हनियां / विवेक मिश्र
रामदेही पांडे बुंदेलखण्ड की कंकरीली माटी पर नंगे पाँव बढ़ती जा रही थी और मन में मंतर जैसा कुछ बुदबुदा रही थी। साथ में अपने बालों में सरसों का तेल लगाए, धूप में चमकती, साँवली औरतें कुछ गाती, कुछ रिरियाती, रामदेही के पीछे पहाड़ी पर बनी मड़िया की ओर बढ़ रही थीं। उनके साथ में बच्चे, तेंदू पत्तों के गुच्छे तोड़कर, उन्हें हथियार बना, आपस में लड़ते, खेलते-कूदते जा रहे थे। बच्चों के लिए उत्सव, औरतों के लिए परम्परा, रामदेही के लिए मन्नत और उसके पति विश्वजीत पांडे दरोगा के लिए व्यर्थ की कसरत था, आज का यह आयोजन। झाँसी-कानपुर रोड पर, झाँसी से बीस मील दूर, मेन रोड से कच्ची सड़क पर उतरकर, घने तेंदू पत्तों के बीच से जाती, पगडण्डी पर; पाँच-छ: मील पैदल चलने पर मिलता है पालर गाँव, ठेठ देहात।
आज भी यहाँ मनौती माँगकर, किसी पहाड़ी पर बनी सत्ती माता की मड़िया पर जाकर पूजा करना, प्रसाद चढ़ाना, लौटकर इक्कीस, इक्यावन सुहागिनों को भोजन कराना आम है, पर उस दिन खास था, विश्वजीत पांडे, दरोगा का उसमें शामिल होना। झाँसी जनपद की तहसील मौठ में तैनात थे, विश्वजीत पांडे। थे तो वह इंस्पेक्टर, पर दरोगा उनके नाम का हिस्सा बन गया था। उनकी बहादुरी के किस्से दूर-दूर तक सुनाए जाते थे। रेलगाड़ी से, दिल्ली से ग्वालियर जाते हुए, धौलपुर से ग्वालियर तक, रेलमार्ग के दोनों ओर, बड़ी-बड़ी दीमक की बाम्बियों-सी फैली है, चंबल की घाटी. कालान्तर में, मिट्टी के कटने से बने उतार-चढ़ावों से बना यह बीहड़, किसी तिलिस्म से कम नहीं है। यह फैला है धौलपुर, भिंड, मुरैना, कालपी और कुछ हद तक कानपुर देहात तक और इसी में शरण पाते हैं खूँख़ार डकैत। सैंकड़ों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले इस इलाक़े में, जिसमें बुंदेलखण्डी बोली जाती है, यहाँ डकैतों का इतिहास सदियों पुराना है, पर डाकुओं पर बनी फ़िल्मों की तरह यहाँ घोड़े नहीं दौड़ते, बल्कि इन बीहड़ों में शरण लेने वाले डकैत पैदल ही, दिनभर में, दर्जनों मील का सफ़र तय करते हैं। इन मिट्टी के फिसलन भरे टीलों के बीच कोई सवारी नहीं चल पाती, ऊँचे टीलों के बीच से गुज़रते संकरे रास्तों पर इन्सान भी चौपायों की तरह घुटनों पर ही निकल सकता है, इस इलाक़े का दुर्गम होना ही इसे डकैतों के छुपने का स्थान बना देता है। जहाँ चार हाथ की दूरी पर खड़े आदमी को देख पाना भी सम्भव नहीं होता। ख़ैर यहाँ बात थी विश्वजीत पांडे की, इन्हीं बीहड़ों में छुपे कई डकैतों को, बड़ी-बड़ी गैंगों के सरगनाओं को धर दबोचा था, विश्वजीत पांडे ने। कई बार छपी थीं उनकी तस्वीरें मनोहर कहानियाँ, सच्ची कहानियाँ और अपराध कथा जैसी पत्रिकाओं में, डकैतों के शवों के सिरहाने खड़े हुए, अपनी रायफ़ल के साथ। मर्दाना शक्ति से लबालब, कई गाँवों को डकैतों से अभयदान देने वाले विश्वजीत पाण्डे जैसे प्रतापी पुरुष के जीवन में एक ही दुख था। वह सन्तानहीन थे। विश्वजीत और रामदेही को विवाह के ग्यारह साल बाद भी कोई सन्तान नहीं थी। शरीर से स्वस्थ, हल्के भूरे-गोरे रंग की, रामदेही को कभी गर्भ नहीं ठहरा। विवाह के बाद मायके में भाई ने बनारस के अस्पताल ले जाकर जाँच करवाई. सब सही, पर रामदेही की कोख में कभी दाना भी न रुका। शायद पिछले जन्म के पाप। शायद सोलह की उम्र का पीछे छूटा प्यार। शायद शादीशुदा होकर भी रामनरेश मास्टर से बतियाने के सुख का अपराध-बोध। शायद विश्वजीत पांडे में कोई दोष... नहीं इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता, तब फिर शायद उसके घर की हवा में, उसके खून में, विश्वजीत पाण्डे की उपस्थिति का भय, जो रामदेही की शिराओं में बहते खून को जमा देता था, जब विश्वजीत रामदेही के पास आते, तो उसकी देह बर्फ़ पर पड़ी ठण्डी, सख्त और बेजान मछली की तरह हो जाती। लाख काटने, छीलने, ख़रोंचने पर भी, उसकी पलकें नहीं झपकती। उसकी आँखों के आगे गंगा उफ़नती रहती। वह उसमें कूदकर बहना चाहती, फिर से गंगा किनारे बने, अपने पिता के घर जाना चाहती। उसकी आँखें छत पर टिकी रहती और विश्वजीत उसे रौंदते रहते। इस भीषण क्रिया की कई बार पुनरावृत्ति होने पर भी, रामदेही कभी गर्भवती नहीं होती। शायद उसका मन नहीं चाहता, सन्तान। शायद उसका शरीर नहीं चाहता, या फिर ईश्वर ही नहीं चाहता कि उसकी कोख से विश्वजीत फिर जन्मे, पर विश्वजीत और गाँव में बसा उनका कुनबा जैसे सिर्फ़ और सिर्फ़ यही चाहता की रामदेही विश्वजीत के बच्चे की माँ बने और हो भी क्यूँ न? इन्हीं हालातों में, कितनी रामदेहियाँ जन रही हैं, नित नए विश्वजीत फिर रामदेही की कोख ही क्यँ सूनी रहे... पर इसके लिए, अब तक किया गया हर उपाय विफल रहा था। आखिरी उपाय बचा था, हनियां देवी की, पहाड़ी पर बनी मड़िया पर जाकर, भुन्नो से तान्त्रिक अनुष्ठान कराने का, जिससे हनियां के आगे विश्वजीत पाण्डे और रामदेही की मनौती रखी जा सके और हनियां देवी जो खुद माँ न बन सकीं, रामदेही की सूनी गोद सन्तान से भर दें। इसीलिए था, आज का यह तान्त्रिक अनुष्ठान जिसमें बड़े बेमन से विश्वजीत पाण्डे अपनी ताई के कहने पर शामिल हुए थे, पर भुन्नो को देखकर, वह इसमें रुचि लेने लगे थे। यह सब कुछ विश्वजीत की ताई की सलाह पर ही किया जा रहा था, जो पूजा-पाठ और तन्त्र-मन्त्र में बहुत विश्वास करती थीं।
महिलाओं का यह झुण्ड, विश्वजीत पांडे और उनकी पत्नी रामदेही के साथ, पहाड़ी पर बनी मड़िया तक पहुँच चुका था। पहुँचते ही, ताई ने अनुष्ठान शुरू करा दिया था। माथे पर बड़ी काली बिन्दी लगाए, बड़ी फैली हुई ऑंखों वाली महिला भुन्नों ने कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। रामदेही श्रध्दा, अन्धविश्वास और अनजाने अपराध बोध से, मड़िया में स्थापित सत्ती माता की मूर्ति के आगे षाष्टांग दण्डवत हो गई थी अर्थात् औंधो मुँह गिर गई थी। औरतों ने मंतर पढ़कर, चार साल पहले अपने पति की चिता के साथ जल चुकी या जलाई जा चुकी, हनियां के अन्तिम संस्कार की जगह पर बनी, मड़िया में रखी, सत्ती की मूर्ति पर चावल फेंककर सत्ती माता का जयकारा किया, जिससे चौंककर विश्वजीत ने अपनी नज़र भुन्नों की छाती से हटा ली थी।
चूने से पुती मड़िया डूबते सूरज की किरणों में चमक रही थी। भुन्नों ने सत्ती को प्रसाद लगाकर, मड़िया से बाहर निकलते हुए ताई को देखा। ताई ने दो तनियों वाला, घर में सिलकर बनाया गया थैला भुन्नों की ओर बढ़ा दिया। भुन्नो ने उसमें से फूल, पके हुए मटन के टुकड़े, जो पॉलीथीन में बँधे थे और अंग्रेज़ी शराब की बोतल निकालकर ज़मीन पर रख दी और एक लकड़ी से, ज़मीन पर कुरेदकर, एक आकृति बनाने लगी। कुछ देर बाद, मटन के टुकड़े, तेदूँ पत्तों से बने दोने में निकालकर, उस आकृति पर रख दिए, ऊपर से उस पर शराब छिड़क दी। तभी औरतें सत्ती माता की मड़िया पर माथा टेककर, सहज ही अवसाद उत्पन्न करने वाली धुन में गाती, रिरयाती पहाड़ी से नीचे उतरने लगीं। बच्चे भी उनके साथ हो लिए, वे उतरते हुए मुड़कर भुन्नों को देख रहे थे। उनके चेहरों पर कौतुहल था। भुन्नों ने मिट्टी में कुरेदी आकृति के बीचों-बीच, सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी कर, जला दी थीं। उसके चारों ओर रोली, चावल और फूल फैले थे। वे फूल गुलाब, गेंदा और बारामासी के थे। ताई ने उठकर मड़िया के भीतर, सत्ती के चरणों में पड़ी, रामदेही के कानों में कुछ कहा। ताई की आँखों में रहस्य था। ताई ने सत्ती के आगे माथा टेका और पहाड़ी से उतरकर पगडण्डी में डूबती, गाती, रिरियाती औरतों के पीछे गाँव की ओर चल दी। सूरज भी, ताई के पीछे-पीछे चलकर, गाँव में जल चुकी अंगीठियों और चूल्हों के धुएँ में डूब गया। भुन्नों ने तीन कुल्हड़ों में शराब पलट दी और कुछ बुदबदाती हुई, उस पर चावल और जंगली गुलाब की पंखुड़ियाँ छिड़कने लगी। एक कुल्हड़ विश्वजीत को थमाकर, दूसरा कुल्हड़ ख़ुद गले से उतारा और तीसरा कुल्हड़ लेकर मड़िया के भीतर, हनियां देवी के चरणों में पड़ी, रामदेही के मुँह में जबरन पलट दिया। सुबह से बिना अन्न-जल ग्रहण किए यात्रा कर रही रामदेही के गले में ख़ालिस शराब उतरी, तो गले में सैंकड़ों चीटियाँ काटने लगीं। रामदेही के सामने जलता दिया धुँधला होने लगा। गंगाजल पीकर संध्या वंदन करने वाली रामदेही के गले में उड़ेली गई शराब ने उसे ऐसे हिड़ोले पर बैठा दिया, जिससे उसके चारों तरफ़ सब कुछ घूमने लगा। हिड़ोला तेज़, बहुत तेज़ हो गया। वह रामदेही को उड़ाकर गंगा किनारे बसे उसके गाँव में, उसके पिता के घर लिए जा रहा था, जहाँ से रामदेही सत्रह साल की उम्र में विश्वजीत पांडे के साथ गाँठ बाँधकर, विदा हुई थी।
मटन के टुकड़े के साथ सोडा, पानी, बर्फ़ के बिना भुन्नो शराब का एक और कुल्हड़ गले से उतार चुकी थी। कुल्हड़ के खाली होते ही, उसने उसे दोबारा भरकर रख लिया था और अपने बालों से चिमटी, रबर बैण्ड निकालकर, उसने एक रूमाल में गठिया लिए, अब उसके बाल कन्धों से नीचे तक फैलकर, हवा से हिल रहे थे।
भुन्नो और विश्वजीत के बीच जलती लकड़ियों से उठती लपटें दोनों की आँखों में चमक रही थीं। एक-एक और शराब के कुल्हड़ ने, दोनों की आँखों में चमकती लपटों को तेज़ कर दिया था, अब वह आसमान छू रही थीं। आग की तपिश ने, भुन्नो का ऑंचल सरकाकर जाँघों पर गिरा दिया था। उसके बड़े और साँवले स्तनों पर, पसीने की बूँदे चमकने लगी थीं। विश्वजीत की लाल आँखें वहीं टिकी थीं। विश्वजीत के भीतर, कुछ उबलकर, खदबदाने लगा था। विश्वजीत को अक्सर शराब पीने के बाद ऐसा होता था।
निर्जन पहाड़ी पर रात में विश्वजीत पांडे और भुन्नो अकेले थे। मड़िया में पड़ी रामदेही की कोई आहट नहीं आ रही थी। विश्वजीत ने भुन्नो को कन्धों से पकड़कर उठाया और उसे लेकर मड़िया के पीछे पहुँच गया। भुन्नो झूमती, लड़खड़ाती, कुछ नाचती-सी उसके साथ चलकर, मड़िया के पीछे, एक चट्टान पर पसर गई.
