हमारी भी गिनती हो गई / जयप्रकाश चौकसे
हमारी भी गिनती हो गई
प्रकाशन तिथि : 16 फरवरी 2011
टेलीविजन पर बार-बार दिखाई जा रही एक विज्ञापन फिल्म में एक बच्चा फटी हुई पतंग लूटकर बेहद संकरी गलियों में दौड़ रहा है। बाद में एक गरीब परिवार का चित्र उभरता है और हम सुनते हैं, 'हमारी भी गिनती हो गई'। यह मतगणना के प्रचार के लिए किया गया है। फिल्मों की इस शृंखला में गांव, कस्बे और शहरों के गरीब व मध्यम वर्ग के परिवार दिखाए गए हैं। एक चित्र में नवजात शिशु को भी सगर्व गिनती में शुमार बताया गया है। जनगणना देश के लिए आवश्यक है और समाज के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है।
इस शृंखला को देखकर मन में कई बातें उठीं। मनुष्य की अंतडिय़ों से थोड़ी बड़ी गलियों में भागता वह बच्चा क्या कभी सफलता के राजपथ पर दौड़ पाएगा? गिनती में शुमार वह नवजात शिशु जब जवान होगा, तब उसका जीवन कितना कठिन होगा? इस शृंखला में किसी अमीर परिवार को नहीं दिखाया गया है, क्योंकि यह मान लिया गया है कि वे शिक्षित हैं और मतगणना में उन्होंने स्वयं सहयोग किया होगा। हमने कुछ ऐसी व्यवस्था गढ़ी है कि 'गिनती में शुमार' लोग महज आंकड़ा ही बने रहेंगे और 'गिनती से परे' कुछ सुविधा संपन्न लोग हैं, जिन्हें राष्ट्रीय संपदा में हमेशा जरूरत से ज्यादा मिलता रहेगा। हमारा गणतंत्र अब थोड़े-से लोगों का, थोड़े-से लोगों द्वारा संचालित और थोड़े-से लोगों के लिए ही रह गया है। यह बहुजन हिताय समाज नहीं है। जाने उस वादे का क्या हुआ कि कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति के आंसू भी पोंछ दिए जाएंगे।
असमानता से संचालित समाज में अधिकांश लोग महज गिनती के लिए ही काम आते हैं। कक्षा में पढ़ाया हुआ गणित अब जीवन में काम नहीं आता। हम सब अब नाम नहीं, व्यक्ति नहीं, महज नंबर हैं और प्रतिशत की कसरत में हमारा बहुत महत्व है। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि सड़ांध भरी व्यवस्था के बावजूद कुछ प्रगति तो हो ही रही है और कई विशेषज्ञ आने वाले समय में भारत को एक शक्ति के रूप में देख रहे हैं। धन्य हैं इस देश के उद्यमी जो तमाम रुकावटों के बाद नए उद्योग खोल लेतेे हैं और मुनाफा भी कमाते हैं। सफलता की सड़क पर सरकारी विभाग स्पीड ब्रेकर की तरह हैं और इतनी रुकावटों के बाद भी प्रगति हो रही है।
एक साधारण से उद्योग की स्थापना के लिए दर्जनों विभागों से प्रमाण-पत्र लेना होता है और लागत बढ़ जाती है। एक ट्रक मुंबई से दिल्ली जाते हुए औसतन हजार रुपए की रिश्वत विभिन्न ठिकानों पर देता है और यह राशि वह अपने खर्च में जोड़कर ही अपना किराया वसूल करता है। अत: इस रिश्वत का भार भी उपभोक्ता पर ही पड़ता है। क्या रिश्वतखोर जानता है कि उसकी एक जेब में डाला हुआ माल दूसरी जेब से निकाला जा रहा है? इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि अगर पूरा देश कुछ समय के लिए ही भ्रष्टाचार छोड़कर एकजुट होकर खड़ा हो जाए तो क्या होगा? कहीं तमाम नेता और अफसर जाग जाएं तो क्या होगा?
इस समय मीर तकी मीर की एक नज्म पर गौर करें -'ए झूठ! आज शहर में तेरा ही दौर है, शेवा (चलन) यही सबों का, यही सब का तौर है।
ए झूठ! तू शआर (तरीका) हुआ सारे खल्क का, क्या शाह का वजीर का, क्या अहले-दल्क का।
ए झूठ! तेरे शहर में हैं ताबिई (अधीन) सभी मर जाए, क्यों न कोई वे बोलें न सच कभी।'