हमज़मीन / अवधेश प्रीत
‘तू सोता क्यों नहीं? नींद नहीं आ रही क्या?’ — आवाज़ में खीझ थी, बेचैनी की हद तक।
‘हाँ, नींद नहीं आ रही। हर कोशिश कर के देखी ली।’ — प्रत्युत्तर में, उभरे स्वर की लाचारी छुपी न रह सकी।
‘क्या बात है, बहुत दुखी लग रहा है तू?’ — पहली आवाज़ में यकायक सहानुभूति की तरलता आ गई थी।
‘दुख अपनी जगह है, नींद का न आना अपनी जगह। दोनों का एक-दूसरे से रिश्ता हो ही, कोई ज़रूरी नहीं।’ — दूसरी आवाज़ संजीदा थी।
शायद लम्बी उम्र का अनुभव बोल रहा था।
‘कहता तो तू ठीक है। लेकिन बहुत देर से गौर कर रहा हूँ। तू खासा बेचैन है। रहा नहीं गया, सो पूछ लिया।’ — पहले ने सफ़ाई दी।
‘अच्छा किया।’ — दूसरे ने उसका हौसला बढ़ाया, — ‘इसी तरह शायद बेचैनी कुछ कम हो। बोलने-बतियाने से जी हल्का होता है।’
पहले को विश्वास हो आया कि दूसरा ज़रूर उम्रदराज़ है। अनुमान लगाने की कोशिश की — साठ साल। हाँ, इसी के आस-पास होगा। यह ख़याल आते ही उसे संतोष हुआ कि चलो, एक उम्र जी ली उस शख़्स ने।
उसे चुप जानकार दूसरे ने टोका, — ‘क्या हुआ, ख़ामोश क्यों हो गया?’
‘नहीं कुछ खास नहीं। बस, तेरे ही बारे में सोचने लगा था।’ —पहले ने हड़बड़ी में सफ़ाई दी।
‘मेरे बारे में? क्या सोच रहा था मेरे बारे में?’ — दूसरे के स्वर में उत्सुकता थी।
‘यही कि तेरी उम्र कितनी होगी? तू कितने साल का है?’ — उत्तर के साथ-साथ पहले ने जिज्ञासा भी जाहिर कर दी।
‘क्या फ़र्क पड़ता है, उम्र तीस की हो या साठ की?’ — दूसरे के स्वर में सूफ़ियाना अंदाज़ था।
‘क्यों? क्यों नहीं फ़र्क पड़ता? साठ वाले ने तीस वाले से ज़्यादा ज़माना देखा होता है। उसने ज़िन्दगी के ज़्यादा लुत्फ़ लिए होते हैं।’ — पहले ने ज़ोरदार दलील दी।
‘नहीं। साठ वाले ने ज़िन्दगी के ज़्यादा दुख झेले होते हैं। ज़्यादा ज़िम्मेदारियां ढोई होती हैं।’ — दूसरे ने असहमति जताई।
‘तो मेरा अनुमान सही है।’ — पहले ने बात बदल दी।
‘क्या?’
‘यही कि तेरी उम्र साठ साल है।’
‘हाँ, तेरा अंदाज़ा सही है। मैं साठ साल का हूँ। और तू? तेरी उम्र कितनी है?’ — दूसरे ने बगैर माथा-पच्ची के सीधा सवाल किया।
‘मेरी उम्र! तू बता कितनी होगी?’ — पहले ने चुहल की।
‘मैं इस मामले में अनाड़ी हूँ। हिसाब-किताब से कभी वास्ता नहीं रहा।’— दूसरे ने साफ़गोई से अपनी कमज़ोरी बता दी।
‘फिर इतनी लंबी ज़िन्दगी तूने जी कैसे ली?’ — पहले ने हैरानी से पूछा।
‘कोई ज़रूरी नहीं कि जो जिया वो ज़िन्दगी ही थी।’— दूसरा हिसाबी-किताबी न सही खासा अनुभवी जान पड़ रहा था।
‘तो अब दुखी क्यों है तू? अब तो वैसी ज़िन्दगी से छुट्टी पा चुका है?’ — पहले ने टोका, — ‘अब क्यों नहीं नींद आ रही?’ चैन से सो क्यों नहीं जाता?
