हमारे आगे हिन्दुस्तान / सतीश दुबे
शाम के उस चिपचिपे वातावरण में वह अपने मित्र के साथ तफरी करने के इरादे से सड़क नाप रहा था।
उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने खादी का कुरता-पाजामा तथा पैरों में मोटे चप्पल डाल रखे थे, तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला लग रही थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, \ उसने कुछ अनुभव किया तथा मित्र से कहा—देखो, हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।
—क्या मतलब। क्या ये एम.एल.ए., भूतपूर्व मन्त्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हैं... ?
—ऊँ-हूँ...तुमने जो नाम गिनवाये हैं, उनमें से यदि कोई ऐसे घूमे तो उनकी नाक नहीं कट जायेगी...।
—फिर तुमने कैसे कह दिया कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?–मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमायीं।
—यह तो वो ही बतायेंगे। आओ, मेरे साथ।
वे दोनों कुछ हटकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थीः
दोनों बच्चों को कपड़े तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता, पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्ज़त तो बनाके रखना ज़रूरी है ना...।
उन्होंने देखा, पत्नी मंद-मंद मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नज़र आ रहा था।