है मगर उस दिन वह कुछ थका हुआ सा भी था इसलिए सब से छिपकर एकांत की शरण ली गई थी। मन बहुत बीमार था। लेकिन सीधे रास्ते की मंजिल मिल ही जाती है। झाझी वही मंजिल था। कभी किसी से छुप नही पाता. थोडी ही देर बाद कुछ लड़के उसे ढूंढते हुए वहाँ पहुँचे। उनमें से एक ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा – “ का मोर्चा नहीं संभालना है का? इस चोट से झाझी का मन खिन्न हो गया। वह पलट कर कुछ कहने ही वाला था की हर बार की तरह सहम कर चुप हो गया।

यूनिवर्सिटी हड़ताल दो महीने से चल रही थी। छात्र संघों की गुटबंदी ने इसे हवा दी और सारे काम ठप्प पड़ गए। व्यक्तिगत लाभ की भावना ने तोड़ –फोड़, आगजनी, पुतला दहन को ही शिक्षा का वर्तमान और भविष्य निर्धारित कर दिया था। पर झाझी इन सब से दूर रहना चाहता था। शहर माँ –बाबूजी के सपनों का आधार था, उम्मीदों का किला। इन सब से दूर रहने में ही सपनों के सच होने की संभावना निहित थी।

5 साल हो गए रवि शंकर को झाझी बने और कॉलेज कि राजनीति से लड़ते हुए। बड़ी मुश्किल से वह खुद को ‘एडजस्ट ‘ कर पाया। शहर की भीड़ और अजनबीपन ने गाँव के प्रति पल रहे वर्षों के विभ्रम को तोड़ने में मदद की। झाझी के पिता रामदीन बेटे को शहर भेजने के पक्ष में नहीं थे लेकिन मैट्रिक में ऐसा अव्वल आया की बूढ़ी आँखों में हीरे को तलाशने की चमक पैदा हुई। बेटे के जाने पर घर में क्या बचेगा फिर भी ममता के साये से उसके उज्ज्वल भविष्य को अंधकारमय बनाना उचित नहीं था।

यूनिवर्सिटी के गेट पर पहुँचते ही भीड़ ने झाझी का स्वागत किया। थके-पिटे चेहरों के बीच आकाश हिला देने वाली आवाज गूंज रही थी। ये दृश्य किसी भी इंकलाबी आंदोलन से कम नहीं था। ये खुद को घास कहते थे जिस पर किसी आँधी का प्रभाव नहीं पड़ता।

वहीं दूसरी ओर थोड़ी दूरी पर हरे बैनर वालों की लम्बी लाइन लगी थी। दोनों गुट एक-दूसरे को खाने वाली निगाह से देख रहे थे। झाझी को किसी गुट के प्रति न सद्भावना थी न ही बैर। वह सालों से देखता आ रहा है की चार मौसम में एक हड़ताल का भी मौसम होता है। जब शिक्षा रूपी सीता बंदी बना ली जाती है। उसकी कैद-मुक्ती की आड़ में अंगद,सुग्रीव और हनुमान सरीखी पार्टियों की नसों में चुनावी साम्राज्य की ललक फुरकन पैदा करने लगती है। मगर यह सब को पता होता है की ये राम की ही लीला है।

लाल बैनर वाले सड़क पर निकल चुके थे। “छात्रसंघ जिंदाबाद”! का नारा शहर के शोर से तारतम्य मिला रहा था। हरे झंडे वाले शिक्षा की अराजकता की दुहाई दे रहे थे। प्रशासन की चेतावनी के बाद निकाला गया जुलूस में एक अलग तरह का तेवर और, अवहेलना का भाव होता है। भीड़ में से एक लड़के ने झाझी को देख चुटकी ली -“का हो खाझी, बड़ा सुस्त हैं, सब ठीक त है न ! झाझी कमेन्ट समझ जाता है मगर जवाब देने नहीं आता। उस दिन झाझी को चक्कर आना ही था। गोलंबर चौराहा नापते हुए कुलपति आवास तक पहुंचते ही झाझी चक्कर खा कर गिर पड़ा। यह बात जुलूस की सफलता की निशानी थी इसलिए पानी नहीं देना था यह पहले ही तय हो गया था। पार्टी का उसूल था अग्नि में आहुती ज्वलनशीलता को बढ़ाती है।

कुलपति जी के निकलने तक झाझी को बेहोश रखा गया। घंटों बाद भी कुलपती जी का कुछ पता नहीं। उपद्रव शुरू होने की आशंका से सुरक्षाकर्मी द्वारा सख्ती बरती गई। युवाओं के गर्म दिमाग के साथ साथ खून भी औंटाने लगा। छात्रों और सुरक्षाकर्मियों के बीच जम कर हाथापाई हुई। किसी का सर फूटा तो किसी के हाथ टूटे। व्यवस्था जैसे लंगड़ी हो चली थी। देखते-देखते सभी छात्र झाझी के समकक्ष आ गए। क्षण भर में पत्रकार और कैमरे में दृश्य की चोरी ने माहौल को अधिक सनसनीखेज बना दिया।