‘मेरी छोड़!’ — दूसरे ने झिड़की दी, — ‘तू क्यों नहीं सो जाता? ख़ामख़्वाह क्यों हलकान हुआ जा रहा है?’
‘क्यो? मैं क्यों न हलकान होऊँ? — पहला तुनक पड़ा। — ’मैं अपनी मौत मरा होता तो कोई बात होती। यहाँ, इस तंग जगह में सोने की तकलीफ़ तो न होती।’
‘अपनी मौत मरा होता तो क्या तू सीधे जन्नत चला गया होता?’ — दूसरे के स्वर में व्यंग्य था।
पहले ने बुरा नहीं माना। बल्कि अपनी रौ में बोल पड़ा, — ‘वो तो मैं नही जानता। लेकिन इतना तय है कि इस क़ब्र में न पड़ा होता।’
‘तो....तो कहाँ होता? — दूसरे के स्वर में संशय का पुट था।’
‘जला दिया गया होता।’ — पहले ने दो टूक उत्तर दिया।
अचानक एक गहरी चुप्पी तिर आई। एकदम से जैसे सब कुछ ठहर गया हो।
यह अंतराल लंबा हो इससे पहले ही दूसरे की मद्धिम आवाज़ आई, — ‘तो...तू हिन्दू है?’
‘हाँ। और तू?’ — पहले ने संशय में सवाल दागा।
‘मैं तो मुसलमान हूं।’ — दूसरे ने जवाब दिया।
‘फिर तो तू सही जगह आ पहुँचा है।’ — पहले ने संतोष जताया।
‘नहीं, मैं अपनी मौत मरा होता तो इससे बेहतर जगह मिली होती।’ — दूसरे ने पहले की आश्वस्ति को निरस्त कर दिया।
‘क्यों इस जगह में क्या ख़राबी है?’ — पहले ने सशंक पूछा।
‘वही जो तुझे लगता है। इतनी तंग जगह कि न पाँव ठीक से फैला सको न करवट तक बदल सको।’ — दूसरे की आवाज़ में गहरी पीड़ा उतर आई थी।
‘तो तेरी नींद न आने की वजह भी वही है।’ — पहला पुष्टि चाहता था।
‘हाँ, पूरी देह अकड़ गई है। ज़ख़्म में रिसा खून जमकर अलग से चुनचुना रहा है।’ — दूसरा बुरी तरह आजिज़ आ गया था।
‘तेरा ज़ख़्म कहाँ है? मेरा मतलब किस जगह पर?’ — पहले ने हमदर्दी से पूछा।
‘सीने पर। बुरी तरह छलनी हो गया है।’ — दूसरे के स्वर में आह थी।
‘च्च...च्च!’ — पहले ने अफ़सोस जताया, — ‘वाकई बहुत तकलीफ़ हुई होगी।’
‘वो तो है।’ — दूसरे ने ग़मज़दा लहजे में पूछा, — ‘लेकिन तू यहाँ कैसे आ फँसा?’
