हमारे जमाने के पिताजी / अरविंद कुमार
जब मैं 'हमारा जमाना' या 'हमारे जमाने' शब्दों का इस्तेमाल करता हूँ, तो यह प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक है कि ये 'हमारा ज़माना' है कौन-सी बला? 'हमारा जमाना' गुजर चुका है या फिर खुद के अभी तक जवान होने के गुमान की तरह 'हमारा जमाना' भी बदस्तूर और बाकायदा जवान है।
जब मैं इस बारे में और सोच विचार करने लगता हूँ तो मुझे मशहूर और मरहूम अभिनेता फीरोज़ खान साहब का एक फ़िल्मी संवाद याद आने लगता है "...अभी हम जिंदा हैं"। गोया जिंदा और जिंदादिल लोगों का जमाना कभी जाता नहीं, इसलिए मेरा यह कहना कि 'हमारे जमाने के पिताजी' स्वत: ही सवालों के घेरे में आ जाता है। परन्तु जब मैं अपनी ही तरह जवानी के रास्ते पर हांफते हारते यारों दोस्तों, नाते रिश्तेदारों और सहकर्मियों को ठंडी आह भरकर 'हमारे जमाने' की दुहाई देते देखता हूँ, तो भरे मन से ही सही, यकीन करने पर मजबूर हो जाता हूँ कि जब 'इनका जमाना' गुज़रे जमाने की चीज़ हो गया है, तो हमारा भी गुजर ही गया होगा।
जब मैं आजकल पिता, पापा या डैडी को देखता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे जमाने के मुकाबले आजकल के पिताजी, पापा या डैडी के रूतबे में खासी गिरावट आ गयी है। और जब मैं इस गिरावट के कारणों की पड़ताल करता हूँ तो पाता हूँ कि हमारे जमाने के पिताजी रुतबे और रूआब के मामले में अगर मुगले आजम थे तो आज के पिता कि हैसियत अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर जैसी हो गयी है।
घर की सरकार में राष्ट्रपति की स्थिति में स्वयं को रखकर जो पिता खुश हैं उनकी जान बची हुयी है वर्ना जो अपनी चलाना चाहते हैं उनकी सत्ता को उनके बच्चे एक झटके में ऐसे उखाड़ फेंकते हैं जैसे दुनिया के अधिकांश देशों से वहाँ की जनता ने राजशाही को उखाड़कर फेंक दिया है। समझदार पिता अन्तर्राष्ट्रीय मसलो जैसे 'भारत की विदेश नीति' , 'शीत युद्ध की नई आहट' आदि पर मसलों पर अपनी राय मान लिए जाने से ही खुश हो जाते हैं। जबकि घर की समस्त आय को व्यय करने जैसे नितांत महत्त्वहीन मुद्दों पर बच्चों और बच्चों की मम्मी के निर्णय में टांग अड़ाकर वे अपने रुतबे को खतरे में डालने का जोखिम नहीं उठाते।
अब से तीस पैतीस बरस पहले तक पिता का जो रूतबा था, उसकी कल्पना पिता को दोस्त और यार मानने वाले आजकल के बेटे बेटियाँ कर ही नहीं सकते। उस जमाने में कितना भी उदार और सहिष्णु पिता क्यों ना रहा हो परन्तु पिता पुत्र संवाद हमेशा ही तल्खी और तुर्सी भरे ही रहते थे। पिता का जलबो जलाल हमारे जमाने तक मुगले आजम जैसा ही था। खनकती हुयी दमदार आवाज़ में हर पिता उस जमाने में शहंशाह अकबर की तरह ही अपने विद्रोही बेटे सलीम को उसकी हैसियत और औकात बताने को हमेशा तैयार रहता था। यह कहना मुश्किल है कि। हिंदी फ़िल्मों को देखकर हमारे जमाने के पिताओं ने अपना आतंक कायम रखना सीखा था या फिर पिताओं को देखकर ही हमारे जमाने में हिन्दी फ़िल्मो में पिता का चरित्र लिखा जाता था।
पर एक बात तय है कि हमारे जमाने में अधिकांश भारतीय परिवारों में पिता का मुगले आजम वाला जलवा कायम था। मुगले आजम के सलीम की तर्ज़ पर हमारे जमाने के बेटे भी गाहे बगाहे बगावत का झंडा उठाने से पीछे नहीं हटते थे। पर मुगलिया दौर की तरह ही अंतत: हमारे जमाने के सलीम की नियति भी मुगले आजम के आगे सिर झुकाना ही होता था।
कई बार तब बड़ी अजीबो गरीब स्थिति उत्पन्न हो जाती थी जब हम अपने किसी मित्र के समक्ष उसके पिता कि उदारता और सह्रदयता कि प्रशंसा कर रहे होते थे और पिता के रूतबे की आंच में झुलसा मित्र हमारी तारीफ से भीतर तक जलता सुलगता राख होता रहता था। उस जमाने में मेरे साथ भी एक ऐसा ही वाकया पेश आया।