खाली पेट में पहुँची, शराब से आई बेहोशी छटी तो रामदेही ने आँखें खोलीं। वह मड़िया के अन्दर, दीवार से टिकी बैठी थी। आँखें खुलते ही उसे लगा उसके पेट में कुछ उबल रहा है, जो जल्दी ही गले में आने को है। वह हड़बड़ा कर मड़िया से बाहर आ गई. मड़िया के सामने चावल, रोली, गुलाल, मटन के टुकड़े, शराब के कुल्हड़ और फूल फैले थे। वह उबकाई लेती हुई, मुँह पर दोनों हाथ रखकर मड़िया के पीछे भागी।
मड़िया के पीछे फैली चाँदनी, लाल माटी से टकराकर, कई रंगों में टूट रही थी और उसमें मिल रही थी, मड़िया के आगे जलती आग से छिटककर आती रोशनी, जिसमें घुली थी, जलते मटन के टुकड़ों और शराब की गन्ध। रामदेही ने उसी चन्द्रमा की रोशनी में, जिसे देखकर कितनी ही बार अपने पति की लम्बी आयु के लिए तीज का व्रत तोड़ा था, एक चट्टान पर दो नग्न परछाँइयों को एक दूसरे का शिकार करते देखा। पेट से गले तक आ चुके शराब के उफ़ान को एक कड़वे घूँट के साथ उसने वापस पी लिया।
कन्धों तक लहराते बालों वाली परछाँई, दूसरी परछाँई को पछाड़कर, उसकी तेज़ रफ़तार सवारी कर रही थी। वह ऐसे हिल रही थी, जैसे घोड़े पर सवार, किसी पथरीले रास्ते पर भागी जा रही हो। घोड़ा भागता, हिनहिनाता, कराहता, पर सवार उसे दौड़ाए जाता। रामदेही ने विश्वजीत को संभोग करते समय हाँफते, फुँकारते सुना था, पर चित्त पड़े इस तरह, कराहते कभी नहीं, तभी सवार ने ज़ोर से लगाम खींची, घोड़े ने एक चीख़ के साथ मुँह उठाया और रुक गया... पथरीले रास्तों का सफ़र थम गया, सवार और घोड़ा दोनों निढाल होकर एक दूसरे में मिल गए.
मड़िया की दीवार से टिकी, रामदेही खुद में ही धाँसती चली गई...और बेजान गठरी-सी ज़मीन पर लुड़क गई. रामदेही ने वह सब देखा, पर परछाँईयाँ रामदेही को न देख सकी।
कई स्त्रियों के शरीर को भोग चुके, विश्वजीत के शरीर को, आज पहली बार किसी स्त्री ने भोगा था। भुन्नो ने खूंखार शेरनी की तरह उसका शरीर खरोंचकर रख दिया था। भुन्नों ने अपने बाल समेटकर पीछे बाँध लिए थे। चेहरे से बाल हटने पर लगता था, सचमुच ही, उसकी आँखें बहुत बड़ी थीं। उसने अपनी आँखें विश्वजीत पर गड़ाते हुए कहा था, "हमें बड़ी खुशी है, के आज तैं हैंया आया, अपने आप" ..."हनियां की समाधि पर" विश्वजीत ने कमर पर सफ़ेद चादर लपेटते हुए, जो मड़िया के सामने बैठे हुए उसने ओढ़ रखी थी, मड़िया की ओर देखा और एक धीमी पर विषैली हँसी हवा में तैर गई. उसकी हँसी ने कहा था... "हुँह... हनियां देवी ...सत्ती।"
हवा पहले से कुछ तेज़ हो गई थी। मड़िया के ऊपर बँधा, तिकोना लाल झण्डा बड़े ज़ोर से फड़फड़ाने लगा था। वह मड़िया से आज़ाद होना चाहता था, जिस पर लिखा था, हनियां देवी! यही नाम पाँच साल पहले, विश्वजीत पाण्डे ने इस स्थान से पच्चीस किलोमीटर दूर, बड़ागाँव थाने के रजिस्टर पर लिखा था।
विश्वजीत के साथ उस रात थाने में दो सिपाही और एक ड्राईवर था। ड्राईवर रामकुमार ढीमर, जो मन ही मन विश्वजीत से चिढ़ता था, पर विश्वजीत के दबदबे से डर कर, उसकी जी हुजुरी करता था। उसी ने दरोगा जी की शाम के लिए दारू, सोडा, पानी, चखना और हर उस चीज़ का इन्तज़ाम कर दिया था, जिसकी दरोगा जी को ज़रूरत पड़ सकती थी। अभी पीना शुरू ही किया था कि इलाक़े के खनन माफ़िया प्रताप सिंह का छोटा भाई एक उन्नीस, बीस साल की साँवली लड़की को धकेलता हुआ विश्वजीत के सामने आ खड़ा हुआ। वह उनसे परिचित था। ड्राइवर ने बिना समय गँवाए, उनके लिए भी पेग तैयार कर दिया, बिना किसी औपचारिकता के उन्होंने उसे गले से उतार लिया। खनन माफ़िया के भाई ने जिन शब्दों में बात शुरू की, वह लड़की के भीतर हण्टरों से तड़कने लगे, उसके भीतर जो टूट रहा था, उसकी दरकन उसके चेहरे पर खिंच रही थी। लड़की ने एक क़दम आगे बढ़कर कहा "मेरा नाम हनियां है, साब...तीन दिन से इनके हैंया काम कर रही हूँ, एक सामान हैंया से भाँ नईं हुआ" हनियां बात पूरी करती, उससे पहले शिकायत कर्ता ने हनियां के मुँह पर एक सामन्ती थप्पड़ पूरी ताकत से छोड़ दिया। दीवार पर टँगे गाँधी के बन्दर, दाँत चिढ़ा रहे थे। उसके सामने की दीवार पर हाथ में मोटी-सी किताब लिए भीमराव अम्बेडकर टंगे थे, शायद उनके हाथ में जो किताब थी उसमें नारी, दलित, पीड़ित, शोषित, मजदूर तमाम नामों से गरीबों की रक्षा के लिए बने क़ानून लिखे थे, या फिर वह किताब कोई और थी और कहीं खो गई थी। हनियां बिलखकर, औंधी थाने के फ़र्श पर लोट गई. हनियां की कमर में बँधा काला धागा, विश्वजीत की आँखों में चमकने लगा। वह अपना गिलास खालीकर खड़ा हो गया और आगे बढ़ता हुआ बोला "तलाशी ली इसकी? ...कौन जात है री?" प्रताप सिंह के भाई की ज़ुबान ने फिर हंटर फटकारा "ढीमर है...चोरी तो इनके खून में है...पिछले साल इसी के गाँव की ढीमरन आई थी, काम करने, तब भी सोने की मटर माला गायब हो गई थी...साली की नंगा करके तलाशी ली, फिर भी मटरमाला नहीं मिली। बहुत बाद में पता चला, उसने मटरमाला अपने अन्दर डाल कर जाँघों से रोक ली थी" विश्वजीत पाण्डे ने हनियां के बाल पकड़ कर उठाया और खनन माफिया के नमक का कर्ज़ चुकाने के लिए तत्पर होते हुए बोला "भाई साब से कहना, निश्चिंत रहें, सुबह तक सब मिल जाएगा।" सिपाही अर्जुन सिंह और कमल सिंह यादव अपने तम्बाकू से रंगे दाँतों को निपोरने लगे। कमल सिंह ने आगे बढ़ते हुए कहा "हम इसकी तलाशी में कोई जगह नहीं छोड़ेंगे" , फिर दोनों एक दूसरे की तरफ देखकर खीं, खीं, खीं, खीं करके हँसने लगे। वह जानते थे, यहाँ न्याय का जो बन्दर बाँट होने वाला है, उसमें उनका भी हिस्सा है। शिकायतकर्ता को न्याय मिलने की पूरी उम्मीद थी, क्योंकि वह खुद ही आरोप गढ़, दलील दे और निर्णय सुनाकर जा रहा था, अब पुलिस ने सिर्फ़ मटर माला बरामद कर, बिना न्यायालय जाए, हनियां को सजा देनी थी। गरीबों के लिए बहुत त्वरित थी यहाँ की व्यवस्था। सिपाही ने विश्वजीत का गिलास दोबारा भर दिया। इस बार पैग गहरे रंग का था। विश्वजीत ने गिलास उठाया और हॉल से उठकर भीतर के कमरे की ओर बढ़ते हुए सिपाही को कुछ इशारा किया। एक इशारे से दोनों सिपाही और डयूटी पर तैनात ड्राइवर मंझे हुए खिलाड़ियों की तरह अपनी पोजीशन पर पहुँच गए. जो खेल यहाँ खेला जाना था यह सब उस खेल के ख़तरों को ख़ूब समझते थे, पर दुस्साहस को निरन्तर दोहराते रहने से, इन्हें अब यह सब कुछ ग़ैर क़ानूनी नहीं लगता था। इन्होंने अपने क़ानून और उन्हें पालन करने के अपने तरीके इजाद कर लिए थे।
