हमराह / परंतप मिश्र
मानव जीवन के अनुभव जब समय की कसौटी पर परखे जाते हैं तो भावनाओं के बादल रिश्तों की नमीं को सींच जाया करते हैं। तभी तो काव्यशिल्पी अपने ह्रदय में प्रवाहित तरंगों को अनुभूतियों की स्याही से विचारों की तूलिका बनाकर समाज के पटल पर उकेर पाता है। मन और विचार मिलकर अभिव्यक्ति को साकार करते हैं। अक्सर सुख और दुःख के प्रतिबिम्ब लेखन की बहती धारा के बहाव को आशावाद और निराशावाद के किनारों की ओर स्थापित कर जाते हैं।
बहुत ही कम ऐसे लेखन हुए हैं जो किनारों को छोड़ स्वतंत्र मौजों की तरह अप्रभावित रहे हों या यूँ कहें की सुख और दुःख के प्रति उदासीन भाव को प्राप्त कर पाते हैं। पर निश्चित रूप से यह भी एक स्थिति है और यह एक तथ्य भी है।
साधारण रूप से जो अत्यधिक कठोर होता है उसे उदासीन माना जा सकता है। तो क्या गर्व से पृथ्वी पर तने ये पर्वत उदासीन हैं,
संवेदना पर ऐसा नहीं है इनमें भी? क्योंकि उनकी कठोरता के समक्ष सब नतमस्तक हैं कि किरण बसती है। तभी तो उनके कठोरतम ह्रदय को चीरकर शीतल जल प्रपात बह निकलता हैं और फिर कभी दावानल-सा ज्वालामुखी भी फूट पड़ता है। मेरी मान्यता में ये मूक और वधिर नहीं है, सुंदर संगीत की ताल पर आनन्दित होकर गाते और झूमते हुए भी देखा है इन्हें मैंने।
भौतिकता कि अन्तहीन अंधी दौड़ में आज का मानव संग्रह करता और दिखावे का मुखौटा ओढ़े मौलिकता कि छाया से भी दूर जा खड़ा हुआ है। जहाँ स्वार्थ की तपती दुपहरी में अपनापन मृगमरीचिका-सी ओझल हो चली है। कला साहित्य की निर्मल गंगा भी इनके संक्रमण से दूषित होती जा रही है। थोथे विकास के नाम पर विनाश को प्रतिपल आमंत्रित किया जा रहा है।
प्रकृति के मूल को विकृत करता आधुनिक समाज आज दर्शन की ज्योति से भी वंचित, डग भरता जीवन दिशाविहीन हो चला है।
न जाने कितने अंतहीन रास्ते जो कभी ठहरे नहीं, विश्राम करना तो दूर पल भर को रुके नहीं पर साथ-साथ चलकर पथिक की पद-धूलि की यात्रा के हमराह हुए हैं, चलते ही जा रहे हैं अभिनन्दन करते हुए, आमंत्रित करते हुए हमराही के साक्षी बनकर आज भी प्रतीक्षित हैं।
सहभागिता के प्रमाण बने इन राहों का साहचर्य पाने के लिए उनके साथ कुछ देर आत्मीयता से सुस्ता कर बैठ जाना, विश्राम करना कितना सुखद होगा। उनके साथ की साझा स्मृतियों के अनुभव की पोटली में जीवन के कमाए अमूल्य रत्न और पत्थरों को सहेजते चलें। नेपथ्य से आती पुकार को आत्मसात करते चलें