हमारे एक मित्र थे शुक्ला जी। शुक्ला जी ने अपने गाँव में किसी खास मौके पर हमारी पूरी मित्रमंडली को आमंत्रित किया। गाँव में शुक्ला जी के पिताजी की उदारता और सह्रदयता, हम अपने-अपने पिता से सताए हुए लालों को सुखद आश्चर्य से भर रही थी। शुक्ला जी के पिताजी की मधुर वाणी हमें कर्णप्रिय कम हमारी शुक्ला जी के भाग्य से ईर्ष्या करने का कारण अधिक बनती जा रही थी, हमारी हर ज़रूरत के प्रति शुक्ला जी के पिताजी की अतिरिक्त सजगता, बेटे के मित्रो से उनका मधुर मित्रवत व्यवहार हमे आशंकित कर रहा था।
हम यकीन ही नहीं कर पा रहे थे कि इतने दयालु और शहद से मीठे पिता यहीं इसी धरती पर पाए जाते हैं। हमने उन्हें बहाने से छू-छू कर भी देखा कि वे कही एलियन तो नहीं। जब हर तरह से यकीन हो गया कि शुक्ल जी के पिताजी भी हमारी तरह ही इस म्रत्यु लोक के वासी हैं और मंगल गृह से नहीं मंगाए गये हैं, तब इस विकट शंका का समूल समाधान करने की गरज से हमारी मित्रमंडली के सबसे धीर गम्भीर सदस्य गुप्ताजी ने शुक्ला जी से ही पूंछ लेने का मन बनाया।
प्रश्न की भूमिका बनाते हुए गुप्ता जी ने कहा "वाह पिताजी हों तो शुक्ला जी के पिताजी जैसे हों वर्ना ना हों। मैं तो घर पहुँचते ही माताजी से आग्रह करूँगा कि वे मुझे शुक्ला जी के पिताजी को अपना पिता बनाने की अनुमति प्रदान कर दे।"
पिताजी की प्रशंसा से इतनी देर से जल फुंक रहे शुक्ला जी से अब और नहीं रहा गया। और वे बोल ही पड़े "गुप्ता जी आप पापा को अपना पिताजी बनाना चाह रहे हो तो आज ही बना लो। और जब इन्हें बाप बना लोगे तब पता चलेगा कैसे हिटलर बाप से पाला पड़ा है। ?" शुक्ला जी के रोष से भीतर ही भीतर हमे अपार संतोष की अनुभूति हुयी। हम जान गये कि परमात्मा ने पिता प्रदान करते समय कोई भेदभाव नहीं बरता था। शुक्ला जी के भाग्य में पिता अंकित करते समय भी विधाता ने वही कलम इस्तेमाल की थी जिसका प्रयोग उसने हमारे लिए पिता का नाम लिखते समय किया था। ये तो हमे बहुत बाद में अनुभव हुआ कि हमारे जमाने के सारे पिता रूतबा जताने और उसे बनाये रखने के मामले में एक जैसे होते थे।
हमारे जमाने में लगभग हर घर में पिता के घर के भीतर प्रवेश करते ही घर में अघोषित कर्फ्यू लग जाता था। हमारे बीच संवाद का सेतु माँ ही होती थी। वह हमारी ज़रूरत के हर प्रस्ताव को पिताजी तक पहुँचाने का जरिया होती थी ...हमारे उचित अनुचित प्रस्तावों को कब और कैसे पिताजी के समक्ष रखना है यह कार्य अन्तराष्ट्रीय राजनय से कम कौशल की मांग नहीं करता था। पर माँ जानती थी कि कब नर्म पड़ना और कब गर्म, कब उखड़ना है और कब संभलना। माँ ही हमारी 'स्पोक्स पर्सन' होती थी।
पिताजी के ना कहने के बाद उनसे कुछ भी निकलवाना परमाणु विस्फोट के बाद देश पर लगे प्रतिबंधों के बीच अन्तराष्ट्रीय सहायता पा लेने जैसे कठिन कार्य की तरह ही मुश्किल होता था परन्तु माँ अपनी कूटनीति से हमारे लिए पिताजी से कुछ न कुछ सुविधायें, पैसे और अनुमतियाँ झटक ही लेती थीं।
। मेरे पिताजी उस जमाने के पिताओं का संपूर्ण प्रतिनिधित्व करते थे। वे हमारे पहले गुरु भी थे। गाँव के स्कूल में पाकड़ के पेड़ के नीचे टाट पट्टी पर बैठकर हमने शिक्षा ज़्यादा प्राप्त की या लोट ज़्यादा लगाई (पिताजी के हाथों पिटते हुए) यह मैं आज तक तय नहीं कर पाया। आज भी जब मैं दर्पण में अपने लंबे कानों को निहारता हूँ तो मुझे विश्वास हो जाता है कि गणेश जी के बड़े-बड़े कान हाथी का सिर लगा होने के कारण बड़े नहीं हैं। अपितु भगवान शंकर ने बाल गणेश को पढाते समय यत्न पूर्वक इन कानों को वैसे ही बड़ा किया है जैसे मेरे पिताजी किया था।
