हत्यारा / रूपसिह चंदेल
उस समय ढाबे में कोई दूसरा ग्राहक न था. ढाबे का मालिक बीरूमल मुल्तानी बैठा ऊंघ रहा था और बीच-बीच में आस-पास भिनभिनाती मक्खियों को हाथ हिला-हिलाकर उड़ाता जा रहा था. एक मक्खी उसकी मूंछ के पास आ बैठी तो उसने दाहिना हाथ मूंछों पर दे मारा. सदैव चकमा देकर भाग निकलनेवाली मक्खी उसकी उंगलियों की चपेट में आ गयी. उसने उसे दो उंगलियों के बीच भींच दिया और काउण्टर से बाहर फेंक होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाया और फिर दीवार से सिर टिकाकर ऊंघने लगा.
वह काफी देर से खड़ा मुल्तानी की यह हरकत देख रहा था. उसे उबकाई-सी आ गयी. मन हुआ कि मुड़ चले---- कहीं और---- बस स्टॉप की किसी दुकान पर जाकर चाय पिये. लेकिन बस स्टॉप वहां से काफी दूर था---- पैदल का आध घंटे का रास्ता और चाय उसे अभी चाहिए थी. उसने घड़ी देखी-- चार बजने में दस मिनट थे. चार बजे चाय पीना उसकी कमजोरी है---- अगर नहीं पियेगा तो सिर में दर्द शुरू हो जायेगा---- मन खिन्न रहेगा और हाथ शिथिल रहेंगे----काम में चलेंगे ही नहीं----.
वह क्षण भर तक खड़ा सोचता रहा. फिर ढाबे के अन्दर चला गया. एक अजीब-सी गंध, जैसी किसी बेकरी में होती है, उसके नथुनों से टकरायी. मुल्तानी के दोनों नौकर भट्ठी गर्माने में व्यस्त थे. धुआं टीन शेड के नीचे तैर रहा था. दमघोंटू वातावरण था. उस वातावरण में उससे नहीं बैठा गया. वह बाहर निकल आया और बाहर पड़ी बैंच पर बैठ गया. धुंए की कड़वाहट से मुल्तानी की नींद खुल गयी थी. जिस हाथ से उसने मक्खी मारी थी, उसीसे आंखें मलता हुआ वह बोला, "अरे जेम्स बाबू----- बाहर क्यूं बैठे हैं----- अन्दर आइये न!"
"यहीं ठीक हूं----- आप एक कप चाय बनवा दीजिए." रायफल कंधे से उतारकर उसने बैंच से सटाकर रख दी.
"ओए रामू--- कालू---- कहां मर गये----- देखो जेम्स बाबू के लिए सपेशल चाय बनाओ---- जल्दी से." मुल्तानी चीखा.
जेम्स जिस बैंच पर बैठा था उसके सामने पुरानी लंबी मेज पड़ी थी, जिस पर दाल-सब्जी और चावल बिखरा हुआ था और रोटियों के जले टुकड़े थे. दोपहर में फैक्टरी कर्मचारी वहां बैठकर लंच लेते हैं. जेम्स ने देखा, गुच्छाकार मक्खियों का साम्राज्य वहां एकत्र है. वह रायफल उठाकर तुरन्त उठ खड़ा हुआ.
"आप उठ क्यूं गये साब---- बैठिये----- बैठिए----." मुल्तानी ढाबे से बाहर निकल आया. मेज पर दृष्टि पड़ते ही वह फिर चीखा, "अबे कलुआ ---- रमुआ की औलाद---- मर गये सालो---- चलो, जल्दी से मेज साफ करो----- साब को पानी दो----- और-----." फिर जेम्स की ओर मुड़कर चिरौरी भरी आवाज में वह बोला, "साब, ये नौकर भी बच्चे हैं अबी ----- सुबो से काम करते-करते थक जाते हैं---- आप बुरा न मानें साब."
जेम्स कुछ नहीं बोला. उसे क्रोध भी आ रहा था और चाय पीने की बेताबी भी बढ़ती जा रही थी. नौकर नहीं आए तो मुल्तानी ही गीले कपड़े से मेज साफ करने लगा.