‘चूतियों के चक्कर में।’ — पहले के स्वर में ज़बर्दस्त गुस्सा था, — ‘स्साले! सरकारी कारकून जो न करें।’
‘ठीक कहता है तू। सबके सब ख़ानापूरी करते हैं।’ — दूसरे ने हामी भरी, — ‘मेरे साथ भी यही हुआ।’
‘अच्छा? तेरे साथ क्या हुआ?’ — पहले ने उत्सुकता जताई।
‘वही। सरकारी कारकून रात के अन्धेरे में ढेरों लाशें लेकर आए और बित्ता-बित्ता भर गड्ढ़े में दफ़ना गए। गोया थोड़ा ज़्यादा ज़मीन खोदने में स्सालों की जान जा रही हो।’ — दूसरे की आवाज़ में उज्र था।
‘अक्ल के अंधे कभी नहीं सुधरेंगे।’ — पहला कहीं ज़्यादा तीखा हो आया था, — ‘लाशें दफ़ा करने के चक्कर में हिन्दू-मुसलमान कुछ नहीं सूझता।’
‘लगता है, तू इसी ग़लतफ़हमी का शिकार हुआ?’ — दूसरे ने हमदर्दी जताई।
‘हाँ। मैं सुलेमान सेठ की गद्दी पर काम करता था। दंगाइयों ने वहाँ आग लगा दी। सबके सब ज़िन्दा जल गए।’ — पहले की दहशत भरी आवाज़ में दिल दहलता मंज़र नुमाया हो आया था, — ‘देर रात तक हमारी लाश सीझती रही। फिर सरकारी कारकून आए और लाशें लॉरी में भरकर आनन-फानन यहाँ दफ़ना गए।’
‘सोचा होगा मुसलमान की गद्दी पर सारे कारिन्दे मुसलमान ही होंगे!’ — दूसरे ने बेसाख़्ता तंग लहज़े में तब्सरा किया, — ‘गोया हिन्दू। मुसलमान की रोज़ी मुसलमान।’ ‘अक़्ल के अंधों को कौन समझाए सुलेमान सेठ तो गया, अब कौन देगा मेरे घरवालों को रोटी?’ — पहले के स्वर में गज़ब की बेबसी थी।
एक बारगी दूसरे ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। दोनों के बीच चुप्पी सनसनाती रही। आख़िरकार पहले ने ही पहल की, — ‘क्या हुआ, तू चुप क्यों हो गया?’
‘नहीं! बस तेरे ही बारे में सोचने लगा था।’ — दूसरे ने सफ़ाई दी।
‘मेरे बारे में? मेरे बारे में क्या सोचने लगा तू?’
‘यही कि तेरे घर में कौन-कौन होगा?’ — दूसरे ने इसरार-सा किया, — ‘कौन-कौन था तेरे घर में?’
‘बीवी। दो बच्चे। पहला पाँच साल का, दूसरा तीन साल का!’ — पहला हुलसकर बोला।
‘तो तू जवान लगता है। कितनी उम्र है तेरी?’ — दूसरे ने अफ़सोस भरे लहज़े में पूछा।
‘यही कोई तीस साल!
‘च्च...च्च...च्च!’ — दूसरा जज़्बाती हो आया था, — ‘सचमुच तेरे साथ बहुत ज्यादती हुई है।’
‘क्यों, तू अभी कह रहा था उम्र तीस की हो या साठ की, क्या फ़र्क पड़ता है?’ — पहले ने पलटवार किया।
‘यूँ तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता!’ — दूसरे ने दलील दी, —‘लेकिन तेरे मामले में बात दूसरी है!’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब ये कि तेरे पीछे तेरे बीवी-बच्चों को कौन पालेगा?’ — दूसरे के स्वर में गहरी चिन्ता थी।
‘वे ही पालेंगे, जिन्होंने पलीता लगाया है।’ — पहला चिढ़ा-सा जान पड़ रहा था।
‘मुझे तो नहीं लगता!’ — दूसरे का अनुभवजन्य स्वर दो टूक था।
‘तो मेरे बच्चे एक दिन उन्हें ही पलीता लगा देंगे।’ — पहला तिलमिलाया हुआ था।
दूसरे ने कुछ नहीं कहा। एक बार फिर सन्नाटा छा गया। पहला थोड़ी देर तक इन्तजार करता रहा, लेकिन दूसरे की ओर से कोई प्रतिक्रिया न होती देख उससे रहा नहीं गया। बोला, — ‘क्या हुआ, तू चुप क्यों हो गया?’