दुनियाँ भले ‘ग्लोबल विलेज’ हो झाझी मोबाइल विहीन था। यह खबर गाँव भी कौन पहुँचाता यदि रिजु नही होता जो कि अपने गाँव गया हुआ था। दो दिन बाद रिजु का आना हुआ। उसी की सेवा से झाझी फिर चल सका। रिजु हफ्ते भर पहले दादा जी की बीमारी की खबर सुन घर गया था। जा के पता चला की चार दिनों से बिस्तर पर पड़े हैं और जान थी कि छूटती नहीं थी। लोगों ने समझा पोते की आस लगी है। हुआ भी वही रिजु का स्पर्श पाते ही बूढ़ी आत्मा में जान आ गई। लेकिन होश में आते ही बूढ़े ने पानी पानी की रट लगा दी। किसी का फिर भी ध्यान नहीं गया। दौड़ के सब गंगाजल लाए। बारी बारी से सबने दो दो बूंद होठों के बीच रखा। जल का होठों से संपर्क होते ही बूढ़े की चेतना लौटने लगी और पानी की स्पष्ट ध्वनि सुनाई पड़ी। रिजु दौड़ के पानी लाया। बाबा जी गए। यह सब रिजु के मुह से सुना गया

मानसून आ चला था औए नदियों की रवानी पूरे उफान पर थी। झाझी को माँ बापू की चिंता हुई। फोन किया तो पता चला की दोनों बहिनें आ के मिल गई थीं। बांध अब टूटा की तब। झाझी ने मन बना लिया की जो हो, जा के माई बाबू को लिवा लाएगा। लेकिन बिना अध्यक्ष की मर्जी के जाना संभव नहीं था। तो क्या हुआ जा के अध्यक्ष से वह मिल लेगा। यही सोचते हुए पूरी रात कटी। सुबह होते ही सहमता हुआ वह लाल कोठी के दरवाजे पर पहुंचा। माहौल से पता लगा शायद मीटिंग चल रही थी। ऐसे वातावरण में झाझी का दिल गेंद की तरह उछलने लगता है। मगर आज दिल कडा करना था। दालान में पहुँचते ही कुछ गुनगुनाहट सी लगी।और करीब पहुँचते ही अग्नि, आहुती जैसे शब्द छिटक कर कानों से टकराए। झाझी को देखते ही सभा में एक अजनबी चुप्पी चा गई। अमूमन ऐसा नही होता था। अबतक झाझी ऐसे माहौल में गति लाने के काम आया करता था।झाझी की असहजता में इजाफा ही हुआ। झाझी पूछे बिना कुछ नही बोलेगा यह सोचते हुए अध्यक्ष ने ही पहल की।

“हाँ झाझी हमने ही तुम्हें बुलवाया है, तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं। “

“लेकिन मुझे तो किसी ने। ....”

“हाँ हाँ कोई बात नहीं थोड़ी देर ही सही आए तो। अध्यक्ष ने झाझी की बात काटते हुए कहा। झाझी के कंधेपर कुछ नरम सा महसूस हुआ। वो किसी का हाथ था दिलासा वाला नहीं,वो हाथ था जैसे बड़े युद्ध में जाने से पहले सांत्वना दी जा रही हो और ये पहले तय हो गया हो की वापस आना संभव नहीं।

“....देखो झाझी ! हरी झंडी वालों ने भूख हड़ताल की घोषणा की है। तुम तो जानते हो की यह हड़ताल खत्म करने का आखिरी हथियार होता है.....”

....यह क्या शुरू हो गया। मैं यहाँ किस काम के लिए आया था और....

अध्यक्ष का बोलना रुका नहीं। ..हम चाहते हैं की हमारी तरफ से पहले ही कुछ ऐसा किया जाए की जीत का सेहरा हमारी पार्टी के सिर बंधे।। “

“देखिये सर। हम तो आपसे यह पूछने आए थे की। ....”

हाँ हाँ हम तुम्हारी परेशानी समझते हैं लेकिन डरने की जरूरत नही है, हमलोग हैं न!

“हम कुछ समझ नहीं रहे हैं आप क्या कह रहे हैं...हम तो आपसे जाने की अनुमति लेने आए हैं। झाझी की खीज ने एकसाथ सब कह डाला। “

जाना है ! कहाँ जाना है?कंधे से हाथ उतर कर पीछे बंध गए। अध्यक्ष के अजीब से बने चेहरे को देख झाझी की हिम्मत जाती रही।

“वैसे आप जो कह रहे हैं उसमे हम क्या कर सकते हैं सर? ”

नहीं, तुम पहले अपनी बात पूरी करो। क्या कह रहे थे। अध्यक्ष को झाझी जैसे मोहरो के साथ व्यवहार करना बखूबी आता था।

अवसर मिलते ही झाझी ने सारी बातें कह डाली।

इन बातों का जो प्रभाव अध्यक्ष पर पड़ा उसका झाझी का आभास तक नही होने दिया गया।

तो तुम्हें गाँव जाना है। ठीक?