"साफ हो गयी---- अब मक्खियां नहीं आयेंगी."
जेम्स तब भी खड़ा रहा तो वह उसके पास गया और मूंछों ही मूंछों में मुस्कराता हुआ बोला, "नाराज हैं क्या साब अब भी?"
जेम्स तब भी नहीं बोला. क्षणभर तक उसकी ओर देखते रहने के बाद मुल्तानी ही बोला, "क्या बतावें साब----- मौसम ही ऎसा है ---- मार्च के आखिरी दिनों में पता नहीं कहां से मक्खी-मच्छर आ जाते हैं----- जब तक गर्मी जोरदार शुरू नहीं हो जायेगी, ये मेहमान की तरह लोगों को तंग करते रहेंगे---- आप बैठो साब----- मैं आपके वास्ते पानी लाता हूं."
"हाथ साफ कर लेना मुल्तानी ----तुमने उसी हाथ से मक्खी मारी थी----- पोंछा लगाया है और अब उसी से पानी----- चाय जरा-साफ पानी की ही----."
"आप बेफिक्र रहें साब----- मुल्तानी इतना मूरख नहीं. पार्टीशन के बाद से ही ये काम कर रहा हूं----- आप बिल्कुल चिन्ता न करें साब----- बैठें. मैं अभी चाय बनवाकर भेजता हूं."
जेम्स फिर बैठ गया. थोड़ी देर बाद मुल्तानी एक गिलास में पानी ले आया.
"अभी पांच मिनट में चाय आपके हुजूर में पेश होती है साब." गिलास जेम्स की ओर बढ़ाते हुए वह बोला.
जेम्स ने पहले गिलास, फिर उसके हाथों की ओर देखा. मुल्तानी शायद उसका भाव समझ गया था. बोला, "साब, साबुन से हाथ साफ करके लाया हूं पानी."
जेम्स कुछ नहीं बोला. गिलास लेकर पानी पीने लगा. जब तक वह पीता रहा, मुल्तानी उसकी रायफल पर हाथ फेरता रहा.
गिलास उसे वापस लौटाते हुए जेम्स ने पूछा, "चलाने की इच्छा हो रही है?---- लो, उठाकर देखो."
"कभी इच्छा थी------ पार्टीशन के वक्त----पार्टीशन में हम तबाह होकर यहां आए थे साब----मां---पिता---भाई-बहन---एक-एक को मैंने अपनी आंखों से भेड़-बकरियों की तरह जिबह होते देखा था---मैं ही किसी तरह बचकर आ पाया था ---- तब दिल में शोले दहकते रहते थे और मैं सोचता रहता था कि मेरे पास भी अगर बन्दूक होती तो मैं भी---- लेकिन मैं कुछ न कर सका---- साल-दर साल गुजर गये---- फिर शादी---- बच्चे---- और घर-गृहस्थी में डूब गया---- अब क्या करूंगा चलाकर साब!"
जेम्स उसके चेहरे की ओर देखता रहा, जिस पर अतीत की काली परछाईं उतर आयी थी.
"अच्छा साब----- एक बात पूंछू---- बुरा तो न मानेंगे?" मुल्तानी बोला.
"पूछो."
"आप ये काम कब से कर रहे हैं साब---- कुछ पैसे-वैसे मिलते होंगे सरकार से?"
"लगभग दस साल से---- और सरकार पैसे भी देती है."
"कस्बे के हिसाब से ठेका---- या हर कुत्ते के हिसाब से?"
"प्रति कुत्ता दर निश्चित है---- दिन में जितने कुत्ते---- उसी हिसाब से पैसे." "और कहां-कहां जाते हैं साब?"
"दस शहर हैं मेरे जिम्मे, जिसमें तुम्हारा ये कस्बा भी है. सभी शहरों में, जहां इस तरह की फैक्टरियों के सरकारी क्वार्टर्स हैं----- यानी फैक्टरियों के कर्मचारियों की आबादी है---- कानपुर, शाहजहांपुर, देहरादून---."
"ये रायफल आपकी है या सरकार ने दी है....?" जेम्स की बात बीच में काटकर मुल्तानी फिर रायफल पर हाथ फेरता हुआ बोला.
