हमारा सार्वजनिक जीवन / गणेशशंकर विद्यार्थी
देश में सार्वजनिक जीवन की बड़ी कमी है, जो कुछ है भी, वह दुर्भाग्य से ऐसा मलिन और नि:सार है कि हताश होकर किसी-किसी समय यह कहना पड़ता है कि वह न होता तो अच्छा होता। पराधीनता का वायुमंडल खुलकर साँस लेने का मौका नहीं देता। विकास के मार्ग खुले हुए नहीं। विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह देखने और सुनने में चाहे जैसा क्यों न हो, परंतु वह वैसा शुद्ध और ऊँचा कदापि नहीं जैसा कि वह स्वाधीन परिस्थितियों में होता। दबकर और झुककर बढ़ने वाली बाढ़ भी बढ़ने नहीं पाती। उसके शिथिल विकास पर रोगों के आक्रमण पर आक्रमण होते हैं। कदाचित प्रकृति का यह नियम ही है कि गिरे हुए जो कुछ करें और कहें उसमें आदि से लेकर अंत तक गिरावट ही कूट-कूट कर भरी हो। इसीलिए शायद हमारे दबे हुए सार्वजनिक जीवन में जो तड़क-भड़क दीखता है वह रोग और विष से भरी हुई है। उसमें स्वास्थ्य नहीं और फिर, उसमें स्वास्थ्य देने का बल कैसे हो? गिरते हुए जीवन उठने का ढोंग रचते हुए अपने मन को उत्थान का विश्वास भले ही दे लें, परंतु वे संसार की दृष्टि में धूल नहीं डाल सकते और उत्थान के व्यापक कार्यक्रम को धोखा नहीं दे सकते। उनके अस्तित्व पर जो अक्षर अंकित होंगे आशा और कर्मण्यता की भावनाओं से भरी हुई शिराओं को उनसे कोई विशेष संदेश कदापि न मिलेगा। देश के नाम पर काम किया जाता है, स्वार्थ-त्याग की दुहाइयाँ दी जाती हैं, गिरे हुए लोगों को उठाने की ध्वनि अलापी जाती हैं, अत्याचारियों को कोसा जाता है और निरंकुशों पर दाँत पीसे जाते हैं, परंतु इन खिलाड़ियों के हृदय-पट पर विस्मृति एक बड़ा ही मनोहर पट डाल दिया करती है। हलके रंग के उड़ते ही जब गहरे रंग की बारी आती है, तब खिलाड़ी लोग अपने-अपने नकाबों को उतार डालते हैं। जो सौजन्य और शिष्टता की मूर्ति थे, जो देशभक्ति और त्याग के अवतार और तपस्या के रूप थे, जो प्रभुओं के उपेक्षक और दासों के दास थे, आँखें आश्चर्य से देखती हैं कि वे अशिष्टता और स्वार्थ के मैदान में सरपट दौड़ लगा रहे हैं। गालियाँ और बुराइयाँ उनके मुँह और कलेजे के भूषण हो जाती हैं। नेक-नीयती केवल उन्हीं के पल्ले रहती है और बेइमानी का कलंक दूसरों के माथे पर। खूब दौड़ लगाते हैं। खूब एड़ी और चोटी का पसीना एक कर देते हैं, परंतु देश की किसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए नहीं, अपने को प्रतिष्ठित और शक्तिशाली बनाने ही के लिए। निरंकुशों को गालियाँ देते हैं परंतु निरंकुशता का दम भरते हैं। दासों के दास बनने की दुहाइयाँ देते हैं, परंतु उनके दास नहीं, जो पिसे हुए हैं और जो निरीह हैं, किंतु उनके दास जो यथार्थ में प्रभु हैं, क्योंकि उनकी प्रसन्नता की प्राप्ति किसी प्रकार एक आवश्यकता की वस्तु हो गयी है। हम चुनावों की चर्चा सुन रहे हैं। हम इस चर्चा की मूर्तियाँ देख रहे हैं। कैसी-कैसी विशाल मूर्तियाँ हैं! या तो वे कभी घर ही से न निकलती थीं, या फिर आज उनके सिरों पर लोकसेवा का भूत सवार है और इसीलिए गली-गली की खाक छान रहे हैं। देश-सेवा करेंगे बस यही एक धुन है और कैसे करेंगे-कौंसिल के मेम्बर बनकर। शायद देश-सेवा के लिए और कोई मार्ग ही नहीं। नये आदमी यदि इसमाया पर मुग्ध हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं, परंतु पुराने से पुराने महारथी तक इस तोहफे पर बे-तरह फरेफ्ता हैं। अपने आप को भूले हुए हैं। पुरानी सेवाओं का वर्णन इस ढंग से किया जा रहा है कि बेचारा चारण भी शरमा जाये। इस देश में जहाँ आत्मप्रशंसा एक बुरी