हद कर दी / प्रतिभा सक्सेना

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दो मिले-मिले घर थे, इधर ज़रा मुँह खोल कर बोलो तो उधर सुनाई दे।

एक दूसरे के घर से आनेवाली आवाज़ों में रुचि लेने लगे दोनों परिवार।

इधऱवालों की हँसी कभी उधरवालों को सुनाई दे गई होगी। उधर कुछ दिन सन्नाटा रहा फिर

बोल सुनाई देने लगे।

इतने दिन बाद! ये लोग कान लगा कर सुनने लगे -

उधरवाला आदमी कह रहा था, ’लो, मैंने कपड़े धो दिये अब तुम बाहर सुखा दो, और देखो भीगना मत बिलकुल।

अरे हाँ, तब तक मैं चाय बना देता हूँ। ’

फिर -

'महरी नहीं आई ओहो, चलो मैं पोंछा लगाये दे रहा हूँ। ’

'अरे, अरे बर्तन धोने की क्या जरूरत? आज बाहर ही खा लेंगे'।

चाय पी लो, आराम से बैठ कर। बाद में तैयार हो जाना तुम। ’

इसकी पत्नी ने उलाहना दिया-

'देखा, कितना ध्यान रखता है, और एक तुम!'

रोज़ का यही धंधा!

इसे बड़ी खीझ लगती, पर करे क्या।

दोनों ओर से सुन-सुन कर यह परेशान। और आवाज़ें? रोज़ के रोज़, बेरोक-टोक।

उफ़, कितना बोलता है उधऱवाला!

ये वाला भी घर के काम में बहुत हाथ बँटाने लगा है, मजबूरी में ही सही ।

पर वह आदमी? हद कर दी उसने तो, बर्दाश्त करना मुश्किल है अब तो।

उधर से रोज़ उसका बोलना और इधर मियाँ-बीबी की झाँय-झाँय।

इनकी आवाज़ें उधऱ भी जाती ही होंगी।

इसका मन करता जा कर झंझोड़ डाले पूछे, ’क्यों गाथा गा-गा कर हमारा जीना हराम किये है। '

उधर वह कहे जा रहा था, ’रहो, रहो। मैं तुम्हारे पाँवों में तेल मल देता हूँ। । '

ताव खा कर दनदनाता उसके घर में जा घुसा।

घर में कोई और था ही नहीं।

वह आराम से खा़ट पर लेटा-लेटा कह रहा था’ बस, बस। तुम लेटी रहो। मैं हूँ न। '

इन्हें आते देख हँसता हुआ उठ बैठा, 'आइये, आइये। जानता था कभी आयेंगे

ज़रूर। महीने भर को पत्नी मायके गई है, बोर हो जाता हूँ, क्या करूँ। !'

भकुआया खड़ा है ये बेचारा!