ड्राइवर मेन गेट पर जाकर बैठ गया। सिपाही अर्जुन सिंह ने मेन हॉल की बत्ती बुझा दी। हॉल में खुलने वाली, लाकअप की दोनों सैलों का ताला चैक किया। जिनमें से एक में बन्द था अभय गुर्जर, जिसे सुबह झाँसी जिला कारावास पहुँचाना था। अर्जुन सिंह उस कमरे के बाहर पड़ी बैन्च पर बैठ गया जिसमें विश्वजीत दाखिल हुआ था। तब तक सिपाही कमल सिंह यादव हनियां को भीतर वाले कमरे में विश्वजीत के सामने पहँचा चुका था। साढ़े पाँच फुट की, साँवली लेकिन चिकनी चमड़ी से ढकी गोलाईयाँ लिए हनियां का शरीर ब्लाउज, पेटीकोट और एक साड़ी के तीन टुकड़े करके निकाले गए एक भाग से ढके थे। यही उसका पहनावा था। न हनियां के पैरों में चप्पल थी, न ही शरीर पर कोई गहना। गहनों की जगह गले, कलाई, कमर और पैरों में काले धागे बँधो थे। धागे जो गरीब का गहना थे। धागे जो गरीब की बेटी को बुरी नज़र से बचाने के लिए, यौवन के पहरेदार थे। हनियां के शरीर पर झूलते वही काले धागे विश्वजीत के खून की रफ़तार तेज़ कर रहे थे।
हॉल में खुलने वाली सैल में, सींकचों के पीछे, कई क़त्ल का आरोपी अभय सिंह गुर्जर, मुँह पर तौलिया डाले लगातार करवटें बदलता सोने की कोशिश कर रहा था। तभी एक चीख़ से पूरा थाना थर्रा उठा था। अभय गुर्जर उठकर बैठ गया। कमरे के बाहर बैन्च पर बैठा सिपाही अर्जुन सिंह कुछ कसमसाने लगा। चीख़ फिर सुनाई दी पर उतनी तेज़ नहीं थी। धीरे-धीरे आवाज़ किसी गहरे कुएँ में डूबने लगी। यह आवाज़ हनियां की थी। अर्जुन सिंह बाहर बैन्च पर बैठा न रह सका और कमरे में घुस गया। हनियां के शरीर पर काले धागों के सिवा कुछ नहीं था। सिपाही अर्जुन सिंह भी घुसते ही खेल में शामिल हो गया। वे फर्श पर पड़ी हनिया को काटते, नोचते, झिंझोड़ते, घसीटते। उसके शरीर से खुद को रगड़ते। वे नारी देह में पुरुष के हस्तक्षेप की सीमाओं को लाँघ, उसके शरीर को गहरे और गहरे भेदने की होड़ कर रहे थे। हनियां पीड़ा के उस स्तर को सह रही थी जिसके बाद जीने और मरने का अन्तर समाप्त हो जाता है और वे उसी क्षण में आनन्द के उस चरम बिन्दु पर थे, जहाँ भोग का उन्माद ही शेष रह जाता है। उनकी खुशी भेड़ियों के उस झुण्ड जैसी थी, जिसने कई दिनों तक बासी खाना खाने के बाद अनायास ही कोई ताज़ा शिकार धर दबोचा हो।
आधी रात बीत चुकी थी। शराब और औरत के जिस्म से अघाए दोनों सिपाही कमरे के बाहर बैन्च पर पड़े ख़र्राटे ले रहे थे। विश्वजीत कमरे के भीतर नंगे बदन चटाई पर औंधे पड़े थे। तभी रात के सन्नाटे में गोली की आवाज़ ने एक साथ सबकी नींद उड़ा दी। हड़बड़ी में दोनों सिपाही कमरे की ओर भागे, कमरा भीतर से बन्द था। चौंककर उठे विश्वजीत ने हाँफते हुए, दरवाज़ा खोला। तीनों के चेहरों पर, एक ही प्रश्न था। हनियां कहाँ गई? तीनों भागकर, हॉल में पहुँचे। सिपाही ने बत्ती जला दी हॉल में एक सैल का ताला खुला हुआ था। सैल खाली थी। अभय गुर्जर वहाँ नहीं था। हॉल के बाहर मेन गेट पर तैनात ड्राइवर रामकुमार ढीमर के गले से खून बह रहा था। उसकी रायफ़ल वहाँ नहीं थी। सिपाही कमल सिंह यादव थाने से निकलकर मेन रोड तक गालियाँ बकते हुए अन्धेरे के पीछे भागा। अर्जुन सिंह हॉल में बैठकर अपनी नौकरी बचाने के लिए हॉल में टँगी भगवान की फोटो के आगे मिन्नतें करने लगा। विश्वजीत दरोगा कमरे में वापस आए और चारों तरफ देखने पर पाया की कमरे की खिड़की खुली थी। जिससे बेहोश पड़ी हनियां, होश में आने पर, बाहर आई होगी और अभय सिंह गुर्जर के इशारे पर टेबल की दराज़ से चाबियाँ निकाल कर, हनियां ने सैल का दरवाज़ा खोल दिया होगा और दोनों रामकुमार ढीमर को मारकर, उसकी रायफ़ल लेकर भाग निकले होंगे। विश्वजीत का पुलिसिया दिमाग तेज़ी से सोच रहा था। उसकी आँखें रात में उल्लुओं-सी चमक रही थीं। विश्वजीत किसी छुटभइए अपराधी से बरामद कट्टा (देशी तमंचा) अलमारी से निकाल, उसमें देशी भरुआ, बारह बोर का कारतूस डालकर कमरे से बाहर आया। हॉल में अर्जुन सिंह अभी भी कलैण्डर के आगे हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा था। विश्वजीत को हॉल में आता देख अर्जुन सिंह काँपती टाँगों से खड़ा हो गया। विश्वजीत के हाथों में कट्टा देख, वह कुछ समझ पाता, उससे पहले विश्वजीत ने उसकी बाँई टाँग पर फ़ायर कर दिया। कट्टे से धमाके एवं धुएँ के साथ, रोशनी का फव्वारा, अर्जुन सिंह की बाँई टाँग से जा लगा। कारतूस भरुआ था सो कुछ छर्रे उसकी टाँग में घुस गए. अर्जुन सिंह उछल कर कुछ कह पाते कि विश्वजीत ने दहाड़ कर कहा "खड़े रहो, मरोगे नहीं।"
सुबह की किरणों के साथ जो कहानी इलाके में फैली, वह कुछ इस तरह थी हनियां, अभय गुर्जर गैंग की एक खुफ़िया सदस्य थी, जिसने कल रात अभय गुर्जर को पुलिस हिरासत से भगा ले जाने की साजिश रची। वह जानकर एक छोटी-सी चोरी करते हुए पकड़ी गई और थाने पहुँच गई. औरत ज़ात पर रहम खाकर दरोगा ने उसे डाँट-डपट कर थोड़ी देर के लिए थाने में बिठाकर छोड़ देने का मन बनाया। इसी बीच हनियां ने पानी पीने के बहाने, थाने में रखे पानी के मटके में, नींद की दवा मिला दी। जिसका पानी पीकर पांडे दरोगा, हवलदार अर्जुन सिंह और कमल सिंह यादव गहरी नींद सो गए. इनके सोते ही हनियां ने सैल का दरवाज़ा खोलकर गैंग के सरगना और अपने प्रेमी अभय गुर्जर को आज़ाद कर, भागने की कोशिश की। थाने के दरवाजे पर तैनात ड्राईवर रामकुमार ढीमर, जिसने उस मटके का पानी नहीं पिया था, इनका रास्ता रोका और रायफ़ल से फ़ायर भी किया, पर तभी अभय गुर्जर के और साथियों ने आकर रामकुमार ढीमर को पकड़कर उसकी रायफ़ल छीन ली और उसकी हत्या कर दी। फ़ायर की आवाज़ सुनकर पांडे दरोगा, हवलदार अर्जुन सिंह और यादव की नींद टूटी और उन्होंने डाकुओं का जमकर मुकाबला किया, पर डाकू संख्या में अधिाक थे, इसलिए वे भागने में सफल हुए. इस मुठभेड़ में रामकुमार ढीमर शहीद हुआ और अर्जुन सिंह घायल हुए.
