हनोज दिल्ली दूरस्थ / जयप्रकाश चौकसे

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हनोज दिल्ली दूरस्थ
प्रकाशन तिथि :11 फरवरी 2015


फिल्म उद्योग में लोकेशन का चुनाव कहानी के अनुरूप किया जाता है, साथ ही लोकेशन का बॉक्स ऑफिस मूल्य भी नजरअंदाज नहीं किया जाता है। एक जमाने में मुंबई का चुनाव किया जाता था क्योंकि भारत के हर शहर और कस्बे में मुंबई एक सपने की तरह बसा था और मुंबई में सारे प्रांत कस्बे झोपड़पटि्टयों के रूप में पसरे थे। एक दौर में पंजाब में बनी पंजाबी भाषा की सारी फिल्मों के जमा-जोड़ से अधिक पंजाबी लोक गीत, भाषा और पंजाबियत मुंबईया फिल्मों पर छाई भी और आज भी काफी हद तक मौजूद है। विगत कुछ वर्षों में टेलीविजन के नन्हे परदे पर गुजरात ही गुजरात दिखता रहा है। टेलीविजन में टी.आर.पी. अर्थात लोकप्रियता का तथाकथित पैमाना निर्णायक है। मीरा नायर ने 'सलाम बाम्बे' बनाई है और अंग्रेजों ने 'कलकत्ता' बनाई। विगत कुछ समय में दिल्ली, आगरा, मेरठ, लखनऊ, हैदराबाद इत्यादि लोकेशन चुने गए और स्विट्जरलैंड के मोह से सिनेमा मुक्त हुआ। मेहरा की फिल्म 'दिल्ली 6' और अजय बहल की 'बी. ए. पास' दिल्ली की झांकियां प्रस्तुत करती हैं, विशेषकर 'बी.ए. पास' तो दिल्ली की अंतड़ियों में शूट हुआ है। हाल ही की सफलतम 'पी.के.' भी दिल्ली को बखूबी प्रस्तुत करती है और एक सार्थक शॉट में हाईराइज इमारत की तरह ऊंची मूर्ति भी दिखाई गई थी।

क्या लोकेशन के चुनाव का राजनीति से कोई संबंध है? आज सुबह ही से श्याम बेनेगल की 'जुनून' में नसीरुद्दीन शाह का बोला संवाद मन की घाटियों में गूंज रहा है, संवाद 'सिकन्दर मियां, हम दिल्ली हार गए हैं।' ज्ञातव्य है कि यह फिल्म 1857 की क्रांति पर आधारित थी और नसीरुद्दीन शाह एक क्रांतिकारी की भूमिका में थे। इस संवाद की अदायगी में नसीर ने देश के दर्द को बयां किया था। आज के संदर्भ में यह सिकंदर कौन मियां मिठ्ठू है, यह कोई पहेली नहीं है। अहमदाबाद में संपन्न की जा रही एक शादी में बजाई जा रही शहनाई में किसी के दर्द के स्वर भी शामिल हैं। इतिहास आधारित 'जुनून' इतिहास का ही प्रसंग याद आता है। शहंशाह तुगलक ने एक बाद राजधानी को दिल्ली से दूर तो जाने को असफल प्रयास किया था, सफर में ही हजारों जानें चली गई और तुगलक को दिल्ली लाना पड़ा! इसी तुगलक ने चांदी, सोने के बदले चमड़ी पर मोहर के सिक्के चलाए थे। हर पागल कहलाने वाले आदमी में कोई दूरंदेशी होती है, आज चमड़ी दिखाकर दमड़ी कमाने का दौर गया है। तुगलक सुरक्षा की दृष्टि से दिल्ली को असुरक्षित समझता था।

इतिहास के इसी सिलसिले में चौदहवीं सदी में महान प्रतिभाशाली अमीर खुसरों ने सूफी संत निजामुद्दीन औलिया से कहा कि अलाऊद्दीन खिलजी अपनी विजयी फौज के साथ दिल्ली की ओर रहा है। वह आपसे मिलना चाहता है। सूफी संत औलिया ने कहा कि एक दरवाजे से बादशाह आएगा तो दूसरे दरवाजे से वे बाहर चले जाएंगें क्योंकि सूफी संत के घर बादशाह का क्या काम। अमीर खुसरों ने कहा कि वह जमना किनारे तक गया है तो औलिया ने कहा, 'हनोज दिल्ली दूरस्थ' अर्थात अभी बादशाह के लिए दिल्ली दूर है। थोड़ी देर बाद चिंताग्रस्त अमीर खुसरो ने कहा कि तानाशाह खिलजी अब जमुना पार करने वाला है, तब भी औलिया ने कहां 'हनोज दिल्ली दूरस्थ'। इतिहास में दर्ज है कि तानाशाह अलाऊद्दीन खिलजी दिल्ली नहीं पहुंच पाया, जमुना तक आना अर्थात दिल्ली आना ही था परन्तु तब भी दिल्ली दूरस्थ ही रही। एक दौर में भारत के संत महात्मा भविष्य को पढ़ने की कला जानते थे और कोई बादशाह या राजा उनसे बड़ा नहीं था। अब उन्होंने अपना अाध्यात्मिक तेज खो दिया है, भेल ही वे पद्मभूषण से नवाजे जाएं।

अमीर खुसरों की ही पंक्तियां याद आती हैं 'खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की घाट, जो उतरा सो डूबा, जो डूबा सो पार'। सियासत से अधिक मजबूत मोहब्बत रही है और सूफी तथा संतों ने हमेशा प्रेम की वाणी बाली है। कबीर, गालिब, रवीन्द्रनाथ टैगोर, तुलसीदास इत्यादि ने हमेशा इन्सानी मोहब्बत की बात की है। हमारे दौर की सियासत का आधार नफरत हो गया है और सारे पहलू तथा क्षेत्र नफरत आधारित हो गए हैं। इसी तरह धर् में भी प्रेम महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि आप ज्ञान से सत्य या ईश्वर को नहीं पा सकते। प्रेम की डगर ही हर राजपथ से अधिक महत्वपूर्ण रही है। बहरहाल दिल्ली हिन्दुस्तान का दिल और पूरे देश की धड़कन कहा ध्वनित होती है। संभवत: अब बजट पूंजीवादी नहीं होगा। जिंदगीहो या सियासत हर पराजय केवल गलती सुधारने का पथ प्रशस्त करती है, हनोज दिल्ली दूरस्थ। आम आदमी का भी अर्थ है खुशहाली और धार्मिक सद्भाव। दिल्ली शहर पुराना है, हर गली एक किस्सा, हर चेहरा अफसाना है।