"सरकार ने दी है."
रामू चाय मेज पर रख गया था. जेम्स ने घड़ी देखी, चार बजकर दस मिनट हुए थे. वह चाय पीने लगा. मुल्तानी रायफल को उठाकर देखने लगा था.
"ध्यान से मुल्तानी---- कारतूस अन्दर हैं----."
मुल्तानी ने किसी कोमल वस्तु की भांति संभालकर रायफल बैंच से टिकाकर रख दी और कुछ उदास स्वर में बोला, "जेम्स बाबू-----!"
जेम्स उसकी ओर देखने लगा.
"आपको कुत्तों पर दया नहीं आती----- वे भी तो जीव हैं---- ये कितना स्वामिभक्त जानवर होता है---- और आप उन्हें ऎसे मार देते हैं जैसे---- जैसे-----." मुल्तानी आगे कुछ कह नहीं सका. वह वहां रुका भी नहीं. ढाबे के अन्दर चला गया.
जेम्स उसे जाता देखता रहा. कप में कब मक्खी आकर गिर गयी, उसे पता नहीं चला.
चाय में मक्खी देख जेम्स ने कप दूर रख दिया और ढाबे के दाहिनी ओर खड़े अर्द्धनग्न नीम के पेड़ की ओर देखने लगा, जिससे बूढ़ी-पीली पत्तियां झर रही थीं. वह सोचने लगा, मुल्तानी ने जो कुछ कहा, उस बारे में वह इन दस वर्षों में कितनी ही बार सोच चुका है. कसाई के अतिरिक्त कौन कर सकता है इतना क्रूर कर्म! लेकिन वह करने के लिए मजबूर है, क्योंकि यह मजबूरी पेट से ---- जीवन से जुड़ी हुई है. वह परिचितों के बीच इसीलिए अपने को सदैव कसाई कहता है---- उसमें और उनमें अन्तर भी क्या है! वे भी हत्यारे हैं---- और वह भी ----- अन्तर है तो केवल कार्यविधि का---- वे चाकू और गड़ांसा इस्तेमाल करते हैं और वह रायफल और कारतूस.
बी०ए० करने के बाद वह तीन वर्षों तक भटकता रहा था नौकरी के लिए. शराबी पिता ने इतना धन भी न छोड़ा था कि वह कोई व्यापार कर सकता. मां जीवन-पर्यन्त पिता के अत्याचार का शिकार होती रही थी और अपनी अध्यापिकी की छोटी-सी नौकरी से उसे पढ़ाया और बहन की शादी की थी. जब वह बी०ए० में पढ़ रहा था तभी पिता चल बसे थे और मां की नौकरी का मात्र डेढ़ वर्ष शेष था. बेरोजगारी की भीषण यातना सही थी उसने. शहर की सड़कों पर---- एक फैक्टरी से दूसरी फैक्टरी, एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर भटकते हुए न मालूम कितने जोड़ी जूतों के तले घिस गये थे. नौकरी उसे स्वप्न प्रतीत होने लगी थी. इस अवधि में सेवा योजन कार्यालय से एक भी साक्षात्कार-पत्र उसे न मिला था और उसे प्राप्त करने के लिए वह इस योग्य भी न था कि वहां की अंधी रिश्वतखोरी के बढ़े पेट में रुपयों की खूराक भर सकता. न ही कोई बड़ा अफसर या मंत्री या नेता उसका रिश्तेदार था, जिसकी सिफारिश के कंधे पर चढ़कर वह किसी दफ्तर में कुर्सी-मेज हथिया सकता. वह उन लाखों में से एक था जो अपने परिश्रम और योग्यता के तथा व्यर्थ और खोखली कल्पना के बल पर बेरोजगारी के अजगर को कुचल डालना चाहते हैं.