हमारे पिताजी कवि थे और मुझे भी उनकी ही तरह कविता करने का वरदान (ऐसा मैं मानता हूँ) प्राप्त है। हमारे जमाने में मोबाइल कम ही आये थे और टेलीफोन के लिए पड़ोसी के नम्बर जिसे हम पी-पी नम्बर बोलते थे पर निर्भर करते थे। इसलिए जब मैं कालेज की पढाई के लिए गाँव से शहर आया तो हम पिता पुत्र के बीच संवाद का माध्यम अंतर्देशीय पत्र बना। अक्सर महीने में एक दो बार पिताजी के निर्देश पत्र के माध्यम से आते और मैं पोस्टकार्ड द्वारा उनके अमल किये जाने की सूचना बिना नागा भेजता रहता। एक बार पिताजी ने अपने कवित्व पूर्ण पत्र में संस्क्रत के श्लोक के साथ नैतिकता के आदर्शों से ओतप्रोत पत्र भेजा जिसे पढ़कर मेरे भीतर का कवि भी जाग गया। मैंने कविता कि जिस भी विधा मेरा मतलब दोहा, चौपाई या फिर मुक्तक छंद का इस्तेमाल किया हो पर उसके प्रत्युत्तर में पिताजी का वार्निग लेटर जैसा पत्र प्राप्त हुआ। पत्र का निहितार्थ यह था कि जब कविता लिखने की तमीज़ नहीं है तो शब्दों पर रहम कर जो भी लिखना हो, सीधे-सीधे लिखा करो।
ऐसा नहीं था कि पिताजी की हिदायतों और चेतावनियों को सिर्फ़ मैंने ही झेला था मुझसे पहले मेरे बड़े भाई साहब भी ऐसे ही एक हादसे का शिकार हो चुके थे। उन दिनों हमारे बड़े भाई साहब ने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर ग्रेजुएशन करने के लिए शहर के कालेज में दाखिला लिया था। उस जमाने में पिताजी ने जो धनराशि अपने मासिक बजट में से भाई साहब के लिए स्वीकृत की थी उसे मुकाबले मनरेगा में मजदूर को मिलने वाली राशि बहुत आकर्षक लग सकती है।
मुझे याद है कि भाई साहब ने एक बार अपनी जेब की खस्ता हालत और ज़रूरतों का वास्ता देते हुए रामचरित मानस के पात्रों के माध्यम से उद्धरण देते हुए, एक काव्यमय पत्र पिताजी को लिखा था। भाई साहब ने जो पत्र लिखा उसका लब्बो लुआब यह था कि शिक्षा ग्रहण करने के नाम पर आपने मुझे ये जो शहरी वनवास दिया है, उससे जूझने की सामर्थ्य उनमे नहीं है। ज़रूरतों के राक्षसों से लड़ने के लिए धन की दैवीय सहायता अविलम्ब भेजिए। पिताजी ने धन तो खैर क्या भेजा उस मार्मिक काव्यात्मक अपील का मर्मान्तक प्रत्युत्तर अवश्य लौटती डाक से भेज दिया जिसकी दो पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं। पंक्तियाँ यूँ थीं
अर्थ से असमर्थ हूँ मैं, तुम मूर्खता के धाम भी हो
यदि नहीं दशरथ हूँ मैं, तो नहीं तुम राम भी हो
एक बार हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता पढ़ी। जिसमे कवि ने पहले तो पिताजी के आतंक और रूतबे का ही ज़िक्र किया था परन्तु अंत में कवियों वाली चतुरता दिखाते हुए लिखा
पिताजी भोले बहादुर, गीत मन, नवनीत-सा उर।
यह पंक्तियाँ पढ़कर मेरा मन किया कि कहीं भवानी दादा से मुलाकात हो जाये तो यह ज़रूर पूंछू कि दादा ऐसा भी क्या पिताजी से डरना जो आपने इतना नवनीत लेपन कर डाला।
आज जब मैं अपने बच्चों को देखता हूँ तो अक्सर अपनी तुलना अपने स्वर्गीय पिताजी से करने लगता हूँ। मैं पिताजी के आतंक और रूतबे की छाया मात्र भी नहीं हूँ। बच्चे तो क्या चूहे से डरने वाली मेरी श्रीमती जी भी मुझे शेरनी नजर आती हैं। बच्चों को अपनी फरमाइश हम तक पहुँचाने के लिए किसी मध्यस्थ की ज़रूरत तो तब हो जब उनकी पहुँच हमारे बटुए तक ना हो। हाँ! उन्होंने इतना लिहाज़ अवश्य बना रखा है कि बटुए के पूरा खाली होने से पूर्व बता देते हैं कि फलां चीज़ लाने के लिए उन्होंने बटुए में से आखिरी पांच का सिक्का भी निकाल लिया है। बच्चों की इस सदाशयता के लिए मन ही मन हजार तरह से उस परम पिता परमात्मा का आभार ज्ञापित करते हुए अक्सर हम अपने पिताजी के रुतबे और आतंक का स्मरण कर ठंडी आह भरकर रह जाते हैं।