‘कुछ खास नहीं। दिल का ज़ख़्म हरा हो गया था। इसलिए बोलने में दिक़्क़त हो रही है।’ — दूसरे की आवाज़ में वाकई दर्द था।
‘सालों ने बड़ी बेरहमी से तुझे मारा न?’ — पहला उत्तेजित हो आया था।
दूसरे ने संजीदा स्वर में जवाब की जगह कहा, — ‘‘क़ातिल रहम दिल भी होते हैं क्या?’’
‘किसने मारा तुझे?’ — पहले ने उत्सुकता से पूछा।
‘क़ातिलों ने!’ — दूसरे ने छोटा-सा जवाब दिया।
‘आख़िर वे थे कौन? हिन्दू?’ — पहले ने ज़ोर देकर पूछा।
‘मुसलमान-मुसलमान को क्यों मारेगा?’
‘भाई, क़ातिल तो सिर्फ़ क़ातिल ही होता है।’ — दूसरे ने फ़लसफ़ा दिया।
‘तू तो बड़ी-बड़ी बातें करता है।’ — पहले ने चुटकी ली। ‘लेकिन तू मरा कैसे?’ — पहले के स्वर में गहरी जिज्ञासा थी।
‘छोड़ भी! कब से ख़ाली मनहूस बातें ही किए जा रहा है? मौत, मातम, मैयत के अलावा तेरे पास और कोई बात नहीं क्या?’ —दूसरे ने पहले के सवाल को चालाकी से दरकिनार कर दिया।
‘मुर्दे मौत नहीं तो क्या ज़िन्दगी की बात करेंगे?’ — पहले ने तर्क किया।
‘ज़िन्दगी जैसी भी हो, वक़्त काटने के लिए उससे बेहतर कुछ नहीं।’ — दूसरे ने अपने बुज़ुर्गाना अंदाज़ में पहले को आश्वस्त किया, — ‘खासकर हम मुर्दों के लिए इससे मुफ़ीद तो कुछ हो ही नहीं सकता!’
‘चल तेरी बात मान भी ली, तो ज़िन्दगी में ऐसा क्या है, जिसके लिए उसे याद किया जाए?’ — पहले ने सीधे-सीधे हथियार नहीं डाला।
‘बहुत कुछ, मसलन रोटी का स्वाद। बच्चों की किलकारी। मुहब्बत का जादू।’
पहले ने दूसरे की बातबीच में ही काटकर उसे छेड़ा, —‘काफ़ी आशिक मिजाज़ लगता है तू?’
‘हां मैंने ज़िन्दगी से आशिकी की!’ — दूसरे ने काफी सूफ़ियाना जवाब दिया।
‘लेकिन तू तो कह रहा था कोई ज़रूरी नहीं जो जिया वो ज़िन्दगी ही हो।’ — पहले ने दूसरे को याद दिलाया।
‘हां मैंने कहा था। वो तजुर्बे की बात थी।’ —दूसरे ने बग़ैर किसी हिचक के खुलासा किया, — ‘लेकिन वो ज़िन्दगी ही है, जिसमें हर रोज़ जीने की नई आस जागती है। हर रोज़ लगता है, हालात बदलेंगे!’
‘लेकिन बदला तो कुछ नहीं?’ — पहले ने जिरह-सी की।
‘हाँ, लेकिन आस तो फिर भी कायम रहती है न?’ — दूसरे के स्वर में गज़ब का विश्वास था।
‘तू बहुत जीवट वाला है।’ — पहले ने हथियार डालते हुए दूसरे की तारीफ़ की, — ‘वाकई तेरा जवाब नहीं!’
अपनी तारीफ़ के बावजूद दूसरे की ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर पहला कसमसाया — ज़रूर बुढ़ऊ ने फिर गुम्मी साध ली है, सो झुँझलाकर आवाज़ दी, — ‘क्या हुआ फिर कहीं खो गया क्या?’