महाप्रतापी विश्वजीत पांडे दरोगा ने अभय गुर्जर गैंग के एक-एक सदस्य को मार गिराने की सौगन्धा उठाई. सुबह हनियां के माँ-बाप और चौदह साल की बड़ी-बड़ी ऑंखों वाली बहिन विश्वजीत के क़दमों में, फ़र्श पर उकड़ू बैठे थे। हनियां के घर से बरामद नवदुर्गा के मेले में, बहिन के साथ खिंची हनियां की इकलौती फोटो में से, उसे फाड़ कर, थाने के बोर्ड पर अभर गुर्जर की फोटो के साथ ठोक दिया गया था। थाने की हवा बहुत भारी हो गई थी। वहाँ बैठे लोग बड़ी कठिनाई से साँस खींच रहे थे और पुलिस की कहानी पर भरोसा करने की कोशिश कर रहे थे। रामकुमार ढीमर, ड्राईवर की लाश पोस्ट मार्टम के लिए जा चुकी थी। वहाँ खून का एक बड़ा धब्बा रह गया था। थाने के भीतर का कमरा जिसमें अभी तक हनियां की कराहें दीवारों से टकराकर गिर रहीं थी, अच्छी तरह धो दिया गया था और उस पर बड़ा ताला लटक रहा था। थाने के पीछे से अभी भी हल्के भूरे रंग का धुऑं उठ रहा था। वहाँ क्या जल रहा था कोई नहीं जानता था, पर धुऑं जब आसमान पर फैलता, तो उसमें हनियां की ओढ़नी व बदन पर बंधे काले धागे चमकने लगते थे।
सूरज चढ़ रहा था। ख़ून और मिट्टी से भिड़ा हनियां का नग्न शरीर झाड़ियों में औंधा पड़ा था। उसमें कोई हरकत नहीं थी। उसकी जाँघों में लगा खून, धूप में सूखकर जम गया था। उसके आस-पास मक्खियों की भिनभिनाहट उसके शरीर से उठते भबके में तैर रही थी। अभय गुर्जर की आँख खुली तो उसे यह भाँपते देर नहीं लगी की रात अपनी जख्मी टाँग और लहुलुहान हनियां को लेकर बेतहाशा अन्धेरे में घंटों भागने के बाद भी वह आबादी से चार-पाँच मील की दूरी पर था और किसी भी वक़्त पुलिस उन्हें सूँघती हुई वहाँ तक पहुँच सकती थी। अभय सिंह गुर्जर जानता था यहाँ से बीहड़ का रास्ता आसान नहीं होगा। फिर भी वह हनियां को लगभग घसीटता हुआ आगे बढ़ा। दिन भर के सफ़र से थके, डूबते सूरज ने पहाड़ी के ऊपर फैले आसमान को लाल कर दिया था। हनियां के तन पर कपड़े, ज़ुबान पर भाषा, स्मृति में रिश्ते और आँखों में पढ़ सकने जैसा कुछ भी नहीं था। वह बरसाती पानी से भरे गड्ढ़े में अपनी टाँगों पर जमा खून धो रही थी। गड्ढ़े का पानी हल्के हरे से मटमैला और फिर कत्थई हो गया था। हनियां के होठों पर खून और धूल की पपड़ियाँ जमीं थीं। वह कुछ कहने को थरथरा रहे थे। उसका चेहरा डूबते सूरज की रोशनी में, भट्टी में तपते लोहे-सा, लाल हो गया था। उसने हथेलियों में कत्थई पानी भरकर चेहरा भिगोया तो छन्न...की आवाज़ के साथ आसमान में धुआँ उठने लगा था। वह छिटक कर गड्ढ़े से दूर खड़ी हो गई थी। वह चीखना चाहती थी। उसने हाथों में पत्थर उठा लिए थे। उसने गले से शब्द निकालने के लिए अपने फेफड़ों और पेट की पूरी ताकत लगा दी... उसने बड़ा-सा आग का धधकता गोला...एक भयानक चीख़ के साथ उगला...भैन्चोऽऽऽ...ऽ।
इस आग के गोले ने डूबते सूरज की रोशनी को मलीन कर दिया था। हनियां के भीतर फिर कुछ उबल रहा था। उसने फिर पूरी ताकत के साथ उसे बाहर धकेला। इस बार मुँह से हज़ारों चिंगारियाँ भरभरा कर निकलने लगीं। उनसे कोई शब्द नहीं बन सका, उसके गले से सिर्फ़ भैंऽऽ...भैंऽऽ...का स्वर निकल रहा था। मानों कोई घायल जानवर इन्सानी आवाज़ में चीत्कार रहा हो।
बुद्ध्न, रटटू और हरि ने बीहड़ में अभय गुर्जर और हनियां को खोज लिया था। यह तीनों अभय के बहुत ख़ास आदमी थे। हनियां ने एक काली चादर ओढ़ ली थी। उसके शरीर पर जगह-जगह पड़े हरे-नीले निशानों पर हल्दी-चूना लपेट दिया गया था। कई घंटों के बाद उसके गले के नीचे कोई तरल उतरा था। वह महुए की देशी शराब थी या शायद शरीर पर लगी अनगिनत चोटों और ख़रोचों से उठते दर्द की दवा।
यह पहला मौक़ा था जब विश्वजीत पांडे दरोगा की माँद में आया शिकार इस तरह भाग निकला था। विश्वजीत का अपना सूचना तन्त्र था जो अब सक्रिय हो चुका था। इसमें रोड साईड ढाबों के नौकर थे। इन ढाबों में रात होते ही अवैध शराब और लड़कियाँ सप्लाई करने का धन्धा जोर पकड़ लेता था। इस तन्त्र में ट्रक ड्राईवर, ठेके पर मजदूर सप्लाई करने वाले कॉन्ट्रेक्टर, दिन में अवैध देशी शराब बनाने वाले और रात में चोरी और लूट में माहिर कबूतरे (बुन्देलखण्ड के बँजारे) भी शामिल थे। इस तन्त्र में किसी समाज, प्रदेश, देश का नियम-क़ानून नहीं चलता था पर बन्दूक और रुपयों की भाषा सब समझते थे। यह सब देश की राजधानी से सिर्फ़ साढ़े चार सौ कि।मी। की दूरी पर देश के उस हिस्से में हो रहा था जो उस समय से पीछे छूटता चला गया था, जब झाँसी की रानी और महाराज मर्दन सिंह ने ग्वालियर के महाराज सिंधिया के लाख कहने पर भी अंग्रेजों के साथ मिलने और उनके तलवे चाटने से इन्कार कर दिया था। सभी सत्ता और धन के लोभी, धनाढय व्यापारी, साहूकार, विद्वान अंग्रेजों की कृपा के पात्र बनने के लिए दुम हिला रहे थे। तब गरीबों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों ने रानी के साथ कहा था "हम अपनी झाँसी नईं दें हैं"
तब से उस इलाक़े को इतिहास की किताबों में दबा दिया गया था जिसे आज दीमक चाट रही थी। जब देश के प्रधानमन्त्री और तमाम लग्गू-भग्गू देश को इक्कीसवीं सदी की ओर घसीट रहे थे तब बुन्देले हर बोलों की भूमि इतिहास की किताबों में दीमक और तमाम तरह के कीड़े-मकोड़ो के द्वारा खाई जा रही थी। दीमकों ने बड़ी ऊँची-ऊँची बामियों से इसे घेर लिया था, जो अब बीहड़ बन चुकी थीं। सूचना प्राद्योगिकी से पूरा विश्व एक गाँव में बदल रहा था, पर यहाँ गाँव में चौबीस घंटों में दो घंटे ही बिजली आती थी और वह भी गाँव के किसी-किसी घर में चमकती थी।
हनियां के घर में बत्ती नहीं थी। बिजली का खटका दबाते ही बल्ब के भीतर कुण्डली मारे बैठे तार का सुलगना और झोपड़ी का रोशनी से भर जाना हनियां और उसकी बहिन के लिए एक जादू था, जिससे जीवन के तमाम सपने जुड़े थे। उस रात हनियां के साथ क्या हुआ था? यह सवाल हनियां की बहिन के मन में कुण्डली मारे बैठा था, जो रह रहकर सुलग उठता था, पर कोई रोशनी न फूटती, हर किरन बाँझ थी। वह दीवार से टकरा कर अन्धोरे में खो जाती। कई हफ़तों तक हनियां के गाँव में पुलिस के मुख़बिर घूमते रहे, पर हनियां का कोई सुराग नहीं मिला। हनियां को बीहड़ निगल गए थे। हनियां के माँ-बाप उसके ज़िन्दा मिलने की आस छोड़ चुके थे। पुलिस की दबिश से तंग आकर वह भी एक रात घर में ताला लगाकर कहीं चले गए थे।
बीते तीन महीनों में हनियां पर हुई पुलिस की ज्यादतियों पर ढीमरों की पुलिस से छुपकर यह तीसरी बैठक थी। आधी रात तक आग जलाकर बैठी बिरादरी में से कुछ एक अन्धोरे में गालियाँ बक रहे थे। कुछ ताड़ी पीकर चिल्ला रहे थे। इन स्वरों में कोई रो भी रहा था। यह शायद हनियां के बाप का स्वर था। जलती आग से उठता धुआँ किसी अनियमित आकृति के पिशाच की शक्ल में आसमान पर फैल रहा था। वह सब कुछ निगल रहा था, चाँद, तारे, पत्तों पर फैली नमी, आँखों के सपने, होंठों के शब्द। धीरे-धीरे वह पिशाच नथुनों के रास्ते बिरादरी के हर आदमी के फेफड़ों में भर रहा था। आसमान में तैरता पिशाच, जो अब वहाँ बैठे हर आदमी के फेफड़ों में भी था, उन सबको बीहड़ों की ओर खींच रहा था। मेहनत कशों की मुट्ठियाँ भिंच रही थीं, पर सवाल था जंग किसके ख़िलाफ हो। सबके घरों में आधे-पेट रोते बिलखते, कुपोषित बच्चे थे। कभी न कभी अपने जीवन में किसी समर्थ की हवस की शिकार हो चुकी औरतें थीं। मन मस्तिष्क में सदियों का अन्धोरा था। और...इस सबसे ऊपर सदैव मौलिक...शाश्वत...विकराल थी भूख़। पेट की भूख़।
पेट की लड़ाई खत्म हो, तो सिर उठाने का वक्त मिले।
वहाँ मुख़बिरों से मिली ख़बर को सूँघती पुलिस बीहड़ों में पाँच-सात मील भीतर घुसकर वहाँ तक जा पहुँची थी। जहाँ से चम्बल की घाटी कही जाने वाली डकैतों की शरण स्थली शुरू होती थी। यहाँ उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त होती है और मध्यप्रदेश शुरू होता है। पुलिस को वहाँ लकड़ी का कोयला, राख और टूटे कुल्हड़ों के सिवा कुछ नहीं मिला था। यहाँ से लगभग सात-आठ मील का पैदल रास्ता तय करके पुलिस को वापस पक्की सड़क पर खड़ी अपनी हरे रंग की जीप तक पहुँचना था। सर्च टीम में सात लोग थे। उनमें एक अर्जुन सिंह भी था। जो पैर में लगी चोट से अभी तक थोड़ा धीरे और पैर को घसीटकर चल रहा था। वही हनियां को पहचानता था। अर्जुन सिंह टीम से बहुत पीछे चल रहा था। अचानक आई हल्की आँधी से उड़ती धूल ने आसमान धूसर कर दिया था। डूबते सूरज की कमजोर रोशनी को धूल भरी आँधी ने और हल्का कर दिया था। सब जीप तक पहुँचने की जल्दी में थे, पर इस झुटपुटे में रास्ता किसी भूल भुलैंया जैसा हो गया था। रोड पर खड़ी जीप से उनकी दूरी मील भर की नहीं रह गई थी, पर मिट्टी के टीलों पर उगी कटीली झाड़ियों के बीच से निकलते सारे रास्ते, एक जैसे लगते थे। कहीं दूर से काला गहरा धुआँ उठ रहा था, जो धूल भरी आँधी से मिलकर एक अनियमित आकृति के पिशाच की शक्ल में, आसमान पर फैल रहा था।
जिसकी ज़मीन पर पड़ती छाया बहुत डरावनी थी। उसका आकार बढ़ रहा था। इस आकृति ने दबंग पुलिसियों के मन में हौल भर दिया था। वह अकबलाहट में दौड़ने लगे थे। सूरज अभी पूरी तरह डूबा नहीं था पर इस आकृति ने सूरज की रोशनी को रोक दिया था। उन्हें सूरज डूबने से पहले पक्की सड़क पर खड़ी जीप तक पहुँच जाना था। सूरज डूबने के बाद की मुश्किलों को वे जानते थे। रात में इन माटी के टीलों के भीतर की दुनिया जाग उठती थी। यहाँ झींगुर, गिरगिट, गोह, बिच्छू से लेकर लम्बे, विषैले साँप तक, अनायास ज़मीन फोड़कर प्रकट हो सकते थे।