से बुरी चीज मानी जाती थी, आज यह हाल है कि लोग अपने मुँह अपनी करनी कहते हुए किसी प्रकार भी नहीं अघाते हैं। देश की दुहाइयाँ दी जाती हैं और देश-सेवा की कसमें खायी जाती हैं। यहाँ तक तो सहन किया जा सकता था और वह भी किसी प्रकार, परंतु आगे जो कुछ होता है, वह इतना निकृष्ट है कि कोई भी भला आदमी ऐसी देश-सेवा को पूरी विपत्ति के नाम से पुकारे बिना न रहेगा। ऊँची-से-ऊँची भावनाओं की आड़ में मतलब का शिकार खेलते हुए लोग एक दूसरे पर गंदे आक्षेपों और भद्दे ढंगों का जो प्रयोग करते हैं, वह अत्यंत लज्जाजनक है। अच्छी तरह जानते हैं कि जो कुछ कहेंगे वह सच नहीं और न केवल वह झूठ ही है, किंतु वह नीचता से परिपूर्ण तक है, परंतु क्या हर्ज, उसे कहेंगे और इसलिए कहेंगे कि किसी का कुछ बने या बिगड़े, अपना मतलब तो सधेगा। मित्र-मित्र के विरुद्ध। भाई-भाई के विरुद्ध और काम करने वाले एक-दूसरे के विरुद्ध इस महामंत्र का प्रयोग कर रहे हैं। पुराने संबंध भुला दिये गये। मुरव्वत, 'देश-भक्ति' के नाम पर, अब मुरव्वत नहीं रही और बड़े और छोटे का लिहाज भी, देश के इस बड़े काम में अब कैसे निभ सकता है? न केवल कौंसिल के चुनाव के संबंध ही में ऐसा हो रहा है, परंतु अन्य दिशाओं में भी चक्र के घुमाव का यही रंग और ढंग है। हाल में 'संदेश' नाम के मराठी दैनिक पत्र के दर्शन हुए। आज से दस मास पहले तक, उसके संपादक श्रीयुत कोल्हाटकर लो. तिलक के अनन्य भक्तों में से थे। नहीं, कहा तो यह जा सकता है कि वे उनके अंधभक्त तक थे, परंतु थोड़े से समय के भीतर ही, थोड़ी-सी बात के लिए ही हवा का रूख़ पलट गया। तिलक फंड की 3500 रुपये की रकम पर कुछ झगड़ा पड़ गया। बस इसी बात पर आज 'संदेश' के सब कालम लो.तिलक और उनके साथी मि.केलकर पर बे-ईमानी आदि के दौषारोपण के महा-कार्य करने में समर्पित हो रहे हैं। उसका एक अंक 'फजीद्धी तुमची होणार' (तुम्हारी फजीहत होगी) शीर्षक से परिपूर्ण था। यह अवस्था किस मानसिक पतन की सूचक है? कल तक तुम लो.तिलक को पूजते रहे, आज तुम उन्हें इस बे-शर्मी के साथ कुचलते हो! मतभेद होना बात दूसरी है। अपने माता-पिता से मतभेद होता है, परंतु इसके कारण उनके प्रति आदर और स्नेह का भाव त्याग नहीं दिया जाता और कुछ ख्याल न होता तो यही समझा जाता कि लो. तिलक ने देश के लिए जो कुछ सहा आज तक शायद ही किसी पढ़े-लिखे भारतवासी ने इतना सहा हो, परंतु यह रखे कौन? यहाँ तो 'देश-भक्ति और स्वाधीनता का प्यार' मुर्दनी से भरी हुई शांति के साथ बैठने की आज्ञा ही नहीं देता। हम देश की इस अवस्था को अत्यंत बुरा समझते हैं। हमें विश्वास है कि यह अधिक काल तक नहीं रह सकता, क्योंकि राष्ट्र का निर्माण और देश का उत्थान उच्छृंखलता या त्याग और भक्ति के ढोंग से नहीं हुआ करता। तपस्या की खरी आँच उन्नति का मूलाधार है। तपस्या से डरने वाले लोगों में उन अंशों का समावेश नहीं, जिनसे जातियों और देशों का उत्थान और विकास होता है। हमारा देश बढ़ेगा और अवश्य बढ़ेगा और इसीलिए देश की यह भ्रष्ट प्रणाली घटे और अवश्य घटेगी, परंतु यदि इस प्रणाली के ह्रास के दिन आने वाले न हों, सार्वजनिक जीवन का रूप ही यह हो, घात-प्रतिघात और अविश्वास का यह बवंडर ही जीवन के चिन्ह का दूसरा नाम हो, उच्छृंखलता और नीचता ही इसके अस्त्र हों, और देशभक्ति और राष्ट्रीयता इसका बाहरी बना, तो हम हृदय से कहेंगे कि स्वाधीनता और उन्नति, देश भक्ति और राष्ट्रीयता, सार्वजनिक जीवन और संगठन ऐसी वस्तुएँ कदापि नहीं, जिनके लिए प्राण दिया जाये और दुर्भाग्य है उसका, जो अमृत के धोखे में विष का पान करे।