‘आँ-हाँ!’ — दूसरा जैसे चिहुँका, — ‘कुछ याद आने लगा था।’
‘कुछ याद आने लगा था या कोई याद आने लगा था?’ — पहले ने फिर छेड़ा।
‘अरे नहीं! अपना कोई था ही नहीं, जिसकी याद आए!’ — दूसरे ने आह भरी।
‘क्यों बीवी-बच्चे?’ — पहले ने संकोच भरे स्वर में पूछा।
‘अरसा हुआ उन्हें गुज़रे। अब तो साल-तारीख़ भी याद नहीं।’ — दूसरे का स्वर सपाट था।
‘कैसे मरे वे?’
‘भूख से!’
‘भूख से?’ — पहले ने हैरानी से पूछा, — ‘तू कमाता-धमाता नहीं था क्या?’
‘नहीं। तब मैं गांव में रहता था। उन्हीं दिनों जबरदस्त अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने को मुहताज हो गए। मैं शहर में मज़दूरी के लिए आया और उधर मेरी बीवी-बच्चे भूख से तड़पकर मर गए। बहुत सारे लोग मरे थे तब!’ — दूसरा एक क़िस्से की तरह सबकुछ बोल गया।
‘सारे के सारे मुसलमान ही मरे थे?’ — दबी जुबान से पहले ने पूछा।
‘धुत्त!’ — दूसरे ने झिड़की लगाई, — ‘इतना भी नहीं जानता कि भूख से सिर्फ़ ग़रीब मरते हैं?’ ‘आँ-हाँ!’ — पहला शायद शर्मिन्दगी महसूस कर रहा था, लिहाजा झेंप छुपाने की गरज से बोला, — ‘फिर दूसरी शादी कर ली होगी तूने?’
‘हाँ, चाहा था, लेकिन हुई नहीं!’ — सर्द आह भरी दूसरे ने।
‘क्यों नही हुई? क्या कमी थी तुझमे?’
‘यही कि मैं शिया था!’
‘और वो?’
‘सुन्नी!’
‘एई स्साला! तेरे यहां भी ये सब चलता है?’ — पहले को जैसे पहली बार एक नई सच्चाई जान पड़ी थी। हकलाते हुए पूछा, — ‘फिर जानते-बूझते क्यों इस चक्कर में पड़ा?’
‘मुहब्बत! मियाँ मुहब्बत के चलते!’ — दूसरे की आवाज़ लरज़ रही थी।
‘फिर?’ — पहले ने दिलचस्पी दिखाई।
‘तब क़सम खाली। ताउम्र शादी नहीं करनी!’ — दूसरे की आवाज़ दरकी-दरकी-सी थी।
पहले ने महसूस किया कि दूसरे की दुखती रग दब गई है। इससे पहले कि वह और दुखी हो, पहले ने बात का रुख मोड़ा, — ‘अच्छा, ये बता, तू करता क्या था? मेरा मतलब काम-धंधा?’
‘मैं राजमिस्त्री था!’ — पहले की कारगुज़ारी काम आ गई। दूसरे की आवाज़ सहज हो आई थी, — ‘लोगों के मकान बनाता था।’
‘वाह! ख़ुद के लिए दो गज जगह भी नसीब नहीं हुई?’ — पहला हंसा।
‘अपनी मौत मरता तो ऐसा नहीं होता!’ — दूसरे ने सफ़ाई दी।
‘तो तू मरा कैसे?’ — पहले की आवाज़ में तड़प थी।
‘मैं एक बेवा का मकान बना रहा था। मकान अभी आधा-अधूरा ही बना था कि इलाके के कुछ लोगों ने बावेला खड़ा कर दिया।’
‘क्यों?’ — पहले के स्वर में हैरानी थी।
‘वे लोग बेवा पर दबाव डाल रहे थे कि हिन्दू का मकान कोई मुसलमान नहीं बनाएगा!’ — दूसरे की तिलमिलाहट छुपी न रह सकी।
‘फिर?’ पहले ने उकसाया। ‘यक़ीन मान उस दिन मुझे बहुत गुस्सा आया। जी में हुआ स्सालों को एक-एक कर दीवार में चुन दूँ। लेकिन बेबसी देख कि मेरी रुलाई फूट पड़ी।’ — दूसरे की आवाज़ भीगी हुई थी, — ‘वो बेवा भली औरत थी। उसने मुझे समझाया कि अभी काम रोक देते हैं। हालात ठीक होते ही फिर हाथ लगाएँगे!’