इतना चल चुकने के बाद अर्जुन सिंह के पैर का दर्द बढ़ गया था। वह बाकी साथियों से बहुत पीछे छूट गया था। हवा तेज़ थी। आँखों में धूल भर रही थी। कंटीली झाड़ियों में टेड़ी-मेड़ी नालियों में से जाते हुए रास्तों में कोई भी सही रास्ता हो सकता था। पूरी तरह अन्धेरा होने से पहले पक्की सड़क तक पहुँचने के लिए कौन-सा रास्ता चुने। यह देखने के लिए अर्जुन सिंह ने आँखों को रगड़ते हुए खोला। आँधी थम चुकी थी। धुएँ और धूल के बादल छट गए थे। अभी सूर्यास्त नहीं हुआ था। अर्जुन सिंह की रीढ़ में बिजली तड़क गई थी।
अर्जुन सिंह के सामने अंगारों-सी धधकती दो आँखें, एक सख्त साँवले चेहरे पर टँगी थीं। यह हनियां थी। धुएँ और धूल का वह पिशाच, वह उसकी डरावनी छाया, वह सूर्यास्त सब छलावा था। अर्जुन सिंह आसमान की ओर देखकर गिड़गिड़ाया...याचना में।
तभी पीछे से सिर पर हुए प्रहार से, अर्जुन सिंह की आँखों के आगे, अन्धेरा छा गया। मस्तिष्क के ऐसे किसी भाग से जहाँ स्मृतियाँ छुपी रहती हैं। वहाँ से नन्हा अर्जुन सिंह आँखें मलता हुआ, मुँह पर पड़ती सूरज की किरणों को देखता, उठ रहा था। उसके पिताजी सूरज को जल चढ़ाकर, गीता बाँचने बैठे थे।
अर्जुन सिंह के कानों में टूट-टूट कर कुछ शब्द गँज रहे थे।
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्ममस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
कृष्ण अभी भी आसमान में सत्य के पक्ष में मुस्करा रहे थे पर अर्जुन कौरवों की सेना में था। भागते पैर और तेज़ भागने लगे थे, पक्की सड़क पर खड़ी जीप कई पलटियाँ खाकर, गड्ढ़े में पड़ी, धूँ-धूँ करके जल रही थी, जिससे गहरा काला धुआँ उठ रहा था, जो कई अनियमित आकृतियाँ बनाता हुआ आसमान में फैल रहा था। तीन दिन बाद अर्जुन सिंह का शव बीहड़ों की ओर जानेवाले उस रास्ते पर मिला था, जहाँ एक गड्ढ़े में बरसाती पानी भरा था। वह औंधे मुँह गड्ढ़े के पास पड़ा था। उसका पानी हरे से कत्थई रंग का हो गया था।
यह वही स्थान था, जहाँ हनियां ने डूबते सूरज के सामने, आग का बड़ा-सा गोला उगल दिया था। जहाँ से आगे, बीहड़ों में बढ़ते हुए, उसने अपने भीतर की औरत को पीछे छोड़ दिया था। अब हनियां की छाया सख्त, साँवले चेहरे पर लाल धधकती आँखें लिए बीहड़ों में तैरती थी।
आस-पास के कई गाँवों में अफ़वाह थी की हनियां मर चुकी है। उसका प्रेत अपने ऊपर हुए अमानवीय, कुत्सित कृत्यों का पुलिस वालों से बदला ले रहा है। इस अफ़वाह को ढीमरों की बिरादरी घूम-घूम कर ख़ूब हवा दे रही थी। कुछ लोगों का मानना था हनियां ज़िन्दा है उस पर देवी सिरैं आने लगी हैं, जिससे उसमें ऐसी शक्तियाँ आ गई हैं कि वह आग, हवा, पानी सबको अपने वश में कर सकती है।
अर्जुन सिंह की मौत ने अभय सिंह गुर्जर को प्रदेश का सबसे बड़ा अपराधी बना दिया था, जिससे प्रदेश के मुख्यमन्त्री की जान को ख़तरा था। स्पेशल टास्क फ़ोर्स गठित हो गया था। जिसका उद्देश्य किसी भी प्रकार से अभय सिंह गुर्जर को हनियां और उसकी गैंग समेत मार गिराना था। लेकिन हनियां का प्रेत! उसका कोई काट न था। उस इलाके में तैनात पुलिस वालों के क्वाटरों की छतों पर, अचानक आधी रात को, पत्थर गिरने लगते। बाहर निकलकर देखने पर, कुछ न दिखता। सिर्फ़ आसमान पर, काले धुएँ की छाया, तैरती दिखाई देती। यह धुऑं कहाँ से उठता, कोई नहीं जानता था। स्पेशल टास्क फोर्स के कुछ पुलिस वालों ने हाथों में गन्डे बाँध रखे थे, गले में ताबीज़ पहने थे और कुछ ने वर्दी की जेबों में हनुमान चालीसा रखा था। विश्वजीत पांडे दरोगा की इस फ़ोर्स में विशेष भूमिका थी। वह इन दिनों दुर्गा सप्तशती का पाठ कर रहे थे। गाँव में उनकी माँ ने शिवार्चन का अनुष्ठान किया था। कई पंडित निरन्तर महा मृत्युंजय मन्त्र का जाप कर रहे थे। विश्वजीत डयूटी पर तैनात रहते हुए भी शाम के समय बुदबुदाने लगते...सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम उरवा रुकमिव...बंधनात्।
कमल सिंह यादव, जिसने विश्वजीत दरोगा और अर्जुन सिंह के साथ हनियां के शरीर, मन और यदि कहीं आत्मा होती है तो उसे भी तार-तार कर दिया था, अर्जुन सिंह की मौत के बाद इन दिनों वह लम्बी छुट्टी लेकर वृन्दावन चला गया था। वह दिनभर वृन्दावन की गलियों में भटकता, शाम अलग-अलग मन्दिरों की आरती में शामिल होता, सुबह उठकर 'हरे रामा, हरे रामा, रामा रामा, हरे हरे, हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा, हरे हरे' का जाप करता। उसके बाद ज़ोर-ज़ोर से फेफड़ों से हवा बाहर फेंकता, पर हनियां की सूरत मन से बाहर न निकलती, बेचैन हो अन्धेरे में ही पैदल वृन्दावन से मथुरा की ओर चल पड़ता, मथुरा पहुँचते-पहुँचते, सूरज यमुना की लहरों पर चमकने लगता। घर-परिवार से ठुकराई हुई विधवाएँ, कृष्ण के नाम का जाप कर मन्दिरों से आश्रम लौटने लगती, जिसके बदले में उन सभी को दो जून आटा और दस रुपये मिलते।
कमल सिंह यादव का सिर भिन्ना जाता, जब 'श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी' , 'हे नाथ नारायण वासुदेवा' जाप करती विधवाओं के चेहरे में, कमल सिंह यादव अपनी पत्नी शान्ता यादव का चेहरा देखता। शान्ता यादव बूढ़ी, जर्जर, झुकी हुई कमर लिए श्री कृष्ण गोविन्द का जाप करती, मथुरा की गलियों में घूमती। कमल सिंह यादव थककर किसी एस.टी.डी. बूथ पर बैठकर अपने घर फ़ोन घुमा देता। घंटी बजती, दीना यादव, कमल सिंह यादव का भाई फ़ोन उठाता और कहता "शान्ता भाभी पूजा कर रही हैं"। शान्ता यादव फ़ोन पर कभी नहीं आती। कमल सिंह यादव की शान्ता जिससे उसको दो लड़कियाँ थीं, जो एक दो बरस में हनियां की उम्र की हो जाएँगी, वही शान्ता मथुरा में वैधव्य भोगती औरतों में दिखाई देती और फिर खो जाती। कमल सिंह यादव नहीं जानता था कि वह किससे भाग रहा है। वह डयूटी से भाग कर घर आ गया था। घर से भाग कर वृन्दावन आया था और अब रोज़ वृन्दावन से मथुरा चला आता, कभी पैदल, कभी बस या जीप में। दोपहर होते-होते, फिर वृन्दावन लौट जाता। दोपहर का खाना खाता और वृन्दावन की गलियों में भटकता और देर रात तक अपने कमरे में नहीं लौटता, जो कि उसने वृन्दावन की एक संकरी गली में बने एक सस्ते-से गेस्ट हाउस में ले रखा था। गेस्ट हाउस के नीचे ही एस.टी.डी. बूथ था पर कमल सिंह यादव यहाँ से कभी फ़ोन नहीं करता था। एक दिन जब वह मथुरा से वृन्दावन बस से लौट रहा था। बस ठसाठस यात्रियों से भरी थी। उसे बैठने की जगह नहीं मिली। वह बस में खड़े होकर छत पर लगे डण्डे को पकड़कर लगभग झूलता हुआ, सफ़र कर रहा था, तभी एक यात्री अपनी सीट से उठा और कमल सिंह को बैठने की जगह मिल गई. उसी सीट पर एक औरत खिड़की की ओर मुँह किए पहले से बैठी थी। बस में बैठने से पहले कमल सिंह यादव ने तम्बाकू मुँह में डाल ली थी, जिसे अब वह खिड़की से थूकना चाहता था। उसने अपना मुँह खिड़की की ओर बढ़ाया। साथ बैठी औरत ने उसकी ओर घूमकर, उसे रोक दिया। कमल सिंह यादव मुँह में भरी तम्बाकू की पीक निगल गया था। तम्बाकू और सुपारी के कुछ दाने उसकी साँस की नली में जा फँसे थे, जिससे हिचकी और ख़ाँसी एक साथ ही शुरू हो गई थी।
उसने ठीक अपने बगल में सख्त, साँवले चेहरे पर टंगी दो लाल आँखें देखी थीं। हनियां जैसी आँखें। एकदम ठहरी, भीतर तक चीरती। कमल सिंह की हालत बिगड़ गई थी। उसकी सीट के साथ खड़े एक यात्री ने मददगार बनते हुए, अपने कुर्ते की जेब से एक पुड़िया निकालकर ख़ाँसते हुए कमल सिंह के मुँह में लगभग ज़बरदस्ती डाल दी। सफ़ेद मटमैला पाउडर कमल सिंह के मुँह में भर गया। अभी वृन्दावन नहीं आया था। बस रुक गई. कमल सिंह यादव के साथ सीट पर बैठी औरत काली चादर से सिर ढकती हुई उठी और बस से उतर गई. दो एक यात्री और भी उसी औरत के पीछे उतर गए. उनमें वह भी था, जिसने ख़ाँसते हुए कमल सिंह के मुँह में सफ़ेद, मटमैले पाउडर की पुड़िया उलट दी थी और साथ खड़े यात्रियों से कहा था कि इस दवा से इन्हें तुरन्त आराम मिल जाएगा। सचमुच कमल सिंह यादव कुछ ही देर में बिल्कुल शान्त हो गए थे। उनकी आँखें स्थिर हो गई थीं। शायद वह बूढ़ी होती अपनी पत्नी शान्ता यादव को मथुरा के मन्दिरों का चक्कर लगाते देख रही थीं। कमल सिंह उसके पीछे भाग रहा था और वह सफ़ेद कपड़ों में लिपटी विधवाओं में खो गई थी। उसकी दोनों बेटियों के शरीर पर हनियां का सख्त, साँवला चेहरा रखा था, जिस पर लाल धधकती आँखें टंगी थी, जो उसे चीरती हुई उसके शरीर से आर-पार गुज़र रही थीं।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के अनुसार कमल सिंह यादव की मौत कोई ऐसा ज़हर खाने से हुई थी, जिसमें देशी धतूरे के बीजों को पीसकर बनाए गए पाउडर के साथ, ब्राउन शुगर और कोकेन भी मिली थी। यह वही समय था जब कई नाईजीरियाई नागरिक भारत में अक्सर ही नशीली दवाओं का धन्धा करने के जुर्म में धरे जाते और कुछ महिनों में मामला दब जाने पर, चुपचाप निकल लेते थे। पूरे देश में इस ज़हर के व्यापार में बड़े-बड़े नेता, आई.ए.एस., आई.पी.एस अफ़सर, बड़े व्यापारी, फ़िल्मी सितारे, क्रिकेट खिलाड़ी और लोकतन्त्र के उस स्तम्भ से जुड़े हुए लोग भी शामिल थे जिनका नाम तक लेने से अवमानना का आरोप लग जाता है और अच्छों-अच्छों की बोलती बन्द हो जाती है। ख़ैर यह सब मिलकर अलग-अलग तरीके से इन नशीले पदार्थों का सेवन और व्यापार करते। इससे इन्हें किक मिलती, जिससे देश और तेज़ी से प्रगती की राह पर भागने लगता। पाँच और सात सितारा होटालों में शराब और ख़ूबसूरत जिस्मों से लबरेज़ शामों में, बड़े आरामदेह और आम आदमी की कल्पना से परे, ऐशो-आराम के साधनों से लैस, बन्द कमरों में ऐसे सौदे होते, जो इस देश की आने वाली पीढ़ी का भविष्य तय करेंगे। नशीले पदार्थ, नकली नोट, कबूतरबाज़ी, जिस्मफ़रोशी, मैच फ़िक्सिंग, राज्य में विधायकों की और केन्द्र में सांसदों की बिक्री कुछ ऐसे धन्धे बन गए थे, जिनमें इंसान की सोच से अधिक पैसा था और आज किसी का भी ईमान पैसे की पहुँच से बाहर नहीं था। जल, थल और वायु सेना के हथियारों और अन्य रक्षा के सामानों की खरीद में कमीशन खोरी और घोटालों की खबरें रोज़ अख़बारों में छपती थीं। भ्रष्टाचार ने नशीले पदार्थों के व्यापारियों का रास्ता आसान कर दिया था। उन व्यापारियों की तस्वीरें बड़े-बड़े नेताओं के साथ पत्र-पत्रिकाओं में छप रही थीं। अब छत की सीलन घर की नींव तक पहुँच गई थी। कोकेन और ब्राउन शुगर उन इलाकों तक पहुँच रही थी, जहाँ बिजली और पानी पहुँचना अभी बाक़ी था। मँहगे नशे को सस्ता ज़हर बनाकर बेचने के लिए उसमें तमाम तरह की अशुद्धियाँ मिलाई जा रही थीं।