लेकिन वह तब भी हताश नहीं हुआ था और इसे वह संयोग ही मानता है कि 'राष्ट्रीय रक्षार्थ वस्तुओं के उत्पादन में रत कम्पनियों के बोर्ड' के एक विज्ञापन पर उसकी नजर पड़ गयी थी. उसने आवेदन किया और साक्षात्कार के लिए बुला लिया गया. स्थान एक, आवेदक लगभग सौ. कितने ही उससे कहीं अधिक पढ़े-लिखे. लेकिन चुना वह गया, क्योंकि उसने 'बोर्ड' की शर्तें मान ली थीं. शायद दूसरे अभ्यार्थियों ने शर्तें मानने से इनकार कर दिया होगा. लेकिन उसके पास 'बोर्ड' की शर्तें मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प भी न था. वह हताश अवश्य न हुआ था, लेकिन तब तक अन्दर ही अन्दर टूट अवश्य चुका था. घर में आय के सारे साधन बन्द थे और वह बेकार था. कलकत्ता जैसे महानगर में बिना रोजगार आदमी एक दिन भी नहीं रह सकता, जब कि मां की नौकरी समाप्त होने के बाद वह दो वर्षों से दर-दर भटक रहा था.
एक छोटी-सी नौकरी---- नाम के लिए फैक्टरी में 'अनस्किल्ड वर्कर' ---- लेकिन मुख्य काम था ---- निश्चित दस शहरों की फैक्टरियों के उन स्थानॊं में जहां कर्मचारियों और अफसरों के क्वार्टर्स और बंगले हैं----- वर्ष में एक बार जाकर आवारा घूमते कुत्तों को---- जिनके गले में पट्टे न हों---- मारना. वेतन के अतिरिक्त प्रति कुत्ता अलग से देना तय किया गया था.
कितनी घृणित शर्त थी उनकी---- लेकिन वह मान चुका था और जब तक उसे नौकरी करनी है, इस कार्य से निष्कृति नहीं मिलेगी. वह कई बार इससे छुटकारा पाने का प्रयत्न कर चुका है---- प्रत्येक दूसरे-तीसरे वर्ष बदलने वाले 'चयरमैन' को लिख चुका है---- लेकिन सब अरण्य-रोदन ही सिद्ध हुआ. इतने दिनों में उसका हृदय भी पाषाण हो चुका है---- सामने बिना पट्टे का कुत्ता दिखा---- और उसकी रायफल गोली उगल देती है. लेकिन मारते ही वह मुंह मोड़ लेता है. कुत्ते का तड़पना आज भी वह देख नहीं पाता.
"साब, आपने चाय तो पी ही नहीं.... अरे, इसमें तो मक्खी----- दूसरी ले आता हूं." कालू की आवाज से वह चौंका.
उसने घड़ी देखी, पौने पांच हो रहे थे. सवा पांच बजे उसे फैक्टरी पहुंचकर दिनभर की रिपोर्ट भी देनी थी.
उसके बाद जमादार का काम शुरू होगा---- मरे कुत्तों को बस्ती से बाहर फेंकने का.
"नहीं----." उसने पैसे कालू की ओर बड़ा दिए और उठ खड़ा हुआ.
कदमों को घसीटता वह स्कूल के पास से गुजरा. अकस्मात नजर एक पिल्ले पर जा पड़ी. सफेद और काली चकत्तियों वाला पिल्ला स्कूल से निकलकर अपने नन्हें-नन्हें पांव बढ़ाता उसकी ओर आ रहा था. उसने ध्यान से देखा---- पिल्ले के गले में पट्टा न था. उसके कदम रुक गए. हाथ रायफल पर कस गए.
वह निशाना साधने लगा. तभी उसे लगा वह पिल्ला तो वहां है ही नहीं, उसका दो साल का बेटा पमी ठुमकते कदमों से उसकी ओर बढ़ रहा है. उसने सफेद काली चकत्तियों वाली ड्रेस पहन रखी है. अपनी प्यारी गोल आंखें उसी पर गड़ाए वह बढ़ रहा है. जेम्स हत्प्रभ था कि वह यह सब क्या देख रहा है.
उसने आंखों के पास से रायफल हटा ली. पिल्ला उसके पैरों के पास आकर कूं-कूं करने लगा था. क्षण-भर तक वह कुछ सोचता रहा, फिर उसने रायफल एक ओर फेंक दी और पिल्ले को गोद में उठाकर प्यार करने लगा. उस क्षण उसकी आंखें गीली थीं.