‘तो तूने काम छोड़ दिया?’ — पहले ने कुरेदा।
‘क्या करता!’ — ठंडी आह भरते हुए दूसरा बोला, — ‘हम हालात ठीक होने का इंतज़ार करते रहे। इंतज़ार लंबा होता जा रहा था। मुझे उस बेवा के अधूरे मकान की फ़िक्र खाए जा रही थी। उसकी बेटी की शादी की तारीख़ नज़दीक आती जा रही थी। बस, मुझसे रहा नही गया। एक दिन आगा-पीछा सोचे बग़ैर घर से निकल पड़ा!’ — दूसरा पल भर दम लेने के लिए ठहरा कि पहला उतावला हो गया, — ‘सीधे बेवा के पास आ पहुंचा?’
‘नहीं! रास्ते में मुहल्ले के कुछ शोहदों ने घेर लिया। कहने लगे, तू हिन्दुआनी का मकान नहीं बनाएगा। मेरी ख़ामोशी देखकर वे भड़क गए। धमकी देने लगे –उधर गया तो तेरी ख़ैर नहीं।’ — दूसरा हाँफने लगा था, — ‘लेकिन मैं नहीं माना| मैं उनकी नज़रें बचाकर निकल गया!’
‘वाकई, तू जीवट वाला है!’ —पहले के मुँह से बेसाख़्ता निकल पड़ा, — ‘तुझे डर नहीं लगा?’
‘डर उन शोहदों से तो नहीं, उस बेवा से जरूर लगा!’
‘क्यों? ऐसा क्या हुआ?’
‘उस बेवा का मकान तेज़ी से बन रहा था। मिस्त्री-मज़दूर काम में जुटे थे। मैं तो यह नज़ारा देख कर सन्न रह गया। बेवा बेचारी मुझे देखकर सफ़ेद पड़ गई। बड़ी मुश्किल से माफ़ी माँगते हुए बोली — ज़हूर मियाँ, रहना तो मुझे इन्ही के बीच है।’
एकबारगी एक गहरी ख़ामोशी खिंच गई। पहला जो अबतक खोद-खोदकर दूसरे को तंग किए हुए था एकदम चुप लगा गया। दूसरा भी दम लेते हुए चुप पड़ा रहा। अचानक कोई आहट सुन दोनों चौंके। पहले ने धीमे से दूसरे को टोका, — ‘कोई हमारी बात सुन तो नहीं रहा?’
‘छोड़। ज़िन्दा जी किसी ने नहीं सुनी तो अब क्या ख़ाक सुनेंगे।’ — दूसरे ने खीझकर कहा।
‘ठीक कहता है। ये मेरा भरम होगा।’ — पहले ने खुद को दिलासा दिया।
‘हाँ, भरम के टूटने से डर लगता है।’ — दूसरे ने खोए-खोए स्वर में खुलासा किया, — ‘उस दिन मेरा भरम भी टूट गया था। मैं पहली बार बुरी तरह डर गया था। डरा-सहमा मुहल्ले में दाखिल ही हुआ था कि शोहदों ने घेर लिया। वे इस बात पर नाराज़ थे कि मैंने उनका हुक़्म नहीं माना था। वे मुझे मारने-पीटने लगे। मैंने भी बचाव में उलटा वार कर दिया, बस, फिर क्या था! ताबड़-तोड़ उन लोगों ने चाकुओं से मेरा सीना छलनी कर दिया। मैं अपने मुहल्ले के नुक्कड़ पर ढेर हो गया था!’ — बात पूरी करते-करते दूसरे की आवाज उखड़ गई। वह बुरी तरह थक गया था।
पहले ने एक छोटे अंतराल के बाद आशंका जताई, — ‘तो तेरी ही मौत को लेकर फ़साद हुआ था?’