ऐसे ही मिलावटी नशे की ओवर डोज़ से मरा था, कमल सिंह यादव। कमल सिंह यादव की मौत केवल स्पेशल टास्क फ़ोर्स ही नहीं पूरे प्रदेश की पुलिस के मुँह पर एक करारा तमाचा थी। मुख़बिरों और खुफ़िया विभाग की ख़बरों के मुताबिक अभय सिंह गुर्जर गैंग का अगला निशाना विश्वजीत पांडे दरोगा था। इस बीच विश्वजीत पांडे अपने गाँव हो आया था, जहाँ उसके प्राणों की रक्षा के लिए शिवार्चन का अनुष्ठान किया जा रहा था, जिसमें पाँच पंडित प्रतिदिन सैंकड़ों मिट्टी के महादेव बनाकर, उनकी पूजा-अर्चना कर, उन्हें गाँव के पास से गुज़रती, नहर में विसर्जित करते थे। कमल सिंह की मौत के बाद विश्वजीत के घर में महामृत्युंजय जाप भी शुरू हो गया था। अपनी पत्नी रामदेही के साथ संसर्ग में विश्वजीत इस बार उतने आक्रामक नहीं थे। वह अनायास ही पलंग से उठकर खिड़की से बाहर झाँकने लगते और सिगरेट सुलगाकर देर तक उसका धुआँ खिड़की से बाहर छोड़ते रहते थे। रामदेही ने कई बार विश्वजीत के मन में झाँकने की कोशिश की थी पर वहाँ धुएँ और अन्धेरे के सिवा कुछ नहीं था। विश्वजीत ने एक रात झुँझलाकर रामदेही के गले और हाथ पर बँधे काले धागे जिनमें ताबीज़ सिले थे, नोंचकर फेंक दिए थे। वह काले धागे विश्वजीत की ताई ने, रामदेही को बाँधे थे। उनके अनुसार यह ताबीज़ सन्तान पाने के लिए सैंकड़ों साल से आज़माए जा रहे टोटके थे, जो रामदेही को गर्भवती होने और उसे किसी भूत-प्रेत से बचाने के लिए, अपनी पूरी शक्तियों के साथ काम कर रहे थे। विश्वजीत को उन काले धागों को देखकर हनियां का साँवला शरीर और उसकी गन्ध याद आती थी, जिससे एक सुरसरी उसके शरीर में दौड़ जाती और जल्दी ही यह सुरसरी हल्की कँपकँपाहट में बदल जाती, जब उसकी आँखों के सामने अर्जुन सिंह और कमल सिंह यादव की लाशें झूलने लगतीं, जिनके गलों में वही काले धागे फन्दों की तरह पड़े होते, जो हनियां के शरीर पर उसे बुरी नज़र से बचाने के लिए बँधे थे। लाशों के साथ फूलकर, यह धागे भी मोटे हो गए थे।
इसके बाद जो भी हुआ, वह सत्ता और धन की साँठ-गाँठ से चलाया गया, एक तरफ़ा प्रचार अभियान था। विश्वजीत पांडे ने प्रदेश सरकार में अपने सम्बन्धों के सहारे अभय गुर्जर और उसकी गैंग के सदस्यों पर बड़ा इनाम घोषित करवा दिया था। प्रदेश के कई जिलों के रेल्वे स्टेशनों, बस अड्डों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर अभय गुर्जर और हनियां के पोस्टर चिपकवा दिए गए थे। क्षेत्रिय टी.वी. चैनलों से निकलकर ख़बर राष्ट्रीय चैनलों पर पहुँच रही थी।
ढीमरों के कुछ गाँवों के, दलित परिवारों के अलावा कोई नहीं जानता था कि कुछ महीनों पहले तक हनियां का नाम पुलिस रिकार्ड में कहीं नहीं था। कोई नहीं जानता था कि हनियां का बलात्कार हुआ था। ...कोई नहीं जानता था कि जिस हनियां का नाम राहजनी, डकैती, हथियारों की चोरी, अवैध वसूली, अपहरण और हत्या जैसे बीस से ज़्यादा मामलों में अलग-अलग स्थानों में दर्ज था उसका उन स्थानों और मामलों से कोई वास्ता नहीं था। ...कोई नहीं जानता था कि जिस हनियां का फ़ोटो अभय गुर्जर के साथ पोस्टरों में छपा था, वह छ: महीने के गर्भ से है, कोई यह भी नहीं जानता था कि जिस हनियां पर मुख्यमन्त्री की हत्या का षडयन्त्र रचने का आरोप है, वह अर्धविक्षिप्त हो चुकी है, जो दिन में एक-आधा बारी 'हाँ, हूँ' के सिवा कुछ नहीं बोलती है।
पुलिस ने ढीमरों और गुर्जरों के गाँवों में दबिश बड़ा दी थी। बीसियों रोज़नदारी पर खेतों में मज़दूरी करने वालों को धर लिया गया था। औरतें और बच्चे भीख में फेंकी गई सूखी रोटियों के टुकड़े पानी में भिगोकर खा रहे थे। गाँवों से देर रात तक उठने वाला काला धुआँ, जो आसमान में पहुँचकर अनियमित आकार के पिशाच का रूप धर लेता था, जिससे पुलिसवालों में एक हौल पैदा हो गया था, वह धुआँ उठना अब बन्द हो गया था। बीहड़ों और गाँवों को जोड़ने वाले रास्तों पर, जगह-जगह हथियार बन्द पुलिसवाले थे। बीहड़ों के आसपास के सभी लगभग सूख चुके ताल, पोखरों और छोटे गड्ढ़ों में बचे पानी में ज़हर मिला दी गई थी जिसका पानी पीकर कुत्ते, मवेशी और अन्य जानवर मर रहे थे, जिनकी लाशें झाड़ियों में जSहाँ-तहाँ पड़ी सड़ रहीं थीं और उन पर चील-कऊए और गिद्ध मण्डरा रहे थे। बदले का जुनून टूट रहा था, आक्रोश रुदन में बदल रहा था। ...फिर एक बार भूख जीत रही थी। हनियां का प्रेत जो बीहड़ों में तैरता था पुलिस के दमन के आगे पस्त हो गया था।
जून के महीने में पारा अड़तालीस डिग्री सेल्सियस छू रहा था। ज़मीन में दुबके रहने वाले प्राणी बाहर निकलकर झाड़ियों के नीचे जीभ बाहर निकाले हाँफ़ रहे थे। कुछ पंजों से ज़मीन कुरेदकर दीमकों की ढूहों को तोड़कर, उनके भीतर की नमी को चाट रहे थे। प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र टूट रहा था। शाकाहारी, माँसाहारी बन रहे थे। भूख और प्यास से माँसाहारी सूखी झाड़ियों की टहनियों को चाट रहे थे। तभी बीहड़ों से निकलकर कुछ परछाँइयाँ पुलिस के मुख़बिरों और फिर पुलिसवालों से मिली थीं।
अभय सिंह गुर्जर का आत्म समर्पण करना तय हो गया। शर्त थी, हनियां का नाम मामले से अलग किया जाएगा। उसका इलाज अच्छे अस्पताल में करवाया जाएगा और उसे अपना जीवन, जो अब शायद ही शेष था, दोबारा शुरू करने का अवसर दिया जाएगा। ढीमरों और गुर्जरों के गाँवों से पुलिस हट जाएगी। बेगुनाह, रोज़नदार मज़दूर रिहा कर दिए जाएँगे। अभय सिंह गुर्जर के आत्म समर्पण का दिन, स्थान और समय निश्चित हुआ, साथ ही यह भी तय हुआ कि अभय सिंह के हिरासत में पहुँचने के कुछ दिन बाद, जब बेगुनाह रोज़नदार मज़दूर रिहा हो जाएँगे, गाँवों से पुलिस हटा ली जाएगी, तब हनियां बाकी साथियों के साथ, आत्म समर्पण कर देगी।
तय समय पर अभय सिंह गुर्जर, रटटू और बुद्धन के साथ वहाँ पहुँच चुका था, जहाँ से पुलिस उसे अपने साथ ले जाने वाली थी और उसे आज ही मजिस्ट्रेट के सामने पेश होना था, पर वहाँ पुलिस नहीं थी। आसमान में चील-कऊए मंडरा रहे थे। तेज़ धूप ने धरती की छाती की नमी सुखा दी थी। रटटू जो पिछले सात साल से अभय गुर्जर के साथ था और पुलिस वालों के दिमाग को अच्छी तरह समझता था, छिपकली की तरह मिट्टी के टीले पर चढ़ गया। दूर-दूर तक कोई नहीं था। लू के थपेड़े कानों में आग की लपटों से लग रहे थे। तभी जैसे मरी हुई छिपकली दीवार से ज़मीन पर पट्ट की आवाज़ से गिरती है। रटटू टीले से ज़मीन पर गिरा। उसके सिर में गोली लगी थी। गोली बहुत दूर से और दूरबीन तथा साइलेन्सर लगी रायफ़ल से दागी गई थी। चलाने वाले का निशाना अचूक था। अभय सिंह गुर्जर, जिसके हाथ में अभी भी बन्दूक थी, टीले के बाँई ओर भागा और झाड़ियों के बीच में लेट गया। बुद्धन भाग कर दूसरे टीले तक पहुँचा और रेंगकर ऊपर चढ़ने लगा। बिना दूरबीन के उसकी आँखें बीहड़ों में दूर तक देख सकती थीं। झाड़ियों से निकलकर दर्जनों ख़ाकी वर्दीवाले धीरे-धीरे रेंगते हुए उनकी ओर बढ़ रहे थे। उसने पीछे गर्दन घुमाई, जहाँ से एक कच्चा रास्ता बुद्धन के गाँव की ओर जाता था। रटटू और बुद्धन बचपन के साथी थे। बुद्धन, रटटू से बाद में बीहड़ों में आया था। उसने पुलिस के साथ बीहड़ों में कई बार लुका-छुपी खेली थी। वह बीहड़ों में ही जवान हुआ था। रटटू और बुद्धन, अभय सिंह गुर्जर के हाथ, पैर, आँखें सब कुछ थे। बुद्धन गाँव की ओर जाती हुई कच्ची सड़क देख रहा था। अब जिस पर से धूल उड़ाती दो जीपें और एक सफ़ेद रंग की एम्बेसेडर कार जिस पर लाल बत्ती लगी थी, चली आ रही थी। बुद्धन धीरे-धीरे टीले से नीचे उतर आया था।
वे इस बार, इस खेल में हार गए थे। उनके साथ धोख़ा हुआ था। अभय सिंह गुर्जर और उसके दो साथियों की पुलिस के साथ मुठभेड़ में मौत, एक बड़ी खबर थी, जो प्रदेश के हर समाचार पत्र में छपी थी और छोटे-बड़े चैनल चीख़ रहे थे-बीहड़ों में आतंक का खात्मा-अभयसिंह गुर्जर मारा गया-सबसे पहले हमारे चैनल ने दिखाया था-अभय सिंह गुर्जर गैंग का असली चेहरा-गुर्जर गैंग की सदस्य हनियां, जो अब गैंग की सरगना भी है-अभी भी पुलिस की पहुँच से बाहर। प्रदेश की पुलिस की बड़ी उपलब्धि-आत्मसमर्पण से पहले, माँगे थे एक करोड़ रुपये, अभय गुर्जर ने-मुख्यमन्त्री थे गैंग के निशाने पर-ई-मेल से दी थी धमकी-पुलिस का हमारे चैनल पर ख़ास खुलासा-हम दिखाएँगे वह ई-मेल देखते रहिए तब तक-हमारा चैनल। (पता नहीं कब तक?)