झाझी ‘हाँ’ में केवल सर ही हिला सका।

“अगर हम तुम्हारे माई बाबू को बुलवा लें तो कैसा रहेगा? “

आप?

हाँ....लेकिन बदले में तुम्हें भी हमारा एक काम करना पड़ेगा। बोलो मंजूर?

“हम क्या कर सकते हैं बस हमें घर जाने दीजिये सर। “

बस ! बस करो ! अध्यक्ष की आवाज से लाल कोठी गूंज उठी और उतनी ही तेज झाझी का दिल गंगा की उफान से तालमेल बिठाने लगा। माथे पर पसीने की बूंद में माँ बाबू का चेहरा रह रह कर दमक जाता। सब इसी तरह जाने लगे तो आंदोलन का क्या होगा, सोचा है किसी ने ! क्या यह सब मैं अपने लिए कर रहा हूँ?...अपना क्या है सीट पक्का है राजनीति में, मगर तुम लोग ऐसे ही सडोगे, अगर यही रवैया रहा तो...

झाझी फंस चुका था,अब निकलने के विफल प्रयास की आशंका से दिल बैठने लगा,माई बाबू....

“क्या करना होगा हमको?” शायद समझौते में ही भलाई थी।

अध्यक्ष भी थोड़ा नर्म हो चुके थे, बोले,”काम थोड़ा मुश्किल है मगर तुम्हारे जैसा जिगर वाला ही कर सकता है। “ थोड़ी देर की खामोशी के बाद अध्यक्ष ने झाझी के बिलकुल करीब आ कर कहा – ‘आत्मदाह’!

शब्द कानों में पड़ते ही झाझी के पैर काँपने लगे। हाथ जोड़ते हुए टूटी फूटी आवाज़में बड़बड़ाने लगा –“हमें जाने दीजिये। ..छोड़ दीजिये हमें...हम अपने माँ बाप के एक ही आस हैं”...“हमें। ...

आपे से बाहर होते देख अध्यक्ष ने स्थिति को संभाला-

“अरे ! अरे भाई आत्मदाह करना नहीं है, बस नाटक करना है, …..हमारे आदमी रहेंगे वहाँ तुमको बचाने के लिए। तुमकोकुछ नहीं होगा।“ झाझी उस वक्त वहाँ से निकालने मेन ही भलाई समझते हुए दो दिन की मोहलत ले वहाँ से निकाला। रास्ते भर यह बात उसके कानों में गूँजती रही। कमरे पर जाना खतरे से खाली नहीं था। पूरी रात स्टेशन पर बिताने की सोची ताकि सुबह इंटरसिटी पकड़ कर गाँव पहुँच सके।

गाँव के चूल्हे के पास बैठी माई …..अरे ! ये क्या माई रो रही है…..क्यों? बापू कहाँ गए…….बाहर ओसारे पर ये कौन लुढ़का पड़ा है? झाझी धीरे धीरे उस पोटली के पास पहुंचता है, हाथ बढ़ा कर छूने की कोशिश करता है। ……बापू ! अरे, ये तो बापू है। झाझी झकझोड़ कर बापू को उठाना चाहता है मगर उसका हाथ नहीं पहुँच पाता, उसका दम घुटने लगता है……नींद खुलते ही उसे महसूस हुआ की उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया है, लेकिन ये अंधेरा स्टेशन का नही। पूरी बेहोशी आने तक वह इतना समझ चुका था की ये पार्टी के आदमी थे। दो लड़कों ने उसे उठा कर गाड़ी में बिठाया। थोड़ी देर बाद जब झाझी को होश आया तो महसूस हुआ की उसके हाथ पाँव बंधे थे। मुंह पर टेप और आँखों में पट्टी बंधी थी। झाझी काफी देर तक छूटने का असफल प्रयास करता रहा। गाड़ी कुलपति आवास के सामने रोक दी गई। दोनों लड़कों ने उठा कर उसे कुलपति आवास के सामने खड़ा किया। कुछ लड़के वहाँ पहले से मौजूद थे। उनमें से एक ने किरोसिन डाला और दूसरे ने माचिस जलाई। देखते –देखते आग की लपट आसमान छूने लगी। इतने में सुरक्षाकर्मी आ पहुंचे मगर तब तक लड़के भाग चुके थे।

दूसरे दिन झाझी के कमरे की तलाशी ली गई। एक चिट्ठी मिली जिसमें लिखा था –“मैं हड़ताल के विरोध आत्मदाह कर रहा हूँ ताकि हड़ताल टूट जाए और मेरे तमाम साथियों का भविष्य खराब न हो। “नीचे नोट में लिखा था –‘ मैं लाल झंडी पार्टी का सदस्य हूँ ‘।

दूसरे दिन अखबार में इस चिट्ठी के साथ मोटे अक्षर में खबर छपी – हड़ताल के विरोध में एक छात्र का आत्मदाह !

अब हड़ताल टूट जाएगी ऐसा सबको विश्वास था।