‘हाँ, जिन शोहदों ने मुझे मारा उन्होंने सड़क जाम किया। दुकानें जलाईं। बवाल किया, पुलिस ने गोलियाँ चलाईं। शोहदे तो लाश छोड़कर भाग खड़े हुए। मारे गए राहगीर और तमाशबीन। पुलिस ने आनन-फानन सारी लाशें ठिकाने लगा दी।’ — दूसरे की आवाज़ डूबने लगी थी।
पहले ने हमदर्दी जताते हुए कहा, — ‘थका लगता है तू, आराम कर ले।’
‘आराम!’ — दूसरे की आवाज़ में गहरा तंज शामिल हो आया था, — ‘इत्ती-सी जगह में क्या तो आराम, कैसा आराम?’
‘कहता तो ठीक है। गुड़ीमुड़ी पडे़-पड़े, स्साली, देह अकड़ गई है।’ — पहले के स्वर में टभकती हुई पीड़ा थी। बातों में बहते दर्द की अचानक याद आते ही बेसाख़्ता कराहने लगा।
‘बहुत तकलीफ हो रही है न?’ — दूसरे के स्वर में तड़प थी।
‘हाँ, बहुत ज़्यादा। बर्दाश्त नहीं होता!’ — पहले की भिंची-भिंची आवाज़ आई।
‘एक काम करते हैं!’ — दूसरे ने कुछ सोचते हुए सुझाया, — ‘हम दोनों के बीच जो दीवार है न , इसकी मिट्टी कुछ नम लगती है। तू अपनी ओर से कुरेद। मैं अपनी ओर से कुरेदता हूँ।’
‘राजमिस्त्री है न, तू!’ — पहला अपनी पीड़ा के बावजूद चुहल से बाज नहीं आया, — ‘क़ब्र में कारीगरी सूझ रही है?’
‘सुन, लाशें दफ़न होती है। कारीगरी नहीं!’ — दूसरे की आवाज़ में उम्र का तर्जुबा था।
‘बड़ी-बड़ी बातें करता है, तू। मेरी समझ में नहीं आतीं।’ — पहला आजिज़ी से बोला, — ‘सीधे-सीधे बता करना क्या है?’
‘तू अपनी तरफ़ से मिट्टी खोद। मैं अपनी तरफ़ से खोदता हूँ। दीवार गिरी कि समझ थोड़ी ज़्यादा जगह निकल आएगी।’ — दूसरे ने संजीदा स्वर में पहले को समझाया, — ‘कम से कम करवट लेना आसान हो जाएगा। क्या पता आड़े-तिरछे हाथ-पांव फैलाना भी मुमकिन हो जाए।’
पहले की ओर से कोई जवाब आता न पाकर दूसरा घबराया कि कहीं बुरा तो नहीं मान गया। हड़बड़ाते हुए ज़ोर से हाँक लगा बैठा,— ‘क्या हुआ? रूह फ़ना हो गई क्या?’
‘नहीं बड़े मियां!’ —पहले ने दुगुने ज़ोर से जवाब दिया, — ‘मैं अपनी तरफ़ की मिट्टी खोदने लगा था!’
‘ठीक है। फिर मैं भी शुरू करता हूँ।’ — दूसरे ने आश्वस्त किया।
...और अचानक अब तक का सब से नामुमकिन वाकया वजूद में आया। सहमे हुए समय ने ग़ौर से देखा, ज़मीन में ज़िन्दगी की-सी हरकत हो रही है। ००