स्पेशल टास्क फोर्स के अधिाकारियों को सम्मानित किया जा रहा था। पदोन्नति और मनचाहे स्थानान्तरण के लिए सिफ़ारिशें हो रही थीं। विश्वजीत पांडे के घर उत्सव का वातावरण था। अख़बारों में उनकी डकैतों की लाशों के सिरहाने खड़े हुए तस्वीरें छपी थीं। चारों ओर झूठ का बोल बाला था। मुख्यमन्त्री प्रदेश में अपराध कम होने के दावे कर रहे थे। विपक्ष समाजवाद का नारा लगा रहा था और भयमुक्त समाज का सपना दिखा रहा था, जिनके पेट भरे थे वे राम मन्दिर बनाने की माँग कर रहे थे। भगवान राम के सिर से छत उठ गई थी। वह अस्थाई तम्बू, कनात में बैठे न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे। हज़ारों की संख्या में दलित हिन्दू, ईसाई बन रहे थे। ईसाई मिशनरियाँ गरीबों को सीधे अंग्रेज़ी सिखा रही थीं। हिन्दू-मुसलमान अपने-अपने धर्म से दूर मन्दिर-मस्जिद के लिए, ताल ठोक रहे थे। धर्म, समाज से अलग हो गया था। बड़े धर्म गुरु स्वयं को भगवान के रूप में प्रचारित कर रहे थे। मझोले गुरु अपराधिायों, आला अफ़सरों, नेताओं और बड़े-बड़े माफ़ियाओं के साथ सौदों में दलाली कर रहे थे और छुटभइए कथावाचक, धर्मगुरु बनकर, टी. वी. पर निठल्ली महिलाओं का मनोरंजन कर रहे थे। शहरों में पढ़ा-लिखा वर्ग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र और तकनीकी शिक्षा देकर अमेरिका भेज रहा था और भारत को हिकारत भरी नज़रों से देखता हुआ, अपना बुढ़ापा मिशीगन या वाशिंगटन में काटने का सपना देख रहा था। ऐसे में हनियां की हस्ती किसी कीड़े-मकोड़े से भी कम थी, जिसकी तस्वीर क्लोज़-अप में टी.वी. चैनलों पर दिखाई जा रही थी।
इस करोड़ों की जनसंख्या वाले देश में, उँगली पर गिने जा सकने वाले, कुछ लोग ही जानते थे की हनियां का घर जला दिया गया है। अभय सिंह गुर्जर की बूढ़ी माँ और दो भाई, जिन्हें पुलिस फ़रार बता रही थी, किसी अज्ञात स्थान पर चार महीनों से यातनाएँ झेल रहे हैं। ई-मेल से दी गई, मुख्यमन्त्री को धमकी के विषय में तो, मरने से पहले तक, स्वयं अभय सिंह गुर्जर भी नहीं जानता था।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चलता था कि अभय सिंह गुर्जर की मौत गोली लगने से हुई थी। उसके शरीर में नौ गोलियाँ लगी थीं, जिनमें से तीन रिवाल्वर से निकली थी, जो बहुत नज़दीक से चलाई गईं थीं। रटटू के सिर पर एक और बुद्धन की पीठ पर पाँच गोलियाँ लगी थीं। अभय सिंह गुर्जर के गिरने पर, वह उसके ऊपर लेट गया था और टीले के ऊपर से चलती गोलियों ने उसकी पीठ छलनी कर दी थी।
तीन दिन बाद अभय सिंह का मृत शरीर उसके दूर के रिश्तेदारों को सौंप दिया गया था। रटटू और बुद्धन का अन्तिम संस्कार पुलिस को ही करना पड़ा था। उनका शव लेने कोई नहीं पहुँचा था, वह भी नहीं जिनके लिए वह दोनों बीहड़ों में कूदे थे। हर तरफ ख़ामोशी थी, जिसमें ख़ौफ तैर रहा था। अभय सिंह के गाँव के पास लाल ककरीली माटी की एक पहाड़ी पर शव, सफ़ेद सरकारी कपड़े में लिपटा रखा था। कपड़े को मुँह की ओर से फाड़कर, उस पर गंगा जल डाला गया था। दाह-संस्कार के लिए शव को चिता पर रख दिया गया। उसके सीने पर मोटी-मोटी लकड़ियाँ आड़ी-सीधी रखी जाने लगी। चिता को आग देने के लिए, गाय के गोबर से बने कण्डे (उपले) सुलगा लिए गए. चिता जो अभी जलने ही वाली थी, जिस पर अभय शान्त सोया हुआ था, उसके चारों ओर भयावह ख़ामोशी तैर रही थी। पहाड़ी पर बीस-बाईस से ज़्यादा लोग नहीं रहे होंगे जिनमें कुछ सादी वर्दी में पुलिस वाले भी थे। पहाड़ी के नीचे पुलिस की जीप खड़ी थी, जिसमें विश्वजीत पांडे बैठे थे। सूरज पहाड़ी से थोड़ा नीचे खिसक गया था, जिससे चिता की परछाँई लम्बी हो गई थी। धीरे-धीरे चलती हवा में, पहाड़ी पर सुलगते गोबर के कंडों के साथ रखी, छोटी लकड़ियों ने भी आग पकड़ ली थी। पहाड़ी पर उपस्थित बीस बाईस लोगों में चार-पाँच औरतें भी थी। जिन्होंने सूती धोतियाँ पहनी थी और अपने चेहरों को सिरपर लिए हुए पल्लू से ढक रखा था। वह सभी रूँधे गले से ऊँ ऊँ...ऽऽ ऊँ के एक जैसे स्वर में रो रही थीं। एक साँवले रंग के बड़े बालों वाले किशोर ने जलते कंडोँ और लकड़ियों को उठाकर, चिता के चारों ओर रखना शुरू कर दिया था। वह अभय के चचेरे भाई का बेटा, मती था। धीरे-धीरे चिता की लकड़ियाँ आग पकड़ने के लिए गर्म हो रहीं थीं। उनसे धुआँ उठने लगा था। औरतों के गलों से निकलती आवाज़ें तेज़ हो गईं थीं। वह रोते-रोते कुछ कह रहीं थीं, जो साफ़ सुनाई नहीं देता था, पर वह गालियों जैसा कुछ था। वह किसी अदृश्य शत्रु को कोस रही थीं।
लोग शव के पैरों की ओर खड़े होकर हाथ जोड़ रहे थे और चिता से दूर खड़े होते जा रहे थे। औरतें चिता की ओर बढ़ते हुए ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगीं थीं उनकी चीख़ों से दिशाएँ दहल रहीं थी। सूरज पिघल जाना चाहता था। "मोरे वीराँ...मोरे भईया...मोरे लल्ला" कहकर वे किसी अदृश्य शक्ति के आगे गुहार लगा रहीं थी। पहाड़ी पर पीड़ा और शोक बहुत घना हो गया था और तभी गहरे हरे रंग की, नीली किनारी वाली, धोती पहने रोती, हिचकियाँ लेती औरत पछाड़ खाकर, लगभग नीचे से सुलग चुकी चिता पर रखे, अभय के शव के पैरों पर गिर पड़ी। वह हैं हैंऽऽ...हैं हैंऽऽ की आवाज़ निकाल रही थी, जो उसके गले से नहीं बल्कि कलेजे से आती हुई लग रही थी। वह बेसुध-सी अभय के पैरों को झिंझोड़ रही थी। चिता की लकड़ियाँ गिर कर बिखर रहीं थीं। उसका चेहरा उघड़ गया था। दाँत भिंच गए थे। आँखें चढ़ गई थीं। दर्द ने उसका चेहरा विकृत कर दिया था, फिर भी उसे पहचाना जा सकता था, वह हनियां थी।
सादी वर्दी में तैनात पुलिसवालों ने उसे देखते ही हवा में गोली चला दी। हनियां को पकड़ने को बढ़ी औरतें ठिठक गईं। पहाड़ी के नीचे जीप में बैठे विश्वजीत पांडे तीन सिपाहियों के साथ पहाड़ी की ओर दौड़े, तब तक हनियां की मदद के लिए आगे बढ़ा, हरि पुलिस की गोली से ढेर हो चुका था। उसके देशी तमंचे से हुए फायर से किसी पुलिसवाले को गोली नहीं लगी थी। रटटू और बुद्धन के बाद हरि, अभय का सबसे क़रीबी था, जिसे आत्मसमर्पण से पहले हनियां की हिफ़ाज़त के लिए, अभय सिंह ने हनियां के साथ रहने को कहा था। हरि का नाम पुलिस रिकार्ड में नहीं था। विश्वजीत पांडे फ़ायर करते हुए पहाड़ी पर चढ़ने लगे। लोग तितर-बितर होकर पहाड़ी से नीचे भागने लगे। अब तक चिता ने आग पकड़ ली थी। चिता से उठती लपटें हनिया की धोती से लिपट रही थीं। चिता से उठती लपटों ने गर्भवती हनियां का पेट झुलसा दिया था। पेट पर लपटों के छूते ही वह चिता से छिटक कर अलग हो गई थी, शायद कोख में साँस लेते बच्चे के लिए. इसी समय पहाड़ी पर पहुँचकर विश्वजीत ने, हनियां को बालों से पकड़कर, जलती चिता में धकेल दिया। हनियां पूरी शक्ति के साथ, ऊँची होती लपटों से बाहर आने का प्रयत्न कर रही थी और पुलिस वाले लम्बे चिकने लट्ठों से उसे चिता में धकेल रहे थे। कुछ ही देर में हनियां, अभय के जलते शव पर गिर गई थी। अभय, हनियां और हनियां के गर्भ में पलता बच्चा, जो थाने में हुए बलात्कार से हनियां के गर्भ में आया था, जो शायद अर्जुन सिंह का था, या कमल सिंह यादव का या फिर स्वयं विश्वजीत पाण्डे का, जिसने अपने हाथों से हनियां को चिता में धकेला था, एक साथ जल रहे थे। चिता से उठते धुएँ से आसमान काला हो गया था।
बलात्कार से गर्भवती हुई हनियां, उस अभय के शव के साथ, ज़िन्दा जलकर सती हो गई थी, जिससे उसका कभी विवाह ही नहीं हुआ था। गाँव की महिलाओं ने उसे अपनी ऑंखों से अभय की चिता पर गिरते देखा था, जिससे अनुमान लगाया गया था कि बीहड़ों में हनियां को अपनी गैंग में शरण देने के साथ, अभय ने हनियां से विवाह कर लिया होगा और इसी कारण से हनियां, जो छुपकर अभय के अन्तिम संस्कार में उसे आख़िरी बार देखने आई थी, स्वयं को रोक न सकी और उसने अभय की चिता पर कूदकर, जान दे दी।
वह महान थी। उसका प्रेम और बलिदान महान था ऐसी बातें आस-पास के गाँवों में फैलने लगीं। लोग जगह-जगह कह रहे थे कि हनियां ने जान दे दी, पर पुलिस के हाथ न आई. वह गर्भ से थी। माँ बनना चाहती थी। उसकी यह इच्छा अधूरी रह गई.
इस घटना के कुछ ही दिनों बाद, उस पहाड़ी पर ठीक उसी जगह एक मड़िया बनने लगी थी, जिसमें बाद में पत्थर की एक मूर्ति रखी गई. मड़िया के गुम्बद पर एक झण्डा लगा था, जिस पर लिखा था, हनिया देवी. दूर-दूर से सन्तानहीन दम्पत्ति इस पहाड़ी पर पैदल, नंगे पाँव यात्रा करके, इस इच्छा से आते थे कि हनियां देवी, जो माँ बनना चाहती थी, जो अपने पति के साथ ज़िन्दा जल गई थी, किसी को सन्तान हीन नहीं रहने देगी, जो भी दम्पत्ति यहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान कर हनियां देवी को प्रसन्न करेगा और रातभर इस पहाड़ी पर रहेगा, निश्चय ही उसकी गोद भर जाएगी। यह अनुष्ठान पूरनमासी की रात, ही होता। वह भी पूरनमासी की रात थी, जब इस पहाड़ी पर अभय और हनियां के शरीर, एक साथ जलकर राख हो गए थे। उस चिता की आग, चाँदनी रात में, तीसरे पहर तक सुलगती रही थी।
आज की रात भी पूरनमासी की रात थी। विश्वजीत पांडे और उसकी पत्नी रामदेही के विवाह को ग्यारह साल हो चुके थे, पर उनकी कोई सन्तान नहीं थी, जिसके लिए यह तान्त्रिक अनुष्ठान किया गया। विश्वजीत पांडे को इस बात पर भरोसा न आता, पर यह अनुष्ठान उसकी ताई की सलाह पर किया जा रहा था। एक बार उन्हीं की सलाह पर घर में शिवार्चन और महामृत्युंजय का जाप भी कराया गया था, जिससे विश्वजीत पर आया संकट टल गया था। ताई यह भी जानती थी की विश्वजीत ने ही अभय सिंह को एक मुठभेड़ में बड़ी बहादुरी से मार गिराया था, जिसकी चिता पर हनियां ज़िन्दा जलकर सती हो गई थी। वह यह भी सोचती थी की जब तक विश्वजीत, अपनी पत्नी के साथ हनियां देवी की मड़िया पर जाकर उसे प्रसन्न नहीं करेगा। विश्वजीत और रामदेही को सन्तान का सुख नहीं मिल सकेगा। ताई की सोच ने, रामदेही के मन में, गहरे कहीं हनियां को उस औरत के रूप में बिठा दिया था, जो रामदेही से कह रही थी कि जब तक वह अपने पति के साथ उसकी मड़िया पर आकर, उससे क्षमा नहीं माँगेगी, उसे प्रसन्न नहीं करेगी, उसकी गोद नहीं भर पाएगी। ताई ने इस काम को पूरा कराने के लिए भुन्नो को चुना था। भुन्नो को इस मड़िया के आस-पास के गाँवों में, सभी तन्त्र-मन्त्र करने वाली उस औरत के रूप में जानते थे, जो पिछले दो साल से पहाड़ी पर बनी हनियां की मड़िया पर पहुँचे श्रद्धालुओं को हनियां की कहानी सुनाती थी और हनियां देवी के आगे उनकी मनौती को रखती थी। भुन्नो के घर-परिवार और गाँव के बारे में कोई नहीं जानता था। लोग इतना ही जानते थे कि पिछले दो-ढाई साल से भुन्नो, हनियां की मड़िया पर तान्त्रिक अनुष्ठान कराती थी। आज इस पहाड़ी पर विश्वजीत, साढ़े चार साल बाद, फिर एक बार वहीं खड़ा था, जहाँ से उसने हनियां को जलती चिता में धकेल दिया था...और उसके हिसाब से अभय सिंह गुर्जर और हनियां की कहानी ख़त्म हो गई थी।
पर शायद यह कहानी का अन्त नहीं था।
विश्वजीत पाण्डे, उसकी पत्नी रामदेही, हनियां की मड़िया पर सन्तान माँगने आए थे। भुन्नो जो सबकी मनौती, हनियां देवी के सामने रखती थी, उसने हनियां देवी से क्या माँगा और हनियां देवी ने रामदेही की झोली में क्या डाला, यह कोई नहीं जानता था।
दूध से भरी थाली की तरह चमकता चन्द्रमा, अब धुँधला हो चला था। आसमान में सूरज की लाली धीरे-धीरे घुल रही थी। रातभर पहाड़ी पर क्या हुआ? यह जानने के लिए, ताई दो और औरतों के साथ, एक संकरी-सी पगडण्डी से पहाड़ी पर चढ़ रही थीं। उस दिन सूरज, थोड़ी देर से पहाड़ी पर पहुँचा था। ताई ने पहाड़ी पर पहुँचकर सबसे पहले, मड़िया की दीवार से टिकी बैठी रामदेही को देखा था। उन्हें लगा था, वह सो रही है। उसके बाद उनकी नज़र पूरी पहाड़ी पर फैल गई थी। मड़िया के पीछे, पहाड़ी की ढलान पर, झाड़ियों के बीच मिट्टी, खून और सूखी पत्तिायों में सनी एक लाश पड़ी थी, यह विश्वजीत था, विश्वजीत पांडे, दरोगा।
कुछ ही देर में, पहाड़ी पर पुलिस पहुँच गई थी। रामदेही कोई बयान नहीं दे सकी थी। उसके दाँत भिंच गए थे और ऑंखें चढ़ी हुई थीं। रामदेही ने विश्वजीत की ओर देखा भी न था। उसके चेहरे पर घृणा थी।
पुलिस भुन्नों को ढूँढ रही थी। जिन लोगों ने हनियां को देखा था, वे कह रहे थे, भुन्नो पर हनियां सवार हो गई होगी, तन्त्र-मन्त्र करते समय भुन्नो की आँखें बिलकुल हनियां जैसी लगती थीं। यह ख़बर इलाके में चारों ओर फैल गई थी। पहाड़ी पर कई लोग इकट्ठे हो गए थे। उनमें एक मैं भी था। लाश झाँसी मेडिकल कॉलेज के चीरघर में पहुँचा दी गई. रामदेही को जिला अस्पताल में भर्ती करा दिया गया।
अभी तक की कहानी, अख़बारों में छपी ख़बरों, इलाके में फैली अफ़वाहों, कुछ पात्रों से सीधी बातचीत और मेरी कल्पनाशीलता से बनी थी। पर उस रोज़, पहाड़ी से उतरते हुए मैंने जो अनुभव किया। वह वास्तविक घटना से ज़्यादा भयावह था। मैं पहाड़ी से उतरते हुए, बार-बार हनियां की मड़िया को, मुड़ कर देख रहा था। मुझे लगा अभी भी वहाँ कुछ जल रहा था। रह रहकर कोई 'ओ मोरे लल्ला...ओ मोरे वीरां' कहकर रोने लगता था। हनियां, जलती हुई चिता पर कूद रही थी। वह चीख़-चीख़कर आग उगल रही थी। उसके गर्भ से निकलकर नवजात शिशु अभिमन्यु की तरह दौड़-दौड़कर, चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ रहा था। मैंने धयान से देखा। उस नवजात शिशु के तीन सिर थे, एक अर्जुन सिंह का, एक कमल सिंह यादव का और एक विश्वजीत पांडे दरोगा का...पर यह क्या! उसका शरीर अभय सिंह गुर्जर का था, जो चक्रव्यूह से निकलकर बीहड़ों का रास्ता खोज रहा था। मैं सोच रहा था, यदि यह बीहड़ों तक पहुँचा तो इसे कोई ख़त्म नहीं कर पाएगा। तीन सिरों वाले कई लोग इस समाज से बदला लेने के लिए बीहड़ों में घूमा करेंगे।
मैं सोच रहा था, पहाड़ी पर आए और लोग इस तीन सिरवाले नवजात शिशु को देख क्यों नहीं पा रहे? उस समय, मैंने हनियां की कहानी लिखने के बारे में नहीं सोचा था। ...पर पहाड़ी से उतरते हुए हाथ, पैर, गले और कमर में, काले धागे बाँधे, साँवली हनियां मेरे साथ-साथ पहाड़ी से उतर आई थी। दूसरे दिन, मैं उसे उसके गाँव ले गया था। उन दिनों मैं बेरोज़गार था, क्षेत्रिय अख़बारों में लिखता था, मेरे पास समय बहुत था।
गाँव में हनियां का घर खण्डहर हो गया था। गाँववालों की माने तो हनियां के माँ-बाप मर चुके थे। ...और विश्वजीत पाण्डे से, हनियां का प्रतिशोध लेने वाली भुन्नो और कोई नहीं...हनियां की बहिन ही थी।
जिस रात, विश्वजीत की लाश झाँसी मेडिकल कॉलेज के चीरघर में रखी थी, उस रात गाँव वालों ने हनियां के ढह चुके घर में, दिया जलता देखा था। बाद में विश्वजीत की पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से पता चला था कि किसी तेज़ धार वाले हथियार से, किसी ने उसका लिंग काटा था। अत्यधिक रक्तस्त्राव से उसकी मौत हुई थी। उसके रक्त के परीक्षण से, उसके ब्राउन शुगर, कोकेन और धतूरे के बीजों को पीसकर बने नशे के सेवन की भी पुष्टि हुई थी। उस घटना के बाद हनियां की मड़िया पर आग जलते किसी ने नहीं देखी। अब जबकि पहाड़ी से नीचे पक्की सड़क बन गई है, उस पर से गुज़रते हुए, पहाड़ी पर बनी हनियां की मड़िया दिखती है। उस पर घास उग आई है। अब, वहाँ कोई मनौती माँगने नहीं जाता।
विश्वजीत पाण्डे की विधवा रामदेही, पहाड़ी के पास के गाँव में बने विश्वजीत के पुश्तैनी मकान की छत पर बैठी, पहाड़ी पर बनी हनियां की मड़िया को ताकती रहती है।
मुझे विश्वास है, वह उस तीन सिर वाले नवतात शिशु को देख सकती है, जिसे मैंने देखा था।
कहानी लिखे जाने तक पुलिस भुन्नो को तलाश रही है।